सत्य ही वर्तता और वर्तमान ही सत्य || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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सत्य ही वर्तता और वर्तमान ही सत्य || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: ‘एकमेव अद्वितीय्म’ में कहा गया है कि सृष्टी बन जाने के बाद अब भी वह सद्वस्तु वैसी की वैसी ही है, इसे कैसे समझे?

आचार्य प्रशांत: सृष्टी बन जाने के बाद, सृष्टी बन जाने के पहले इन सब संद्धर्भो में नहीं बात कि जा सकती है सद्वस्तु की। तुम ये मान ही रहे हो कि समय का प्रवाह है उसमें एक बिंदु पर किसी सद्वस्तु से ये संसार बन जाता है। तुम कहते हो एक क्षण आता है जब ये संसार बन जाता है और उस क्षण से पहले संसार नहीं था सिर्फ वो सद्वस्तु थी, परमात्मा था या शून्य था।

मन इतना रमा हुआ है समय में कि उसने समय को सृष्टी से और सद्वस्तु से दोनों से ऊपर बैठा दिया है। वो कह रहा है समय तो है ही समय तो चल ही रहा है। सृष्टी के पहले भी समय था, सृष्टी के बाद भी समय होगा। समय सृष्टी ही है। सृष्टी के बाद क्या समय होगा, सृष्टी से पहले क्या समय होगा? ये इस तरीके के जो सवाल होते है की सृष्टी से पहले क्या था? ये बड़े मूर्खता पूर्ण सवाल होते है।

दिक्कत इसमें ये आती है कि मन के लिए ये कल्पना ही कर पाना बड़ा मुश्किल है की समयातीत क्या है। मन यहाँ तक तो कल्पना कर ले जाता है की कोई बड़ा विस्फोट हुआ, उस से सृष्टी अस्तित्व में आ गयी और ये सब एक कहानी की तरह हमारी आँखों के सामने कौंध जाता है। विज्ञान ने तो बिग बैंग थ्योरी दे ही दी है और इस तरह की और सिद्धान्त भी जो समय में ही चलती है। पंथों ने धर्मो ने भी इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं सोचा है कि ब्रह्मा ने सृष्टी की रचना कि और रचना से पहले भी तो ब्रह्मा थे। अब रचना से पहले कहाँ कुछ हो सकता है। पहले और बाद, ये दोनों तो शब्द ही समय के भीतर है, पहले और बाद में ये दोनों तो शब्द ही समय के भीतर हैं।

भगवान ने ब्रह्मांड बनाया। खुदा ने कायनात बनायी। ये जितने भी इस तरीके के मॉडल है उनमें एक बड़ी मूल भूल है। वो समय को स्थापित किये रहते हैं। उनमे ये बोध ही कहीं नहीं है कि सृष्टी से पहले समय कहाँ से आ गया? वो सृष्टी में इतना तो देखते हैं कि आकाश का विस्तार है, स्पेस है, वो ये तो देखते है इतना तो वो मानने को तैयार रहते है की सृष्टी का मतलब है, विस्तार। पर वो ये नहीं देख पाते है कि सृष्टी का मतलब सिर्फ स्थान ही नहीं समय भी है। और बिना समय के स्थान हो नही सकता। तुम्हारा सवाल भी वहीं से आ रहा है, तुम पूछ रहे हो की सृष्टी बन जाने के बाद भी वह सर्वस्त्व वैसी की वैसी है; कोई सृष्टि कभी बनी ही नहीं पहले या बाद का सवाल ही नहीं पैदा होता।

तुम्हारे मन में जो सोच चल रही है वो ये है की कोई सद्वस्तु है और उसने कोई सृष्टि बनायी है और वो सद्वस्तु अपनी जगह बैठी हुई है। ये वही बचपन में पढ़ी पढाई बातें है कि एक इश्वर है उसने दुनिया बना दी है, दुनिया चल रही है और वो इश्वर कही बैठा हुआ है। सत्य इन कहानियों से बहुत अलग और बहुत सरल है। कोई दुनिया चल नहीं रही है और ना कभी कोई दुनिया बनायी गयी। इस क्षणके अतिरिक्त और कोई सत्य है ही नहीं। अतीत जैसा कुछ होता ही नही है तो तुम्हारी इस कल्पना का कोई अर्थ ही नहीं है की सृष्टी बन जाने के बाद और सृष्टी बन जाने से पहले। सृष्टी कभी नहीं बनी।

जो लोग इन कल्पनाओं में जीते हों कि कभी किसी ने सृष्टी बनायी थी, कभी किसी समय सृष्टी बनी थी और कभी किसी समय सृष्टी का अंत भी होगा, प्रलय हो जायेगा, कयामत आ जाएगी। जो लोग इन कल्पनाओं में जीते हों वो जरा ध्यान में जाएँ, वो थोड़ा समय को गुने, थोड़ा समझने की कोशिश करें कि समय चीज क्या है। ध्यान के अतिरिक्त इस बात को समझा नहीं जा सकता है।

कल कभी था ही नहीं और कल कभी होगा ही नहीं। मैं आपसे ये नहीं कह रहा हूँ वही आम ढर्रों वाली बात की अतीत को महत्व मत दो और भविष्य को महत्व मत दो। ना, मैं कुछ और कह रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ अतीत कभी था ही नहीं और भविष्य कभी होगा ही नहीं। जो है वो यही क्षण है, उस क्षण में मन का एक काल्पनिक प्रवाह है और कुछ नहीं है। यदि कभी सृष्टी कि रचना हुई तो अभी हुई और यदि कभी सृष्टी का प्रलय होगा तो अभी होगा।

दूसरे शब्दों में सृष्टी की निरंतर रचना है, निरंतर। कहीं कोई सृष्टी कर्ता नहीं बैठा है जिसने अतीत में सृष्टी की रचना की हो; ये हो रही है रचना, अभी ये यही। कहीं कोई सृष्टीकर्ता नहीं बैठा है रचना करने के लिए और कहीं कोई आखिरी दिन नहीं आने वाला है। कोई है ही नहीं आखिरी दिन तो आयेगा कहाँ से, मन की कल्पना है। आप अभी से दो क्षण पहले में नहीं जा सकते, आप अभी से दो क्षण बाद में नहीं जा सकते है। कल्पना करे जाइये, कल्पना का तो कोई अंत नहीं है, कल्पना करे जाइये। आप जब इनमें सबमें नहीं जा सकते है तो फिर आपको ये हक़ किसने दिया कि आप अरबो करोड़ों वर्ष पूर्व चले जाएँ और अरबो करोड़ो वर्ष आगे चले जाएँ।

ये बात हमारे जीवन में उथल-पुथल ले आ देती है, इसलिए मन इसको आसानी से स्वीकार करता नहीं है। ये बात बिलकुल उथल-पुथल ले आ देती है की कल जैसी कोई चीज है ही नहीं; महत्वहीन नहीं है, है ही नहीं। हमें बड़ी दिक्कत हो जाती है हम पूछना चाहते हैं की अगर कल नही है तो ये सारा फिर बदलाव कहाँ से आ रहा है? तो मैं पूछता हूँ बदलाव कहा है? क्या बदला? आप कहते है कल मैं कुछ और था आज मैं कुछ और हूँ। मैं कहता हूँ वो कहाँ है जिसको आप कह रहे थे कुछ और था और अपको कैसे पता स्मिरिति के अतिरिक्त की वो था भी, कैसे पता? आपको ये बात स्वयं सिद्ध लगती है कि वो तो था ही, वो ना होता तो हम कहाँ से होते। तो मैं आपसे कहता हूँ आपको ये कैसे पता कि आप है भी? आप जिस बात को प्रमाण की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं वो बेशक प्रमाण है पर जो आप कहना चाह रहे हैं उससे उल्टी बात का प्रमाण है।

आप कहते हैं कल था, कैसे था? क्योंकि मुझे याद है कि मैं कल था और मैं कल कुछ और था और बदलाव हुआ है और बदलाव हुआ है तो यानी समय बीच में था। बदलाव समय माँगता है तो आप अपने होने को समय का प्रमाण बताते हैं। आप कहते हैं समय ना होता तो मैं कहाँ से आता। मैं कहता हूँ आप ये कह रहे हैं कि आप हैं इसीलिए समय भी है और मैं आपसे कह रहा हूँ कि क्योंकि समय नहीं है इसीलिए आप भी नहीं हैं।

बड़ी दिक्कत हो जाती है समय को मानना ‘अहंकार’ के लिए बहुत जरुरी है। इसी कारण ना सिर्फ विज्ञान बल्कि ये सारे तथा कथित धर्म-पंथ भी समय को मान्यता दिये जा रहे हैं। समय अगर टूट गया तो आपको टूटना पड़ेगा। समय का आपकी दृष्टी में सबसे बड़ा प्रमाण है कि आप है ना, आप अभी मेरे सामने बैठे हो ५ फिट १० इंच के आप कहते हो मैं सदा तो इतना नहीं था। मैं पहले इससे कम उचाई का था मेरी उचाई बढती गई, मेरा वजन बढ़ता गया निश्चित रूप से ये सब समय में हुआ।

देखिये कि आपके तर्क की शुरुआत इस बात से होती है की मैं ५ फिट १० इंच का एक व्यक्ति हूँ। आपके तर्क की शुरुआत यही से होती है और इसको आप तथ्य माने बैठे है और अगर यही टूट गया तो समय कहाँ बचेगा इसिलए आप समय को बचाये जाते हो ताकि ये बात ना टूटे की आप ५ फिट १० इंच के एक व्यक्ति हो। आपका देह भाव बना रहे। आपकी व्यक्तिगत सत्ता बनी रही इसलिए समय को बचाये रखना आपके लिए बहुत जरुरी है।

अपनी व्यक्तिगत सत्ता को बचाये रखने के लिए आपने ब्रह्मा की और गॉड की कल्पना कर ली है। ब्रह्मा क्यों है? ताकि ५ फिट १० इंच का ये शरीर बचा रहे। अन्यथा ब्रह्मा की कोई जरूरत नहीं। ब्रह्म की है पर ब्रह्म का कोई अतीत नहीं कोई भविष्य नहीं। जब आप हटोगे आपकी व्यक्तिगत सत्ता हटेगी तो ब्रह्मा को जाना पड़ेगा, ब्रह्म शेष रह जायेगा। ‘भगवान-निर्माता’ को जाना पड़ेगा ‘रचनात्मकता’ शेष रह जाएगी। क्योंकि आपको अपने आप को बचाना है इसीलिए आप समय , समय और समय में जीए जाते हो और आप खूब गाते हो कि इतने दिन पहले, कई जगहों पे तो कई धर्मों में तो तारीख भी तय कर दी गयी है जब सृष्टी की रचना हुई थी। वो तरीके भी बता दिए गये है कि ऐसे-ऐसे रचना की गयी और कितने कितने दिन में रचना की गयी; ये फिजूल की बाते हैं। आपकी सोच के अतिरिक्त ये सब हो कहाँ रहा है।

लेकिन कठिनाई आएगी ये स्वीकार करने में क्योंकि जैसा अभी कहा कि इसको स्वीकार करने का अर्थ है अपने आप को अस्वीकार करना। यही है इस क्षण के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। बाकी जो कुछ है वो ‘मन की वृति’ है और कुछ नहीं है। ‘अहम्’ वृति है जो आपको हजार तरीके के सपने दिखा रही है। और अभी जो कुछ है उसके बारे में आप सोच नहीं सकते और जब तक अप सोचेंगे वो छुट जाएगा, फिसल जाएगा। सोचते ही वो गया। वो विचार में कैद होने वाली चीज नहीं है।

क्योंकि जैसे ही आपने सोचा, अपने पता है क्या किया? आपने समय को मान्यता दे दी। आप कोई ऐसा विचार सोच के दिखाइये जिसमे समय नाम का पात्र ना हो। आप जो भी सोचेंगे वो एक कहानी है उस कहानी है एक केन्द्रीय किरदार है समय। आप कि कोई सोच समय के बिना अपंग है चलेगी ही नहीं, हर सोच। अभी क्या है? इस बारे में आप सोच नहीं सकते। आप ये नहीं कह सकते की अभी दीवार है क्योंकि आपने दीवार कहते ही समय को स्थापित कर दिया।

अब अभी आप नहीं कह पाएँगे की अभी ये इतने लोग है, या अभी मैं हूँ। आप जो कुछ भी कहेंगे वो कहने के लिए आपको समय चाहिये। आपने कुछ और नहीं कहा फिर आपने इतना ही कह दिया की अभी समय है। आपने ये नहीं कहा कि अभी अमित है कि कुंदन है कि दीवार है कि फर्श है कि पंखा है कि बिजली है कि टी.वी. है कुछ नहीं कहा आपने। आपने सीधे-सीधे कह दिया समय है। और मन की दो ही अवस्थाएँ हैं एक जिसमें वो समय में बिलकुल बावला हो के इधर-उधर दौड़ रहा है और दूसरा जिसमें वो समाधिस्त है। एक सत्य है दूसरा कल्पना। तो अभी क्या है? जो अभी है वही सत्य है। उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। बाकि सब मन का ‘नाच’ है।

श्रोता: रिभु गीता में लिखा है कि ये पल भी बिलकुल झूठ है और ये बात भी काफी दिनों से सुनता आया हूँ की जो पल है वो यही है।

आचार्य जी: तुम जिसको पल बोलते हो वो पल क्या है? तुम क्या बोलोगे? अभी मैं वो ही तो पूँछ रहा हूँ तुमसे, तुम जब तक बोलोगे ये पल तब तक उस पल से सम्बंधित विचार उठा लोगे। अभी तो मैंने पूँछा ना की मैं कहूँ की अभी क्या है? तो तुम क्या बोलोगे? आम तौर पे जब कहा जाता है की वर्तमान में जीयो तो तुम उसका मतलब ये निकालते हो की अभी जो हो रहा है उसमे जीयो। पर अभी जो हो रहा है उसे कुछ कहने के लिए तुम्हें समय बीच में लाना पड़ेगा, गड़-बड़ हो गयी। वर्तमान इस पल का नाम नहीं है, वर्तमान का अर्थ है मैं कई बार पहले कह चुका हूँ, फिर दोहराता हू। वर्तमान का अर्थ है वो जो है , वर्तमान ‘इस क्षण’ का नाम नहीं है। जो लोग इस तरह का प्रचार करते रहे हैं वो कुछ नहीं समझते क्योंकि अगर आप ‘इस क्षण’ को लाओगे तो आपको उसके साथ अतीत और भविष्य को भी लाना पड़ेगा। उसके बिना ‘इस क्षण’ की कोई वैधता नहीं है।

वर्तमान का अर्थ है, वो जो है और वो जो है वो कल्पना का विषय नहीं है। वो दृष्टी से नहीं पकड़ में आयेगा कि आप कहिये वो जो है, क्या? दीवार। बहुत बढ़िया किया आपने। आपने सत्य को आँखों से पकड़ लिया। बोलो ‘इस क्षण में जियो’ और ‘इस क्षण से क्या अर्थ अर्थ है?’ सात बज के पन्द्रह मिनट ‘इस क्षण’ बहुत बढ़िया किया आपने ‘इस क्षण’ को अपने समय के प्रवाह में दाल दिया।

फिर जब इस तरीके की मूर्खतापूर्ण बातें की जाती है कि ‘इस क्षण में जियो’ का मतलब ये है की अतीत और भविष्य को छोड़ो, अभी में जीयो। तो उसका सिर्फ एक ही अर्थ रह जाता है की जो तुम्हें कल भोगना था वो आज ही भोग लो और खूब दुरूपयोग होता है। तो इसलिए आप पायेंगे कि बहुत सारे लोगों को और बहुत सारे प्रचारकों को ये सन्देश बहुत पसंद आता है की अभी में जीयो क्योंकि इसका फिर अर्थ ये ही हो जाता है कि कल के लिए कुछ मत छोड़ो।

धैर्य , विरोध , विवेक इनकी कोई आवश्यकता नहीं है। जम करके भोगो ‘अभी,’ कल पता नहीं ये शरीर बचे ना बचे, अभी भोग लो। तो जब भी तुम ‘इस क्षण’ का ये अर्थ निकालोगे कि ‘क्या हो रहा हिया अभी?’ बड़ी दिक्कत हो जाएगी। अर्थ का अनर्थ हो जायेगा।

‘यहाँ’ का अर्थ ये नहीं है की ये स्थान। ‘यहाँ” का अर्थ है स्थान के पार हो जाना लोकातीत हो जाना। ‘अभी’ का अर्थ नहीं है यह पल, ‘अभी’ का अर्थ है कालातीत हो जाना। समय के पार चले जाना, ये समाधि की स्तिथियाँ है, ये समय और स्थान की स्तिथियाँ नहीं हैं, ये समाधि है। ये सत्य है।

हमारी अपूर्णता इतनी गहरी है की बिना भविष्य के हमारा काम चलता नहीं। हम लगातार इस आसरे पर जीते है कि कल आएगा और जो कुछ शेष है वो दे जाएगा। निषेश्ता को हमने जाना नही है। कल अगर छीन जाये तो हम बिलबिलाना शुरू कर देंगे। इस दुनिया से अगर आप कल छिन लीजिये तो ये गिर पड़ेगी।

आंतरिक अपूर्णता को भरने के लिए भविष्य का सहारा बहुत जरुरी है।

आप एक जेब कतरे को माफ़ कर सकते है आप एक डकैत को भी माफ़ कर सकते है पर आपके लिए एक संत को माफ़ करना बहुत मुस्किल हो जाता है। डकैत आपसे अधिक से अधिक वो छेनता है जो आपके पास आपके अनुसार अभी है। संत आपसे आपका पूरा भविष्य छीन लेता है। और अभी तो जो आपके पास है उससे आप वैसे भी संतुष्ट नहीं थे आप उसको २ कौड़ी का समझते थे आप जी ही भविष्य के संबल पे रहे हो। भविष्य आयेगा और कुछ दे जाएगा।

आपसे पूँछा जाए कि अपने सामान की सूची बताइये, उसमे पहला नंबर रखिये भविष्य। वो

आपकी सबसे बड़ी पूँजी है, *भविष्य।* संत आपसे आपकी सबसे बड़ी पूँजी छीन लेता है। आप उसे माफ़ नहीं कर सकते हैं। वो डकैतों का डकैत है।

अभी आपके पास जो है वो तो आपको वैसे भी ज्यादा लगता नहीं, तो डकैत आपके आपसे कुछ छिन भी गया तो आप कहते हो क्या ले गया? अरे! हमे तो जो मिलना है वो कल मिलना है। और आपको अगर कहा जाए बुढाऊ ख़त्म होने वाले कल कब मिलेगा? तो आप कहोगे अगले जन्म में मिलना है। भविष्य तो अपने बनाये रखने के बहुत तरीके इजाद किये है ना? पुन्र जन्म हो गया, संतान हो गयी; भविष्य तो बहता रहना चाहिए। इन सब चक्करों में मत पड़ा करो। ये सारे देवी-देवता, शिव रहस्यम पढ़ रहे थे ना रिभु गीता। ये सब देवी-देवता इन्होने इंसान को नहीं बनाया है, इंसान ने इन्हें बनाया है। इनका कोई बड़ा महात्मय नहीं है। ये सब तुम्हारे ढाई इंच के कटोरे से निकले हैं। तो कितने बड़े होंगे? हाँ, ये हो सकता है कि तुम्हारे कटोरे में छोटे-छोटे गुब्बारे रखे थे, वो बाहर निकल के फूल गए तो बहुत बड़े लगने लगे। पंक्चर कर दो, फिर उतने ही बड़े हो जाएँगे। इतने ही बड़े हैं वो, इसे ज्यादा बड़े नही है।

तुम्हें कभी किसी चीज़ का आकार नापना हो तो तुम्हें उसके लिए किसी इंची टेप की जरूरत नहीं है। बस इतना कह दिया करो जितना भी है ढाई इंच से नीचे है। (उदाहरण देते हुए) इन साहब का बहुत बड़ा मकान है, ढाई इंच से तो छोटा ही होगा। साहब हमारा देश बहुत बड़ा है; ढाई इंच से तो छोटा ही है ना क्योंकि निकला कहाँ से है?

श्रोता: (सभी एक साथ ) ढाई इंच से।

आचार्य जी: जो ढाई इंच से निकला है वो पौनेतीन इंच का भी कैसे हो सकता है। मैं तुम्हें बहुत-बहुत प्यार करता हूँ एक इंच होगा नहीं तो डेढ़ इंच होगा। निकला तो यहीं से है। निकला तो यही से है, सब मानसिक है।

ना कोई प्रभव है, ना कोई प्रलय है, मात्र सत्य है। ना कोई पहला दिन था ना कोई आखिरी दिन होगा। दिन ही मिथ्या है, दिन ही कल्पना है।

और ये कभी मत भूलना की ये सारे काम करे किस खातिर जा रहे हैं? राम-कृष्ण की वो कहानी हमेशा याद रखना की चील बहुत ऊँचा उड़ती है पर उड़ती ऊँचा सिर्फ इसीलिए है ताकि मरे हुए चूहे पे झपटा मार सके। तुम कितनी भी ऊँची से ऊँची बात करलो तुम्हारी नज़र थोड़े से सढ़े हुए माँस पर ही है। तुम अपने आप को माँस के इस पिंड से संयुक्त रख सको इसके लिए तुमने दुनिया भर की बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ रच डाली हैं। क्योंकि तुम्हें ये मान के चलना है की मैं शरीर हूँ, बस इतने से प्रयोजन के लिए दुनिया भर के ग्रंथ पुराण और धर्म रच डाले हैं।

मैं ‘देह’ बना रहूँ इसके लिए तुमने ईश्वर(गॉड) बैठा दिया और पूरी कहानी बता दी की वो ऐसे-ऐसे कर के ‘वहाँ प्रकाश होने दो’ और दुनिया बनाई और सात दिन लगाये और सब तुमने कर डाला और ब्रह्मा हैं वो बैठे हुए है कमल में और ये कर रहे हैं वो कर रहे हैं, सब तुमने कर डाला। क्यों कर डाला? ताकि तुम ये ‘देह’ बने रहो। देहाभिमान कायम रहे इसके लिए तुमने स्वर्ग-नरक पता नहीं कितने लोक, कितनी कल्पनाएँ, कितने पुराण, सब रच डाले।

शब्द-योग सत्र से उद्धरण। स्पष्टता के लिए सम्पादित।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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