सत्य और यथार्थ में अंतर || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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सत्य और यथार्थ में अंतर || आचार्य प्रशांत (2016)

आचार्य प्रशांत: ये इन सबको रीयल! (वास्तविक) क्योंकि अनरीयल (अवास्तविक) कैसे बोलोगे! भई, तुम जिसे अनरीयल बोलते हो, किस आधार पर बोलते हो? कुछ भी तुम अनरीयल कैसे बोलते हो?

प्रश्नकर्ता: जो इमैजिनेशन (कल्पना) है।

आचार्य प्रशांत: इमैजिनेशन का पैमाना क्या होता है? आप कह रहे हैं कि जो काल्पनिक है उसे आप अनरीयल , अवास्तविक बोल देते हैं। कल्पना कैसे जानते हो कि कल्पना है? क्या जब कल्पना में होते हो, तो कह पाते हो, ‘कल्पना है!’ तो कुछ काल्पनिक है ये भी तभी पता चलता है न जब कल्पना टूटती है। मतलब कल्पना की परिभाषा ही यही है कि वो सब कुछ काल्पनिक है जो खत्म हो जाये। तो ये (सामने पहाड़ की ओर इशारा करते हुए) भी फिर क्या है? काल्पनिक है! और तुम भी फिर क्या हो?

श्रोतागण: काल्पनिक।

आचार्य: तो या तो सब कुछ अवास्तविक बोलो, अनरीयल ! या सब कुछ ही रीयल (वास्तविक) बोल दो। पर चूँकि तुम अपनेआप को क्या बोलते हो? रीयल ! तो फिर ठीक है! हम यही कह देते हैं कि ये सब रीयल है। पर यदि ये सब रीयल है तो याद रखना कि तुम्हारी कल्पनाएँ भी....

श्रोतागण: रीयल हैं।

आचार्य: क्योंकि वस्तुत: तुम्हारी कल्पनाओं में और इस पत्थर और इस पहाड़ में कोई अन्तर नहीं है। जब तुम कल्पना में होते हो तो कल्पना कैसी लगती है?

श्रोता: रीयल।

आचार्य: और जब तुम इसे (फिर से पहाड़ की ओर इशारा करते हुए) देख रहे हो तो ये कैसा लग रहा है? थोड़े समय बाद कल्पना क्या होगी? गायब। औऱ थोड़े समय बाद ये सब (आसपास इशारा करते हुए) क्या होगा? गायब। तो दोनों एक ही हैं न! तो इसीलिए तथ्यों को, कल्पनाओं को, विचारों को, स्वप्नों को, संकल्पों को, नदी, पत्थर, पहाड़, और साथ-ही-साथ तुम्हारे सारे ख़याल; इन सबको एक साथ ही रीयल कह दिया जाता है। कि हाँ! ठीक है! ये सब एक हैं! औऱ इन सब को एक साथ ही रीयल बोल दो।

पर इस रीयल को सत्य मत समझ लेना, ये ट्रूथ (सत्य) नहीं है। रीयल इसलिए है क्योंकि तुम अपनेआप को रीयल समझते हो। ठीक वैसे जैसे हमने इनको इकठ्ठा करके इन सबको रीयल कह दिया, उतनी ही आसानी से तुम इन सबको इकठ्ठा करके इम्हें अनरीयल भी कह सकते हो। वो एक ही हैं।

तुम्हारा अनरीयल कहना ज़रा बेईमानी हो जायेगा। क्योंकि अब तुम कह रहे हो कि ये कुर्सी तो अनरीयल है, पर इस कुर्सी पर ये जो मैं बैठा हूँ, मैं रियल हूँ। बड़ी मजेदार बात है! कुर्सी अवास्तविक है और तुम सच्ची वस्तु हो? ये जादू कैसे हो गया?

तो इन सबको अनरीयल वो बोले जो ये भी कहने को तैयार हो कि ये (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) अनरीयल है। जब तक ये कह रहे हो, ‘ये (शरीर) रीयल है’, तो यही कह लो कि घास, मिट्टी, कुर्सी, ख़याल, ख़्वाब; सब रियल हैं। जो उड़ रही है कुर्सी, वो भी गायब होनी है, जो दिख रही है कुर्सी, ये भी गायब होनी है। जो कुर्सी ज़मीन पर रखी हुयी है, वो उड़ सकती है। जो उड़ रही है, वो गिर सकती है। अन्तर कैसे करोगे?

संसारी आदमी की समस्या ही यही है। वो ऐसी दो चीज़ों में अन्तर करता है, जिनमें कोई अन्तर है नहीं। और जहाँ वास्तव में भेद है, वहाँ वो भेद कर ही नहीं पाता। संसारी आदमी क्या करता है? वो जगत के अन्दर ही सच और झूठ का निर्धारण कर लेता है। वो कहता है, ‘जगत के भीतर ही कुछ सच है, कुछ झूठ है।’ और जो वास्तव में सच है, उसका उसे कुछ पता नहीं।

देखो, फिर कह रहा हूँ आध्यात्मिकता उनके लिये है जो उतनी साँकरी गली से गुज़रने को तैयार हों। वैज्ञानिक का मन उतना सूक्ष्म नहीं होता। तुम संसारी जीव हो, तुम्हारे लिये उत्कृष्टतम कोटि का मन वैज्ञानिक का ही है। क्योंकि तुम जहाँ खड़े हो वहाँ से वैज्ञानिक तुम्हें बहुत ऊँचा लगता है। और जहाँ अध्यात्म है, वहाँ से वैज्ञानिक बहुत बौना है। क्योंकि वैज्ञानिक हमेशा द्वैत की भाषा में बात करता है। अध्यात्म की दृष्टि से तो वैज्ञानिक ठीक वहीं है जहाँ कोई और।

प्र: जो वैज्ञानिक है, है तो वो भी...मतलब काफी संकीर्ण है। और ये जो फैक्ट्स (तथ्य) हैं, उन पर ही रहता है। पर उन्होंने बहुत सारी चीज़ों को सच कह दिया है। मतलब सत्य की जो हम परिभाषा कह रहे थे, हर कुछ झूठ बस उस एक के अलावा। तो उनकी परिभाषा गलत हो गयी है न? तभी तो वो उतनी संकरी से...।

आचार्य: वो शुरूआत ही गलत करता है। वैज्ञानिक शुरूआत ही गलत करता है। वैज्ञानिक को पत्थर दिखायी पड़ता है, तो वो तुरन्त क्या कहता है? पत्थर है! पत्थर है! ये उसने मान लिया! ये उसका अन्धविश्वास है! तो वैज्ञानिक शुरूआत ही अपने एक अन्धविश्वास से करता है। सुपरस्टीशन (अन्धविश्वास) से!

अब उसके बाद वो कहता है, ‘पत्थर क्या है।’ बात समझ रहे हो? ये उसने मान लिया पहले कि पत्थर है तो है। दिख रहा है तो है। इंद्रियाँ कह रही हैं पत्थर है तो होगा ज़रूर। ये उसने जाँचा ही नहीं कि ये इंद्रियों का खेल क्या है। पत्थर का दिखना, ये चीज़ क्या है? दिखना! ये पूरी प्रक्रिया क्या है? ये उसने नहीं जाँचा, उसने कहा, ‘पत्थर है! अब मैं ये जाँचूँगा कि पत्थर क्या है।’ तो वो पत्थर के भीतर घुसेगा, उसे काटेगा, फाटेगा, अणु, परमाणु, दुनिया भर के प्रयोग करेगा। पर वो ये कभी नहीं कहेगा कि पत्थर है कि नहीं है। तो विज्ञान के मूल में ही अन्धविश्वास बैठा हुआ है। अब जब तुम्हारी शुरूआत ही अन्धविश्वास से हुयी हो, तो आगे तुम कौन सा सत्य जान लोगे?

काल को देखने के लिये, उस पूर्ण चक्र को देखने के लिये तुम्हें अपनेआप से ज़रा आगे जाना पड़ता है। चूँकि तुम जीते हो मात्र कुछ साल, तो इसीलिए तुम्हारे जो देखने का पैमाना भी होता है न, वो कुछ सालों तक ही सीमित होता है। अनन्तता में तुम नहीं झाँक पाते। तुम सालों की भाषा में बात करते रह जाते हो। वो साल कितने भी हो सकते हैं। तुम सौ का हज़ार बना लो, हज़ार का लाख बना लो, अरब बना लो, खरब बना लो। पर चूँकि तुम्हारा देहकाल सीमित है, इसीलिए तुम हमेशा सीमित समय की ही भाषा में बात करते हो।

अब ये जो वृत्त है, वो हैअनन्त। बहुत लम्बा वृत्त! इसमें तुम हो एक छोटे से बिंदु। जब इतना बड़ा वृत्त है, तो तुम्हारा आना और जाना, वो एक ही बात है। छोटे से छोटा है! तुम अपने दीर्घ जीवनकाल, जो तुम्हारी ही नज़र में है दीर्घ, उसको लेकर के बड़े-से-बड़ा भी कर दोगे तो कितना हो जायेगा? अनन्तता की तुलना में कितना हो जायेगा?

श्रोता: बिंदु।

आचार्य: बिंदु का बिंदु ही तो रह जायेगा। तुम्हारा मन समय में चाहे जितना पीछे चला जाये चाहे जितना आगे चला जाये, कुछ उसने देख थोड़े ही लिया है। ये तो तुम्हारी अपनी आत्मा की पुकार है। ये तो अनन्त का दिया हुआ दायित्व है कि जब तुम सच को परिभाषित करने निकलते हो तो तुम कहते हो कि छोटे को हम सच मान ही नहीं सकते। अब क्यों नहीं मान सकते छोटे को सच? इसका कोई तर्क नहीं दिया जा सकता।

कोई तुमसे कहे कि तुम उसी को सच क्यों मान रहे हो जो अमर है। तुम उसको सच क्यों नहीं मान रहे जो क्षणभंगुर है। तो इसका कोई उत्तर नहीं हो सकता। ये तो तुम यही कह सकते हो कि जी नहीं करता मानने का। हम कैसे उसको सच मान लें जो आज है कल नहीं। पर हाँ, कोई हो सकता है जो सच की अपनी दूसरी परिभाषा बना ले। तुम उससे बहस नहीं कर सकते।

ये तो, वही, फिर कहा न, इसके लिए बहुत तगड़ा मन चाहिए जो कहे कि सत्य वो, जो एक बार कह दिया कि सत्य है, तो अब बदलेगा नहीं। प्रोविज़नल (अनन्तिम) नहीं हो सकता। ये नहीं कि हम कह रहे हैं सच है पर कल कोई और आकर के यदि सिद्ध कर दे झूठ है तो हम मान लेंगे। ये तो बड़ा ही नपुंसक आदमी है। तुमने कहा ही क्यों कि फिर सच है? तुम उसे कह दो कि है, कल्पना है, हमने कुछ ऐसे ही कह दिया है। फिर उसे ट्रुथ इत्यादि मत कहो।

असल में विज्ञान का सत्य से कोई लेना ही देना नहीं है। जो खरे वैज्ञानिक हैं वो ये जानते हैं और वो ये स्वीकार करते हैं कि वो मटीरियल (पदार्थ) की तहकीकात कर रहे हैं, सत्य की नहीं। उन्हें अच्छे से पता है और वहाँ तक बात ठीक है। विज्ञान कभी ये प्रश्न थोड़े ही पूछेगा कि डज़ यूनिवर्स एक्जिस्ट ? (क्या ब्रह्मांड अस्तित्व में है?)

वो ये कह देगा कि यूनिवर्स कितना पुराना है, चलो पता लगा लें! वो ये कह देगा कि चलो कौन्ट्रैक्टिंग (सिकुड़ता हुआ) है, ऐक्सपैंडिंग (बढता हुआ) है, ये पता लगा लें! पर किसी वैज्ञानिक को ये प्रश्न पूछते देखा है क्या कि ये जो दिख रहा है, ये अस्तित्वमान है भी कि नहीं। वो ये सवाल इसलिए नहीं पूछता क्योंकि अगर ये पूछोगे कि ये सब है कि नहीं तो ये भी पूछना पड़ेगा कि मैं हूँ कि नहीं। अब इसमें तुम्हारा अपना अहंकार, तुम्हारा अपना होना ही प्रश्न के दायरे में आ जाता है। तुम डर जाते हो। इतनी हिम्मत वैज्ञानिक की होती नहीं न कि अपने होने पर ही सवाल लगा दे।

फिर उसने सीधे ही कह दिया है कि मेरा पूरा शोध सत्य से सम्बन्धित है ही नहीं। तो मैं जो कुछ कर रहा हूँ, वो बाइ डेफिनेशन (परिभाषा से) कोई हल्की चीज़ है। सत्य से इसका कोई लेना-देना नहीं है। वो ये कह सकता है! कोई ईमानदारी से यही कह दे कि हम हवाई चिराग पर रिसर्च (शोध) कर रहे हैं, आकाश पुष्प पर किताबें लिख रहे हैं।, तो ठीक है! लिख सकते हो!

प्र: वो ये बताएगा ही नहीं न, तो कैसे पता चलेगा?

आचार्य: ये बेईमानी है, फिर ये बेईमानी है। या तो ये बेईमानी है या ये मानसिक अक्षमता है, दो में से एक चीज़ है। या तो तुम्हारा दिमाग कमज़ोर है तो इस कारण तुम देख ही नहीं पाये कि तुम हवा-हवाई चीज़ों की बात कर रहे हो या तुम बेईमान हो कि देख पाने के बावजूद तुमने प्रकट नहीं किया।

देखो, ये जितने लोग जिन्होंने बुद्धि चलाकर के इधर से, उधर से, तमाम तरीके की बातें कही हैं, ये वैसे ही लोग हैं, जो झूठी थाली में से बचे-खुचे दो-चार चावल के दाने चाटते हैं। ये पूरा भी चाट लेंगे तो इन्हें चार दाने मिलेंगे। ये इन्होंने पूरा भरा हुआ पात्र अस्वीकार कर दिया है, जहाँ हाथ डालते तो पूरी हथेली भर जाती। ये तो एक ऐसी जगह में घुस-घुसकर आखिरी दाना निकाल रहे हैं जहाँ दाने हैं ही नहीं।

प्लेस वैल्यू (जगह का मूल्य) जानते हो न! गणित में प्लेस वैल्यू समझते हो न! लिखा हुआ है, चौदह लाख छप्पन हज़ार तीन सौ चौबीस रूपये! चौदह लाख छप्पन हज़ार तीन सौ चौबीस रूपये! इसमें जो एक है उसकी प्लेस वैल्यू क्या है? उसकी प्लेस वैल्यू है दस लाख। और जो दो है उसकी प्लेस वैल्यू क्या है? दस।

अब कोई कहे कि मुझे आगे बढना है! मुझे आगे बढना है! मुझे चीज़ और आगे बढानी है! और वो चौदह लाख छप्पन हज़ार तीन सौ चौबीस रूपये जो लिखा हुआ है, उसमें दो को बढा कर नौ कर दे, अधिक-से-अधिक नौ तक जा सकता है न! बिलकुल सीमा तक पहुँच गया, अब नौ से आगे कहीं नहीं जा सकता। तो भी उसने क्या उखाड़ लिया? क्या कर लिया? विज्ञान ऐसा ही है। वो एक ऐसी जगह पर सीमा छूने की कोशिश कर रहा है जिसकी कोई प्लेस वैल्यू ही नहीं है।

आध्यात्मिकता ऐसी है कि ऊँचे-से-ऊँचे तक पहुँचती है। वो चौदह लाख छप्पन हज़ार तीन सौ चौबीस में अगर किसी को छुएगी तो किसको छुएगी? एक को। वो कहेगी, ‘अब वहाँ जाकर के एक को दो भी कर लिया, तो दस लाख!’ और विज्ञान अगर उस चौबीस में दो को नौ भी कर दे तो क्या पा गया? आयाम का अन्तर है, डायमेंशन (आयाम) का अन्तर है।तुम कहाँ तलाश रहे हो, इस बात का अन्तर है।

विज्ञान जहाँ तलाश रहा है, वहाँ मिलेगा ही नहीं। वहाँ तुम बहुत भी कर लोगे, तो कुछ नहीं कर पाओगे। और आध्यात्मिक मन जहाँ कर रहा है, वहाँ थोड़ा भी किया, तो बहुत हो जायेगा। इसीलिए कहता हूँ न स्पिरिचुएलिटी इज़ रियल स्मार्टनेस (अध्यात्म ही वास्तविक समझदारी है) कि वहाँ एक का दो भी किया तो कितने का मुनाफा? दस लाख। और यहाँ दो का नौ भी किया तो क्या पाये? सत्तर रूपया। लो बाबू लो और निकलो, इसी काबिल हो तुम!बिलकुल सीमा तक पहुँच गये हो और कुछ कर भी नहीं सकते। अब वहीं बैठकर झुंझलाओ, चीखो, उकताओ, चिढो! अब क्या करोगे? सीमा पर सिर मारोगे! और क्या करोगे। और वो सीमा टूटेगी नहीं। नौ तक ही जा सकते हो।

विज्ञान के साथ अब हो भी तो यही रहा है। करीब-करीब सीमा पर पहुँच गया है। वहाँ बैठकर सिर मार रहे हैं, अब करें क्या? अब आगे की रिसर्च हो भी नहीं पा रही है। प्योर फिज़िक्स (भौतिक विज्ञान) में आगे की रिसर्च रूक गयी है क्योंकि उसके आगे अब कॉन्शियसनेस (चेतना) है, मटीरियल (पदार्थ) है ही नहीं। मटीरियल में तुम आखिरी बिंदु तक पहुँच चुके हो, अब क्या कर लोगे अब? करो, बैठे रहो!

असल में ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, मनोविज्ञान और भौतिकी, फिज़िक्स और साइकॉलोजी , जो दोनों ही अपनी सीमा तक करीब-करीब पहुँच चुके हैं। मनोवैज्ञानिक को भी अब मानना पड़ेगा कि मन के द्वारा मन को देखने.. जितना काम हो सकता था कर लिया, अब इससे ज़्यादा क्या करें? इससे ज़्यादा होता है विटनेसिंग (साक्षित्व) में। वो मनोविज्ञान के दायरे में आता नहीं।

वो ऑब्ज़रवेशन (अवलोकन) करते हैं, विटनेसिंग तो वो जानते नहीं। तो वो भी वहाँ आकर अटक गये हैं, जितना कर सकते थे कर लिया, दो का नौ हो गया, अब नौ से आगे कहाँ जाओगे? भौतिकी में भी यही हो रहा है। और ये तो मैंने सिर्फ़ एक छोटी सी संख्या ली थी, चौदह लाख। और बड़ी संख्या लो! और बड़ी संख्या लो! बहुत-बहुत बड़ी संख्या ले लो! तब तुम समझो कि करना काफी नहीं है,ये देखना कि कहाँ कर रहे हो ये बहुत ज़्यादा ज़रूरी है।

अरब! खरब! तरब! वहाँ पर एक का दो करा। और यहाँ पर दस! बीस! सौ! इनमें जाकर के हिलाते रहे, क्या पाओगे? जीवन नष्ट हुआ। अब तुम समझोगे कि सन्यास का क्या अर्थ होता है। सन्यास का यही अर्थ होता है कि जब संख्या खरबों में हो तो पीछे की सारी संख्याएँ हमने छोड़ दीं। और जो आखिरी संख्या है, बस हम उसको अब पकड़ लिये हैं। वो होता है कि हिमालय पर चढ कर बैठ गये हैं गंगा किनारे, बाकी सब छोड़ दिया। क्योंकि बाकी सब में अगर कुछ हासिल कर भी लिया तो क्या हासिल करा? कुछ नहीं मिलेगा।हमने तो आखिरी चीज़ पकड़ी है, आखिरी संख्या, हाईएस्ट प्लेस वैल्यू। अब वहाँ जाकर, अब हम कुछ करेंगे। बाकियों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं। छोड़ा!

औऱ चूँकि तुम आते हो और जाते हो तो तुमने ये मान ही लिया कि यूनिवर्स भी आया होगा और जायेगा। तुम देख रहे हो न ये सब अहंकार के खेल हैं। चूँकि तुम्हारा एक आकार है इसीलिए तुम हर चीज़ का आकार निकालना चाहते हो। उसका हो ही न आकार तो?तुम्हारा जन्म हुआ था इसीलिए तुम यूनिवर्स का हैप्पी बर्थडे (शुभ जन्म दिन) मनाना चाहते हो। भाई, तुम्हारा हुआ था, उसका हुआ ही न हो तो? पर तुम्हारा हुआ था तो सबका होना है। ये ऐसी सी ही बात है कि वो बेचारा पिल्ला जो घूम रहा है वो आये और तुम्हारी दुम खोजने लगे। समझ रहे हो? और जब वो दुम खोज रहा हो तुम्हारी, तभी हाथी आ जाये और वो पिल्ले की सूँड खोजने लगे। मेरा है तो सबका होना चाहिए। होगा नहीं, होना चाहिए! निश्चित है! पूछ रहे हैं कि यूनिवर्स की उमर कितनी है। उसकी नहीं है! तुम्हारी है!

प्र: किसी चीज़ पर जब कोई शोध करता है तो चाहता तो यही है कि पहुँचे उस बिंदु पर...।

आचार्य: पहुँच सकता नहीं न क्योंकि उसने अपने लिए जो क्षेत्र पकड़ लिया है वो क्षेत्र की परिभाषा ही उसे रोक देगी। तुमने चौदह लाख छप्पन हज़ार तीन सौ चौबीस में क्या पकड़ा? दो। तुमने जो पकड़ा, वही तुम्हें रोक देगा। तुमने जिसको पकड़ा कि ये मुझे ऊँचा ले जायेगा, वही तुम्हें रोक देगा।

जैसे कि कोई दौड़ने के लिये कहे कि भई दौड़ने जा रहे हैं तो जूते पहनने चाहिए। और वो जूते पहन ले, चालीस-चालीस किलो के। तो तुमने जो दौड़ने के लिये पहना वही कुछ देर के बाद तुम्हारी बाधा बन जायेगा, तुम्हें दौड़ने नहीं देगा। चाहत तो तुम्हारी दौड़ने की ही थी पर साधन क्या पकड़ा? माध्यम क्या चुना? कहाँ खोजने निकल पड़े? गलत जगह खोज रहे हो!

प्र: इसका मतलब सत्य वो है जहाँ कोई संदेह न बचे।

आचार्य: डाउट (संदेह) न बचे ये हमारे मन की स्थिति होगी जब वो सत्य में समाहित होगा। डाउट कहाँ होते हैं? सत्य में थोड़े ही डाउट होते हैं। सत्य को थोड़े ही डाउट होते हैं। आप को हज़ार तरीके के संशय रहते हैं। जब यही मन सत्य में डूबा रहता है तो संशयहीन हो जाता है।

अब आपको तो पता है कि कुछ है जो मर्त्य है, कभी भी जा सकता है। जाना पक्का नहीं है, समय के तौर पर। तो यही तो जाँचते रहोगे न कि गया कि नहीं, है कि नहीं। पता है जा सकता है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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