सत्संग के बावजूद भी मन में गलत ख्याल क्यों आते हैं? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सत्संग के बावजूद भी मन में गलत ख्याल क्यों आते हैं? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, सत्संग के बावजूद भी मन में गलत ख्याल क्यों आते हैं?

आचार्य प्रशांत जी: अभी जो सवाल पूछ रहे हो, क्या ये सवाल भी गलत विचार से आ रहा है? अभी मेरे सामने बैठे हो, क्या ठीक इस वक़्त भी मन हावी है? ठीक अभी क्या मन हावी है?

प्रश्नकर्ता: नहीं, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत जी: तो क्यों कह रहे हो कि सत्संग के बाद भी मन हावी रहता है, और गलत विचार भी हावी रहते हैं? ये कहो न कि जब सत्संग नहीं होता, या सत्संग में मौजूद होकर भी हम गैरमौजूद होते हैं, तब मन हावी हो जाता है, और उल्टे-पुल्टे विचार आते हैं।

अगर ऐसा ही होता, नियमित रूप से ऐसा होता कि सत्संग चल भी रहा है, और मन तब भी बहका हुआ है, तो मन अभी-भी बहका हुआ होता। क्या मन अभी-भी बहका हुआ है?

प्रश्नकर्ता: नहीं, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत जी: तो मन अभी तो नहीं बहका हुआ है। और अगर मन बहका हुआ है, और बहके हुए मन से ये सवाल आया है, तो सवाल भी बहका हुआ होगा। सवाल तो बहका हुआ नहीं है। सवाल तो बल्कि पूछ रहा है, “मैं बहका हुआ क्यों हूँ? मैं बहक क्यों जाता हूँ?” है न?

तो मतलब, बहकना सत्संग के मध्य नहीं होता, सत्संग की अनुपस्थिति में होता है।

तुम चुनते हो कि – “मैं कहीं और पहुँच जाऊँ।”

अभी-भी यहाँ जितने लोग बैठे हैं, सब उपस्थित थोड़े-ही हैं। ‘उप’- माने नज़दीक, और ‘स्थित’ माने – तुम्हारी स्थिति, तुम्हारी अवस्था। कहाँ पर हो ।

अब मैं शरीरों से तो बात कर नहीं रहा, बालों से तो बात कर नहीं रहा, घुटनों से तो बात कर नहीं रहा कि तुम कहो, “मैंने अपनी आँतें, अपने बाल, अपने घुटने यहाँ लाकर रख दिए हैं, और मैं यहाँ उपस्थित हूँ।” मैं सम्बोधित कर रहा हूँ तुम्हारे मन को। और सबका मन यहाँ नहीं है। और जिनका मन यहाँ नहीं है, उनकी ओर एक दृष्टि करता हूँ, जान जाता हूँ – ये नहीं है, ये नहीं है, ये नहीं है।

‘सत्संग’ का मतलब – उपस्थिति। पास आओ, पास बैठो।

तुम अगर चुन ही लो दूर जाने को, तो अब सत्संग है कहाँ? तुम बहक जाते नहीं, स्वीकार करो – तुम बहकने का चुनाव करते हो। ये पहली बात।

अब दूसरी बात पर आओ। तुम बहकने का चुनाव क्यों करते हो? तुम बहकने का चुनाव इसलिए करते हो, क्योंकि तुम्हें लगता है कि बहककर कुछ ऐसा मिल जायेगा, जो सत्संग में भी नहीं मिल सकता।

दो रास्ते हैं तुम्हारे पास। या तो सीधे-साधे यहाँ उपस्थित रहो, या बहकर कहीं और पहुँच जाओ। यही दो रास्ते हैं न? आदमी जो भी चुनाव करता है, अपने भले के लिए ही करता है। जहाँ उसको लाभ दिखता है, उसी दिशा जाता है। अगर तुम सत्संग को छोड़कर किसी और दिशा जाना चाहते हो, बहके हुए, तो इसका मतलब ये है कि तुम्हें उस दिशा में अपना लाभ दिखता है। तो क्या करें ? क्यों कुछ करें? जो कुछ हो रहा है, ठीक ही हो रहा है।

भई, तुमने चुनाव किया है कि तुम्हें कहीं और लाभ है, तो तुम उधर को चले गए। जो हुआ, बढ़िया हुआ। जिधर को लाभ था, उधर को तुम चले गए। जो हुआ ठीक ही हुआ, कम-से-कम तुम्हारे अनुसार ठीक ही हुआ। अब जाँच बाकी है। क्या बाकी है? अब परीक्षण करेंगे।

परीक्षण ये है, कि जहाँ को गए थे, वहाँ कुछ मिला भी कि नहीं मिला। सत्संग से तो उठकर तुम्हारा मन भाग गया, कि कहीं और जाएँगे, वहाँ कुछ मिलेगा। कुछ ऐसा मिलेगा जो यहाँ नहीं मिल रहा। तो जहाँ गए हो वहाँ के पूरी तरह हो जाओ, जाँच के ही वापस आना कि वहाँ कुछ मिलता है या नहीं मिलता है। जब पूरी तरह जाँच लेना, और आँखें खुल ही जाएँ तुम्हारी, और ना-उम्मीद हो जाओ, तब लौट के आना।

तुम बड़े बेईमान पखेरू हो। तुम न यहाँ के हो, न वहाँ के हो। ऐसा भी नहीं कि राम के प्रति तुम्हारी बेईमानी है, तो संसार के प्रति तुम्हारी ईमानदारी है। तुम दुनिया के भी नहीं हो।

बीवी बोले कि – “कमाओ, जाओ कुछ सामान ले आओ,” तो कह दोगे, “नहीं, ज़रा सत्संग में जाना है।” हो तुम वहाँ के भी नहीं। जब वहाँ श्रम करना पड़ता है तो तुम सत्संग की ओर भागते हो, और जब सत्संग में चोट पड़ती है तो तुम संसार की ओर भागते हो। तुम कहीं के भी नहीं हो। मैं कह रहा हूँ, तुम सत्संग से भाग रहे हो, तो जाओ तुम पूरी तरह संसार के ही हो जाओ। और परीक्षण कर लो वहाँ, परख लो वहाँ क्या मिल रहा है।

पर तुम कहीं भी नहीं परखते।

यहाँ क्या मिल रहा है, ये तुम्हें इसीलिए नहीं पता चलता क्योंकि तुम संयम से, साधना से, यहाँ रुकते नहीं। यहाँ कुछ तभी मिलेगा न जब यहाँ रुको। यहाँ जब तक मिलने की बारी आती है, तब तक तुम उड़ जाते हो। और वहाँ जब तक चोट पड़ने की बारी आती है, तब तक तुम वहाँ से भी उड़ जाते हो, यहाँ पहुँच जाते हो।

तो तुमने अच्छा धंधा चला रखा है – न तो तुम यहाँ कुछ पाते हो, न तुम वहाँ से विरक्त होते हो। कभी सार, कभी संसार – यही कर रहे हो। किधर के तो हो जाओ – या तो इधर के, या उधर के। थोड़े दिनों के लिए ही सही, पूरी निष्ठा के साथ।

कुछ समय के लिए सत्संग को बिलकुल ही छोड़ दो। कौन-सी ईमानदारी, कौन-सी सच्चाई, कौन राम, कौन कृष्ण, कैसा गुरु? हटाओ सब। बिलकुल त्याग दो सत्संग को। यहाँ बैठकर बार-बार शिकायत करते हो न कि यहाँ से मन बड़ा उचटता है, दुनिया बड़ी लुभावनी लगती है, तो जाओ अपनी उसी लुभावनी दुनिया के पास। जाओ वहाँ, और सच्चाई को बिलकुल छोड़ देना।

समझ-बूझ की, प्रेम की, सत्य की, कोई बात ही मत करना। जाओ वहीं। और लौटना मना है। दरवाज़े यहाँ बंद हैं। पिटो वहीं।

तुम पिट सको, इसीलिए पुराने लोगों ने पात्रता का नियम बनाया था। वो कहते थे, “जल्दी से तुम्हारे लिए मंदिर के दरवाज़े खुलेंगे ही नहीं। तुम पिटो दुनिया में। मंदिर के दरवाज़े भी तुम्हारे लिए तभी खुलेंगे, जब तुम में इतनी पात्रताएँ हों।”

प्रवेश परीक्षा थी पूरी-पूरी।

प्रवेश परीक्षा ली जाती थी, तुम्हारी योग्यता जाँची जाती थी पचास तरीकों से, तब मंदिर के दरवाज़े तुम्हारे लिए खुलते थे, ताकि तुम मंदिर का दुरुपयोग न कर पाओ। यही करोगे कि जब घर में पिटे, तो मंदिर आकर बैठ गए, और जब मंदिर में ध्यान की बारी आई, तो भागकर घर चले गए?

अब तुम्हारे घर के दरवाज़े तो तुम्हारे लिए बंद किए नहीं जा सकते, तो चलो मंदिर के दरवाज़े बंद कर देते हैं तुम्हारे लिए। जाओ घर में बैठो, बैठो दुकान में। और तुम्हारी दुकान बिलकुल सत्यहीन होनी चाहिए। एक ही तरफ के रहो। अब देखते हैं कितने दिन जी पाओगे।

मेरे लिए तो बहुत आसान है। जैसे ही कोई कहता है, “मेरा ग्रंथों में मन नहीं लगता, भजन में मन नहीं लगता, सत्संग में मन नहीं लगता,” तो मैं कहता हूँ, “तो यहाँ क्या कर रहे हो? वहाँ जाओ जहाँ मन लगता है। कम-से-कम वहाँ वफादारी निभाओ। यहाँ के नहीं ही हुए, कम-से-कम वहाँ वफादारी निभाओ।”

फिर रूह काँपती है। कहते हैं, “नहीं, वहाँ के तो नहीं हो सकते।” तो ऐसे थोड़े ही चलेगा कि न यहाँ के हैं, न वहाँ के हैं। पेण्डुलम की सुईं की तरह – न इधर के, न उधर के। आपका मन अगर गुरु के कुर्ते से भी जाकर चिपट गया, तो उपस्थित थोड़े ही है, गुरु के पास थोड़े ही है। कुर्ता थोड़े ही गुरु है।

उपस्थिति बड़ी बारीक बात है।

कई हैं जिन्हें गुरु की आवाज़ पसंद आ जाती है। कहते हैं, “आवाज़।” अरे, आवाज़ में क्या रखा है। आवाज़ तो वाहन है, साधन है। आवाज़ पर बैठकर क्या आ रहा है, उसको गहो। बहुत लोगों का कहना है, “बस आवाज़। बस आवाज़ सुनाई देती नहीं है कि हम मदहोश हो जाते हैं।” अब इसी आवाज़ में मैं ऊटपटाँग कुछ बोलूँ तो? तो भी मदहोश हो जाओगे?

समझाने वालों ने सीधी बात कही है – गुरु आत्मा, चेला मन।

कबीर साहब का ये उद्गार है।

आत्मा गुरु है, और मन चेला है । मन को आत्मा के निकट आना होता है। ये है गुरु और शिष्य के प्रेम की बात। शारीरिक उपस्थिति मददगार है, पर सिर्फ़ शारीरिक उपस्थिति से भी बात नहीं बनेगी।

(प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) जब तुम्हारा सवाल ले रहे थे, तो हमने शारीरिक उपस्थिति के महत्त्व की बात की थी न कि – आओ, सामने आकर बैठो। और अब हम कह रहे हैं कि सामने आकर बैठना ज़रूरी है, पर काफ़ी नहीं है।

ज़रूरी तो है कि तुम सामने आकर बैठो, पर तुम इतने होशियार हो कि सामने बैठकर भी न जाने कहाँ हो सकते हो। बैठे तो सामने हैं, लेकिन मनवा तो पंछी भया, उड़कर चला आकाश।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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