सरकारी सपने, कोचिंग का मायाजाल, और बर्बाद जवानी || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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सरकारी सपने, कोचिंग का मायाजाल, और बर्बाद जवानी || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी यहाँ प्रतिभागियों में काफ़ी सारे छात्र भी हैं। तो उन्होंने एक प्रश्न पूछा था जो आजकल के कुछ ट्रेंड (रुझान) से बहुत रिलेट (संबद्ध) करता है।

इंडिया (भारत) में पिछले कुछ समय से रिपोर्ट्स आ रही हैं कि जो एडटेक इंडस्ट्री है, जो बेसिकली ऑनलाइन कोर्सेस या पढ़ाई के लिए प्रिपरेशन (तैयारी) या कोचिंग्स कराते हैं वो पिछले दो-तीन साल से, बेसिकली (मूल रूप से) लॉकडाउन (तालेबंदी) के समय से काफ़ी ज़्यादा बूम (तेज़ी) में है।

जब से लॉकडाउन खुला है, तब से उनके ऑफलाइन सेंटर्स (स्थाई केंद्र) भी खुल गए हैं। तो एक तरफ़ ये चीज़ थी कि वो इंडस्ट्री बहुत बढ़ रही है। दूसरी ओर एक डेटा (सूचना) ये भी आता है कि भारत में जो अनएम्प्लॉयमेंट रेट (बेरोजगारी दर) है, वो कभी-कभार गिरा है, पर साथ में ये भी देखा गया है कि जो एम्प्लॉयमेंट रेट (रोजगारी दर) है वो बढ़ा नहीं है। इसका मतलब अगर दोनों चीज़ों को साथ-साथ देखा जाए, तो काफ़ी सारे ऐसे लोग हैं, जो नौकरी ढूँढ़ भी नहीं रहे हैं और ऑप्ट आउट (निष्कासन) कर चुके हैं।

इसका मतलब शायद उसमें बहुत बड़ी कैटेगरी (श्रेणी) उन लोगों की है जो अभी प्रिपरेशन फेज़ (तैयारी के चरण) में आ गए हैं। और मैंने ये भी देखा है कि ये जो एडिटेक इंडस्ट्री है, क्योंकि ये अपना प्रचार करती है, तो वहाँ पर जितने भी बड़े-बड़े एंट्रेंस एग्जाम्स (प्रवेश परीक्षा) होते हैं, चाहे वो आई.आई.टी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) का हो चाहे आई.आई.एम (भारतीय प्रबंधन संस्थान) का हो या यू.पी.एस.सी (संघ लोक सेवा आयोग) का हो, उसको बहुत ज़्यादा ग्लैमराइज (लुभावना बनाना) करते है, कि लाइफ़ (जीवन) में अगर कोई गोल (लक्ष्य) अचीव (प्राप्त) करने लायक है, तो यही है। और इसकी वजह से और ज़्यादा लोगों के अंदर ये आस बंधती है कि शायद उन्हें प्रिपरेशन में आना चाहिए।

तो मेरे मन में ये प्रश्न था कि क्या भारत के युवाओं की इस वक्त जो पूरी स्थिति है, ये पेनी वाइज पाउंड फूलिश (छोटी चीज़ों में बुद्धिमानी बड़ी चीज़ों में बेवकूफ़ी) वाली नहीं है? दस हज़ार सीटें (स्थान) हैं आई.आई.टी की और उसके लिए इतने लाखों लोग तैयारी कर रहे हैं और उनको और प्रोत्साहित किया जा रहा है।

आचार्य प्रशांत: देखो, केंद्रीय और राज्य सरकारों के लिए ये जो एडिटेक इंडस्ट्री है, जो ज़्यादातर एंट्रेंस एग्जाम्स कोचिंग्स हैं सीधे-सीधे, ये बहुत बड़ा सहारा है। ये सहारा इसलिए है क्योंकि अगर ये इंडस्ट्री किसी जवान आदमी को दस साल तक यू.पी.एस.सी की तैयारी में फँसाकर नहीं रखेगी, तो वो आदमी सड़क पर आ जाएगा, नारे लगाएगा और रोज़गार माँगेगा।

जो तुम कह रहे हो न कि बहुत सारे लोग हैं, जो अपनेआप को न तो बेरोज़गार बोल रहे हैं और न ही रोजगारों की लिस्ट (सूची) में उनका नाम आ रहा है; न वो अनएम्प्लॉयड हैं, न एम्प्लॉयड हैं, तो क्या कर रहे हैं? वो यही हैं। उनको इस इंडस्ट्री (उद्योग) ने बाँध के रखा हुआ है। ये एक बढ़िया खेल-तमाशा चल रहा है। मान लो आई.आई.टी की तैयारी में उसके पहले दो-तीन साल लगाओ — अब दो-तीन साल नहीं होते, आई.आई.टी की तैयारी तो आठवीं से शुरू हो जाती है न? तो आई.आई.टी की तैयारी में छः साल लगाओ। यू.पी.एस.सी का तो मतलब ही है — आठ-दस साल। और उसके अलावा हज़ार तरीके के और इंटरनल एंट्रेंस एग्जाम्स (आंतरिक प्रवेश परीक्षा) होते हैं। ये जो पूरी चीज़ है, ये देश के युवा वर्ग को इस भ्रम में रखे रहती है कि वो कुछ सार्थक काम कर रहे हैं। और वो इसी भ्रम में पड़े-पड़े बत्तीस-चौंतीस साल का हो जाता है। उसने चार साल आई.आई.टी.जे.ई.ई (संयुक्त प्रवेश परीक्षा) की तैयारी करी थी, उसके बाद उसने छह-आठ साल या दस साल यू.पी.एस.सी में लगाए।

उसके बाद अभी वो और भी किसी चीज़ में कुछ करेगा। ऐसे करते-करते वो पैंतीस साल का हो जाता है। उसका नाश हो गया। उसके साथ जो बुरे से बुरा हो सकता था, वो सब कुछ हो गया। वो डिप्रेशन में चला गया। उसके समय का, उसके आत्मसम्मान का ह्रास हो गया। लेकिन वो कह भी नहीं पाएगा कि उसके साथ बहुत बुरा हुआ। उसको लगेगा कि मैं तो इतने दिनों तक तैयारी कर रहा था।

तो जब सरकार, समाज और पूरी व्यवस्था रोज़गार दे पाने में अक्षम हो जाती है, तब ये जो पूरा ऐडिटेक वाला कार्यक्रम है, ये फलता-फूलता है। ये एडिटेक वाला कार्यक्रम फलता-फूलता है और जो कोचिंग सेंटर में पढ़ाने वाले लोग होते हैं, वो सुपर स्टार (प्रसिद्ध व्यक्ति) बन जाते हैं। उनको हीरो (नायक) की तरह फिर देखा जाता है। वो तुम्हें हर जगह दिखाई देंगे। यहाँ तक कि वो राजनीति में भी प्रवेश लेना शुरू कर देते हैं। क्योंकि भाई आपकी अब इतनी प्रसिद्धि, पॉपुलैरिटी हो गयी है कि लोग जानने लगे हैं, आप राजनीति में आ सकते हैं।

भारत की जवानी के साथ ये एक ज़बरदस्त धोखा है, जो आज़ादी के बाद से ही चल रहा है। यू.पी.एस.सी में हज़ार से कम सीटें हैं — सात सौ, आठ सौ। और किसी भी समय उसमें दस-पंद्रह लाख लोग लगे होते हैं। आप जानते नहीं हो कि आप कौन हो? आपको अपना पुराना शैक्षणिक रिकॉर्ड पता नहीं है क्या? आप कभी भी शीर्ष २०-३०% में भी नहीं आए, अब आप शीर्ष ०.१% में कैसे आ जाओगे?

लेकिन नहीं! इसी कोचिंग इंडस्ट्री के साथ फिर एक जुड़ी हुई इंडस्ट्री शुरू होती है, जिसका नाम है मोटिवेशन इंडस्ट्री (प्रेरणा उद्योग)। और अक्सर जो कोचिंग पढ़ाने वाला होता है, वही मोटिवेटर (प्रेरक) भी बन जाता है। क्योंकि उसके लिए ज़रूरी है न, वो आपको बताए, “देखो तुम्हारे पाँच साल खराब हो चुके हैं, लेकिन भागना मत। अभी तुम लगे रहो। तीन साल फीस और दो, तैयारी करते रहो। तू करेगा! तू फोड़ेगा! चल फीस जमा करा जल्दी से, एक साल कोचिंग और कर।”

फिर जिनका चयन वगैरह हो जाए, उनको सम्मान पत्र दो, उनको सिंहासन पर बैठाओ, इंटरव्यू ही इंटरव्यू उनके छापो चारों तरफ़; उनको हीरो बना दो बिलकुल। सोशल मीडिया (सामाजिक संचार माध्यम) तो ये सब जल्दी से कर ही देता है। मुझे लगता है मैं ही पीछे छूट गया। तीन ऑल इंडिया एग्जाम (अखिल भारतीय परीक्षा) होते हैं, तीनों में से कोई एक उत्तीर्ण कर ले, तो हो जाता है कि बढ़िया बंदा है। मैंने तीनों पास करे और कैट (कॉमन एडमिशन टेस्ट) को तो सीधे-सीधे टॉप करा था, ऑल इंडिया । मेरा तो कभी कोई इंटरव्यू (साक्षात्कार) ही नहीं छपा।

अखबार में भी कुल एक बार आया था। वो भी जब दसवीं में बोर्ड टॉप किया था। न जाने कैसे उन्होंने खबर छाप दी और फोटो डाल दी। उसके बाद से कभी कुछ आया ही नहीं।

आज आपकी यू.पी.एस.सी में चार सौवीं भी रैंक आ जाती है, तो पत्रकार भागे आएँगे, इंटरव्यू लेंगे, वो जाएगा यूट्यूब पर, उसके छः मिलियन व्यूज़ (साठ लाख दर्शक) हो जाएँगे और आप वहाँ पर बताओगे, "देखो, मैं बताता हूँ।"

किसी से बैंक की भी प्रवेश परीक्षा अगर उत्तीर्ण हो गई तो उसका पूरा जुलूस निकलता है। एक साधारण सा बैंक मैनेजर (बैंक प्रबंधक) बनेगा भाई! उसमें कौन सी इतनी बड़ी बात हो गई। और आई.ए.एस , आई.पी.एस भी इतनी कौन सी बड़ी बात हो गई कि तुम उसको राजा घोषित करे दे रहे हो? इतना ही नहीं हुआ है, जो आई.ए.एस , आई.पी.एस बन जाते हैं, वो बनने के बाद खुद सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर (प्रभाव डालनेवाला) बन जाते हैं। वो ज्ञान दे रहे होते हैं। वो सुबह-सुबह अपनी कोटेशन्स (विचार) डालते हैं, जो कि महाघटिया होती है।

तुमने अपने आठवें अटेम्प्ट (प्रयास) में यू.पी.एस.सी क्लियर (उत्तीर्ण) कर लिया, इससे तुम प्लेटो और सुकरात थोड़े ही हो जाओगे। तुम्हारी ज्ञान देने की क्या हैसियत है? लेकिन अपने नाम के साथ कुछ लिखेंगे, उसके आगे बड़ा-बड़ा लिखेंगे आई.पी.एस , क्योंकि आई.पी.एस हो तो उसमें एक वो नीला निशान लगा होगा। वहाँ नीचे फिर ज्ञान की गंगा बह रही होगी और उसको सब लाइक (पसंद) करने वाले और व्यू (देखने वाले) करने वाले भी कौन होंगे? यू.पी.एस.सी एस्पिरेंट्स (आकांक्षी), जो अपनेआप को यू.पी.एस.सी एस्पिरेंट भी नहीं बोलते। बोलते है, हम यू.पी.एस.सी के स्टूडेंट हैं।

हमें समझ में नहीं आया, ये तो एंट्रेंस एग्जाम है, यू.पी.एस.सी स्टूडेंट क्या चीज़ होती है? इससे कौन सी डिग्री (उपाधि) मिलती है? लेकिन स्टूडेंट बोल करके खुद को बेवकूफ़ बनाना आसान हो जाता है। जैसे आप मान लो एम.बी.बी.एस के स्टूडेंट (विद्यार्थी) हो, तो उसमें पाँच-छः साल लगता है, तो वैसे ही बोल लो कि यू.पी.एस.सी के स्टूडेंट हैं, इसमें सात-आठ साल लगता है। पूरा एक कल्ट डेवेलप (पंथ विकसित) कर दिया गया है। सबसे ज़्यादा यू.पी.एस.सी, उसके बाद जे.ई.ई और मेडिकल । और उसके बाद कुछ हद तक कैट एग्जाम के लिए।

भारत की जवानी इसमें बर्बाद हुई जा रही है, हुई जा रही है, हुई जा रही है। एक आदमी के जो सबसे उत्पादक, प्रोडक्टिव साल होते हैं, उसको वो क्या करने में लगा रहा है? जियासराय और कटवारिया सराय की धूल फाँकने में, और मुखर्जी नगर। ये वो जगहें हैं, जहाँ पर सब यू.पी.एस.सी वाले बैठे होते हैं। बिहार की मिट्टी जवान होती है और आकर मुखर्जी नगर में बैठ जाती है। और सब कोचिंग सम्राट उसके आदर्श बन जाते हैं। कह रहे हैं, "ये भगवान हैं हमारे।"

ये चल क्या रहा है? क्या चाहते हो?

मैं बताऊँ क्या चल रहा है? चल ये रहा है कि सरकारी विभागों में, सरकारी पदों पर जितना तुम काम नहीं करते हो, उसकी अपेक्षा कहीं ज़्यादा तनख्वाह हो गई है। एक के बाद एक पे कमिशन (वेतन आयोग) आए हैं और जितनी तनख्वाह इस वक्त एक सरकारी कर्मचारी को मिलती है, उतनी उसे कहीं से नहीं मिलनी चाहिए थी। सब तनख़ाह के अलावा डी.ए (महँगाई भत्ता) वगैरह तो होते ही हैं।

आपके पास एक सरकारी नौकरी है, तो उसमें जो आपका आउटपुट बाय इनपुट रेशियो (आगम निर्गम अनुपात) है, वो किसी भी और नौकरी से या काम से कहीं ज़्यादा है। आपको बहुत कम काम करना पड़ता है और उसके एवज में आपको बहुत अधिक पैसे और सहूलतें मिल जाती हैं। भारत की सारी जवानी उसी पर मरी जा रही है। वही चाहिए, वही चाहिए।

पूछो, तुम जाओ, बात करो, "क्यों लगे हो सात साल से?" तो बोलेंगे, "वो सात ही साल तो लगाए हैं, इसके बाद चालीस साल कुछ नहीं करना पड़ेगा। तो सात साल की मेहनत करके अगर चालीस साल का आराम मिल जाए, तो बुरा ही क्या है?" बस ये है। और इसकी वजह से जो पूरी जॉब मार्केट है वही डीस्टॉर्टेड (विकृत) हो गयी हो गई है, स्कयूड् (टेढ़ा) हो गई है।

प्राइवेट सेक्टर (निजी क्षेत्र) में वेकैंसीज़ (रिक्त पद) हैं, उसमें लोग अप्लाई (आवेदन) नहीं कर रहे हैं, क्यों? क्योंकि वहाँ आपको उतनी ही तनख्वाह मिलती है जिसके आप हकदार हैं। वो बंदा बोलता है, "नहीं, नहीं, नहीं ये बीस-पच्चीस हज़ार तो मेरे लिए बहुत कम है। इतना तो किसी सरकारी ऑफिस (कार्यालय) में प्यून (चपरासी) को मिल जाता है।" कंपनी में वो जाएगा अगर तो एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर की, फ्रेशर की, एक साधारण इन हैंड (हाथ में) स्टार्टिंग सैलरी (आरंभिक वेतन) आती है, वो बीस-पच्चीस हज़ार ही आती है।

उसके घर वाले उसको ताना मारते हैं। बोलते हैं, "वो उधर बगल में, वो चतुर्थ श्रेणी चपरासी बन गया है; पच्चीस हज़ार से ज़्यादा तो वो कमाता है और बाकी अफ़सरों के साथ लालबत्ती में घूमता है, ठाठ है उसके। बड़े-बड़े सेठों को वो दफ़्तर के दरवाज़े पर रोक सकता है। प्यून है तो क्या हुआ?"

तो जब चपरासी की भर्ती का भी निकलता है, तो उसमें पी.एच.डी वाले भी अप्लाई कर रहे होते हैं। ये सब पढ़ते नहीं हो कि कुछ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की नियुक्ति के पद आए हैं, और उसके लिए दस हज़ार एम.टेक , नब्बे हज़ार बी.टेक और पाँच हज़ार पी.एच.डी ने अप्लाई करा। और ये जो इतने सारे बी.टेक वगैरह अप्लाई कर रहे हैं, ऐसा नहीं है कि उन्हें प्राइवेट सेक्टर में नौकरियाँ नहीं मिल रही थी। मिल रही थी पर प्राइवेट सेक्टर की नौकरी का सरकारी अय्याशी से क्या मुकाबला?

मुकाबला ही नहीं है। और तुम प्राइवेट सेक्टर के आन्ट्रप्रनर (उद्यमी) के पास जाओ, जिन्हें हायरिंग (नियुक्तियाँ) करनी है, वो सर पर हाथ रख के बैठे हैं। वो बोल रहे हैं, हमारे वैकेंसीज़ खाली पड़ीं हैं, ये लड़के काम करने को तैयार नहीं हैं। बोलते हैं, "पाँच साल बेरोज़गार बैठ लेंगे, लेकिन प्राइवेट सेक्टर में काम नहीं करेंगे।" कहो, "क्यों नहीं काम करोगे?" "क्योंकि वहाँ काम करना होता है। हम काम वहाँ करते हैं; जहाँ काम नहीं करना होता है।"

अरे! हमें ही (अपनी संस्था में) हायरिंग करनी है, हमें लोग नहीं मिल रहे हैं। कल यहाँ पर बाहर इतना बड़ा, हमारे शुभंकर ने बैनर लगाया, कि "आ जाओ संस्था में काम कर लो।" वो बोला, "दो आवेदन आए हैं।"

सब बोलते हैं, "हम तो आचार्य जी के बहुत बड़े भक्त हैं।" वहाँ पर लगी हुई है स्टेंडी , कि आ जाओ, तो नहीं आएँगे। क्यों? "इतने कम पैसे में कौन आता है।"

तो ये जो सरकारी कल्ट (पंथ) है, इसने इकोनॉमी (अर्थव्यवस्था) को, जॉबमार्केट (रोजगार बाज़ार), सबको एकदम स्क्यूड कर दिया है, टोटली डिस्टॉर्टेड (पूरी तरह से विकृत) और इस पूरे खेल में ये सब प्लेयर्स (खिलाड़ी) हैं — सरकार एक प्लेयर है, एडिटेक इंडस्ट्री प्लेयर है, कोचिंग वाले सुपर स्टार प्लेयर्स हैं। ये जो आई.ए.एस , आई.पी.एस बन करके अपनी फैंडम (प्रशंसक) फैला रहे हैं, वो भी उसमें एक प्लेयर हैं। कुल मिलाकर के इसका खामियाजा भारत की पूरी अर्थव्यवस्था और पूरी जनसंख्या भुगत रही है।

एक सिटाडेल (गढ़) बना दिया है, एक दुर्ग बना दिया गया है, सरकारी। ठीक है न? और उस दुर्ग के अंदर जो है, वो एक वर्ग है और बाकी जनसंख्या एक अलग वर्ग है। सरकार एक अलग वर्ग है और बाकी जनसंख्या अलग वर्ग है। बाकी जनसंख्या का काम है दबकर रहना और जो सरकार के दुर्ग के अंदर हैं, उस फोर्ट (किले) के अंदर हैं, उनका काम है दबा कर रखना। नीचे वालों का काम है — कम पैसे में मेहनत करते रहना, और उन ऊपर वालों का काम हैं — खूब पैसा लेना और कुछ न करना।

ये समाज में दो विभाजन, दो वर्ग बनाए गए हैं। ये बात समझ में आ रही है? ये क्लासिकल मार्क्सिस्ट क्लास डिविज़न (शास्त्रीय मार्क्सवादी वर्ग विभाजन) है और कुछ नहीं। एक का काम है — शोषण करना, वो सरकारी वर्ग है। और दूसरे वर्ग का काम है — शोषित होते रहना। और एंट्रेंस एग्जाम इन दोनों वर्गों के बीच की सीढ़ी है। तो तुम पाते हो कि पूरा भारत उस सीढ़ी के नीचे जमा हो गया है ताकि वो शोषित वर्ग से शोषक वर्ग की ओर जा सके। ये चल रहा है। समझ में आ रही बात?

एक ऊपर का वर्ग है, उसका क्या काम है? शोषण करना। वो सरकारी वर्ग है। बिना कुछ करे ही उनको खूब मिलता है। पहले तो सैलेरी खूब मिलती है और जो ऊपरी कमाई है उसका तो कुछ कहना ही नहीं। और एक नीचे वाला वर्ग है, जो प्राइवेट लोग हैं, जिनको कुछ नहीं मिलता है। न पैसे मिलते, न मान-सम्मान मिलता, शादी के लिए लड़की भी नहीं मिलती। वो बेचारे ऐसे ही हैं। कोई बाप अपनी लड़की देना नहीं चाहता। क्या कहता है? " प्राइवेट में है! किसी लाला के यहाँ नौकरी करता है। इसको कौन लड़की देगा?"

लोग कहते हैं, आचार्य जी आप अपनी संस्था में सब कुँवारे ही रखते हैं क्या? अरे, रखते नहीं हैं, इनको मिलती नहीं। देवियों को भी सब सरकारी वाले ही चाहिए। और जो नीचे वाला वर्ग है, जो शोषित है, वो भी चाहता है कि हम भी जो ऊपर वाला है, उसमें किसी तरह चढ़कर पहुँच जाएँ। उस तक पहुँचने का यही रास्ता है — या तो कोई एंट्रेंस एग्जाम क्लियर कर लो या जिसने क्लियर कर रखा है उससे शादी कर लो। और भारतीय जनता इन्हीं दो चीज़ों के लिए पागल है।

एक बात जानते हो, जब यू.पी.एस.सी का रिज़ल्ट आता है, लोग अंदर घुस-घुस के पता लगवाते हैं कि ये जो नाम है, इनका पता क्या है, फ़ोन नंबर क्या है? और उनके घरों में अगले दिन से रिश्ते दरवाज़ों से, रोशनदान से, छत तोड़कर बरसने लगते हैं।

मेरे घर में भी आए थे। यहाँ माँ बैठी हैं, पूछ लो, आए थे न? बोल रहे हैं, ये बिहार के कोई मिनिस्टर (मंत्री) हैं, इनका आ रहा है; फलाने एम.एल.ए की लड़की है, इनका आ रहा है। उन्हें पता कैसे चला? उन्होंने सीधे पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग विभाग (कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग) से निकलवाया। बोले, ये लड़के का सलेक्शन (चयन) हो गया, जल्दी से रिश्ता भेजो।

तो ठीक वैसे जैसे एक पद के लिए दस हज़ार लोग तैयार खड़े हैं, वैसे ही जो यू.पी.एस.सी में सलेक्टेड (चयनित) लड़का है, उससे शादी के लिए दस हज़ार लड़कियाँ तैयार खड़ी हैं; क्योंकि आपको अगर अपनी क्लास (श्रेणी) बदलनी है, तो उसके यही दो तरीके हैं — सेलेक्शन और मैरिज । ये सीधा-सीधा शोषण का खेल चल रहा है। और यह व्यवस्था बदलनी चाहिए।

प्राइवेट में जो सैलेरी कम है, उसका भी एक कारण यही है कि सरकार में सैलरी ज़्यादा है। तो ये भी संबंध समझना होगा। जो सरकार मुफ़्त का इतना पैसा बाँट देती है अपने कर्मचारियों को, वो पैसा कहाँ से आता है? कहाँ से आता है? वो पैसा प्राइवेट को ही चूस-चूस के आता है। तो प्राइवेट का शोषण किया जा रहा है ताकि सरकारी कर्मचारियों को मुफ़्त पैसा बाँटा जा सके।

प्राइवेट में भी सैलेरी और हो सकती है, अगर सरकार स्ट्रीमलाइन (सुव्यवस्थित) हो जाए। अगर सरकार अपने फालतू खर्चे बंद कर दे, तो प्राइवेट सेक्टर के पास ज़्यादा मुनाफ़ा बचने लगेगा। वो भी अपने कर्मचारियों को ज़्यादा पैसा दे पाएँगे।

ऐसे कभी देखा नहीं न, सोचा ही नहीं।

वो बोलतें हैं — यू.पी.एस.सी में ऐसा होता है — "देखो, तैयारी करोगे, भले ही सलेक्शन नहीं होगा, लेकिन कुछ बन जाओगे।"

मैं साफ-साफ़ पूछता हूँ, "लफ़्फ़ाज़ी हटाओ, खुली बात करो, क्या बन जाएगा?" उसने दस साल गँवा दिए। उसके पास सब्जेक्ट्स (विषय) थे, मैथ्स (गणित) और सोशियोलॉजी (समाजशास्त्र) या मैथ्स और फिजिक्स (भौतिकी) या कुछ और। उसका नहीं हुआ *सलेक्शन*। तुम उसको क्यों झूठी सांत्वना दे रहे हो कि कुछ तो बन जाओगे। क्या बन जाएगा वो?

तुम्हें पता है कितने ज़्यादा मेंटल पेशेंट्स (मानसिक रोगी) निकलते हैं यू.पी.एस.सी एस्पिरेंटस में? ये बन जाते हैं। और जब उसके अटेम्प्ट्स (मौके) खत्म हो जाते हैं, तो उस प्रक्रिया से बिलकुल एक टूटा हुआ इंसान बन कर निकलता है। जिसके लिए अब समाज में कोई स्थान नहीं, जिसकी उम्र बीत चुकी है, जिसका आत्मसम्मान और आत्मबल नष्ट हो चुका है। ये बन के निकलता है। लेकिन दिलासा ऐसे दिया जाता है — देखो, यू.पी.एस.सी तो मंदिर है, तुम वहाँ भक्त बन जाओ और अपनी जवानी की वहाँ पर आहुति दो।

क्या है ये? यही बात आई.आई.टी वगैरह पर भी लागू होती है, पर वहाँ कम; क्योंकि वहाँ इतने सारे साल कोई नहीं लगाता। और फिर वहाँ ये रहता है कि चलो पंद्रह हजार आई.आई.टी में सीटें हैं, उसमें नहीं होता तो और फिर एन.आई.टी है। फिर वो तो कहीं न कहीं अपना इंजीनियरिंग कर लेता है।

यू.पी.एस.सी की जो तैयारी मैंने छोड़ी—मेरे अटेम्प्ट्स बचे हुए थे सब। और एग्जाम दिला सकता था कि प्रॉपर (एकदम) आई.ए.एस में ही घुसेंगे। मैंने कहा, "नहीं।"—उसकी एक वजह ये भी थी कि ये जो पूरी प्रक्रिया थी न एंट्रेंस की, वो बहुत उबाऊ थी। वो परीक्षा ऐसी नहीं थी जो आपको स्टिम्युलेट (प्रेरित) करे या तो एक्साइट (उत्साहित) करे। वहाँ पर न तो तुम्हारी प्रतिभा पर ज़ोर था, न तो तुम्हारी बुद्धि की तीक्ष्णता पर ज़ोर था; वहाँ रट्टेबाज़ी का काम ज़्यादा था। तो जो लोग उस परीक्षा को क्लियर करके निकलते भी हैं, वो कोई बड़े अच्छे, बड़े ऊँचे, बड़े प्रतिभावान लोग नहीं हैं।

आई.आई.टी क्लियर करना एक बात हैं, यू.पी.एस.सी क्लियर करना बिलकुल दूसरी बात है। आप एकदम टेलेंटलेस (प्रतिभाहीन) होकर के भी अगर आठ-दस साल रट्टा मार रहे हो, तो हो सकता है यू.पी.एस.सी टॉपर बन जाओ। तो उनमें ऐसी कोई खास बात होती नहीं है। और मुझे वो उबाऊ प्रक्रिया पसंद भी नहीं आ रही थी। एक के बाद एक थ्योरम (प्रमेय) रट रहे हैं। थ्योरम के प्रूफ का क्वेश्चन (प्रश्न) आ रहा है कि थ्योरम का प्रूफ लिखो। अब रट कर गए हो और वहाँ थ्योरम का प्रूफ लिख रहे हो। नहीं करना है यार ये सब।

सवाल ऐसा दो न जो ज़रा चुनौती दे, तो मज़ा आता है। मैथ्स और फिजिक्स मेरे सब्जेक्ट थे, आई.आई.टी की मेरी आदत थी, जे.ई.ई का मेरा पुराना अनुभव था। अब वहाँ पर एकदम ही साधारण किस्म के सवाल! वो बीस नंबर का सवाल है। आप उसको हल कर दो जल्दी से, तो पाँच नंबर देंगे। वो चाहते हैं कि तुम उसको लंबे से लंबे तरीके से चार पन्ने में हल करो। और तब बीस में से वो देते हैं सोलह।

मुझे कुछ समझ में नहीं आया कि मैथ्स में बीस में से सोलह का क्या मतलब होता है। या तो बीस में से बीस दोगे या कुछ मत दो। ये क्या होता है कि एक ही उत्तर पाँच लोग लेकर के आए हैं, एक को पाँच नंबर दिया, एक को आठ दिया, एक को बारह, एक को सोलह दिया है। ये क्या चल रहा है? मैंने कहा, "हमें करना ही नहीं ये आगे। तुम रख लो ये अपना तरीका अपने पास। देंगे ही नहीं आगे अटेम्प्ट ।"

तो ये भी अपने दिमाग से निकाल दो कि यू.पी.एस.सी क्लियर करने वाले बड़े होनहार लोग होते हैं। कुछ नहीं! बहुत साधारण आदमी अगर बस अपनेआपको खच्चर की तरह वहाँ घिस रहा है, तो छह-आठ साल में कर लेगा क्लिअर

ये कैसे कर पाते हैं सब? जैसे विज्ञापन वगैरह आते हैं, जिसमें वो बताते हैं कि बाप बेटी का अब पेरेंट्स (पालक) नहीं है, पार्टनर (जोड़ीदार) हो गया है, और ये जो सब चलता है। स्क्रीन (पटल) देख-देख के कैसे पढ़ाई करते हैं? छठी-आठवीं के बच्चे को स्क्रीन से काहे को पढ़ा रहे हो? किताब में क्या समस्या हो गई? मैं समझना चाह रहा हूँ। उसमें फ़ायदा क्या मिलता है?

एक फैड (चलन) है, उसके अलावा उसमें क्या रखा है? ये ऑनलाइन पढ़ने का मतलब क्या होता है? कोविड मे ऐसा हो सकता था, कि सामने नहीं बैठ सकते हो, तो ऑनलाइन एक अनिवार्यता हो गई थी। उसके अलावा यह क्या है कि मैं ऑनलाइन पढ़ रहा हूँ, लेसन्स (पाठ) ऑनलाइन पढ़े जा रहे हैं। किताब में क्या समस्या है? ऑनलाइन ऐसे क्या पढ़ाया जा रहा है, जो तुम्हें किताब में नहीं समझ में आ रहा था?

श्रोता: एनिमेटेड पढ़ाते हैं।

आचार्य: क्या ऐनिमेट (सजीव) करके देखना चाहते हो? क्वाड्रेटिक इक्वेशन को एनिमेट कैसे करते हो? थर्ड ऑर्डर डिफरेन्शियल इक्वेशन को एनिमेट कैसे करोगे? वहाँ ऐसा क्या है, जो तुम किताब से और सीधे-सीधे कलम-कागज पर नहीं कर पाते हो? क्या है?

श्रोता: एक पेज से दूसरे में जाना आसान होता है।

आचार्य: किताब में आना-जाना कहाँ हो रहा है? किताब सामने तो रखी हुई है, आना-जाना क्या है? किताब से पढ़ लो न। वो स्क्रीन पर मनोरंजन होगा, तब पढ़ने में आएगा? टेक, ये ज़बरदस्ती हर चीज़ में दिखाना है कि हम टेक-सैवी (तकनीकी प्रेमी) हैं। तो हम पढ़ाई भी टेक से करते हैं। टकाटक हो रहा है टेक । ये तो एकदम कम क्लास से शुरू कर देते हैं न? तीसरी, चौथी, पाँचवीं से? ये चौथी-पाँचवीं के बच्चे को तुम स्क्रीन से क्या बता रहे हो?

प्र२: ये शिक्षा का जो व्यापार है, इसी में मैं कार्यरत हूँ और सेंट्रल बोर्ड (केंद्रीय बोर्ड) में मैं कुछ समय तक काम कर चुका हूँ। वहाँ के जो रीज़न डायरेक्टर्स (निदेशक) हैं, उनसे मेरी कॉविड के दौरान बात हुई थी जब ऑनलाइन सुविधा बच्चों को दी गई थी। उन्होंने मुझसे यही बात साझा की कि "इसके बाद बच्चो का लर्निंग आउटकम (शिक्षण परिणाम) बहुत तेज़ी से गिरा है। हमें बच्चों को मैनेज करना बड़ा मुश्किल हुआ है। हमें ये क्लैरिटी नहीं थी कि बच्चे वहाँ पर हैं कि नहीं। हम तो चाहते हैं जितनी जल्दी हो सके वापस ऑफ़लाइन मोड में जाएँ, क्योंकि राइट टू एजुकेशन आने के बाद जब बच्चों को फेल नहीं कर पा रहे थे, किसी भी कारणवश, तो बच्चों का लर्निंग आउटकम बहुत तेज़ी से डिक्रीज (कम) हुआ।"

चूँकि बच्चे को पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक कोई फेल नहीं कर सकता, तो पढ़ाई नहीं होती थी। छठवीं कक्षा में आने के बाद बच्चों को सेन्टेन्स फॉर्मेशन (वाक्य संरचना) में दिक्कत आती थी, क्योंकि इससे पहले उन्होंने ये किया ही नहीं था।

इस तरह की शिक्षा नीतियाँ और साथ में ये टेक्नोलॉजी का एडवेंट , जिसको हम लोग भी समझ नहीं पाते, उसके बाद जो लर्निंग आउटकम था और बच्चों के अंदर पढ़ाई करने की जो क्षमता थी, उसमें बहुत तेज़ी से गिरावट आई। इस बात से वो भी जूझ रहे थे, जैस आप कह रहे हैं।

आचार्य: ठीक कह रहे हैं। बिलकुल ठीक कह रहे हैं और ये बात आँकड़ों द्वारा पुष्ट हो रही है। और खुद ही देख कर भी समझ में आती है कि जो काम किताब कर सकती है, वो काम स्क्रीन नहीं कर सकती। किताब में सुविधा है कि एक ही पन्ने पर आप यहाँ से वहाँ चले गए, स्क्रीन में उसके लिए आपको और कुछ करना पड़ता है। ऐनिमेशन की ज़रूरत कुछ विषयों में पड़ती है, वो भी कभी-कभार। बाकी चीज़ों में ऐनिमेशन ? भाषा में क्या ऐनिमेशन चाहिए भाई? अभी आपने कहा, छठवीं के बच्चों को सेन्टेन्स कंस्ट्रक्शन तक में दिक्कत आ रही है, ये एडिटेक ऑनलाइन क्लासेस के कारण। भाषा में क्या एनिमेशन चाहिए? भाषा तो अच्छा साहित्य पढ़ने से बनती है।

तुम उन्हें अच्छा साहित्य क्या ऐनिमेट करके दिखाओगे? या कहोगे कि शेक्सपियर का नॉवेल (उपन्यास) मत पढ़ो, उस नॉवेल की जो मूवी (चलचित्र) बनी है, वो देख लो। जो पढ़ना है, वो तो पढ़ना ही पड़ेगा न? और वो कागज पर छपा होगा तभी पढ़ोगे, नहीं तो कैसे पढ़ोगे?

प्र३: भगवान श्री प्रणाम। जो अभी चर्चा हो रही थी, तो दो सेक्शन (वर्ग) तो बन ग‌ए हैं। गवर्नमेंट (सरकार) का एक सेक्टर है, उसका दुर्ग है। और एक प्राइवेट सेक्टर है। जो आपने बात कही कि गवर्नमेंट ज़्यादा टैक्सेशन करके प्रॉफिट्स प्राइवेट से निकाल लेती है, तो इसलिए उनके पास डिस्ट्रीब्यूशन के लिए बचता नहीं। लेकिन ऐसा भी देखा गया है कि प्राइवेट सेक्टर में भी सेक्शन हो गए हैं। वो ट्रिकल डाउन होता नहीं। अगर आप उनको दे भी देंगे, माने उनके पास छोड़ दें, तो वो फिर निम्न कर्मचारियों को देते नहीं।

आचार्य: बिलकुल, जो मैंने बात कही वो निश्चित रूप से एक सिंप्लिफिकेशन (सरलीकरण) है। उससे पूरी हकीकत बयान नहीं होती। मैं बस ये समझाना चाह रहा हूँ कि ये दो अलग-अलग क्लासेस डेवलप (श्रेणियाँ विकसित) हो रही हैं। जैसे आपका टिपिकल (मूल) कम्युनिस्ट थॉट (साम्यवाद) होता है न, ये एक वर्ग विभाजन है।

एक वर्ग बन गया है, सरकार और सरकारी लोगो का और दूसरा वर्ग बन गया है, आम जनता का। जो ऊपर वाला वर्ग है, उसमें बस आबादी के ०.१% लोग बैठे हुए हैं और नीचे बैठे हुए हैं बाकी लोग, जिनका शोषण होता है। और उसमें अलग ही न्यूंसेस (अंतर) है। अभी जो आप कह रहे हैं, वो बात बिलकुल ठीक है कि नीचे जो हैं, उनमें आपस में भी कई तरह की फिर श्रेणियाँ हैं।

जो आपस में भी एक दूसरे का शोषण करती रहती हैं। प्राइवेट सेक्टर में भी जो ऊपर बैठा है, वो नीचे वाले का शोषण कर रहा है। इसी तरीके से करप्शन (भ्रष्टाचार) सिर्फ़ सरकार में नहीं है, प्राइवेट सेक्शन में भी करप्शन ज़बरदस्त होता है। वो सब बातें अपनी जगह बिलकुल ठीक हैं।

प्र३: इसमें एक और चीज़ पूछना चाह रहा था। गवर्नमेंट सेक्टर (सरकारी विभाग) को खत्म होना चाहिए, दुर्ग टूटना चाहिए। लेकिन वो ग्रीड (लालच) का सॉल्यूशन (समाधान) तो फिर अध्यात्म ही देगा।

आचार्य: हाँ, देखिये वो खुद तो तोड़ेंगे नहीं। जो शोषक वर्ग होता है, वो खुद तो कभी क्रांति करके अपने शोषण को समाप्त करता नहीं न। वो क्रांति तो जो शोषित वर्ग है वही कर सकता है। वो तभी करेगा जब उसे समझ में आए कि सीढ़ी के आसपास भीड़ लगाने से कहीं अच्छा है कि ये जो ऊपर का दुर्ग है, वही तोड़ दो।

अभी जो नीचे वाले लोग हैं, वो ये नहीं कह रहे हैं कि ऊपर का दुर्ग तोड़ना है। वो कह रहे हैं, "हमें भी उस दुर्ग के अंदर जाना है।" अध्यात्म तुमको वो दृष्टि देगा और वो शक्ति देगा कि तुम उस शोषणकर्ता दुर्ग का हिस्सा नहीं बनो। सीढ़ी को मत पूजने लग जाओ, बल्कि उस दुर्ग को ध्वस्त ही कर दो।

प्र४: मैंने आपको पहली बार एक साल पहले पच्चीस-छब्बीस जून के आसपास सुना था। उस लाइन ने मेरी लाइफ में एक लाइन खींची है। उसके पहले का जीवन और बाद का जीवन बिलकुल अलग है। लोगों को देखने का नज़रिया, जीवन को देखने का नज़रिया, सारी चीज़ें बदल गई है। मैं हालाँकि बहुत नहीं बदली, पर चीज़ें बदल रही हैं।

अभी आपने जो दो बातें बोली कि बच्चों को यू.पी.एस.सी का साइकोलॉजिकल प्रेशर होता है, तो मैं इसकी भुक्तभोगी हूँ। हम दो बहने हैं। मैं बड़ी हूँ, मेरी छोटी बहन है। मैं कमर्शियल टैक्सेस डिपार्टमेंट (वाणिज्यिक कर विभाग) राजस्थान में असिस्टेंट कमिश्नर (सहायक आयुक्त) हूँ। और मैं पढ़ाई में बिलकुल थर्ड क्लास थी। टेंथ क्लास (दसवीं कक्षा) मैंने थर्ड डिविजन (तृतीय श्रेणी) से पास किया है। बी.ए मैंने सेकंड डिविजन (द्वितीय श्रेणी) से पास किया, उसके बाद अचानक से मुझे लगा कि पढ़ना चाहिए तो एम.ए में मैंने स्टडी स्टार्ट की थी। उसके बाद मैंने नेट किया और देल्ही यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया और हो गया। रटने की कैपेसिटी मेरी अच्छी थी, तो मेरा आर.पी.एस.सी क्लियर (राजस्थान लोक सेवा आयोग उत्तीर्ण) हो गया।

मेरी छोटी बहन थ्रूआउट फर्स्ट क्लास थी, गोल्ड मेडलिस्ट थी। बहुत इंटेलीजेंट थी लेकिन उसका आर.पी.एस.सी वगैरह कुछ नहीं हुआ। इस वजह से वह बहुत निराश हुई और वह अवसाद में चली गई और उसका अभी साइकियाट्रिक हॉस्पिटल (मानसिक चिकित्सालय) में ट्रीटमेंट (इलाज) चल रहा है, वो अडमिट (भर्ती) है। आज भी वो मुझसे ज़्यादा इंटेलीजेंट है। उसको नॉलेज (ज्ञान) मुझसे ज़्यादा है। डिसीज़न मेकिंग (निर्णायक क्षमता) उसकी मेरे से ज़्यादा अच्छी है पर वो आज मेंटल हॉस्पिटल में एडमिट है।

दूसरा फिर आर.पी.एस.सी क्लियर करने के बाद भी मैं जिस डिपार्टमेंट में गई हूँ, उस डिपार्टमेंट में जाकर मुझे थोड़ी सी भी खुशी नहीं मिली। हर तरफ़ करप्शन , हर तरफ दोगले लोग हैं। किसी से आप दोस्ती नहीं कर सकते, उनके साथ बैठकर बात करने का मन नहीं करता। ऑफिस में रुकने का मन नहीं करता। हर वक्त ये सब चलता रहता है।

अभी मेरे एक जानकर हैं, उनका कपड़े का व्यवसाय है। उनकी एक फाइल हमारे विभाग में आयी है। नियमतः मामला उस व्यक्ति के पक्ष में है, लेकिन मेरे वरिष्ठ अधिकारी ने उस पर डेढ़ करोड़ का पेनाल्टी लगा दिया है। वह अधिकारी बहुत ही भ्रष्ट है। जब मैंने अपने दफ़्तर के सहकर्मियों से इस विषय में चर्चा की और उस अधिकारी का विरोध करने का विचार किया तो सभी ने मुझे इस चक्कर में न पड़ने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि इसे ऐसा मानो कि जैसे बच्चा पैदा होता है तो हिजड़े आते हैं, तो कुछ न कुछ तो देना पड़ता है; उसी प्रकार यदि फाइल हमारे विभाग में आ गई है तो उसे भी कुछ न कुछ देना ही पड़ेगा, चाहे वह व्यक्ति सही ही क्यों न हो।

अब उसको डेढ़ करोड़ की पेनाल्टी से बचने के लिए पंद्रह-बीस लाख देने पड़ेंगे।

मुझे लगता है कि विभाग में रहकर मैं अपने परिचित लोगों के लिए कुछ नहीं कर पा रही हूँ तो दूसरों के लिए क्या कर पाऊंगी। मेरे उच्चाधिकारी व्यक्तिगत रूप से इतने भ्रष्ट और बुरे व्यक्ति हैं कि उनको नमस्ते करने का या कोई भी सम्मान देने का बिलकुल भी मन नहीं करता, पर चूँकि वो मेरे वरिष्ठ हैं तो मजबूरन ये सब करना पड़ता है। मैं इस घुटन भरे माहौल में काम करते हुए परेशान हो चुकी हूँ। अब मुझे लगता है कि सिविल सेवा की परीक्षा देनी ही नहीं थी, क्योंकि यहाँ आकर तो और भी बुरा हाल है।

आपने इस विषय में कहा तो मैं ये उदाहरण दे रही थी।

आचार्य: मैं क्या बोलूँ? सरकारी कामकाज की भुक्तभोगी तो आपकी संस्था भी है। हमारी ही सरकार से, खास तौर पर आपके विभाग से, जो काम है वो कोई हो थोड़े ही रहे हैं। एकदम सीधी-सीधी चीज़ होगी, उसपर सालों से चढ़ कर बैठे हुए हैं, काम नहीं करके दे रहें।

देखिए दो तरह के लोग होते हैं। आप चुन लीजिए, आपको कौन सा व्यक्ति बनना है। एक व्यक्ति वो होता है, जो जब देखता है कि सामने शोषण करने वालों का समूह है, तो कहता है कि "मैं भी उसी का हिस्सा बन जाता हूँ। उसका हिस्सा बन जाऊँगा, तो लूट में मुझे भी भागीदारी मिलेगी।" दूसरा व्यक्ति होता है, जो कहता है, "सामने ये लुटेरों का दल है, मैं इनका हिस्सा नहीं बनूँगा। मुझे इनकी लूट में साझेदारी नहीं चाहिए। मैं इस दल को बिलकुल चुनौती दूँगा। मिटा सकता हूँ, तो मिटा दूँगा। नहीं, तो मेरा जो होगा सो होगा, देखा जाएगा।"

आप चुन लीजिए कि आपको लुटेरों के दल को चुनौती देनी है या उनका हिस्सा बनना है। जो भीतर का स्वार्थी जानवर है, वो तो यही बोलेगा कि, "अरे काहे को झंझट में पड़ना? तुम भी उन्हीं का हिस्सा बन जाओ न।"

हम उनका हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं, उनको खुले आम चुनौती देते हैं। आपको किसी तरह का आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अगर आने वाले कुछ महीनों में या सालों में आपको पता लगे कि संस्था कई तरीकों की मुसीबतों में आ चुकी है, सरकारी विभागों के साथ, पुलिस के साथ, इनकम टैक्स (आयकर) के साथ। वो कोई हमे छोड़ थोड़ी ही देंगे; होम मिनिस्ट्री (गृह मंत्रालय) है, सी.बी.आई (केंद्रीय जाँच ब्यूरो) है, बहुत कुछ है। जो उनके साथ नहीं है, वो उनके खिलाफ़ है।

प्र५: आचार्य जी नमस्ते। मेरा नाम विराज है और मैं मध्यप्रदेश से आया हूँ। मैं सामाजिक विकास के क्षेत्र में काम करता हूँ। मेरा प्रश्न ये है कि जैसे मैं काम करता हूँ, तो मुझे ये समझ आता है कि लोग मिलकर काम नहीं कर पाते, इसमें बहुत समस्या दिखाई देती है। खासकर जब मैं परिवारों के स्तर पर देखता हूँ, ऑफिसेज़ में देखता हूँ, तो किसी उद्देश्य के लिए लोग साथ नहीं आ पाते।

ऑफिसेज में, ब्यूरोक्रेसी में और ऊपर स्तर पर भी मानव का मानव के साथ जुड़कर काम कर पाना देखने में नहीं आता है। अक्सर वो या तो डर के लिए या भय के लिए या लालच के लिए होता है, लेकिन एक जो आपसी करुणा होती है और जो ट्रस्ट (विश्वास) होता है, उसका बहुत अभाव दिखाई देता है, और ये मुझे एक पैन्डेमिक की तरह दिखता है, तो इसमें मार्गदर्शन चाहूँगा।

आचार्य: देखो, चूँकि आप सामाजिक क्षेत्र में काम करते हो न, और समाज का मतलब होता है: मैं और तुम। तो इसीलिए आपकी जो पूरी भाषा है, वो मैं और तुम की है।

आप कह रहे हो, दो मनुष्यों के बीच में सामान्य मानवीय संबंधों का अभाव है, वगैरह-वगैरह। दूसरे से आप क्या संबंध रखोगे जब आप स्वयं को उल्टा-पुल्टा जानते हो। अगर आप स्वयं को जानते हो कि मैं एक जीव हूँ, जो दुनिया में आया है दुनिया को भोगने के लिए, तो आप दूसरे का भी इस्तेमाल करोगे उसको भोगने के लिए, उसके शोषण के लिए। और आप यही सोचोगे कि जैसे आप सबका शोषण करना चाहते हो, वैसे सब लोग सबका शोषण करना चाहते हैं।

माने दूसरा आपका शोषण करना चाहता है, तो आप दूसरे को लेकर के संदेह में रहोगे, उस पर शक करोगे, "कहीं ये मुझे बेवकूफ़ तो नहीं बना रहा?" तो एक दूसरे के बीच में जो संबंध होते हैं, वो मूलतः आधारित होते हैं कि आप अपनेआपको कितना जानते हैं। बात आपके और उस दूसरे व्यक्ति के बीच की नहीं है। बात सर्वप्रथम आपके और आपके बीच की है। जो इंसान अंदर से ही उलझा हुआ है, वो बाहर सुलझे हुए संबंध कैसे बना लेगा?

पर हम चाहते यही हैं कि हमारी दुनियादारी, हमारे सामाजिक रिश्ते-नाते, हमारी रिश्तेदारी बढ़िया चलती रहे; भीतर घोर अँधेरा, बड़ा अज्ञान है। कैसे चल पाएगा? भीतर उलझे हो, बाहर तुम्हारे कैसे साफ़-सुथरे और बढ़िया, स्वस्थ संबंध बनेंगे, कैसे?

तो समाजशास्त्र के आधार में अध्यात्म को होना चाहिए। लेकिन जो लोग सामाजिक क्षेत्रों में कार्यरत होते हैं, वो भी बस मैं और तुम की भाषा बोलना शुरू कर देते हैं। पहले मैं और मैं की भाषा बोलना सीखो। मैं और मैं माने? दो 'मैं' होते हैं। कौन से दो 'मैं' होते हैं? एक अहम् और एक आत्मा। पहले, मैं और मैं की भाषा सीखनी पड़ेगी। अगर 'मैं' को समझ लिया, तो 'तुम' के साथ सारा खेल एकदम आसान हो जाता है। लेकिन पहले 'मैं' को समझना पड़ता है।

प्र५: नमस्ते। अभी यू.पी.एस.सी के बारे में बात हो रही थी। मैं भी पिछले तीन साल से यू.पी.एस.सी के लिए तैयारी कर रहा हूँ। उसकी शुरुआत इसलिए की थी क्योंकि मेरा कॉलेज में प्रदर्शन औसत दर्जे से भी कम था। वो हीनभावना हटाने के लिए मैंने यू.पी.एस.सी की तैयारी शुरू की थी। अभी तीन साल बाद दिख रहा है कि नहीं हो पाएगा। कुछ ज़्यादा ही कठिन है, आचार्य जी। लेकिन अभी उसको छोड़ने में डर लग रहा है। उसका अल्टरनेटिव (विकल्प) अच्छा नहीं लग रहा। यही प्रश्न है।

आचार्य: अल्टरनेटिव अच्छा दिख नहीं रहा है, तो अच्छा अल्टरनेटिव पैदा करो न, निर्माण करो। अच्छा अल्टरनेटिव कोई थाली पर सजा करके थोड़े ही दे देगा, कि ये लो नियुक्ति पत्र, अब यहाँ काम कर लो। अच्छी नौकरियाँ देने वाला कोई नहीं है, तो अच्छी नौकरी अपने लिए खुद तैयार करो। क्या समस्या है?

मेहनत करनी पड़ेगी। जान लगानी पड़ेगी, भला है न! ज़िंदगी को एक समुचित उद्देश्य मिल जाएगा। इसी बहाने जीवन अच्छे से कट जाएगा। कोई कठिनाई मिल जाए ज़िंदगी में, तो उससे कम से कम ज़िंदगी को एक डूबकर और उत्पादक तरीके से जीने का कारण तो मिल जाता है न?

नहीं तो कुछ अगर चुनौतीपूर्ण नहीं है ज़िंदगी में, तो ज़िंदगी छितराई हुई सी रहती है। तुम्हारी ऊर्जा इधर-उधर भटकती रहती है। क्योंकि करने को कुछ नहीं है, तो क्या करोगे? कभी इधर मुँह मारोगे, कभी उधर कुछ करोगे, इसके तुम फटे में टाँग डालोगे; इधर-उधर की दुनिया भर की चीज़ों में अपना वक्त, अपनी ऊर्जा बर्बाद करोगे।

इससे अच्छा है कि कहो कि, "नहीं मिल रहा है, हम खुद तैयार करेंगे।" अपनी नौकरी मैं खुद तैयार करूँगा। लेकिन उसके आड़े आता है, बेबसी का तर्क। आज देश के युवाओं के लिए वेदान्त बहुत-बहुत ज़रूरी है और सबसे बड़ा सहारा है। क्योंकि वेदान्त जो एक चीज़ आपसे छीन लेगा, वो है आपकी बेबसी का तर्क।

एक बार आपने अपनेआपको बेबस, मजबूर कहना छोड़ दिया, उसके बाद आपको कोई नहीं रोक पाएगा, अपने लिए अपने ज्ञान का, अपने विवेक का और अपनी मर्ज़ी का भविष्य तैयार करने से। आपको कोई नौकरी मिल भी जाती है, तो वहाँ रहते तो किसी और के रहमोकरम पर ही हो न? बॉस के, व्यवस्था के, बाज़ार की ताकतों के।

कहीं पर प्राइवेट सेक्टर में कोई वेकैंसी निकली थी, आप घुस गए। जिस चीज़ की वेकैंसी थी, उसकी मार्केट कुछ दिनों में खत्म हो गई। तो आपकी जॉब बची रहेगी क्या? और सरकारी नौकरी में हो तो वहाँ पर सरकारी पॉलिसी से ले कर के नेता और तुम्हारे वरिष्ठ, इन सब की दया पर ही आश्रित हो।

अपना कुछ करो जहाँ अपने मालिक खुद रहोगे। वहाँ कह देते हैं, "हम क्या करें, हमारे पास पैसा नहीं है, हमारे पास अनुभव नहीं है, हम मजबूर हैं।" तुम्हें वेदान्त चाहिए ताकि तुम्हारे दिमाग में मजबूरी का ख्याल ही कभी दोबारा नहीं आए। क्योंकि मजबूर तुम हो नहीं। एक तरह से इस देश की बेरोजगारी का भी समाधान वेदान्त में ही है।

इतने लोग हैं। उनको बहुत तरह की चीज़ें चाहिए और सेवाएँ चाहिए। तुम, वो उनको क्यों नहीं मुहैया कराते? और अगर तुम उन्हें वास्तव में कोई ऐसी चीज़ दे पा रहे हो, जो उनके काम की है, तो क्या वो तुम्हें पैसे नहीं देंगे? बस इतनी सी बात पूछ रहा हूँ, एकदम मोटी-मोटी बात। देश में इतने लोग हैं, उनमें से अधिकतर जवान लोग हैं और उनके पास नया-नया पैसा आया है। भारत में पिछले बीस साल में समृद्धि खूब बढ़ी है।

जवान लोग हैं, जिनके पास आकांक्षाएँ और ज़रूरतें होती हैं और उनके पास पैसा भी है। सबके पास नहीं है, मैं औसत की बात कर रहा हूँ। औसत आय बढ़ी है। तो एक आदमी है, जिसके पास पैसा भी है और ज़रूरत भी है। वो तुम्हारे लिए एक व्यापार का अवसर है या नहीं है? पूछ रहा हूँ, बोलो। तो तुम क्यों किसी का मुँह देख रहे हो कि फिर ये हो जाए, वो हो जाए। कुछ करना है?

लोगों की हर तरह की ज़रूरतें हैं। मानसिक जरूरतें हैं, भौतिक जरूरतें हैं, आध्यात्मिक जरूरतें हैं, जायज़ ज़रुरतें हैं। तुम उन ज़रूरतों को पूरा करो न? मैन्युफैक्चरिंग में भी बहुत ज़रूरत है, सर्विसेज में ज़रूरत है, टेक्नोलॉजी में ज़रूरत है। लोग माँग रहे हैं सेवाएँ, सुविधाएँ, प्रोडक्ट्स , उन्हें चाहिए। वो सेवाएँ देने वाला कोई नहीं है। उन उत्पादों को बनाने वाला कोई नहीं है। फिर कहते हो, "बेरोज़गार हो।"

अपने ही मोहल्ले में देख लो, न जाने कितनी चीज़ों की ज़रूरत होगी। अपनी सोसाइटी में जा करके थोड़ा खुली आँखों से देखना, कितनी चीज़ों की ज़रूरत होगी। पर उन चीज़ों को देने वाला कोई नहीं, उन कामों को करने वाला कोई नहीं। जो काम करे जाने चाहिए, हो नहीं रहें हैं, तुम उन्हें करना शुरू कर दो। और अगर वो काम अच्छा होगा, तो लोग पैसा देंगे या नहीं देंगे?

जल्दी बोलो। देंगे, हो सकता है बहुत ज़्यादा न दें। तो तुमसे कौन कह रहा है कि अपने खर्चे बहुत बढ़ा कर रखो? खर्चे कम रखो, तुम्हारा काम चलने लगेगा और सीखते चलो। काम आगे बढ़ेगा, पैसा उसके पीछे-पीछे खुद आ जाएगा। उस डर को तुमसे छीनने के लिए वेदान्त चाहिए।

ये बेबसी, मजबूरी, डर, झिझक, अनिश्चय, संदेह, असुरक्षा, ये सब वेदान्त की झाड़ू से ही साफ़ होंगे।

प्र६: आचार्य जी, जैसे मेरा ये चौथा शिविर है। तो हर शिविर के बाद जब मैं घर जाता हूँ तो एक पैटर्न नोटिस होता है। जो यहाँ से क्लैरिटी मिल रही है, मन साफ़ हो रहा है, इसका असर रहता है; कभी-कभी एक महीना, दो महीने। तो दो महीने के बाद एक ऐसा पॉइंट आता है कि जो भी आपने बताया है, वो सब कुछ मैं भूल जाता हूँ। और बेहोश होकर पिछले पुराने ढर्रे पर वापस चला जाता हूँ। अभी जो पहले शिविर में जितना इम्पैक्ट (प्रभाव) हुआ था, बाकी मैं जितने भी शिविर आ रहा हूँ, वो इम्पैक्ट कम होता जा रहा है।

आचार्य: कुछ कर ही नहीं सकते न हम। जितनी हमारी ताक़त है, यहाँ से उतना कर रहे हैं। बाहर निकल करके बहुत बड़ी दुनिया है। तुम उसमें चले जाते हो और खो जाते हो, तो मेरे प्रभाव क्षेत्र में फिर रहते नहीं न। मेरा प्रभाव क्षेत्र यहाँ (शिविर) तक सीमित है या मेरा प्रभाव क्षेत्र तुम्हारे मोबाइल में मौजूद है। इन दो जगहों के अलावा मेरा प्रभाव अभी कहीं पर नहीं है।

या तो अगर मुझे देखोगे-पढ़ोगे, तो मेरे प्रभाव में आओगे या फिर मेरे सामने बैठकर मुझे सुनोगे, तो मेरे प्रभाव में आओगे। और दुनिया है, बहुत बड़ी! दुनिया में करोड़ों ऐसी जगह हैं, जहाँ तुम अगर चले जाओगे, तो मेरे प्रभाव से बाहर हो जाओगे। मेरा एक छोटा सा फील्ड (क्षेत्र) है न? द फील्ड ऑफ माई इन्फ्लुयेन्स (मेरे प्रभाव का क्षेत्र)।

तुम उससे बाहर चले जाते हो, मैं क्या कर सकता हूँ? मेरे पास कोई समाधान होता, तो मैंने कर दिया होता। समाधान मैं यहीं कर सकता हूँ कि मैं अपना क्षेत्र बढ़ाऊँ। पर अपना क्षेत्र बढ़ाने के लिए मुझे साधन चाहिए। वो साधन भी—अब मैं तो नोट छाप नहीं सकता — वो साधन भी मुझे तुम ही लोगों से चाहिए होते हैं, वो तुम देते नहीं। तो मैं जो अधिकतम कर सकता हूँ, कर रहा हूँ। फिर मेरे ही पास आकर बोलते हो, "आचार्य जी, बाहर निकल जाते हैं, तो फिर जितना सीखा था, समझा था वो….।"

भाई! मेरा दायरा बढ़ाओ ताकि मेरे दायरे से बाहर निकलने की ज़रूरत न पड़े।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=BqEboL2wpL0

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