प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! दो-हज़ार-सोलह में प्रतियोगी परीक्षा देकर बैंक में लगा था। लेकिन लगभग एक साल से मुझे ऐसा लग रहा है कि इसे छोड़कर कुछ ऐसा करूँ जिससे मेरी ज़िन्दगी लोगों के काम आये। और अब मैं इस पड़ाव पर आ गया हूँ कि मैंने निर्णय लिया है कि फरवरी अन्त तक मैं त्यागपत्र दूँगा।
आचार्य प्रशांत: करो बिलकुल करो, बिलकुल करो, बेशक करो। बस अपनेआप को ले करके यथार्थ में जीना, कल्पना में नहीं। अगर वास्तव में गम्भीर हो किसी ऊँचे लक्ष्य के प्रति, तो अपनी सामर्थ्य को लगातार परखते रहना, क्योंकि ऊँचा लक्ष्य ऊँची सामर्थ्य भी माँगता है। तो आगे ज़रूर बढ़ना पर व्यावहारिक रहना।
एक तो बात ये है कि कह दिया कि आसमान तक जाना है, आसमान तक जाना है। भावना के आवेग में कह दिया और अभी पंखों में जान कितनी है ये देखा ही नहीं। ये व्यक्ति आसमान से कोई विशेष प्रेम नहीं रखता। क्योंकि प्रेम तो बहुत गम्भीर होता है अपने लक्ष्य को लेकर, प्रेम तो ये बर्दाश्त ही नहीं कर सकता कि जो चाहा वो पाया नहीं।
प्रेम तो जब कोई लक्ष्य बनाएगा उसको पाने के लिए पूरा प्रयत्न और पूरा आयोजन भी करेगा। है न? बड़ा व्यावहारिक रहेगा प्रेम, वो जाँचेगा, परखेगा कि जो लक्ष्य है उसको पाने के लिए क्या चाहिए और क्या है मेरे पास? ऐसे रहना, भावना के आवेग में मत आगे बढ़ना। लक्ष्य ऊँचा बना रहे हो, इससे सुन्दर बात कुछ नहीं हो सकती। अब बहुत सतर्कता से देख-सम्भाल करके आगे बढ़ते रहो और लगे रहो।
ऐसा समझ लो कि लक्ष्य तुमने बनाया है हृदय से, पर रास्ता और संसाधन तय करो बुद्धि से। मंज़िल बनाओ दिल से लेकिन रास्ता और संसाधन तय करने में बुद्धि और दिमाग भी लगा लो। पहला काम दिल करे, मूल काम, केन्द्रीय काम तो दिल का रहे, वहाँ दिमाग को हस्तक्षेप मत करने देना। लक्ष्य तुमने दिल से बना ही लिया बहुत अच्छा। अब बुद्धि का, दिमाग का पूरा उपयोग करो, गौर से देखो वहाँ तक पहुँचना कैसे है। ठीक है?
प्र: आचार्य जी, आप कह रहे हैं। बुद्धि से उस लक्ष्य तक पहुँचना कैसे है? तो वो हमें सिर्फ़ ये देखना है कि क्या-क्या हमें जो चीज़ें सीखनी है, हम उस पर फ़ोकस करें?
आचार्य: बिलकुल। तुम्हारी ऊर्जा कितनी है, तुम्हारे पास समय कितना है, तुम्हारे पास पैसा कितना है, तुम्हारे पास योजना कितनी साफ़ और सुदृढ़ है, ये सब तुम्हें देखना पड़ेगा न? जीवन कोई फंतासी और शायरी ही भर नहीं है। कि पल भर का ज़ुनून, पल भर का जज़्बा, और बात बन गयी। पूरे जीवन की आहुति देनी पड़ती है। और जो कुछ तुम दे सकते हो आहुति में वो बड़ा कम है, बड़ा सीमित है।
समय सीमित है, जीवन सीमित है, सब संसाधन सीमित हैं तो उनका बड़ा बुद्धिपूर्वक इस्तेमाल करना है। नहीं तो छोटी सी ज़िन्दगी है वो बीत जाएगी। सामर्थ्य कितना है? सीमित! दिन कितने हैं? सीमित! धन कितना है? सीमित! बल कितना है? सीमित! लक्ष्य कैसा है? बहुत बड़ा! तो बुद्धिपूर्वक ही इस्तेमाल करना पड़ेगा न? नहीं तो लक्ष्य मिलेगा नहीं।
जो बहुत ऊँचा लक्ष्य बनाये, जो हार्दिक लक्ष्य बनाये उस पर ज़िम्मेदारी आ जाती है कि वो फिर उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बुद्धि का पूरा-पूरा उपयोग करें। मंज़िल दिल से, रास्ता और संसाधन दिमाग से। उल्टा मत चल देना कि मंज़िल निकल रही है दिमाग से, ज़्यादातर लोगों की तो मंज़िल ही दिमाग से निकलती हैं, उन्हें कभी चैन नहीं मिलेगा। अब तुमने बड़ी ज़िम्मेदारी उठा ली है तो बहुत सम्भाल-सम्भाल कर, भावना से बिलकुल परे हटकर बड़ी सतर्कता के साथ।
ये नहीं कि खून की उबाल में कोई काम कर गये । एक-एक कदम देख समझ के उठाओ और तुम्हें सफलता मिले। जो लोग ऊँचे काम का बीड़ा उठाएँ, उनके लिए और अनिवार्य हो जाता है कि अब वो बहुत सतर्कता पूर्वक चलें।
तुम इसी सड़क पर दौड़ लगा दो, तुमको वहाँ सामने तक जाना है तो तुम सतर्क हो या नहीं हो, कोई बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। पर तुम एवरेस्ट पर चढ़ाई कर रहे हो तो बहुत सतर्कता चाहिए, एक भी कदम बेहोशी, असावधानी में मत रख देना। तुमने बड़ा लक्ष्य बनाया है, बिलकुल ध्यान के साथ, एकजुट होकर, पूर्ण निष्ठा से अपने लक्ष्य की सेवा में लग जाओ।
प्र: ये बातें आचार्य जी समझ में आ गयी लेकिन ये छोड़ना समझा दो हमें तो बस।
आचार्य: मैं कह ही नहीं रहा छोड़ दो। कुछ नहीं छूटता जब तक कि कुछ उससे बहुत बड़ा तुम्हें खींचने न लग जाये। नहीं तो छोड़ोगे भी ज़बरदस्ती, छूटेगा नहीं। इतने लोग कोशिश करते हैं, त्याग की, वैराग्य की कहाँ हो पाता है। प्राप्ति अगर नहीं हो रही है, तो त्याग बड़ा मुश्किल है, प्राप्ति करती चलिए त्याग सहज हो जाएगा। दोनों साथ-साथ चलेंगे फिर, प्राप्ति तो त्याग होगा और त्याग होगा तो और प्राप्ति होगी, फिर दोनों साथ-साथ चलेंगे।
प्र: पहले रहता था कि बैंक के कर देंगे या फिर एसएससी की प्रिपरेशन (तैयारी) कर रहे हैं या कुछ और कर रहे हैं तो ये और कुछ नहीं तो ये कर रहे हैं। इस बार ये नहीं पता है कि आगे जाके क्या एक्ज़ैक्टली (वस्तुत:) मतलब बिज़नेस है या किसी तरीके से हम जो एक माध्यम है वो क्या होगा, वो कुछ नहीं पता सिर्फ़ यही पता है कि मैं ये चीज़ें सीखूँगा और किसी तरीके से लोगों तक पहुँचाऊँगा।
आचार्य: बुद्धि। जब उन छोटी-छोटी चीज़ों को हासिल करने के लिए भी इतनी अक्ल लगानी पड़ती थी। वो सब प्रतियोगी परीक्षाएँ जिनका तुमने नाम लिया बैंक, एसएससी वगैरह वो सब उस लक्ष्य के सामने बहुत छोटी है जो तुमने अब तय किया है। लेकिन उन छोटे लक्ष्यों को भी हासिल करने के लिए याद करो तुमने कितनी बुद्धि लगायी, लगायी? पूरी अक्ल लगायी न?
तो जब छोटे लक्ष्यों के लिए उतनी अक्ल लगती है तो महालक्ष्य के लिए कितनी लगेगी? तो जी तोड़ श्रम करना पड़ेगा, खोजबीन करनी पड़ेगी, दौड़-धूप करनी पड़ेगी, बड़ी मेहनत। अपने सामर्थ्य को लगातार जाँचते चलना, लगातार। सामर्थ्य में कमी नहीं होनी चाहिए। संकल्प, संवेदना बहुत मज़बूत बने रहने चाहिए। उनके बिना कोई ऊँचा लक्ष्य हासिल नहीं होता।
प्र: आचार्य जी ये सामर्थ्य की जो आप बात कर रहे हैं वह किस तरीके से मतलब?
आचार्य: बेटा बहुत भौतिक तरीके से, बहुत भौतिक तरीके से। किसी काम में दस रूपये लगने हैं, तुम्हारे पास दो ही है तो साफ़-साफ़ स्वीकार करो कि तुम्हारे पास दो ही है। जब मानोगे कि दो ही हैं और मेरा सामर्थ्य दो तक ही सीमित है, तब तो जाकर के बाकी आठ का इंतज़ाम करोगे न? तो अपने सामर्थ्य को लगातार जानते चलो की कितना चाहिए और कितना है और उसमें जो अन्तर हो, जो डिफरेंस (अन्तर) है, वो तुम्हारी मेहनत को भरना होगा।
जोश पूरा चाहिए पर सक्रिय जोश नहीं। एक-बारगी उबाल खाकर जो ठंडा हो जाये ऐसा जोश नहीं। ऐसा जोश चाहिए जिसमें बड़ी दीर्घ अवधि हो। दीर्घायु जोश चाहिए, हल्के-फुल्के जोश से बात नहीं बनेगी।
प्र: मतलब जब तक जीवन काल रहे तब तक?
आचार्य: तब तक रहे! आमतौर पर हम जिसको जोश कहते हैं वो बिजली की कड़क जैसा होता है। जब है तब तो बहुत प्रबल पर क्षणभंगुर । अभी था अभी गया, है न? हमको जोश चाहिए सागर जैसा, कि अनन्त समय से लहरा रहा है और लहराता ही जा रहा है। इतना जोश है कि उसमें की लहरें थम ही नहीं रही, थक ही नहीं रहा वो। तो जोश वो चाहिए जो थकान से आगे का हो। तूफ़ान जैसा जोश नहीं चाहिए क्योंकि तूफ़ान कितने भी प्रबल हो, आते हैं और? चले जाते हैं। तूफ़ानों वाला जोश नहीं चाहिए। ऐसे कह लो एक शान्त जोश चाहिए। ऐसे कह लो कि गर्म जोश नहीं ठंडा जोश चाहिए, ऐसा जोश नहीं चाहिए जिसमें बड़ी लपट हो, बड़ी आग हो, जो देखने में बड़ा प्रभावी लगे। ऐसा जोश चाहिए जो करीब-करीब अदृश्य हो। पता भी ना लगे की जोश है और अन्दर-ही-अन्दर सुलगता रहे। उसकी मियाद फिर बहुत लम्बी होती है।
पाँवों के दौड़ने जैसा जोश नहीं चाहिए, दिल के धड़कने जैसा जोश चाहिए। दोनों का अन्तर समझते हो न? पाँव कितना दौड़ेंगे घंटा, दो घंटा, चार घंटा फिर? रुक जाएँगे और दिल? वो धड़कता ही जाता है, पर पाँव का दौड़ना दिखता है और दिल का धड़कना? दिखता नहीं, दिल के धड़कने जैसा जोश चाहिए।