सारी बेचैनी किसलिए? || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

Acharya Prashant

6 min
78 reads
सारी बेचैनी किसलिए? || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक पर (2014)

“गावनी तुधनो चितु गुपतु लिखि

जाणनि लिखि लिखि धरमु बीचारे”

रहससि साहिब (नितनेम)

वक्ता: नानक कह रहे हैं कि जो कौन्शिअस (सचेत) मन होता है, – विचारशील मन – वो दृश्यों में और ध्वनियों में चलता है। तो उसको उनहोंने इंगित किया है ‘चित्र’ से। और जो छुपा हुआ मन है – सब्कौन्शिअस (अवचेतन) मन, जहाँ वृत्तियाँ निवास करती हैं – वहाँ जो रहता है वो पता नहीं चलता। हमें ही नहीं पता होता, ‘हमें’ माने विचार को, विचार को ही नहीं पता होता कि उसके नीचे कौन सी वृत्ति है, तो उसको उनहोंने गुप्त नाम दिया है, छिपा हुआ।

तो यमराज के जो मुंशी जी हैं- ‘चित्रगुप्त’, जो रेकॉर्ड कीपिंग करते हैं सारी…

श्रोता १: तो सर इसका मतलब यही मन कौन्शिअस भी है और यही मन अन्कौन्शिअस भी है?

वक्ता: वो तो है ही, वो तो हम जानते ही हैं। क्या आपको पता है सब कुछ जो मन में दबा हुआ है, छुपा हुआ है? हज़ारों लाखों वर्षों के जो अनुभव, या पिछले बीस-साल के ही जो अनुभव हैं आपके, वो आपको पता है क्या-क्या थे, और कहाँ से क्या गाँठ बंध गयी है? उसको वो गुप्त कह रहे हैं। तो जो आम मान्यता है कि हमारे एक–एक कर्म का लेखा–जोखा रखा जा रहा है चित्रगुप्त के द्वारा, उस पर टिपण्णी करी है कि लेखा-जोखा रखने वाला कर्म का हिसाब रखने वाला कोई और नहीं है। आपके एक-एक कर्म को देखने वाला और उसको अंकित कर लेने वाला आपका ही मन है।

‘धर्म’ यहाँ पे, जब चित्रगुप्त के साथ ‘धर्म’ कहेंगे तो उससे आशय होगा ‘धर्मराज’; धर्मराज माने यमराज। यहाँ पर जब धर्म की बात हो रही है तो वो धर्मराज की बात हो रही है, यमराज की बात हो रही है।

तो कह रहे हैं नानक कि “ये सब भी, हे परम गुरु, तेरे ही गीत गाते हैं। विचारशील मन, वृत्ति मन, ये सब भी तेरे ही गीत गाते हैं।” गीत गाने से क्या आशय है? कि तुझे ही याद करते हैं। मन का कोई भी कोना सक्रीय ही इसीलिए है, है ही इसीलिये क्योंकि ‘तुझसे’ दूर है और तुझे याद कर रहा है; यही उसका काम है। यही सन्देश दे रहे हैं नानक कि मन का हर हिस्सा, रेशा- रेशा, कोना- कोना काम तेरी ही स्मृति में कर रहा है।

जब तेरे विरुद्ध भी जा रहा है, तो जो अपनी समझ में, उलटी दिशा में भी जा रहा है, तो भी जा तेरे ही वियोग में रहा है। तड़प तुझसे ही दूर होने की है। हाँ, रास्ते कुछ उलटे-पुलटे खोज लिए हैं। रास्ते लम्बे खोज लिए हैं, ऐसे रास्ते खोजे हैं जो सीधे नहीं हैं, घुमावदार हैं, सर्पीले हैं, पथरीले हैं। लेकिन रास्ता फिर भी कैसा हो, जब उसके अलावा और कुछ है ही नहीं तो हर रास्ता अंततः ले उसी तक आएगा, बस कैसे ले के आता है और कितने समय में ले कर आता है, इसमें अंतर रहेगा।

वो कहानी सुनी है न कि एक ईमारत के सामने से एक आदमी जा रहा है, वो ईमारत से विपरीत दिशा में चला जा रहा है, उसे उस ईमारत तक ही जाना है। तो सामने से आते एक दूसरे आदमी से पूछता है कि “भाई! कितने देर में पहुँच जाऊँगा वहाँ?” तो वो जवाब देता है कि “जैसे चल रहे हो वैसे ही चलते रहे तो पहुँच तो जाओगे, 500-600 साल में। चलते रहो वैसे ही, पूरी पृथ्वी का चक्कर काटोगे और लौट कर पहुँच जाओगे।” तो हर रास्ता अंततः ले तो उसी ओर आएगा, पर रास्ते जो सीधे हो सकते हैं कि मुड़ो और पहुँचो, एक कदम, ठीक सामने ही है, वो रास्ता हम बहुत तकलीफ़देह और लंबा बना देते हैं।

बाकी आप ये आश्वस्थ रहिये कि आप मानते हों कि ना मानते हों, आप भले ही अपनी ओर से तय कर के चल रहे हों कि मुझे उसकी ओर नहीं जाना है, आप उसकी विपरीत दिशा भी पकड़ रहे हों, पूरी गणित लगा कर के, तो भी आप अंततः पहुँच तो जाएँगे ही। उसके अलावा और कोई मंज़िल नहीं है।

श्रोता २: सर, वो दोहा था न-

तुलसी अपने राम को, बीज भजो या खीज।

टेढ़ो-मेढ़ो उभरे, खेत पड़े को बीज।।

वक्ता: बहुत बढ़िया।

तो रम-रम के पहुँचो, अच्छा है, नहीं तो मर-मर के पहुँचोगे। उसी मर-मर के पहुँचने को ‘चौरासी का फेरा’ कहा गया है, कि मर-मर के पहुँच रहे हो। उससे अच्छा है कि रम-रम के पहुँच जाओ। तो चित्र हो कि चाहे गुप्त हो, एक-एक नस, मन की एक-एक लहर, हर संवेग, है तो उसी की वजह से और उसी के लिए; उसी की वजह से है और उसी के लिए भी है। होश में इस बात को पहचान लो तो अच्छा है, तुम्हारे ही लिए अच्छा है, भुगतोगे कम, कष्ट में कम रहोगे। नहीं पहचानो तो भी कोई बात नहीं, भुगतने की पूरी आज़ादी है।

अरे जो अपरिहार्य है, जो होना ही है, उसको हो जाने दो न। काहे को व्यर्थ की हाय-तौबा मचा रखी है? दुनिया में इससे ज़्यादा बेवकूफ़ी का कोई काम होता नहीं; जो पता है, कि होना ही है, फिर भी उसको रोके खड़े हैं। या तो तुम्हें आश्वस्ति हो कि तुम रोक लोगे; रोक तो तुम सकते नहीं, तुम्हारे बस की नहीं। रोकना तुम्हारे बस की नहीं, लेकिन अड़चन डाले फिर भी खड़े हो।

श्रोता ३: सर, यहाँ न थोड़ा कन्फ्यूज़न (उलझन) हो जाता है, कि एक तरफ़ हम पूरी तरह मान रहे हैं कि कुछ होगा नहीं, जो होगा वो अपने आप होगा, हमसे तो कुछ होना है नहीं, उसमें हम कुछ नहीं कर सकते हैं।

वक्ता: ‘जो होगा अपने आप होगा, हम कुछ नहीं कर सकते’, ये भी कर्ताभाव ही पकड़ लिया आप ने। वो बात बहुत सूक्ष्म है। इतनी नहीं है कि ‘जो होगा अपने आप हो जायेगा, हम कुछ नहीं कर सकते’ – बहुत हलकी बात है ये। वो बात ऐसी है कि करते हुए भी ‘मैं’ कर नहीं रहा। वो ये नहीं है कि हम कुछ नहीं कर सकते। वो बात ऐसी है कि करते हुए भी ‘मैं’ कर नहीं रहा। ‘मैं’ नहीं कर रहा हूँ, ये तो बात है ही नहीं। ‘न करने’ में तो ‘करना’ आ गया; अकर्ता बहुत सूक्ष्म बात है।

अकर्ता का अर्थ कर्म का निषेध नहीं होता है।

कर्म को रोक देने का नाम नहीं है ‘अकर्ता’ हो जाना।

अब तो आप ‘कर्ता’ हो।

और वो कर्ता क्या कर रहा है?

कर्म को रोक रहा है।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories