सरलतम व श्रेष्ठतम मन ही आध्यात्मिक हो सकता है || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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सरलतम व श्रेष्ठतम मन ही आध्यात्मिक हो सकता है || आचार्य प्रशांत (2014)

आचार्य प्रशांत: ब्रह्म विद्या सूक्ष्तम विद्या है और ये श्रेष्ठतम मनों के लिए है। हम बहुत भूल करेंगे अगर हम सोचेंगे कि जो गए-गुज़रे किसी काम के नहीं होते, समाज से पूरे तरीके से त्यक्त जो लोग हैं, निर्वासित किस्म के, आध्यात्मिकता उनके लिए है। कि जब बूढ़े हो जाओ और मरने का वक़्त आ जाए तो आध्यात्मिक हो जाओ। जब तुमको ये भी याद नहीं है कि कपड़े पहन रखें है या नहीं, मुँह में दाँत नहीं और पेट में आँत नहीं, तब आध्यात्मिक हो जाओ।

और न ये मूर्खों के लिए है कि जो किसी काम का नहीं है वो साधु बन जाए। कि जितने लोग घर से फेंके हुए लोग हैं – कि और तो कुछ कर नहीं सकता ऐसा कर तू बाबा बन जा। ये उनके लिए नहीं है, ये श्रेष्ठतम मन के लिए है। ये बातें इतनी सूक्ष्म हैं कि भोथली बुद्धि को समझ में नहीं आएँगी। वो यही कहेंगे कि – हैं! ये क्या बोल दिया, ऐसा कैसे हो सकता है।

अब उसमें लोचा यह है कि बुद्धि में धार भी इसी रास्ते पर चल कर आती है। तो जिसकी बुद्धि भोथली है उसमें धार भी आए कहाँ से? उसको इसी रास्ते चलना पड़ेगा, वास्तव में।

यह सबसे बुद्धिमान लोगों का काम है, साधारण लोग इसकी तरफ आएँगे ही नहीं। उन्हें खुद ही अच्छा नहीं लगेगा, वो भागेंगे इससे। उन्हें तुम यहाँ सत्र में ले भी आओगे तो वो मुँह छुपा कर कहीं कोने में बैठे रहेंगे, उनका दम सा घुटेगा यहाँ, उन्हें लगेगा कि बस भागो यहाँ से।

गीता में कृष्ण अर्जुन को बहुत स्पष्ट रूप से बोलते हैं – कि अर्जुन दुनिया के कामों में जो श्रेष्ठतम काम हो सकता है वो यही है, स्वयं जगना और दूसरे को जगाना। बाकी सारे काम इसके समक्ष निकृष्ट हैं। इससे ऊँचा और इससे सुन्दर कोई काम नहीं हो सकता कि खुद जगे और अब दूसरों को जगा रहें हैं, पाया और गाया। बाकी सारे धंधे फिज़ूल धंधे हैं। यही एक मात्र धंधा है, बाकी तो तुम वही हो – हाड जले ज्यूँ लाकड़ी, केश जले ज्यूँ घास।

कभी ये मत सोचिएगा कि सबसे बुद्धिमान वो है जिसने बड़ी डिग्रियाँ इकट्ठी कर ली हैं। तो ये बिलकुल मत सोचना कि कोई वैज्ञानिक है, जो किसी ने एम.बी.ए कर लिया है या कोई कुछ और बन गया है तो वो लोग बड़े होशियार हैं। परम मूर्ख ही हैं सब। समाज ने बेशक उन्हें बड़ी इज्ज़त दी होगी और खूब पैसा कमा रहें होंगे पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें जब अपना ही पता नहीं तो उन्हें क्या पता है? बल्कि उनके लिए स्तिथि और कठिन हो गई है क्योंकि उन्हें ये भ्रम हो गया है कि उन्हें कुछ पता है, तो उनकी मुक्ति तो और कठिन है।

एक सामान्य आदमी तो फिर भी शायद कभी जगे पर ये लोग जो प्रोफेशनल कहलाते हैं समाज में और थोड़ा पैसा भी कमा लेते हैं, इन लोगों का जगना तो असंभव है क्योंकि इनके सामने इनकी उपलब्धियाँ ही बाधा बन जाएँगी। वो कहेंगे कि, "इन्हें छोड़ें कैसे और ये मानें कैसे कि हमने जो आज तक करा वो फिज़ूल था?" ये मानने में बड़ा कष्ट है कि, “जीवन व्यर्थ गया, ज़िन्दगी बेवकूफी में काट दी, ये हम नहीं मान सकते।” ये मान लिया तो अहंकार बिलकुल टूट जाएगा।

आपके मन में लगातार ये भाव रहे कि, "जो ऊँचे-से-ऊँचा हो सकता है हम उसकी दिशा में अग्रसर हैं।" हमारा एकमात्र लक्ष्य वो है – परम। और मन आपका कभी हीन न अनुभव करे, कभी भी। कोई चल रहा होगा आपके सामने बहुत बड़ी गाड़ी में, आप छोटे मत हो जाइएगा। किसी का रुतबा देख करके, किसी का पैसा देख करके ज़रा भी छोटेपन का भाव भीतर मत आने दीजिएगा।

आप श्रेष्ठतम हैं क्योंकि आप जो श्रेष्ठतम है उसके दास हैं और सिर्फ उसी के दास हैं। सिर्फ वही आपका लक्ष्य है। आकाश की ओर निशाना साधा है आपने, आप से ऊँचा कौन हो सकता है?

ज़रा भी ये भाव न आए कि, "हम कुछ नहीं हैं और वो देखो बड़े आदमी, सत्रह फक्ट्रियाँ हैं उनकी।" तो क्या फर्क पड़ता है? ये तो ऐसी ही बात है कि आप बोलें कि "ये देखो बड़े आदमी, एक सौ सत्तर किलो वजन है इनका।" अरे वो तो बोझ ढो रहा है इतना और क्या कर रहा है। वो सत्रह फक्ट्रियाँ क्या हैं उसके लिए? बोझ ही हैं उसके मन पर और क्या हैं? या ये कहते हो कि, "वो बड़ा स्वस्थ है उसका वजन एक सौ सत्तर किलो है"? बोझ ही तो ढो रहा है।

जल्दी से प्रभावित मत हो जाइएगा, कभी पीछे मत हट जाइएगा। आप जो कर रहे हो वो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, उसे पहली वरीयता मिलनी चाहिए। कुछ भी इससे महत्वपूर्ण नहीं है। न हुआ है न होगा। 'है भी सच और होसी भी सच।' किसी की हिम्मत नहीं कि इस बात को डिगा दे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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