संतुष्ट जीवन का राज़ || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

6 min
105 reads
संतुष्ट जीवन का राज़ || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। पिछले सत्र में आपने ऐसी निर्ममता से चीर-फाड़ की कि मेरे सारे नक़ाब अस्त-व्यस्त हुए जा रहे हैं।

आज से दो साल पहले की बात है। मैंने किसी से पूछा, “यह अहंकार क्या होता है?” मुझे लगता था कि मुझमें तो अहंकार रत्ती भर भी नहीं है। अब आजकल जीवन को क़रीब से देख रहा हूँ तो भौचक्का रह जा रहा हूँ, मेरे अंदर तो अहंकार के सिवा और कुछ है ही नहीं। जब भी बोलता हूँ, तुलना करता हूँ, हर जगह अहंकार-ही-अहंकार है।

अब एक तरफ़ तो आनंद उठ रहा है कि बीमारी का पता चला, बीमारी को देखने में बड़ा आनंद है, और दूसरी तरफ़ भयानक डर लग रहा है कि जैसे कोई बड़ी क़ीमती चीज़ छूट रही हो। इस दुविधा में राह दिखलाएँ।

आचार्य प्रशांत: पहले पता कर लो कि किस चौराहे पर खड़े हो। पहले पता कर लो कि उस चौराहे से कौन-कौन-सी राह फूटती है, फिर मैं तुम्हें बता दूँगा कि उन राहों में से सही राह कौन-सी है। कोई मुझसे पूछे कि, "किधर को जाऊँ?" तो सर्वप्रथम मैं उससे क्या पूछूँगा?

"खड़े कहाँ पर हो?" पहले यह तो बता दो कि खड़े कहाँ पर हो।

सत्य की ओर एक-दो नहीं, दस-बीस नहीं, अनंत रास्ते जाते हैं। पर तुम्हारे लिए तो उपयुक्त रास्ता वही होगा न जो तुम्हारी मौजूदा स्थिति से निकलता हो। तुम्हारी मौजूदा स्थिति क्या है? उसकी तो कुछ बात करो। और उसकी बात करने के लिए जीवन को ग़ौर से देखना होगा, मन के मौसम का हाल-चाल लेते रहना होगा।

ज्यों ही तुम मुझे साफ़-साफ़ बता दोगे कि खड़े कहाँ हो, त्यों मैं साफ़-साफ़ तुम्हें बता दूँगा कि कौन-सी राह तुम्हारे लिए उचित है। या ऐसे कह लो कि जैसे-जैसे तुम मुझे बताते जाओगे कि तुम्हारा मुक़ाम क्या है, तुम्हारी वर्तमान स्थिति क्या है, वैसे-वैसे मैं तुम्हारा मार्गदर्शन करता चलूँगा कि अब जहाँ हो, वहाँ से अगला क़दम किधर को उठाना है, क़रीब-क़रीब जीपीएस की तरह।

वो रास्ता बता देता है तुमको, पर पहले तुमसे कुछ पूछता है, और निरंतर पूछता रहता है, क्या? तुम हो कहाँ पर, तुम्हें जाना कहाँ है, और साथ-ही-साथ वह लगातार यह भी देखता रहता है कि अभी तुम पहुँचे कहाँ पर हो। तभी तो वह तुम्हें अगले क़दम का कुछ हाल दे पाता है। उसे कुछ पता ही ना हो कि तुम कहाँ हो, कहाँ को जाना चाहते हो, कितना रास्ता तय किया है, तो वह तुम्हें कोई सलाह कैसे देगा?

पता करते रहो। पता करते रहोगे तो अगला क़दम कैसे उठाना है, किधर उठाना है, ख़ुद ही ज्ञात होता रहेगा। ख़ुद ना ज्ञात होता हो, तो फिर अपनी स्थिति से मुझे अवगत करा देना। मैं कुछ बोल दूँगा। पर सर्वप्रथम पता करते रहो।

प्र२: समाज के हिसाब से सुखी जीवन के कुछ मापदंड हैं। मैं उन पर खरा उतरता हूँ, फिर भी अपने जीवन को अधूरा पाता हूँ, लगता है कि जैसे दिशाहीन होकर बस एक धुरी के गोल-गोल चक्कर लगा रहा हूँ।

मन इतना चंचल है कि किसी चीज़ में टिकता ही नहीं। अपने जीवन में अब तक छह-सात बार नौकरी बदल चुका हूँ, शहर बदल चुका हूँ, पर संतुष्टि कहीं नहीं मिलती। जीवन में संतुष्टि कैसे लाएँ?

आचार्य: बस वह ना करो जो अभी तक किया है, संतुष्टि आ जाएगी। स्वास्थ्य दूर नहीं है, चिकित्सा के तुम्हारे नकली उपाय ही बीमारी को आमंत्रण दे रहे हैं। संतुष्टि कहीं से लायी नहीं जाती; आत्मा का स्वभाव है संतुष्टि, तुम्हारा गहरा स्वभाव है संतुष्टि।

आदमी असंतोष अपने ऊपर लाद लेता है। और असंतोष तुम अपने ऊपर लाद रहे हो, वह सब कुछ करके जिसका तुमने अभी ज़िक्र किया। नौकरियाँ बदलते रहते हो, शहर बदलते रहते हो, इन दो बातों का तो तुमने यहाँ खुलासा किया। इन दो के अलावा मैं आश्वस्त हूँ कि तुम बहुत कुछ और भी बदलते रहते होगे, क्योंकि जो बदलाव के माध्यम से संतुष्टि खोज रहा है, वह तो तरह-तरह के बदलाव करेगा न। कपड़े भी बदलेगा, दोस्त-यार भी बदलेगा, रिश्ते-नाते बदलेगा, विचारधाराएँ बदलेगा, वेशभूषा, खाना-पीना बदलेगा, मौसम-माहौल बदलना चाहेगा, कभी इधर घूमेगा, कभी उधर घूमेगा।

साफ़-साफ़ जान लो, इतना ही देख लो कि बदलाव से संतुष्टि नहीं आती। तुम मुझसे कह रहे हो कि मैं तुम्हें एक नया बदलाव सुझा दूँ। पचास तरह के बदलाव तुम अतीत में कर ही चुके हो, अभी भी तुम यही चाह रहे हो कि एक और बदलाव कर लो। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि बस यह देख लो कि बदल-बदलकर उस तक नहीं पहुँच पाओगे जो कभी बदलता नहीं।

जब तुम बाहर-बाहर चीज़ें बदलते हो, तो वास्तव में तुम बदलाव के पैरोकार नहीं होते, तुम कुछ बचा रहे होते हो बदलने से। जिस आदमी को पाओ कि वह बाहर-बाहर बहुत कुछ बदलता रहता है, जान लेना कि उसके भीतर कुछ है जिसको वह बदलना नहीं चाहता, उसको वह बचा रहा है, उसकी रक्षा कर रहा है। बाहर-बाहर बदल रहा है, भीतर-भीतर बचा रहा है।

देखो कि क्या बचाए पड़े हो, देखो कि क्या है जिसको बदलने को तैयार नहीं, देखो कि क्या है जिसका विसर्जन नहीं करना चाहते, उसका नाम असंतुष्टि है। संतुष्टि नहीं पायी जाती; असंतुष्टि का विसर्जन किया जाता है।

असंतुष्टि को बचाओ मत, इतना काफ़ी है। असंतुष्टि को बचाने में यह धारणा बड़ी उपयोगी रहती है कि कुछ नया आ जाएगा जीवन में जो संतुष्टि दे जाएगा। कुछ नया तुम्हारे जीवन में नहीं आने वाला जो संतुष्टि दे दे। मैं कह रहा हूँ कि पूरी तरह निराश हो जाओ, झूठी उम्मीद छोड़ दो बिलकुल। तुम पचास परिवर्तन कर लो अपने जीवन में, वो नहीं मिलेगा जिसकी तुम्हें आस है; किसी को नहीं मिलता। पर हम तो आशा पर जीते हैं, हम कहते हैं, “उम्मीद पर दुनिया टिकी हुई है।”

और जब तक तुम पूरे तरीके से निराश नहीं हो गए अपने प्रयत्नों के प्रति, तब तक भीतर आंतरिक क्रांति घटित नहीं होगी। तुम्हें देखना होगा कि तुम्हारे मौजूदा तरीके, तुम्हारे रास्ते, तुम्हारी वृत्तियाँ, तुम्हारे इरादे और तुम्हारी चालाकियाँ तुम्हें वहाँ नहीं पहुँचा रहीं जहाँ पहुँचने की तुम्हारी गहनतम अभिलाषा है। तुम्हें अपने ही झूठ का भांडाफोड़ करना होगा, तुम्हें अपने ही ऊपर एक स्टिंग ऑपरेशन करना होगा, तुम्हें अपनी ही पोल खोलनी होगी। और कोई तरीका नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories