संत के शब्द - एक आमन्त्रण || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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संत के शब्द - एक आमन्त्रण || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

वक्ता : एक तरफ़ तो ये कहा गया है कि प्राप्ति, उपलब्धि तत्क्षण है। जो समयातीत है, उसे समय का उपयोग करके नहीं पाया जा सकता। भविष्य में आगे देखना, कल्पना करना कि, ‘’किसी मार्ग के द्वारा, किसी विधि के द्वारा मैं शान्ति को, मुक्ति को पाउँगा, ये सिर्फ़ आपकी परियोजना है,’’ जो अभी हो सकता है, उसे टालने का मात्र तरीका। तो एक तरफ़ तो ऐसा कहा गया है और दूसरी ओर कबीर कह रहे है कि, ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये तो होये’ साथ ही साथ यह भी कहते हैं कि, ‘करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान ।रसरी आवत जाट ते, शील पर पड़त निशान‘, तो फिर दोनों बातें एक साथ कैसे सत्य हो सकती है?

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होये ।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये तो होये।।

किसी विशिष्ट ऋतु की प्रतीक्षा उसे ही करनी होगी, जो स्वयं ऋतुओं की पैदाइश है।कौन है जिसे फल किसी ख़ास मौसम में, किसी ख़ास समय में ही दिखेगा? कौन है वो? क्या है ये फलों का लगना? क्या है ये फलों का गिर जाना? क्या है ये बीजों का फिर मिट्टी पाना? फिर अंकुरित होना? फिर वृक्ष बनना और फिर फलित होना? ये सब बिलकुल वही है जो आप अपनेआप को समझते हो, ये देह है। ये देह की पूरी प्रक्रिया ये देह का पूरा विस्तार है। कबीर जब ये कह रहे हैं आपसे, तो ये जान के कह रहे हैं कि आप वो हो, जो मूल और फूल को एक साथ देख नहीं पाते। आप वो हो, जो व्यग्र हो, आतुर हो, प्रतीक्षारत हो। कौन है जो प्रतीक्षारत है? प्रतीक्षारत मात्र वो हो सकता है जो समय में जी रहा है। समय के बिना प्रतीक्षा का कोई अर्थ नहीं है। कौन है जो अभी आगे की तरफ़ देख रहा है? वो देह क्यूंकि जब तक देह रहती है तभी तक भविष्य रहता है, देह के आगे कोई भविष्य होता नहीं।

ऋतु आये तो फल होये समस्त ऋतु बदलती है किसके लिए? देह के लिए। फूल आते हैं, फल बनते हैं और उनमें बीज होते हैं और पुनः ये चक्र प्रारम्भ होता है किसके लिये? देह के लिये। कृपा कर के इस फल को मुक्ति, शांति या आत्मा ना समझ लीजिये। आत्मा फल-फूल नहीं होती है, आत्मा मूल होती है। बहुत गड़बड़ हो जाएगी बड़ी भ्रान्ति हो जाएगी अगर आपने कबीर का ये अर्थ कर लिया कि कबीर कह रहे है कि शांत रहो समय आने पर पा जाओगे निर्वाह। और आमतौर पर ऐसा अर्थ कर भी लिया जाता है कि शांत रहो ना, ‘ऋतु आये फल होये,’ उचित समय पर जो होना है, वो हो जायेगा। समय में उसी की उपयोगिता है, जो स्वयं समय से ही निकला है। जिससे समय निकला है, वो समय पर ना आश्रित हो सकता है और ना समय उसके लिये उपयोगी हो सकता है। तो जो हों फलों के आकांक्षी, उन्हें करना ही पड़ेगा इन्तज़ार क्यूंकि फलों की आकांशा बताती है कि देह भाव बड़ा सघन है आप में, कि मन के भीतर कोई ऋतुता बैठी हुई है, कि मन बड़ा प्रतीक्षारत है। मन किसी अपूर्णता को पकड़ कर बैठा हुआ है, अहंकार है ज़रूर।

जो किसी भी ख़ास दिन की प्रतीक्षा में होंगे, उनको तो इंतजार ही नसीब होगा। उस दिन का आना ना आना पक्का नहीं है, इन्तजार ज़रूर पक्का है। माली सौ घड़ा सींच भी ले, तो भी फल आएगा कि नहीं कुछ कह नहीं सकते। मालियों को बहुदा बड़ा निराश होना पड़ता है 100 नहीं 500 घड़ा सींच जाते हैं।कोई फल आया नहीं, ऋतुएँ आयीं और गयी, कोई फल आया नहीं और जब फल आया, तो वैसा आया नहीं जैसा चाहा था। जो फल के आकांक्षी होंगे, उन्हें तो बस प्रतीक्षा और भविष्य के वादे मिलेंगे।एक दृष्टि दूसरी भी होती है जो साखों की, पत्तियों की, फलों की, फूलों की प्रतीक्षा में बैठी ही नहीं होती। जिस के लिये मूल ही काफ़ी है। जो कहती है, ‘’फलो का इंतजार हम कर नहीं रहे, हमारे लिये मूल ही काफ़ी हैl’’ ये वो दृष्टि होगी जो देहाभिमानी मन की नहीं हो सकती ।मैं दोहरा रहा हूँ पेड़ का महत्व उन्ही के लिये है, जिनके लिये शरीर का महत्व है। जब तक तुम्हारे लिये शरीर का महत्व है, जब तक तुम अपनेआप को तन और मन मानते हो, तब तक तुम प्रतीक्षा ज़रूर करोगे कि कोई घटना घटे क्यूंकि जो शरीर में है उसकी किस्मत ही यही है कि वो इंतजार में जीये।

लेकिन ज्ञानी की दृष्टि दूसरी होती है, उसे मूल में ही फूल दिखाए देता है। वो कह ही नहीं रही कि उसे आगे कुछ चाहिए। उसको तो फल, फूल जैसा दिखाई देता है। फूल शाखों जैसी दिखाई देती है। शाखें तने जैसी दिखाई देती है, तनें खाई देते हैं, मूल मिट्टी समान और स्वयं को भी वो देख लेता है कि, ‘’मैं इनसे अलग नहीं हूँ, सब शून्य है।’’ लेकिन फल को शून्य जान पाने के लिये दृष्टि वो चाहिए, जो स्वयं को भी शून्य जाने। जो स्वयं को शून्य जानेगा, उसे किसी वृक्ष पर किसी फल की प्रतीक्षा नहीं हो सकती। क्या ख़ास है फल में? क्या है फल में ऐसा, जो समस्ती में पहले ही मौजूद नहीं है? क्या घटना ऐसी घटेगी, जो अभी ही नहीं घट रही? नज़र का फेर है कि ऑंखें हमारी देख नहीं पाती, पर समय में नया कभी कुछ होता है क्या? कुछ नया तो है नहीं, जो है सो अभी ही है और इतनी स्थूल हमारी दृष्टि नहीं है कि जब तक मामला खुले ना, जब तक मामला स्वयं स्थूल ना हो जाये, जब तक चीजों का प्रकटीकरण का ना हो जाये, तब तक हमें कुछ समझ में ना आये। दृष्टि हमारी सूक्ष्म है, हमें तो सब बस ऐसे ही समझ में आता है। हम तो शून्य को देखते हैं, और उसमें हमें सारे वृक्ष और उनके लदे हुए पत्ते दिखायी दे जाते हैं। हम तो शून्य को देखते हैं, और उसमें हमें आज तक जितने भी स्त्री पुरुष, पशु-पक्षी जानवर पैदा हुए, वो दिखाई दे जाते हैं और हमें वो भी दिखाई दे जाते हैं, जो आगे कभी पैदा होंगे और मृत्यु को प्राप्त होंगे। हम तो मौन को सुनते हैं और उसमें आज तक उच्चारित हुआ एक एक शब्द हमें सुनाई दे जाता है, और वो शब्द भी सुनाई दे जाते हैं, जो भविष्य में कोई भी कहीं भी उच्चारित करेगा, तो हम क्यों प्रतीक्षा करे कि कभी कोई विशिष्ट शब्द कहा जायेगा। हमारे लिए तो मौन ही काफ़ी है सारे शब्द मौन से उठते हैं, और मौन में ही विलीन हो जाते है। हमें क्यों प्रतीक्षा करनी है किसी की? मौन काफ़ी है, जो कुछ है, यही तो है मिल गया मूल किस फल की प्रतीक्षा करनी है। फ़ल आते हैं, फ़ल जाते हैं।

ये सिर्फ़ उसके साथ हो सकता है, जिसने आशा छोड़ दी है; जिसने अपूर्णता छोड़ दी है। जो एक ऐसी पूर्णता को उपलब्ध है, जिसमें से अनंत ब्रह्माण्ड उठते और गिरते रहते हैं और वो पूर्णतः तब भी पूर्ण रहती है, जैसा कि उपनिषद् कहते हैं, जो उस पूर्णता में स्थित है, वो उसके किसी अंश की परवाह क्यों करेगा? उसे तो पूर्ण मिला ही हुआ है, वो स्वयं पूर्ण है। पूर्ण के किसी हिस्से में कोई अतिरिक्त पूर्णता तो नहीं होती ।पूर्ण से पूर्ण निकलता है, तो भी पूर्ण ही शेष रहता है।क्या प्रतीक्षा करनी किसी नयी पत्ती की? क्या प्रतीक्षा करनी किसी भी फल की? असंख्य बार अनगिनत वृक्ष लगे हैं, और अनंत संख्या है पत्तों की, और फलो की जो लगे हैं, और गिरे हैं और ये चलता रहेगा। ये सब तो प्रकृति का बहाव है और प्रकृति मात्र देह है, ये सब तो देह का बहाव है आना-जाना, उठना-बैठना। मन ऐसा हो कि वो प्रतीक्षा में भी प्रतीक्षागत ना रहे, मन ऐसा हो कि जब वो पौधे को सींचे और कली की, फूल की, पत्ती की कामना भी करे, तब भी निष्काम रहे। मन ऐसा हो, जिसे साफ़-साफ़ पता हो कि आधीर होने से कुछ नहीं होगा, ऋतु आये ही फल होए। लेकिन साथ ही साथ, वो इस बोध में भी स्थित हो कि फल आएगा नहीं, फल है। कुछ भी नया जुड़ेगा नहीं क्यूंकि पूर्ण में कुछ नया जुड़ने का प्रश्न पैदा नहीं होता है। ना कुछ नया जुड़ेगा, ना कुछ पुराना कभी कहीं गया है। कभी कोई नया फल आने नहीं वाला, और पुराने जितने भी असंख्य फल आज तक लगे हैं, वो कहीं गए नहीं है।

जिस महासमुद्र से उठे थे, उसी में वापस समा गए हैं। जब उठते हैं, तो ये कहना ज़्यादा उचित होता है कि पूर्ण से उठ रहे हैं। जब वापस समा जाते हैं, तो ये कहना अच्छा लगता है कि शून्य में समा गये और शून्य ही हो गये, बात एक ही है। सब कुछ उसी से आता है, तो आप कह देते हो पूर्ण और सब कुछ ख़त्म हो जाता है उसी में, तो अप कह देते हो शून्य। बात एक ही है, कबीर का सतही अर्थ ना ले लीजियेगा कि, ‘’अरे! व्याकुल ना हो, धैर्य धरो समय आने पर तुम्हें सब मिलेगा बच्चा।’’ कबीर ऐसी बातों में नहीं पड़ने वाले। कबीर जो कह रहे हैं, वो बात अति सूक्ष्म है। समझिये इसको। जहाँ तक देह की और मन की बात है, यह तो समय में ही जियेंगे क्यूंकि मैं दोहरा रहा हूँ, ये समय का ही उत्पाद हैं। ये कहाँ से आये, समय से आये, ये समय में ही जियेंगे। इनकी वृति है समय को पकड़ के रखने की, समय छूटता है तो ये फाड़-फाड़ते है। अजीब सा लगता है इनको, और सत्य तो यह है कि जहाँ तक देह का प्रश्न है, उससे समय छूट भी नहीं सकता। देह बची ही कहाँ यदि समय नहीं है, स्वास बची कहाँ अगर गति नहीं है और कौनसी गति है, जो समय के बिना होगी? तो ये तो आगे-पीछे, उपर नीचे के तमाम दाव पेचों में लगे ही रहेंगे, मन भी शरीर भी। ये तो पौधे को देखेंगे और तुरंत कल्पना कर बैठेंगे कि कब इसमें विशालता आयेगी और कब लगेगा फल? इनका काम ही यही है और इनका विरोध करने की ज़रूरत नहीं है क्यूंकि अपनी प्रकृति के विपरीत कोई जा नहीं सकता। पक्षी तैरेगा नहीं, सूरज ताप ही देगा, शीतलता नहीं, ऑंखें सुनेंगी नहीं और मनुष्य उड़ेंगे नहीं अपनी प्रकृति के विपरीत कोई जा नहीं सकता। तो तन-मन जो करते हो, उन्हें करने दे; बेमतलब है उनका विरोध।

आप तो वहां रहे जहाँ से ये पूरा वृक्ष उद्भूत होता है; आप तो वहां रहे। जब आप वहां होते हैं, तो फिर तन मन की गति में एक लयबद्धता होती है। शब्द वो करते हैं, मौन में वो रह नहीं सकते पर तब शब्द गीत जैसा होता है, शोर जैसा नहीं। तो मन इन्तजार करता हो कि फल लगेगा, तो आप इंतजार में न रहे आप उसके साथ रहे, जहाँ सारे फल लगे ही हुए है। किसी फल की प्रतीक्षा नहीं, बात को समझिए। कबीर मन को उपदेश दे रहे हैं, उसके अलावा किसी को उपदेश दिया भी नहीं जा सकता। ठीक ऐसे ही आप हो जाइये कबीर मन को उपदेश दे रहे है कि तू आकुल ना हो क्या कभी स्वयम आकुल है? जो आकुल है क्या वो दूसरे को शांति का पाठ पढ़ा सकता है। कबीर मन को कह रहे है धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होए यदि आप देखे की क्या घटना घाट रही है तो सब सपष्ट हो जायेगा, मन को कौन ये देशना दे रहा होगा की तू क्यों पागल हुआ होता है हो जायेगा जो होना होगा सब। क्या मन को मन जैसा ही चंचल कोई दूसरा ये बात कह रहा होगा?

आप कबीर हो जाये हम सब क्या है? हम सब एक छोर पर अकुलाया हुआ मन है और दूसरे छोर पर कबीर है। आप बिलकुल ऐसे ही हो जाये कि एक तरफ़ तो मन हो, और मन तो मन है, वानर तो वानर है कि बदलेगा पर आप ना वानर हो जाये। जब मन अकुलाये तो आप के भीतर का कबीर बोले कि शांत हो जाइये। तुझे तो समय में जीना है, और समय में जो जीता है, उसमें सब समय की गति के हिसाब से होता है। याद रखियेगा कबीर को नहीं है फल की प्रतीक्षा। किसको है फल की प्रतीक्षा? ‘धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होए।’ अब आपको तय करना है आप मन है क्या? अगर आप मन हैं, तो आप कबीर का उपदेश सुनें पर कबीर का उपदेश सुनने से बेहतर है कि कबीर हो ही जाये। कबीर का उपदेश सुनेंगे, तो यही सुनेंगे कि शांत रहो, जब समय आयेगा तो फल लगेगा, लग भी सकता है और नहीं भी लग सकता है तो तुम इन्तजार करो, आशा करो, याचना करो, डर में जीयो कि फल लगे, ज़रूर लगे। लगे, कहीं ऐसा ना हो कि गड़बड़ हो जाये। कोई पक्षी ना ख़राब कर दे फल को, कोई कीड़ा ना लग जाये, कही फल आने से पहले मेरा पेड़ ना गिर जाये। तुम शंका में जीयो, संदेह में जीयो, करो प्रतीक्षा। और नहीं तो तुम कबीर हो जाओ। बोध है कबीर; आत्मा है कबीर। और वहाँ पर कोई प्रतीक्षा नहीं है, वहाँ फल, फूल, पत्ते, पत्ती, जड़े, तना, शाख सब पहले ही मौजूद हैं, कोई फल नहीं चाहिए। दुनिया की समस्त देहें, मन का समस्त विस्तार, उस अनंतता में पहले ही मौजूद है, हिला-मिला हुआ है, वहाँ कुछ और नहीं चाहिए। क्या उम्मीद? क्या आकांशा? अब ये आप पर निर्भर करता है कि आपको कबीर को सुनना है या कबीर ही हो जाना है।

कबीर तो मन को उपदेशित करते हैं। जब तक हमें उपदेश से सरोकार रहेगा, तब तक हमें मन ही रहना पड़ेगा, हम कबीर नहीं हो पाएंगे। ज्ञानियों के वचनों को सुनने में बड़ी जागरूकता चाहिए। अपनेआप से पूछना होता है कि, ‘’मैं यहाँ पर शब्द और वचन लेने आया हूँ या उस श्रोत को ही लेने आया हूँ, जहाँ से शब्द और वचन उठते हैं और ये दोनों अलग-अलग हैं, और वो दोनों भी अलग-अलग हैं जो इनके ग्राहक हैं। यदि आप मन हैं, तो मन तो बस शब्द ही जानता है और वचन ही जानता है। अगर आप मन हैं तो आपको कबीर से ज्यादा कुछ ना मिलेगा आपको कबीर से मात्र कबीर के उपदेश ही मिलेंगे, ले जाइये दे दिया कबीर ने आपको। क्या दे दिया आपको कबीर ने आपको? कि अभ्यास करो, कि शांत रहो, कि इंतजारी में रहो, ले जाओ। कबीर ऐसा नहीं कि आपको और कुछ नहीं देना चाहते थे। कबीर आपको बहुत कुछ देना चाहते थे, पर आप क्या बन के आये कबीर के सामने? क्या बन के आये? आप मन बन के आये, आप मन बन के आये तो कबीर ने मन को दे दिया, वो जो मन को दिया जा सकता है। क्या दिया जा सकता है? कुछ शब्द दिए जा सकते हैं, कुछ उपदेश दिए जा सकते हैं, तो कबीर ने दे दिया।

आप तो जब मिलो कबीर से, तो कबीर ही हो जाओ इसके आलावा और कोई तरीका भी नहीं कबीर से मिलने का। कबीर से कुछ मांगो ही मत कबीर के अलावा, इससे कम माँगना अपनी और कबीर दोनों की बेइज्जती है। ये ऐसा सा है कि तुम जाओ किसी बादशाह के पास और उससे कहो एक रुपया दे दो। अरे! कबीर के पास आये हो क्या दोहे सुनके जाओगे? बड़े भिखारी निकले! कबीर से क्या लिया? दोहा। लो बादशाह के पास गए थे एक रुपया ले के आ गये। अरे! कबीर के पास गए थे, कबीर को ही ले आते। वो तुम करते नहीं, वो ज़रा भारी पड़ता है क्यूंकि कबीर को ला पाने की सामर्थ्य, कबीर की गुरुता का वज़न उठा पाने का सामर्थ्य सिर्फ़ कबीर में ही हो सकती है। कबीर बनना पड़ेगा, तुम्हें मिटना पड़ेगा। नहीं वो ठीक नहीं, हमें कबीर नहीं चाहिए। कबीर के वचन चाहिए तो क्या पाओगे कुछ नहीं भिखारी गए थे, भिखारी लौटे। पकड़े रहो, गाते रहो दोहे। अरे! कबीर ने किसी और के दोहे गाये थे? कबीर तो वो स्रोत है, जहाँ से अनंत दोहे उपजते हैं। तुम वो स्रोत ही क्यों नहीं हो जाते या प्रतीक्षा करोगे? या अभ्यास करोगे कि अभ्यास कर-कर के एक दिन कबीर हो जायेंगे।?

एक ओर तो ये देखना पड़ेगा कि क्या कह रहे हैं और दूसरी ओर यह भी देखना पड़ेगा कि कौन कह रहा है? बहुत सीधी सी बात है, इस पर हमारा ध्यान जाता नहीं, जब कोई किसी से कह रहा है शांत रहो, तो जिससे कहा जा रहा है वो निश्चित रूप से उपद्रवी होगा, और जो कह रहा है वो निश्चित रूप से पहले ही शांत है। अब ये तुम्हें तय करना है कि तुम्हें क्या होना है उपद्रवी या वो जो चिर शांति में सदा से ही है?

कबीर को नहीं प्रतीक्षा है किसी फल की किसी फूल की, तुम्हें है तो तुम्हें थोड़ा समझाते हैं इसके अलावा वो कुछ कर नहीं सकते हैं। इसके अलावा कुछ करा नहीं जाता। इसके अलावा, तो बस हुआ जाता है। या यूँ कह लो इस के अलावा अधिकतम जो वो कर सकते थे, वो उन्होंने कर ही रखा है। अब और क्या करेंगे? तुम सोचो ना कबीर कह रहे हैं और उनके सामने लोग बैठे हैं, और उन्हें सिर्फ़ कबीर के शब्द मिल रहे हैं, तो इसमें क्या कबीर ने कुछ बचा रखा है? क्या कबीर ने कोई कमी छोड़ी है अपनेआप को दे देने में? कबीर भी थे, कबीर के शब्द भी थे तुम्हारे हाथ क्या आया? बरस रहे थे कबीर के शब्द और सामने कबीर भी थे, तुम कबीर के साथ एक नहीं हो पाए। क्या करे वो तुम इसी में खुश हो गये कि हमने सुना। तुम दोहे लिख लाये, की आज गुरु जी ने ये 10 दोहे बोले, चलो लिख ले आते हैं। तुम्हें कुछ भी नहीं मिला। जिसने मूल को नहीं पाया, उसने क्या पाया? फिर तो दुर्योधन सामान हो गये तुम कि कृष्ण की सेना चाहिये, कृष्ण नहीं चाहिये, हार ही आयेगी तुम्हारे हिस्से।

बात आ रही है समझ में?

मन हो के कबीर के पास जाओगे, बहुत कम पाओगे और दूरी हमेशा बनी रहेगी। गुरु, गुरु रह जायेगा; शिष्य, शिष्य रह जायेगा। दूरी हमेशा रहेगी, नियति अलग-अलग ही रह जायेगी। गुरु की करनी गुरु जायेगा, चेले की करनी चेला। तो तुम तय ही करलो कि, ‘’मुझे अलग रहना है, मुझे दूरी बना के ही रखनी है, मुझे अहंकार कायम ही रखना है।’’ तुम जाओ गुरु के पास, वो तुम्हें कुछ वचन दे देगा। ठीक, तुम्हारा दिल बहल जायेगा वचनों का इससे अधिक मोल कुछ होता नहीं। सही पूछिए, तो वो एक तरीके का मनोरंजन ही होते हैं, तुम आये थे कि बड़ी दिक्कत है, समस्या है, अशांति रहती है गुरु ने तुमसे कुछ बातें बोल दी तुम्हारे तपते मन पे थोड़े छीटे दाल दिए और तुम्हें इससे ज्यादा कुछ चाहिए नहीं था।

तुम्हारी पात्रता इससे ज्यादा की थी नहीं। तो जितने की तुम्हारी पात्रता थी, मिल गया जाओ पर दूरी बनी ही रहेगी। और दूसरा तरीका ये होता है की गए हो कबीर के पास तो मिटा दो साड़ी दूरियाँ और कह दो कि आये हैं, तो वापस जाना नहीं है और जायेंगे तो आपको ले के ही जायेंगे। या तो तुम हमें रख लो, नहीं तो हम तुम्हें रखे लेते हैं पर अब वो नहीं होगा कि तुम गुरु और हम चेला – ये नहीं चलेगा अब। अब ये नहीं चलेगा कि तुम तो सब जानते हो और हमारे माथे सिर्फ़ तुम्हारे दो-चार बोल आते हैं – ये बड़ा भेद हुआ। हम विद्रोह करते हैं। ये व्यवस्था अब हमें जमती ही नहीं कि तुम तो सब पाए बैठे हो, तख़्त पर विराजमान राजा की तरह अन्नत, अनासत्य, बोधयुक्त और हम मूढ़, अज्ञानी, निपट गंवार और हमें मिलता भी क्या है तुमसे? तुम्हारी करुणा, ये नहीं चलेगा। हमें करुणा नहीं पूर्ण प्रेम चाहिए।

तुमसे कम हम तुमसे कुछ मांगेगे नहीं, तुमसे कम अगर हमने तुमसे कुछ माँगा, तो ये माँगने का ही अपमान हो गया फिर आपको मन देह से आगे बढ़ के आत्मा मिलेगी। फिर आपको कबीर के वचनों से आंगे स्वयं कबीर मिलेंगे, फिर आपको शिष्यत्व से आगे गुरुता मिलेगी। वियोग से आगे योग मिलेगा, दूरी से आगे प्रेम मिलेगा। कबीर से दूरी रख के, कबीर ना पढ़ो, कबीर के दोहे किसलिए हैं? मात्र आमन्त्रण है, सत्य कुछ नहीं उनमें। कोई आपको प्रेम पत्र लिख के बुलाता है, तो क्या प्रेम पत्र में खुद समा जाता है? प्रेम पत्र तो सत्य नहीं हो सकता ना? प्रेम पत्र तो मात्र आमन्त्रण हो सकता है। सत्य तो प्रेम है, प्रेम पत्र नहीं। कबीर के दोहे प्रेम पत्र है, आमंत्रण है, पुकार है। तुम पुकार पर मत अटक जाना कि तुमने पुकार को पकड़ा और अटक गये। जब पढ़ो कबीर को तो कबीर ही हो जाओ, दूरी रख के ना पढो। जहाँ को बुला रहे हैं कबीर। वहां को जाओ, नक्षा ही ले कर के ना आना, जाओ कि कबीर ने तुम्हें नक्षा दे दिया और तुम बाग़-बाग़ हो गये कि, ‘वाह! बहुत बढ़िया नक्षा मिला है।’ अरे! वो जहाँ को बुला रहे है, वहां को जाओ ना। कबीर क्या कह रहे है ये तो पढ़ो, सुनो पर ध्यान इस बात पर दो कि वो स्रोत कौनसा होगा, जहाँ से ये सारे वचन निकलते हैं? सबसे महत्वपूर्ण यही है ध्यान से उस स्रोत के समीप आओ, जहाँ से कबीर के समस्त वचन निकलते हैं। कबीर से दूर हो, कबीर से अलग हो, कुछ समझ नहीं पाओगे जितना उस स्रोत के नज़दीक जाओगे उतना पाओगे कि वहां मात्र एकत्व है, वहाँ मात्र कबीरत्व है, वहां तुम और कबीर अलग-अलग नहीं तब तुम वास्तव में कबीर को समझोगे।

कबीर के दोहे का अर्थ करना और कबीर को वास्तव में जानना दो बड़ी अलग अलग बातें है; बड़ी अलग अलग बातें हैं। मैं तुमसे जो अभी कह रहा हूँ ये कबीर के दोहे में थोड़ी लिखा हुआ है। दोहे से तो मुझे कुछ ख़ास मतलब भी नहीं है, वो तो एक बहाना है बात शुरू करने का। तुम ढूँढ़ते रह जाओगे कि ये सब कबीर ने कब कहा? कबीर ने कभी भी नहीं कहा ये कबीर के वचन नहीं है, जो मैं तुमसे कह रहा हूँ ये कबीर है जो मैं तुमसे कह रहा हूँ और इस अंतर को जानो। जिन्होंने इस अंतर को नहीं जाना, वो दुनिया भर का ज्ञान इकट्ठा किये रह जाते हैं, ज्ञान के स्रोत तक नहीं पहुच पाते हैं, या उनके लिए ज्ञान सिर्फ़ एक बोझ की तरह होता है कि जैसे कोई कोयले की खान में कोयला खंता रह गया और हीरा कभी ना मिला उसे। अब धो रहा है कोयला और मुँह, हाथ, तन, मन सब काला और थकान मिली है, हीरा नहीं मिला।

ज्ञान के मूल तक पहुँचो, संतजनों के वचन आखिरी बात नहीं होते। सत्य वचनों में कभी नहीं समा सकता, वचन आखरी बात कैसे हो सकते हैं? उनके वचनों पर मत अटक जाओ, बस उनके वचनों को जब देखो तो चमत्कृत हो जाओ और याद करो, ‘अरे! ये बात कहाँ से आयी?’ निशंख हो कर के पूरी हिम्मत से पूरी श्रद्धा से, पूरी ताकत से अपनेआप को याद करने दो बिना भय के। वो स्मृति उठने दो मन में और तुम ठीक वहां पहुँच जाओगे, जहाँ कबीर बैठे हैं। अपनेआप को उनसे ज़रा भी अलग नहीं पाओगे। उस दिन तुम्हें वास्तव में समझ आएगा कि कबीर क्या कहना चाहते हैं। कोई दो बातें वो कभी कहना ही नहीं चाहते, अलग-अलग बातें वो कभी कहना ही नहीं चाहते। तुम्हें अलग-अलग दोहे सुनाई पड़ते है, तुम्हें उनके अलग-अलग अर्थ दिखाई पड़ते है। कबीर ने तो सदा एक ही बात कही है, क्या? कबीर। कबीर ने, कबीर के अलावा कभी कुछ कहा ही नहीं।

पर तुम आते हो कि ये 5 दोहे हैं, इन के अर्थ समझ आ गए बाकि 5 के नहीं आये, ये तो वैसे ही हुआ 5 कबीर समझ आ गए, 5 कबीर नहीं आये। 5 यदि नहीं समझ आये, तो इसका यही मतलब है कि एक भी समझ नहीं आये। जो कबीर को जानेगा, ‘कहेगा ठीक, कुछ भी बोल रहे हो बोला तो कबीर ही होगा ना।’ कबीर और कुछ नहीं बोलते, बस कबीर बोलते है और चुप हो जाते हैं, और ऐसी होती है कबीर दृष्टि, ऐसी होती है संत की दृष्टि कि वो फल को देखती है, फूल को देखती है, समस्त ब्रह्माण्ड को देखती है पर दिखता उसे बस मूल है। बस ऐसे ही हो जाओ। मन तो विवधता ही देखेगा, मन को देखने दो विविधता। समस्त विविधता के पीछे तुम्हें एकत्व दिखाई देता रहे, लगातार।

तमाम, वचन, साखीया, वचन, भजन कबीर के पढ़ते रहो, पर उन सब के पीछे तुम्हें लगातार कबीर दिखाई देते रहे। कबीर हो के पढ़ो, मन की तमाम गति चलती रहे, उसकी सारी गति के चलते हुए भी मन की तमाम दौड़ के मध्य भी तुम दौड़ के अंत पर रहो। मन जहाँ को दौड़ा जा रहा है, तुम वहाँ पहले ही विराजे रहो ठीक वो धीरे- धीरे आता है, हम तो वहां सदा के पहुंचे हुए हैं पर ये मन आलसी है, धीमी इसकी गाति है ‘इसे समय लगता है’ इसे समय लगता है, आलसी है ना, जो आलसी होते हैं उन्हें ही समय लगता है, मन समय में जीता है महाआलसी। मन जहाँ को पहुँचना चाहता है, हम वहां सदा से आसीत है, तुम ऐसे जीयो। तब तुम कबीर हो मन चेला है और मन दौड़ भाग मचा रहा है, तुम खुद ही उसे उपदेश दे लोगे तुम्हें कहना भी नहीं पड़ेगा तुम्हारी मौजूदगी ही उस के लिए उपदेश बन जाएगी, इसी को साक्षी भाव कहते हैं। कबीर की जो साखीया है, वो भी साक्षी शब्द से ही निकली है। तो कबीर स्वयं साक्षी है, कबीर होना माने साक्षी होना, तुम भी साक्षी हो जाओ। जो तुझे चाहिए, वो हमें पहले से मिला हुआ है, वो हमसे कभी छूटा ही नहीं था। जो तू होना चाहता है, वो हम पहले से ही है।

जहाँ तू पहुँचना चाहता है, वहां हम कब के बैठे हुए हैं। और जब तुम ऐसे होते हो, तब जैसा कि थोड़ी देर पहले कहा था मन की गति रहती है, पर वो बड़ी लयात्मक गति हो जाती है। फिर वो टेढ़ा टपरा नहीं चलता, फिर वो गिरता, ठोकर खाता उठता नहीं चलता, फिर वो नाचता हुआ चलता है। शब्द वो अभी भी करेगा क्यूंकि मन है अपूर्ण है, काम है उसका पर अब उसके शब्द कर्कश नहीं रहेंगे, शोर जैसे नहीं होंगे, अब जब मन बोलेगा, तो वैसा बोलेगा जैसा कबीर बोलते है संगीत उठेगा मिठास रहेगी, एक दैवीय मधुरता। समझ रहे हो? अरे! मत कहो कि समझ रहे हैं। कहो समझे हुए हैं किसको समझा रहे हो आप, ये सब ख़त्म करो कि तुम समझाते हो, हम समझते हैं व्यर्थ का स्वांग। हम सदा के समझे हुए हैं। ये कोई समझाने की बातें है? हमें सब पता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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