प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। 7 जून को बक़रीद है और 11 जून को कबीर साहब जयंती है। तो मैं साहब के मांसाहार और पशुबली से रिलेटेड कुछ दोहे पढ़ रही थी। तो मैंने देखा कि जिस निर्भीकता से उन्होंने अपने समय पर उस बारे में बात की, उस तरीक़े से किसी और संत ने इतनी स्पष्टता से कभी बात नहीं की। तो मैं कुछ दोहों की सूची लेकर आई हूँ और मैं चाहती हूँ, आपसे समझना कि साहब वास्तविकता में क्या संदेश देना चाहते थे और समाज को किस दिशा में ले जाना चाहते थे। और हम लोग आज भी इतने पुराने धार्मिक पाखंड में अभी तक फंसे हुए हैं, तो इसका कोई समाधान हो सकता है? और पशुबली जैसे धार्मिक पाखंड कार्य आज भी क्यों होते हैं?
आचार्य प्रशांत: देखो, कबीर साहब की यही बात है। सिद्धांत के तल पर ज्ञान देना बहुत अच्छा है — बहुत अच्छा है — लेकिन फिर भी आसान है। उनकी ईमानदारी बहुत खरी है। वो जब तक उस ज्ञान को ज़िन्दगी बनता नहीं देख लेते, वो तुम्हें छोड़ते नहीं हैं। पाखंड पर जितनी चोट संत कबीर ने करी है, उतनी शायद ही किसी ने करी हो और वो भी बड़ी विपरीत परिस्थितियों में।
हम बात कर रहे हैं मध्यकाल के बनारस की — कट्टरता का गढ़ — और दोनों तरफ़ की कट्टरता: ब्राह्मणवादी कट्टरता भी, वैष्णव कट्टरता, शैव कट्टरता, और इस्लामिक कट्टरता। मुसलमानों का तो राज था। और संत-शिरोमणि माने — सबसे ऊँचे — वो कहे इसीलिए जाते हैं क्योंकि मज़ाल है कि उनकी ज़ुबान काँप गई हो सच बोलने में। सामने खड़ी हैं बड़ी से बड़ी ताक़तें, उनके मुँह पर बोल रहे हैं कि तुम अधर्मी हो। यही वजह है कि जो ललकार आपको कबीर साहब के यहाँ मिलती है, वो अन्यत्र कम सुनने को मिलती है — या बस आपको दूसरी जगह उस ललकार की थोड़ी गूंज सुनाई देती है। यहाँ गर्जना है, गूंज नहीं है। यहाँ गर्जना है।
अब जैसे अभी आपने ये दिया — आपने मांसाहार पर दोहे लिख दिए — पर आप साखी ग्रंथ में जाओगे, तो वहाँ लिखा होगा “मांसाहार को अंग।” जब अन्य संतों की आप वाणी उठाओगे — और वहाँ भी बहुत ऊँची बातें हैं, मेरा नमन सबको है और हम बात भी सब पर करते हैं, आप जानते हो — लेकिन आप दूसरे संतों की वाणी उठाओगे, तो वहाँ पर आपको सुरमा की इतनी बातें सुनाई नहीं देंगी। साधक को सुरमा बनाने का काम तो साहब ही कर रहे हैं।
अब ज्ञान मार्ग तो फिर भी माना जाता है कि नेति-नेति का मार्ग है, इसलिए उसको तलवार का मार्ग माना गया है — क्योंकि नकारना है, काटना है। तो ज्ञानी में थोड़ी आक्रामकता हो, ये तो फिर भी चलता है क्योंकि उसका काम ही है चुनौती देकर के कहना कि झूठ है। पर साहब अकेले हैं जिन्होंने भक्त को भी सुरमा बना दिया। वरना भक्त की क्या छवि होती है? — ये बस हाथ जोड़े हुए, सब स्वीकार कर रहा है वो कह रहा है बस, “कण-कण में राम है।” नहीं-नहीं-नहीं। जब कबीर साहब के पास जाओगे, तो कहेंगे — तुम्हारी भक्ति किसी काम की नहीं है अगर तुम संघर्ष नहीं कर सकते। और लानत भेजते हैं वो ऐसे भक्तों पर, जिनको सच्चाई के लिए लड़ना नहीं आता।
और जो आदर्श वो पूरे समाज को अपनाने को कहते हैं, उस आदर्श के पहले प्रतिनिधि वो स्वयं बन जाते हैं। अब इतिहास कोई बड़े भरोसेमंद तरीक़े से उस समय का लिखा नहीं गया है, है ना? हम 14वीं-15वीं शताब्दी की बात कर रहे हैं, तो बहुत ज़्यादा निश्चयात्मक सामग्री उपलब्ध नहीं है। उनके जन्म, जीवन और जो जीवन की घटनाएँ थीं, सबके साथ बड़ी किंवदंतियाँ जुड़ी हुई हैं — फोल्क्लोर, सुनी-सुनाई बात, जनश्रुति — तो कुछ निश्चित नहीं है। लेकिन फिर भी, अगर जो लेजेंड्स हैं उस समय के, अगर आप उन पर भी गौर करेंगे — जनश्रुतियों पर — तो भी दिखाई देगा कि इनके साथ वो हुआ जो आमतौर पर संतों के साथ होता नहीं है।
उदाहरण के लिए, अब मीराबाई — उसी समय की, कबीर साहब के बाद की हैं — एक प्रमुख संत हैं। ठीक है? ऊँचा नाम है, सम्माननीय नाम है। और हम जानते हैं अच्छे तरीक़े से कि उनके साथ जुड़ा हुआ है कि उनको विष दिया गया था। आप कबीर साहब की ज़िन्दगी में जाएँगे तो आता है न — कई बार विष दिया गया था, और अलग-अलग तरीक़ों से मारने की कोशिश की गई थी। अब उसमें से कुछ बातें हैं, वो आप देखते हो तो ऐसा लगता है कि ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं लग रही हैं। जैसे सिकंदर लोदी का नाम आता है कि सिकंदर लोदी ने हाथियों से कुचलवाने की कोशिश की। अब ऐतिहासिक दृष्टि से वो बात जमती नहीं है, लेकिन इससे ये तो पता चलता है कि इनका विरोध हो रहा था। और ये समाज के सामने बहुत बड़ा सवाल बनकर खड़े हो गए थे।
जन्म से ब्राह्मण थे, लेकिन परवरिश मुसलमान जुलाहों के यहाँ हुई थी। फिर अगर उनके वक्तव्य पढ़ो तो ऐसा लगता है कि दर्शन का बड़ा गहरा अध्ययन किया उन्होंने — क्योंकि दर्शन की जो टर्म्स हैं, जो उसकी विशिष्ट शब्दावली है, वो देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए — “इंगला-पिंगला-सुखमन नाड़ी” — अब जिसने योग सूत्र न पढ़े हों, वो कैसे ये बात कर लेगा? ये साधारण भाषा नहीं है, ये टेक्निकल भाषा है। तो कहाँ से आई?
इसी तरह अद्वैत वेदांत की बहुत सारी वो तकनीकी बातें करते हैं। तो उससे लगता है कि इन्होंने बहुत गहराई से अध्ययन किया है। और दूसरी ओर, उनके ही वक्तव्य में ये सुनने को मिलता है कि — “मसि कागद छुवों नहीं,” कि मैंने तो साहब पढ़ाई करी नहीं है। तो हमें ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ ख़ास पता चलता नहीं है। जो ज़्यादातर हमें उपलब्ध है, वो तो उनके ही वक्तव्य हैं। उनके वक्तव्यों में भी कई बार होता है कि वही वक्तव्य है, उसमें कोई कबीर साहब लिख देगा, कोई दादू लिख देगा, कोई रहीम लिख देगा — एक ही बात है, जैसे वो सबने। सबसे जो अच्छा संग्रह है साहब की वाणी का — मालूम है कहाँ मिलता है? बताओ, जो सबसे भरोसे का, रिलायबल कहाँ पर?
श्रोता: गुरु ग्रंथ साहिब।
आचार्य प्रशांत: गुरु ग्रंथ साहिब — वहाँ मिलता है। और वहाँ हम लगभग निश्चित हो सकते हैं कि छेड़खानी नहीं की गई होगी। आ रही है बात? तो यूँही नहीं है कि हम जब पूरे संत समुदाय की बात करते हैं — जिसमें सभी पूज्य हैं — तो उसमें हम अग्रणी, प्रमुख रखते हैं संत कबीर साहब को। क्योंकि ये तो जलवा थे, ये आग थे। अच्छी बातें तो सभी संतों ने करी हैं। इन्होंने सिर्फ़ अच्छी बातें नहीं करी हैं — इन्होंने घाव दिए हैं, और खाए भी होंगे। आ रही है बात?
अब सोचो, जहाँ पशुबली खूब चलती रही हो, वहाँ पर ये बातें करना कितना मुश्किल है। जो मांसाहार पर उन्होंने बात कही है — और बक़रीद आ रही है, उसके संदर्भ में आपने ये यहाँ पर रखा है — उनके समय तक आते-आते उत्तर भारत पर इस्लामिक शासन पूरी तरह स्थापित हो चुका था। वहाँ पर ये बात कर रहे हैं। क्या कह रहे हैं? और ये तब है जब स्वयं उनको परवरिश देने वाले मुसलमान ही थे। वो जो काम कर रहे थे, वो काम भी बनारस में पारंपरिक रूप से मुसलमानों का ही काम रहा है। क्या काम था उनका?
श्रोता: जुलाहों का।
आचार्य प्रशांत: तो वो उसी माहौल में थे। लेकिन उसके बाद भी उनकी आवाज़ सुनो, कह रहे हैं — “मांस मांस सब एक है, मुर्गी हिरनी गाय।” अब यहाँ तक कोई भी संत बोल सकता है। मांस मांस सब एक है — मुर्गी हिरनी गाय। बात सिद्धांत की है। लेकिन इसके बाद साहब शुरू होते हैं — “आँख देखि नर खात है, तेर नर नरकहि जाय।।”
वो रुकते नहीं हैं। ये बोल के कि देखो, सब प्राणियों को दुख अनुभव होता है — तुम कैसे एक को बोल देते हो कि ये हलाल है, एक हराम है। या कि एक को माता बोल देते हो और दूसरे को काट के खा जाते हो। तो तुम ये कैसे कर लेते हो? ये बोल के वो रुक भी सकते थे — और ये बोल के बहुत सारे संत रुक जाते हैं। क्योंकि इसके आगे वो शुरू होता है, जिसको हम आम भाषा में पंगा कहते हैं। पर कबीर साहब की बात ये है कि इन्हें पंगे लेने से?
श्रोता: कोई डर नहीं लगता।
आचार्य प्रशांत: कोई डर नहीं लगता। और बेटा, उस समय के बनारस में रह के पंगा लेना बड़ी बात है। और ज़िन्दगी भर वो टरे नहीं बनारस से — वो मौत में भी नहीं टरे बनारस से। जब मरने का समय आ रहा था, तो एक जगह है — अब नाम याद नहीं आ रहा, ज़ोर डाल रहा हूँ — मगहर, कैसे भूल सकता हूँ — तो लोगों ने कहा कि “अब मरने जा रहे हो तो शांत होकर बैठ जाओ। अब कहाँ निकल पड़े?” यात्राएँ उन्होंने भी खूब करी थीं। बोले — “अब कहाँ को निकल पड़े? और विशिष्ट जगह पर हो — काशी में मरोगे। लोग काशी में मुक्ति के लिए आते हैं। इधर-उधर से लोग मर रहे होते हैं — वो कहते हैं काशी ले चलो, काशी में प्राण त्यागेंगे तो स्वर्ग मिलेगा वग़ैरह-वग़ैरह। तुम कहाँ अभी मरते समय यात्रा करने निकल पड़े?”
बोलते हैं — “जो कबीरा काशी मरे, तो राम ही को बेहोरा।” बोले, 'अगर मुझे मुक्ति इस वजह से मिलनी है कि मैं काशी में मर रहा हूँ, तो ज़िन्दगी भर जो मैं राम के साथ रहा हूँ उसका क्या होगा?' और काशी में मरने से जो मुक्ति मिलती है, वो तो बहुत सस्ती चीज़ हो गई ना। मुझे काशी में मर के जो मुक्ति मिलती है, वो चाहिए ही नहीं।” तो मरते वक़्त जानबूझ के मगहर निकल गए थे। और कहते हैं कि मगहर को मरने के लिए अच्छी जगह नहीं मानी जाती — मौत में भी पंगा।
बोले, “जो अच्छा नहीं माना जाता, वही कर के दिखाऊँगा। वही करूँगा जो तुम्हारा लोकधर्म बोलता है गलत है। मैं सब, सारे काम करूँगा। जिया हूँ काशी में, मरूँगा काशी से बाहर। बोले — मुझे राम का आसरा है। तुम्हारे लोकधर्म का आसरा थोड़ी है। और ये बात तो उनके वक्तव्य में बार-बार दिखाई देती है। “जा के राम आधार” — सीधे बात खत्म। बोले — तुम्हारा आधार लोकधर्म होगा, तुम्हारा आधार कुछ और होगा, मेरा आधार मेरे राम हैं। मुझे और किसी की परवाह नहीं। अपना तेल-बत्ती, सब ये चावल-हल्दी अपने पास रखो, मेरे साथ मेरे राम हैं। “आँख देख नर खात है, ते नर नरक ही जाय।"
अब वहाँ पर बलि दी जा रही है या क़ुर्बानी दी जा रही है — और वो ये बोल के दी जा रही है कि “ये करने से स्वर्ग मिलेगा।” और ये वहाँ खड़े होकर कह रहे हैं कि जो ये काम कर रहा है ना, उसको नर्क मिलेगा नहीं, वो नर्क में चला गया। अभी वो नर्क में है।
पशुओं के प्रति इतनी आर्द्रता, इतनी करुणा और देखने को मिलती नहीं है, नहीं मिलती देखने को। जीसस के साथ है कि मांस खाते थे। वास्तव में जितने भी अब्राहमिक पैगंबर हुए हैं, वहाँ की संस्कृति ऐसी थी कि उन सबके जीवन में आता है कि मांस खाते थे। ठीक है? भारत में भी मांसाहार का इतना घना विरोध और किसी ने नहीं करा। पश्चिम के पैगंबर तो आता है कि, मांसाहार… हालाँकि वो भी करुणा का संदेश देते थे। कहते यही थे कि, बिना बात के जीव को मारोगे तो पाप लगेगा। तो करुणा का संदेश वहाँ भी है। लेकिन भारत में भी आप आते हो — जहाँ भारत अहिंसा की भूमि रहा है — तो वहाँ भी ऋषियों, ज्ञानियों ने उतनी कड़ाई से भर्त्सना नहीं करी है मांसाहार की, जितनी कड़ाई से?
श्रोता: कबीर साहब ने करी है।
आचार्य प्रशांत: जो वैदिक धर्म था, जिसका परिषोधन कह लो तो — परिषोधन, विरोध कह लो तो — विरोध करने के लिए बुद्ध और महावीर खड़े हुए थे। उसमें तो पशुबलि बहुत प्रमुख हो ही गई थी। और तभी बुद्ध और महावीर — दोनों के धर्म में अहिंसा का केंद्रीय स्थान था। तो वहाँ धर्म के नाम पर ही चलता था कि, “पशु को मार दो।” उसके बाद भी तमाम, जैसे तंत्र है — तंत्र में भी पशुबलि चल जाती है। जो शाक्त धारा रही है — उसमें भी पशुबलि चल जाती है। आज भी ये सब होता है। कितने ही मंदिर हैं — पूरब की तरफ़, बंगाल, बिहार, असम में हैं जहाँ पर प्रतिदिन बलियाँ चलती हैं।
भारत में सूफ़ी भी रहे और सूफ़ियों की ओर से तो ये सुनने को हमें कभी मिला ही नहीं कि पशु हत्या गलत है। कारण कि — इस्लाम में बक़रीद का त्योहार है, जिसमें पशुबलि होती ही होती है। तो सूफ़ियों ने भी कभी ये नहीं बोला कि पशु हत्या गलत है। पाप है — तो दूर की बात रही, गलत भी नहीं बोला। और इतने संत रहे वैष्णव परंपरा में भी। उन्होंने भी कभी पशु हत्या की उस तरह निंदा नहीं करी, जैसे आपने (कबीर साहब ने) करी।
और मैं कहता हूँ — किसी के अध्यात्म की गहराई नापनी है, तो ये नाप लो कि उसका पशुओं के प्रति क्या दृष्टिकोण है, ये नाप लो। इसलिए साहब शिरोमणि हैं। पशुओं के प्रति जो रवैया संत कबीर का रहा है — वो रवैया हमें अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। पशुओं के प्रति इतनी करुणा किसी ने नहीं दिखाई है। आध्यात्मिक बातें बहुतों ने करी हैं — और अच्छी बातें करी हैं, हम नमन कर रहे हैं। लेकिन जीव-जानवर को इतना प्रेम, इनके अलावा किसी ने नहीं दिया है।
और जानवर की ख़ातिर अपनी जान को दाँव पर लगाने का काम तो कबीर साहब के अलावा किसी ने नहीं करा है।
आप यहाँ तक कि आधुनिक युग में भी आ जाओ — तो कौन अध्यात्म के क्षेत्र में जानवरों के लिए बहुत बात कर रहा था? बताओ। मांसाहार के ख़िलाफ़ बहुत कड़ा रवैया, आप देखो तो बहुत कम लोगों ने अपनाया है। बल्कि जो आधुनिक काल में भी आध्यात्मिक महापुरुष हुए हैं — उनमें से कईयों के साथ तो मांसाहार की कथाएँ जुड़ी हुई हैं। ख़ुद ही मांसाहार करते थे।
मध्यकाल में भी संत कबीर अकेले थे जिन्होंने अध्यात्म को पशुओं तक पहुँचा दिया कि अगर पशु को तुम हानि दे रहे हो, तो तुम आध्यात्मिक नहीं हो सकते। और वो विरली बात थी, और वो विरलता आज के काल तक चली है। आप आज भी देख लो — तो अध्यात्म के क्षेत्र में जितने बड़े नाम हैं, आप देखोगे — आपको बहुत कम मिलेगा कि कहा जा रहा है कि, पशु के ख़िलाफ़ मत करो। बल्कि कोई बोल देता है — अच्छा, ये मांस खाना गलत है? तो दूसरा मांस खा लो। कोई बोल देता है, अच्छा एक काम करो अंडा खा लो। ये सब भी चलता है। जो अनफर्टिलाइज़्ड अंडा है, वो खा लो — देखो उसमें प्राण तो है नहीं, तो जीवहत्या नहीं हुई।
और जो मांसाहार को बहुत मना भी करते हैं — वहाँ पर दूध, घी, खीर खूब चलता है। उदाहरण के लिए — वैष्णव धारा है, वो मांसाहार मना करती है, लेकिन वहाँ भी दूध, घी वग़ैरह खूब चलता है। तो पशुओं के प्रति करुणा — आम समाज में तो विरल रहा ही है, आध्यात्मिक समाज में भी विरल रही है। आम आदमी को तो पशुओं के प्रति करुणा नहीं ही रही है, लेकिन जो आध्यात्मिक गुरु-संत-महापुरुष हुए हैं — उनमें तक में पशुओं के प्रति करुणा कम ही देखी गई है। उन्होंने ये नहीं कहा — "पशु को मारो", लेकिन उन्होंने पशुओं को अपनी शिक्षा के केंद्र में भी कभी नहीं रखा।
अब आधुनिक काल में उदाहरण के लिए — भारत से कई हमारे प्रचारक, शिक्षक, गुरु लोग बाहर गए। आपको ये रोचक लगेगा कि बाहर जाकर के, किसी ने ज़ोर देकर ये नहीं कहा कि — “मांस खाना गलत बात है।” बताओ क्यों? क्योंकि बाहर वो सब मांस ही खाते थे। अब समझ में आ रहा है कि कितने विरल हैं कबीर साहब? ना तो पुराने समय में कोई बोलना चाहता था कि मांस खाना गड़बड़ है। आध्यात्मिक जगत में भी कोई नहीं बोलना चाहता था। और आज के समय में भी आध्यात्मिक जगत में कोई नहीं बोलना चाहता कि मांस खाना गलत है, या कम लोग बोलना चाहते हैं। और कोई अगर मांस को गलत बोलता भी है, तो मांस से जुड़ी जो और चीज़ें हैं, उनको गलत नहीं बोलता। उदाहरण के लिए — दूध, दही, घी — इसको कोई नहीं बोलेगा कि ये गलत है। समझ में आ रही है बात ये?
यहाँ बंदा, बंदे की जान की फ़िक़्र नहीं करता। संत वो है जो जानवर की जान की भी फ़िक़्र कर रहा है। ये संतई का लक्षण है।
“काटा कूटी जो करै, ते पाखंड को भेष। निश्चय राम न जानहीं, कहैं कबीर संदेस।।”
काटा कूटी करने वाला आदमी अगर अपने आप को धार्मिक बोल रहा है तो वो धार्मिक नहीं है, बहुत बड़ा पाखंडी है। तुम्हारा सारा धर्म एक तरफ़ और तुमने जानवर को मार दिया वो एक तरफ़। जिस आदमी ने जानवरों के प्रति हिंसा की दृष्टि रखी हुई है। वो कम से कम अपने आप को धार्मिक तो ना बोले।
आगे सुनो। अब ये इस्लामी राज में कहा जा रहा है। ललकार के कहा जा रहा है।
“मुलना तुझै करीम का, कब आया फरमान। दया भाव हिरदै नहीं, जबह करै हैवान।।”
करीम समझते हो? ईश्वर की ओर इशारा है। बोले, “ज़रा बताना कि कब तुझे तेरे ईश्वर ने फ़रमान भेजा था कि तू ज़िबह करेगा, तब तू अच्छा आदमी होगा, तब तेरा धर्म आगे बढ़ेगा? बता!” और जो एक चीज़ होती है जो इंसान को आध्यात्मिक बनाती है, वो होती है — करुणा। दया भाव, हृदय नहीं; तुम्हारे हृदय में दया है नहीं — और तुम धर्म का नाम लेकर, अल्लाह का नाम लेकर ज़िबह कर रहे हो? और ये तेवर देखिए! ये तेवर देखिए: "मुल्ला, तुझे करीम का कब आया फ़रमान। दया भाव, हृदय नहीं ज़िबह करे हैवान।।" ये वो जगह है जहाँ पर संत और सूरमा में फ़र्क़ करना मुश्किल हो जाता है। और इसी लिए "सूरातन को अंग, सूरमा को अंग"— ये कबीर साहब की वाणी में मिलता है, कहीं और नहीं। ये कहने के लिए बिल्कुल ठोस, निर्भीक कलेजा चाहिए।
वो संविधान का ज़माना नहीं था कि आपने कुछ कर दिया तो कोई जाकर रपट (एफ़.आई.आर.) करेगा, और फिर बाकायदा पुलिस आएगी और गिरफ़्तार करके ले जाएगी, और फिर कहीं आप पर मुक़दमा चलेगा, और आपको भी कहा जाएगा—"अपना वकील दिखाओ," और फिर गवाह, सबूत सामने रखे जाएँगे, और फिर नियमों के आधार पर न्यायाधीश आपको बरी करेगा या सज़ा देगा। तब ऐसा नहीं होता था। क्या होता था?
उनके सामने ये ग़रीब जुलाहा अपनी आध्यात्मिक रीढ़ के दम पर खड़ा होकर कह रहा है — "मुल्ला तुझे करीम का कब आया फ़रमान।" और सोचो, कैसा चुभा होगा? और ये खड़ा हुआ ऐसे (तन के) कुछ नहीं है। पंडित सब उसे बोलने में लगे हुए हैं — "तू हिंदू नहीं है! तू हिंदू नहीं है! और चल, तू अगर हिंदू है भी — तो तू विद्वान नहीं है, क्योंकि किसी गुरु से विधिवत तुझे दीक्षा तो मिली नहीं है।” मुसलमान उसे बोलने में लगे हुए हैं —"तू कौन होता है हमें पट्टी पढ़ाने वाला? तू क्या है? तू आलिम, फ़ाज़िल है, मौलाना है? तू कौन है भाई? तू कैसे बात कर रहा है?" और ये आदमी ऐसे खड़ा हो गया है — तन के, तन के खड़ा हुआ है। हिंदू और मुसलमान दोनों के ख़िलाफ़ एक साथ तन के खड़ा हुआ है। मज़े की बात ये है कि जब मरे वो, तो हिंदू - मुसलमान फिर हुड़ लगाकर के आए कि “हमारे थे, हमारे थे, हमारे थे।” और जब तक वो जिए, वो सबकी आँख की किरकिरी थे। आगे फिर वही है —
“काजी तुझे करीम का, कब आया फ़रमान। घट फोड़ा घर–घर किया साहिब का नीसान।।”
‘घट’ शरीर को बोलते हैं कबीर साहब। घट फोड़ा माने किसी का शरीर तूने काटा, और घर-घर किया माने लोगों में बाँट दिया, तूने उसका माँस घर-घर पहुँचाया। और जिसका तूने मांस पहुँचाया, तुझे मालूम है न है कौन वो? वो साहिब की निशानी है। और ये करने के लिए तुझे साहिब ने बोला था? बता, तुझे कब फ़रमान आया था? दिखा फ़रमान। आप आज न बोल पाओ, जब लॉ एंड ऑर्डर, क़ानून, ड्यू प्रोसेस और संविधान का ज़माना है। तब ये खड़े होकर गरज रहे थे। फिर काजी को पकड़ रहे हैं। काजी तो इधर–उधर भागने की कोशिश में। बोले—“जा कहाँ रहा है? इधर आ!” कॉलर पकड़कर के।
“काजी का बेटा मुआ, उरमें सालै पीर।”
अगर काजी, तेरा बेटा मर जाए तो तेरे दिल में बहुत पीड़ा होगा ना, काजी? होगा न?
“काजी का बेटा मुआ, उरमें सालै पीर। वो साहेब सबका पिता है, भला न माने बीर।।”
तेरा एक बेटा है, वो मर जाए तो तुझे बहुत दर्द होगा। और वो जो साहिब है, वो तो सबका बाप है। जिसको हम प्रकृति कह सकते हैं, सबकी माँ है। तू उसके बच्चे को मार रहा है, तो उसे अच्छा लगेगा क्या? तेरे भी बच्चे हैं। तेरा बच्चा कोई काट दे, तो तुझे कैसा लगेगा? और ये सब जो पशु–पक्षी–जीव हैं, ये भी तो किसी के बच्चे हैं। तू इन्हें काट रहा है और फिर सोच रहा है कि इनको काटने से ऊपर वाला खुश हो जाएगा? अब आगे सुनो, रोंगटे खड़े हो जाएँ—
“पीर सबन को एक सी, मूर्ख जाने नाही।”
यहाँ पर शालीनता का कोई खेल नहीं है कि देखिए कड़वी बात न करें। अभी तो कड़वी बात शुरू भी नहीं हुई है। कड़वाहट छोटी चीज़ होती है, यहाँ तो कटार है।
“पीर सबन को एकसी, मूरख जानै नाँहि। अपना गला कटाय के, भिस्त बसै क्यौं नाँहि।।”
क्योंकि जब क़ुर्बानी दी जाती है, तो कहा जाता है कि जैसे ही छुरी पड़ती है बकरे के गले पर, उसका खून ज़मीन पर गिरता है वैसे ही बकरा जन्नत पहुँच जाता है। तो साहब ने कहा — अगर गला कटने से और खून ज़मीन पर गिरने से जन्नत मिलती है तो, अपना गला कटाय के; भिस्त मानें जन्नत — “अपना गला कटाय के, भिस्त बसै क्यौं नाँहि।” बकरे को क्यों काट रहा है काजी? अपना काट ले। ऐसे ही नहीं कबीर भजन गाते हैं, कोई वजह है। बंदे में था दम। समझ में आ रही है बात? ये कोई हम किसी लुचुर-पुचुर फ़क़ीर की बात नहीं कर रहे हैं। आ रही बात समझ में? आगे —
“मुरुगी मुलना सौं कहै, जबह करत है मोह। साहिब लेखा माँगसी, संकट पड़ है तोह।।”
मुर्गी मुलना, मुल्ला से कह रही है कि, तू मुझे तो ज़िबह कर रहा है लेकिन साहिब तुझसे लेखा मांगेगा, हिसाब मांगेगा। पूछेगा कि ये तू क्या कर रहा है “संकट पड़ है तोह” और तब तू फंस जाएगा तू समझा नहीं पाएगा कि तूने मुझे क्यों काटा था। तू समझा नहीं पाएगा तूने मुझे क्यों काटा था। आगे —
“काला मुँह करि करदका, दिल सों दुई निवार। सबही रूह सुभान की, अहमक मुला न मार।।”
करद माने छुरी जिससे काटा जाता है। कहते इसका मुँह काला करो फेंको इसे दूर। “दिल सों दुई निवार” दुई माने द्वैत। दिल से ये द्वैत की भावना निकाल दो कि, मेरा और उसका हित अलग-अलग है। जब हित होता है तो सबका एक साथ होता है। तेरा भला मेरा भला सदा एक साथ चलेंगे, ये द्वैत की भावना है, ये गड़बड़ की भावना है। द्वैत ही माया है कि उसका नाश करके मेरा भला हो जाएगा कि उसकी जान लेके मेरा स्वास्थ्य बन जाएगा तुमने उसकी जान ली है, तो तुम्हारी जान भी ख़राब होगी।
“काला मुँह करि करदका, दिल सों दुई निवार। सबही रूह सुभान की।”
ये सबके अंदर जो चेतना बसती है, वो ख़ुदा से ही आई है।
'सुभान अल्लाह' कहते हैं न? कहते हैं—“सब ही रूह सुभान की”, सब वहीं से आ रहे हैं। “अहमक मुला ना मार।” अहमक माने मूर्ख — क्यों मार रहा है तू? एक को मार रहा है, तो तू सबको मार रहा है, सबके प्राण आपस में संबंधित हैं।
“जोर करे जबहै करे, और मुख सों कहै हलाल।”
बोल रहे हैं तेरा कौन सा हलाल है? तुम बोलते हो "हलाल किया" और हलाल का मतलब होता है धर्मसम्मत, और हराम का मतलब होता है धर्मविरुद्ध। तो बोल रहे हैं — ये कौन सा धर्म है जिसमें ज़बरदस्ती उस जानवर को पकड़कर उसकी गर्दन काट रहे हो, और फिर बोल रहे हो “हलाल है?” हलाल कैसे है? तुम किसी के साथ ज़बरदस्ती कर रहे हो, उसके प्राण ले रहे हो, उसका खून बहा रहे हो और मांस खा जाओगे — इसमें हलाल क्या है?
“जोर करे जबहै करे, और मुख सों कहै हलाल। साहिब लेखा माँगसी, होसी कौन हवाल।।”
जब साहिब लेखा मांगेगा, उस वक़्त तुम क्या जवाब दोगे? तुमने ख़ुद को तो समझा लिया कि ये हलाल है, पर ये हलाल है नहीं। बात समझ में आ रही है? और ऐसा नहीं है कि उनकी बात मुसलमानों को समझ में नहीं आई थी — आई थी।
हिंदुओं ने उन्हें संत माना, तो मुसलमानों ने पीर-फ़क़ीर भी माना। ये अलग बात है कि आज जो कट्टरता का ज़माना है, उसमें संत कबीर को ज़्यादातर मुसलमानों ने पूरी तरह त्याग दिया है — ये कहकर कि "ये तो राम की बात करते हैं, हम इनको नहीं सुनेंगे।"
लेकिन उस समय की किंवदंती यही है कि जब उन्होंने प्राण छोड़े थे, तो उस वक़्त मुसलमान भी बराबर के हिस्सेदार बने थे। कहानी ये बना दी गई कि उनका शरीर फूल बन गया। हिंदू-मुसलमान आपस में भिड़ रहे थे कि "हमारे हैं, हमारे हैं, हमारे हैं।" जीवन भर तो उनकी बात किसी ने नहीं सुनी, जब मर गए तो लड़ने लगे कि "हमारे हैं, हमारे हैं।" तो फिर किसी ने अंदर जाकर देखा हुआ क्या? तो देखा मरे। कहानी है, शरीर फूल नहीं बन जाता। तो देखा कि वहाँ शरीर की जगह फूल हैं और फूल हिंदू-मुसलमानों ने आपस में आधे-आधे बाँट लिए। और ये मौत के बाद की बात है, जीते जी तो। फिर आगे भी वही है।
“गला काटि कलमा भरै, कीया कहै हलाल।”
गला काट रहे हो और साथ में कलमा पढ़ रहे हो, और फिर कह रहे हो हलाल कर दिया।
“साहिब लेखा माँगसी, तबही कौन हवाल।।”
क्या जवाब दोगे? साहब को समझ लो, तुम्हारे भीतर तो सच्चाई है। वो तुम्हारे सामने सवाल बन के खड़ी हो जाएगी। तुम क्या जवाब दोगे?
“गला काटि बिस्मिल करै, ते काफ़िर बे बूझ।”
तुम दूसरों को काफ़िर बोलते हो, तुम गला काटते हो और बोलते हो बिस्मिल्लाह। तुम ख़ुद सबसे बड़े काफ़िर हो।
“गला काट बिस्मिल करै, ते काफ़िर बे बूझ।”
दूसरों को काफ़िर कहो, तो काफ़िर बोल रहे हो, और “अपना कुफ़र न सूझ” अपना कुफ़्र नहीं देख रहे हो। काफ़िर माने विधर्मी, काफ़िर माने जो धर्म का पालन नहीं करता। बोले तुम दूसरों को तो काफ़िर बोल रहे हो, और गला काट के बिस्मिल करते हो, तो ये कुफ़्र नहीं है क्या? किसी का गला काटना। और तुम्हें अच्छे से पता है, वो भी तुम उसकी आँखों में देखो, तुम्हें प्राण दिखाई देंगे, ऐसा नहीं हो सकता। और तुम उसका गला काट रहे हो और कह रहे हो नहीं, ये तो हलाल है। ऐसे कैसे? ऐसे कैसे तुम्हें दिख नहीं रहा?
अब क़ुर्बानी सचमुच कैसे दी जानी चाहिए, इसके बारे में क्या कहते हैं? कहते हैं,
“गला गुसा को काटिये” गला काटिए क्रोध का। “मियाँ कहर को मार” और कहर माने ज़ुल्म, दूसरे पर अत्याचार। मियाँ कहर को मारो, बकरे को नहीं मारो।
ये जो ज़ुल्म करने की प्रवृत्ति है, इसको मारो। और गला काटना है तो गुस्से का काटो। ये है क़ुर्बानी का असली मतलब। त्यौहार ऐसे मनाया जाना चाहिए। “जो पाँचौं बिसमिल करै, तब पावे दीदार।” और पाँचों से अर्थ समझ लीजिए — पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ — कि जब तुम इनको शुद्ध करोगे, तब तुमको उस सच्चाई का दीदार होगा। अपनी सब इंद्रियों को शुद्ध करो। बिस्मिल गला काट के नहीं करो। आंतरिक सफाई जब करो, तब बोलो कि बिस्मिल्लाह।
भीतरी सफ़ाई हुई, तब जानो कि उत्सव मनाया। किसी का खून बहाने से उत्सव थोड़ी बनता है।
काफ़िर की परिभाषा दे देते हैं। बोलते हैं —
“कबीर तेई पीर हैं, जो जानें पर पीर।”
कहते हैं, किसी को यूँही पीर या संत या साधु या धर्मज्ञ मत मान लेना। पीर वही है जो दूसरे की पीड़ा जानता हो। तो पीर शब्द पर खेला है। पीर माने पीर भी होता है और पीर माने पीड़ा भी। तो “कबीर तेई पीर हैं, जो जाने पर पीर,” जो दूसरे की पीड़ा समझे समझ लो वही पीर है बस।
“जो पर पीर न जानहीं, ते काफ़िर बे पीर।”
और काफ़िर की परिभाषा ये है कि जिसको दूसरे की पीड़ा नहीं समझ में आती। जिसको दूसरे का दर्द नहीं समझ में आता, वो काफ़िर है। अब ये तो है ही —
“कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जु मान हमार। जाका गला तुम काटिहो, सो फिर काटि तुम्हार।।”
इसका मतलब ये नहीं कि मुर्गे की आत्मा आएगी और छुरी चला देगी, मुर्गा बेचारा क्या वो तो। दूसरे को जब तुम मारते हो, तो तुमने अपने भीतर किसी बहुत महत्त्वपूर्ण चीज़ को मार दिया। जिस केंद्र से तुम दूसरे के प्रति हिंसा कर रहे हो ना, समझ लो उस केंद्र से तुम स्वयं के प्रति भी हिंसा कर रहे हो। जो स्वयं से प्रेम करेगा, वो दूसरे के ख़िलाफ़ हिंसा नहीं कर सकता।
आगे, हाँ, और ये भी नहीं है, इसमें पढ़ के ये भी ना समझे कोई कि मांसाहार सिर्फ़ मुसलमान ही करते हैं या कबीर साहब ने इसमें लक्ष्य मुसलमानों को ही बनाया। तथ्य तो ये है कि एक दिन आता है जब इतने सारे बकरे और बाहर जाओ तो ऊँट, भैंस, बाहर गाय भी खूब काट देते हैं। होता है तो वो एक बड़ी ख़बर बन जाती है क्योंकि एक साथ एक दिन धर्म के नाम पर ये हो रहा है। पर अगर आप पूरी दुनिया को देखो तो आपको पता है ना कोई ख़ास दिन हो, ना हो बक़रीद हो, ना हो, रोज़ कितने जानवर कटते हैं। पता है आपको कितने कटते हैं? इंसान अपने लिए। अच्छा, दुनिया में 800 करोड़ इंसान हैं तो बताओ रोज़ जानवर कितने मारे जाते हैं। इसमें छोटे जानवर भी मिला लो — मछलियाँ ये सब मिला लो।
श्रोता: 1 मिलियन।
आचार्य प्रशांत: 1 मिलियन?
श्रोता: 1 बिलियन।
आचार्य प्रशांत: सिर्फ़ तुम कह रहे हो 100 करोड़, ना। तुम्हें पता है एक मछली जो तुम खाते हो, नहीं खाते ना वैसे? जो खाने के लिए एक मछली पकड़ी जाती है, उस एक मछली के पीछे कितनी मारी जाती हैं। वो जाल सिर्फ़ खाने वाली मछली नहीं पकड़ता, वो न जाने कितने छोटे-छोटे जंतु पकड़ता है। 20 ऐसे जंतु होते हैं जो मुफ़्त में ही मारे जाते हैं, तब एक मछली मिलती है खाने वाली। और ये बात सिर्फ़ खाने वाले जानवरों वाली भी नहीं है। आदमी अपनी गतिविधियों से रोज़ न जाने कितने जानवर मारता है। न जाने कितने, माने 10, 100, 50 नहीं, मैं करोड़ों में बात कर रहा हूँ। जितनी हमारी आबादी है ना, छोटे-बड़े अगर सारे जानवर मिला दो, हम उससे ज़्यादा जानवर रोज़ मारते हैं। तो बात सिर्फ़ बक़रीद की नहीं है।
बहुत लोगों का पशु प्रेम सिर्फ़ बक़रीद के दिन जगता है। बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो ख़ुद भी चिकन-मटन खूब खाते हैं, पर जिस दिन बक़रीद आती है, उस दिन नारा लगाना है। धर्म के नाम पर क़ुर्बानी तो निस्संदेह गलत है ही, पर जो बाक़ी 364 दिन आप रोज़ खा रहे हो और रोज़ 800 करोड़ जीव मार रहे हो, वो सही कैसे हो गया? वो सही कैसे हो गया? और ये बड़ा पाखंड है कि आप 364 दिन आवाज़ नहीं उठाओ, पर सिर्फ़ बक़रीद के दिन नारे लगाओ। ये पाखंड है। तो कबीर साहब ने वो पाखंड नहीं करा है। उन्होंने ऐसा नहीं करा है कि सिर्फ़ मुसलमानों पर चोट करी है। आगे सुनो,
“हिंदू के दाया नहीं, मिहर तुरक के नाँही।” मेहर माने मेहरबानी करना, दया ही समझ लो।
“हिंदू के दाया नहीं, मिहर तुरक के नाँही। कहैं कबीर दोनों गये लख चौरासी माँही।।
ये भव चक्र में जो चौरासी लाख योनियों का एक कथा चलती है, एक इशारा चलता है, बोले दोनों फंसे रहेंगे, इन दोनों को ही माने मुक्ति कभी नहीं मिलेगी। न हिंदू में दया है और तुरक माने मुसलमान। उस समय जो भारत में मुस्लिम आए थे वो तीन दिशाओं से आए थे — शुरुआत में सिंध में अरब वग़ैरह से हुए, फिर तुर्क, और उसके बाद अफगान और भी जगहों से। मध्य एशिया और ईरान से भी आए पर ये तीन जगहों से ज्यादा थे। तो क्या
“हिंदू के दाया नहीं, मिहर तुरक के नाँही। कहैं कबीर दोनों गये लख चौरासी माँही।।
तुम दोनों ही बंधनों में पड़े रहोगे और दुख पाओगे और तड़पोगे। तो ये नहीं हैं कि बस मुसलमानों को लक्ष्य बना रहे हैं, हिंदुओं को भी नहीं छोड़ा। उनका एक बड़ा बढ़िया भजन है, जो शुरुआत में होता है कि, “पांडे बकरिया काहे को मारी।” आप खोजोगे तो मिल जाएगा। पांडे माने पंडित जी हैं। तो उनको पकड़ा और पूरा भजन शुरू होता है, “पांडे बकरिया काहे को मारी? तूने क्यों मारी?” बोले कि वो क्या करती थी अपना घासपात खाती थी, पड़ी रहती थी। तूने लेकिन बकरी काटी है। क्यों काटी पांडे तूने? बता। आ रही बात समझ में। आगे फिर उन्होंने हिंदू-मुस्लिम दोनों को लपेटा है।
“मुसलिम मारै करद सों, हिन्दू मारै तलवार।”
हिंदू-मुस्लिम का मारने का तरीक़ा सब अलग-अलग होता है। और बकरा बेचारा बड़ा इस बात से राहत पाता है, देखो उन्होंने मुझे अलग-अलग तरीक़े से मारते हैं, दोनों में से ज़रूर कोई बेहतर होगा। एक तरीक़ा होता है हलाल, एक तरीक़ा होता है झटका, और एक करद से मारता है, माने छुरी। क्योंकि हलाल में बहुत बड़ी चीज़ नहीं चाहिए। हलाल में इतना ही चाहिए कि बस काट दो, फिर खून बहेगा, वो अपने आप मर जाएगा। और हिंदू मारे तलवार। हिंदू झटका मारते हैं। झटके में क्या करना होता है? कि एक बार में अलग हो जाना चाहिए। तो वो पूरा ऐसे उठा कर के, ऐसे भारी तलवार से मारते हैं कि भैंसा हो या जो भी हो, एक बार में उसका सिर अलग हो जाए। तो बोल रहे हैं — “मुसलिम मारै करद सों, हिन्दू मारै तलवार।” बड़ा अंतर है दोनों में, बड़ा लेकिन अंतर कितना भी हो, बोले तुम दोनों एक हो, और तुम्हारा मिलाप होगा, गले मिलोगे।
“कहैं कबीर दोनों मिली, जाके जम के द्वार।”
बोल रहे हमेशा, ज़िन्दगी भर तुम दोनों यही सोचते रहे कि हम अलग हैं। एक हलाल, एक झटका, एक छुरी, एक तलवार। पर तुम दोनों एक हो। और जाना जब वहाँ खड़े होगे तो “जम के द्वार” से मतलब समझते हो ना? जीवन ही तुम्हारा मृत्यु समान होगा। जिस जीवन में करुणा नहीं, वो जीवन मौत जैसा ही है। है ना? सांस लेते बिन प्राण।
“जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान। जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्राण।।”
तुम जियोगे लेकिन तुम मुर्दे की तरह जियोगे। जिसके भीतर प्रेम नहीं है, उसका जीना ऐसे ही है जैसे मुर्दा साँस ले रहा हो। अब ये देखिए। बनारस में रहकर किसी ने आकर उनसे कहा होगा कि आप ये पशु बलि का विरोध करते हो। और तो वेदों में लिखा हुआ है सब अजमेद, अश्वमेध, गोमेद ये सब लिखा हुआ है। आदमी की ठसक देखिए। बोले, अगर वेदों में लिखा है तो वेद गलत है। बोले, अगर वेदों में लिखा है कि बकरा काटो, अज बकरा, अश्व घोड़ा। मैं ऐसे वेद को भी मानने से इंकार करता हूँ जो कहता है कि गाय को, बकरे को, घोड़े को, किसी को काटो।
महात्मा बुद्ध सुनाई दे रहे हैं मुझे यहाँ पर, और फिर दुनिया ने कहा कि वो तो वेद विरोधी थे। वो वेद विरोधी नहीं थे, वो हिंसा विरोधी थे। समझ में आ रहा है? जब तुम ये कहना शुरू कर दोगे कि वेद का तो मतलब है हिंसा, तो कोई भी फिर जागृत चेतना यही कहेगी ना कि “अगर वेद माने हिंसा तो मैं वेद नहीं मानता।”
आप ये कहिए ना कि वेद माने उपनिषद्, फिर कोई वेद को मानने से इंकार नहीं करेगा। आप महात्मा बुद्ध के सामने जाएँ और आप उनसे कहें “उपनिषद्,” वो बिल्कुल इंकार नहीं करेंगे। पर आप उनके सामने जाकर कहो “वेद माने हिंसा,” तो नहीं मानेंगे, कहेंगे “फिर मैं वेदों के विरोध में हूँ।”
लोकधर्म ने वेद का मतलब ही बना दिया कुछ बहुत छोटा सा, और वेदांत की महानता इसमें है कि उन्होंने कहा कि वेद का जो कालातीत हिस्सा है, वो वेदांत है। वेदों को वेदांत के नाम से पहचाना जाएगा। वेदांत ने वेदों को उच्चता, महानता, गरिमा दे दी, और लोकधर्म ने वेदों को बस कर्मकांड का एक पिंड बनाकर छोड़ दिया कि वेद माने कर्मकांड। वेद माने कर्मकांड।
धर्म कहता है वेद माने वेदांत, और लोकधर्म कहता है वेद माने कर्मकांड।
तो वैसे ही कोई लोकधर्मी आया होगा कबीर साहब के पास कि “ये तुम मना करते हो पशु बलि को, पर ये सब तो वेदों में भी है।” तो सुनो, क्या बोलते हैं? बोलते हैं:
“अजमेध गोमेध जग, अश्वमेध नरमेध। कहैं कबीर अधर्म को, धर्म बतावै वेद।।”
बोले अगर वेद में ये सब लिखा है, तो वेद में अधर्म लिखा है।
“कहैं कबीर अधर्म को, धर्म बतावै वेद।”
बड़ी साहसिक बात है, बड़ी क्रांतिकारी बात है। न जाने ये बात कहने पर उन्हें काशी के धार्मिक लोगों से, विशेषकर ब्राह्मणों से, कितना विरोध झेलना पड़ा होगा। बोले, “मैं ग्रंथ को भी नहीं मानूंगा अगर ग्रंथ में हिंसा लिखी है। लिखी है अगर हिंसा तो मैं ग्रंथ को अस्वीकार करता हूँ। अगर ग्रंथ भी बोलता है कि जानवर को काटो तो हटा दो ग्रंथ। कोई भी ग्रंथ हो, हटा दो।” आ रही है बात समझ में?
सच्चाई के लिए अगर ग्रंथ को ठुकराना पड़े, तो तैयार रहो। ग्रंथ सत्य तक जाने का मार्ग होता है, सत्य से ऊँचा नहीं हो जाता।
किसी की मत सुनो। एक बाप है, एक प्रेम है, एक जीवन है, एक मंज़िल है। उस प्रेम के रास्ते में, उस मंज़िल के मार्ग में कोई भी आता हो, ठुकरा दो। आ रही है बात समझ में? कभी ये मत कहो कि “ग्रंथ में लिखा हुआ है तो करना ही पड़ेगा ना। ग्रंथ में लिखा है तो करना ही पड़ेगा।” ग्रंथ में अगर पशु हिंसा लिखी है, ग्रंथ में क़ुर्बानी लिखी है, ग्रंथ में जानवरों को प्रताड़ित करना लिखा है — हमें नहीं पता कैसे आ गया ग्रंथ में यह, पर हम अस्वीकार करते हैं। बात सीधी है।
और आमतौर पर ऐसी बातें ग्रंथ में लिखी नहीं होतीं। आमतौर पर ऐसी बातें परंपरा का हिस्सा होती हैं। ऐसी बातें परंपरा से चली आ रही हैं। परंपरा कोई परम थोड़ी हो गई। परंपरा ही है ना, परमात्मा थोड़ी है। परमात्मा का अनादर नहीं हो सकता, परंपरा तो बेशक तोड़ी जा सकती है। तोड़ देंगे ऐसी परंपरा जिसमें हिंसा है।