प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मैं आपके द्वारा लोगों को लाभ पाता देखता हूँ। इस शिविर में भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो लाभान्वित हुए हैं, और अपनी कृतज्ञता भी व्यक्त करते हैं और साथ में संस्था के जो स्वयं सेवक हैं उनके कार्य को भी देखता हूँ, तो मेरा अपना भी योगदान देने की इच्छा होती है, और फिर खुद भी स्वयं आपके साथ रहूँगा तो लाभान्वित हो पाऊँगा।
परन्तु कुछ सवाल भी दिमाग में आता है कि जो स्वयंसेवी होंगे, वो खुद आर्थिक रूप से भी स्वावलम्बी हो सकते हैं कि नहीं। दूसरा ये है कि यदि वो सामाजिक समाज में भी रहते हैं तो समाज में सब तरीके के कार्य तो नहीं कर रहे हैं जो आमतौर पर लोग करते हैं, तो उनके मन में अपने प्रति क्या धारणा बनती है? क्या वो अपनेआप को कम समझने लगते हैं या ज़्यादा समझने लगते हैं कि हम कैसे काम कर रहे हैं। और इसके अलावा क्या स्वयं वो जो है ये स्वयंसेवी का आजीवन प्रक्रिया है या ये एक शॉर्टटर्म ट्रेनिंग (लघु अवधि-प्रशिक्षण) के जैसी है?
आचार्य प्रशांत: पहली ही चीज़ तुमने पूछा कि क्या आर्थिक रूप से स्वावलम्बी हैं सब, जितने स्वयंसेवी हैं, वॉलेंटियर्स हैं। खर्चे कम हैं, लोगों के जिन चीज़ों में बड़े खर्चे हो जाते हैं वो यहाँ पर कोई करता ही नहीं। खर्चे कम हैं। अध्यात्म अक्ल तो दे ही देता है न, बुद्धि का शोधन कर देता है। तो ब्रांड के पीछे नहीं भागते, विकेंड पर जाकर के शराब में और मनोरंजन, मस्तीखोरी में पैसा नहीं उड़ाते, इन चीज़ों में बहुत पैसा लगता है। वो पैसा जब नहीं व्यय होता तो एक औसत सी आमदनी में भी मज़े में स्वावलम्बन हो जाता है।
वास्तव में मुझे उत्तर यहाँ से देना चाहिए था कि जितना महत्वपूर्ण पैसा किसी आम कर्मचारी के लिए, एम्प्लॉई के लिए होता है; उतना महत्वपूर्ण यहाँ पैसा है नहीं। पैसे की अपनी उपयोगिता तो है ही, कपड़े-लत्ते के लिए चाहिए, आने-जाने के लिए। उतना रहता है सबके पास। फाउंडेशन है, दुनिया भर में सेवा करती है तो जो आन्तरिक लोग हैं उनकी भी कुछ सेवा कर ही देती है।
ऐसा तो नहीं कर सकते कि बाहर वालों का सबका खयाल रखें और अन्दर वालों के साथ बेरुखी हो जाए। तो एक न्यूनतम समर्थन, न्यूनतम आर्थिक सहारा तो सबको जाता ही जाता है। भले ही वो महीने में बीमार हो गया हो, कुछ भी काम या सेवा न कर पाया हो, तो भी उसको एक न्यूनतम राशि तो जाती ही है। और जो लोग बढ़-चढ़कर, लगकर श्रम करते हैं, आगे बढ़ते हैं, वो अपने लिए और ज़्यादा अर्जित कर लेते हैं।
आज तक ऐसा सुनने में आया तो नहीं कि किसी ने पैसों की माँग करी हो। बहुत साल हो गये। हाँ, ये जरूर हुआ है कि कुंदन इन लोगों को डाँटते, डपटकर, ताना मारकर कहते हैं कि और क्यों नहीं कमाते। इस मामले में हमारी संस्था दूसरी जगहों से थोड़ी उल्टी है, और जगहों पर जो कर्मचारी होता है वो माँग करता है कि पैसे बढ़ाओ, हमारे यहाँ ऐसे भी लोग हैं जिनको दो-दो, तीन-तीन महीने खयाल ही नहीं आता कि चेक कहाँ है। फिर उनको डाँट पड़ती है, ‘तुम्हारा तो अभी तक क्रेडिट नहीं हुआ, कर क्या रहे हो!’ तो फिर वो कहे, ‘अच्छा हाँ, हाँ! ठीक, ठीक।’ क्योंकि लोग बहुत खर्च करने की आदत में हैं नहीं, तो उनको फिर बहुत ज़रूरत भी नहीं पड़ती।
ऐसा तो कोई भी नहीं होगा जो कहे कि आर्थिक तंगी इतनी है कि इधर-उधर माँगना पड़ता है, हाथ फैलाना पड़ता है। बल्कि बादशाहत छायी रहती है। इधर-उधर दे भी आते हैं और फिर दो-चार महीने बाद खयाल आता है कि दे आये हैं। कहते हैं, ‘चार महीने बीत गये अब माँगे कौन? दे दिया तो दे दिया, छोड़ो।’
तो पैसों को लेकर तो कुछ ऐसा माहौल रहता है, माहौल ये रहता है कि माहौल ही नहीं रहता, नॉन इश्यू है। इस मुद्दे पर ज़्यादा बातचीत होती नहीं है। कोई भी वालेंटियर कभी माँग नहीं करता, न कभी टिप्पणी करता है कि माह के अन्त में उसके हाथ में कितना आया। न माँग करता है, न अच्छा बोलता है, न बुरा बोलता है। ये देखने का काम जो सब वालेंटियर्स हैं उनके सीनियर्स का है। वो देख लेते हैं कौन कैसा है, किसकी कितनी ज़रूरतें है, कौन कैसा काम कर रहा है और एक राशि का चेक लोगों के पास पहुँच जाता है।
मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ अभी भी कि आखिरी बार ऐसा कब हुआ था कि इस बात को लेकर कभी किसी ने आपत्ति छोड़ दो, टिप्पणी भी की हो, ये टिप्पणी भी नहीं करते कि थैंक्यू। ये जब चेक आता है तो थैंक्यू भी नहीं बोलते। आ गया, ठीक है, आने-जाने वाली बहुत चीज़ें होती हैं, ये भी आ गया अच्छी बात है। बाकी किसी को अगर किसी वजह से आवश्यकता पड़ ही गयी तो संस्था अपनेआप में पूरा परिवार है। मेडिकल कोई आकस्मिकता है या इस तरह का कोई और खर्च है तो वो करने के लिए किसी को सोचना नहीं पड़ता, वो हो जाता है। क्योंकि वो बात उसकी निजी होती नहीं, वो सबको पता होती है कि इसके ऊपर ये खर्च आ रहा है। वैसा होता साल में एक-आध बार ही है किसी एक के साथ। और वो पता होता है कि इसके ऊपर ये खर्च आ रहा है। और अगर आ रहा है तो उसमें फिर उसको नहीं उठाना पड़ता संस्था उठा लेती है। इस तरीके से चलता है काम।
ये वो आम मॉडल नहीं है कॉरपोरेट वाला, जिसमें कोई सीटीसी तय हो और जिसमें हर महीने इतना जाएगा, इतना नहीं जाएगा और ये। बाकी तो ये लोग बेहतर बताएँगे उनसे पूछो; अगर उन्हें पता हो तो। आधों को तो ये नहीं पता होगा बैंक में पैसे कितने हैं, हैं भी कि नहीं हैं। और क्या कह रहे थे?
प्र: कि ये लाइफलाॅन्ग (जीवन पर्यन्त) है या नहीं?
आचार्य: ये जानें (स्वयंसेवी), मुझे क्या पता। न हमारे यहाँ अटेंडेंस लगती है, न किसी की कोई एम्प्लॉईआइडी है, और क्या-क्या होती है? न किसी का कोई स्वाइप कार्ड है। तो पहले होता था आज से कई साल पहले तक लोगों को ऑफर लेटर और एक्सेप्टेंस लेटर (स्वीकृति पत्र) दिये जाते थे, अब तो वो भी नहीं है। जो आ गया वो आ गया, दरवाज़ा खुला है। ‘आ जाओ, काम करना शुरू करो।’
जो नये लोग आये हैं वो बताएँगे, क्यों रे तुझे मिला ऑफर लेटर (एक नये स्वयंसेवी से पूछते हुए)? अब उसको भी सवाल उठाओगे? कि ये तो अजीब है! महीनों से लगा हूँ और मैंने तो कहीं साइन ही नहीं करा। ऐसे ही दरवाज़ा खुला रहता है जब आना चाहे आये, तो जब जाना चाहे जाए। आमतौर पर जाने वाले कम होते हैं; जो गये भी हैं रूठकर वो कुछ महीनों में अपनेआप ही लौट आते हैं। कोई रेज़िग्नेशन लेटर भी नहीं है, जो जाता है वो बस चला गया, कुछ दिनों बाद पता चलता है कि अच्छा दिखाई नहीं दे रहा है, कहीं होगा।
वॉलेंटरी बैटल (युद्ध) है। इस चीज़ के लिए किसी को धक्का नहीं दिया जा सकता, प्रेम जैसी बात है। है तो आ जाओगे और जिस दिन नहीं है उस दिन ये काम करना बड़ा मुश्किल हो जाएगा, अपनेआप ही चले जाओगे। मैं तो कहता हूँ इनसे कि कुछ तो सामान्य लोगों जैसी हरकतें करो, कर क्या रहे हो! न ये गाड़ी खरीदते, न ये बाइक खरीदते, न ये जाकर के कपड़े खरीदते, न ये टीवी देखते, पिक्चरें भी ये महीने-दो महीने में एक-आध देखते होंगे। एक-दो बार तो मैंने पकड़कर डिस्को थीक भेजा कि जाओ नाचकर आओ।
मोटर साइकिल खरीदनी है तो मैं बोलता हूँ, ‘जाकर खरीदते क्यों नहीं?’ मैं देखूँगा कि कौनसी आयी हुई है, कोई लिंक दिख जाएगा तो इनको भेजूँगा कि ये देख लो। बोलते रहो, बोलते रहो, खरीदेंगे नहीं। खरीद लेंगे तो सर्विस नहीं कराएँगे। तुम्हें पता क्या है अचार्य जी को क्या-क्या करना पड़ता है! इनकी बाइक की सर्विसिंग हो इसके लिए मैं इनको बताऊँगा कि बाइक खरीदी है तो सर्विसिंग भी तो कर लो। अब नहीं बोलता, अब दूसरी व्यवस्ताएँ बढ़ती जा रही हैं, पर ये सब भी करा हुआ है। क्या-क्या तुम्हें बताएँ! उनके लिए कपड़े कौन खरीद कर लाता है? जिम भेजो ज़बरदस्ती, ‘जाओ।’ टेनिस खेलने भेजो, स्क्वॉश खेलने भेजो।
प्र: आचार्य जी, हालाँकि इससे आपका तो कॉन्ट्रीब्यूशन (योगदान) पता लगता है कि आप कितना खयाल रख रहे हैं। पर जो दूसरी साइड से जो स्वयंसेवी हैं, उनके बारे में ऐसा खयाल आता है कि वो अपनी ज़िम्मेदारी खुद न लेना चाहें तो ऐसी जगह आ गये हैं कि हमें कोई और ही सम्भाले। तो आध्यात्मिक और मानसिक उन्नति…
आचार्य: व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी अब ये अपने ऊपर नहीं रखते, दूसरी बड़ी ज़िम्मेदारी पकड़ ली है न। दूसरी बड़ी ज़िम्मेदारी पकड़ ली है तो अब शर्ट-पैंट-कुर्ता-पजामा इसका खयाल कम रखते हैं। इसलिए वो जो इनकी छोटी-छोटी चीज़ें हैं वो फिर किसी और को देखनी पड़ती है। असल में उन छोटी चीज़ों का भी सम्बन्ध बड़ी चीज़ों से है। आप शिविर वगैरह आते हो और आप यही नहीं खयाल कर रहे हो कि क्या पहनकर आ रहे हो, क्या कर रहे हो। तो दिक्कत तो होगी न। लोग तो ऐसे ही देखते हैं कि कपड़ा क्या पहन रखा है, तो ये बातें ये लोग कम सोचते हैं थोड़ा।
तो अपनी व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी नहीं उठाते, इसकी वजह ये नहीं है कि गैर ज़िम्मेदार हैं, कुछ गैर ज़िम्मेदारी भी होगी पर ज़्यादा बड़ी वजह है कि जो दूसरा काम है, जो बड़ा काम है वो इतना बड़ा है कि उसके सामने अपनी ये सब बातें कि नया जूता खरीद लूँ, या नये चश्मे खरीद लूँ ये सब बातें याद नहीं रहती हैं।
जब तक इतने सारे शिविर होने शुरू नहीं हुए थे करीब चार-पाँच साल पहले तक तब तक मैं भी दो-चार जोड़ी कपड़ों में ही चलता था उसके बाद ये कैमरे से बँध गया तो फिर कपड़े-लत्ते आवश्यक हो गये। तो ये भी मेरे ही नक्शे-कदम पर चलते हैं, इनके पास कुछ होता तो है नहीं। फिर देखो अभी भी जींस डालकर बैठे हैं। आध्यात्मिक शिविर में लोग क्या कहेंगे! आप लोग घर जाओगे, बोलोगे क्या? ‘अरे, आध्यात्मिक फाउंडेशन और जीन्स पहनकर बैठा है! वो भी तीरथ में!’ पर वास्तव में अन्दर का माहौल कैसा है वो वही समझेगा जो अन्दर आकर देखे। बाहर से देखने में समझ में नहीं आएगा और ये भी हो सकता है कि उल्टा-पुल्टा अर्थ कर लो, शंकाएँ होने लग जाए। क्या हो रहा है वो अन्दर आकर ही पता चलेगा।
मैं नहीं कह रहा कि कोई आदर्श माहौल है या कोई सपनों जैसी बातें चल रही होती हैं कि स्वर्गतुल्य बोधस्थल है। वो सब नहीं है। लेकिन एक बेखुदी, एक बेफिक्री तो है ही। कम-से-कम आम घरों में, आम, कार्पोरेट्स में जितनी होती है उससे बहुत-बहुत ज़्यादा बेखुदी है, बहुत ज़्यादा। कहीं भी लेट जाते हैं, कहीं भी सो जाते हैं। हमारे यहाँ कोई नहीं बुरा मानने वाला, अगर तुम उसको कह दो कि यहीं ज़मीन पर सो जाओ। बल्कि ज़्यादा उनको तकलीफ़ तब हो जाएगी अगर कहोगे कि जाओ, बिस्तर लेकर आओ और बिछाओ और ये करो। तब कहेंगे, ‘ये गलत हो रहा है हमारे साथ।’
बिना प्रेस किये कपड़े पहनने को सब तैयार हैं। ठीक है। कपड़ों में प्रेस है या नहीं है पहन लो। किसका? अपना नहीं, किसी और का (श्रोतागण हँसते हैं)। ममत्व तो अब छोड़ ही दिया है, ‘मम् कपड़ा’ कैसा? जिसका मिले उसी को पहन लो। इसके ड्राई फ्रूट्स खा गये, उसके आम खा गये। फिर ये कहेगी, ‘फ्रिज़ में आम लाकर रखे थे। आम गायब हैं सारे और गुठलियाँ फैला दी हैं बाहर, छुपाने की कोशिश भी नहीं करी है कि...।’ ऐसा है। अवगुण भी बहुत हैं, दोष भी बहुत हैं, मैं कोई तारीफ़ या बड़ी गौरव-गाथा नहीं सुनाना चाहता। जमकर के अवगुण हैं, दोष भरे हुए हैं। लेकिन कुछ अलग है, दुनिया से अलग है।
और क्या है?
प्र: सामाजिक रूप से जब तुलना करते हैं और लोगों से, जैसे आपने कहा कि बाकी दुनिया से अलग हैं, तो कभी अपनेआप को औरों से तुच्छ भी समझ सकते हैं कि लोग हमें कुछ समझते ही नहीं है या वो हमारी जो चीज़ें हैं इतनी सूक्ष्म हैं, तो बेचैनी हो सकती है या फिर उत्कृष्टता का भाव आ सकता है।
आचार्य: बेटा, ये लोगों से किस रूप में सम्बन्धित हैं पहले ये देखो न। ये लोगों को पढ़ाते हैं, तुम जिनको पढ़ा रहे हो, अपनेआप को उनसे इन्फीरियर (हीन) तो नहीं समझोगे, सुपीरियर (श्रेष्ठ) भी नहीं समझोगे। क्योंकि टीचर अगर स्टूडेंट से सुपीरियोरिटी की भावना रखने लग गया तो टीचर कैसा! इनका तो काम है दिन-रात काउंसलिंग करना। तुम्हें कितने फोन आते हैं रोज़? (एक स्वयंसेवी से पूछा)
स्वयंसेवक: चालीस।
आचार्य: ज़ोर से बोलो न!
स्वयंसेवक: तीस से चालीस।
आचार्य: इसको रोज चालीस फ़ोन आते हैं। ठीक है? और ये बैठकर के सबको कुछ-न-कुछ ज्ञान ही समझा रही होती हैं, और वो पन्द्रह-बीस साल से लेकर के पिचासी साल वाले सब होते हैं। अब उसमें वक्त कहाँ है कि कोई अपनेआप को इन्फीरियर समझे, सुपीरियर समझे, क्या समझे। काम है भाई, काम। उसमें कैसे ये भावना लाओगे कि कोई छोटा है, कोई बड़ा है। हाँ, आती होगी, मैं इनकार नहीं कर रहा हूँ। जजमेंटल भी होते होंगे, किसी को कह देते होंगे कि बेकार है, किसी को ये भी कह देते होंगे, ‘वाह! क्या आदमी है! क्या बात बोली हैं!’ वो सब करते ही होंगे लेकिन इनके पास वास्तव में ये समय नहीं है कि ये तेरी शर्ट मेरी शर्ट से सफ़ेद कैसे, उस भावना में पड़ें। इतना समय नहीं है न।
तो काम करने का कोई समय बन रहा है न हफ़्ते में अवकाश का कोई दिन बन रहा है काम देखते हैं कि काम इतना बाकी है। अब उसमें अगर सात दिन काम करना पड़े तो सात दिन करो। चौबीस घंटे करना पड़े, चौबीस घंटे करो। और तुम्हें लगता है कि तुम दो-चार दिन इधर-उधर कहीं हो सकते हो तो वो भी कर लो। जाओ घूम आओ।
तो वो जो पैराडाइम (आयाम) ही है न इनफीरियोरिटी, सुपरियोरिटी का वो बहुत यहाँ प्रासंगिक नहीं है। हालाँकि वो रहता है, तुमने पूछ ही लिया तो कह देता हूँ। आपस में भी ये करते हैं कि कौन ऊँचा, कौन नीचा। देखा है मैंने। उसी को तो कह रहा था, अवगुण भी हैं, दोष भी हैं, वो तो है। लेकिन उन चीज़ों पर चलने का इनके पास वक्त कहाँ है? एक फोन रखते हैं, दूसरा आ जाता है। दूसरा है, तीसरा। और कोई ये इनका कोर काम नहीं है कि लोग फ़ोन करे जा रहे हैं और ये उनको समझा रही है, ज्ञान दे रही है। इसका कोर काम तो दूसरा है और वो सब भी होता रहता है। सभी को आते हैं, इसको थोड़े ज़्यादा आते हैं। सबको आते हैं।