संस्कृति व धर्म

Acharya Prashant

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संस्कृति व धर्म

संस्कृति धर्म से अलग नहीं हो सकती। आदर्श स्थिति तब है जब समाज में प्रचलित संस्कृति का स्रोत शुद्धतम धर्म-मात्र हो। जब कभी ऐसी स्थिति आएगी कि संस्कृति धर्म से विलग और विमुख हो जाएगी, तब ऐसी अपसंस्कृति वाले समाज का पतन व पराभव निश्चित है।

भारतीय धर्म है वैदिक धर्म, वेदों का शीर्ष हैं उपनिषद्। लेकिन उपनिषदों की जो बातें हैं वो कुछ लोगों के लिए थोड़ी क्लिष्ट हैं समझने में। जो अभी परिपक्व बुद्धि के ना हों, उनके लिए वेदान्त ज़रा जटिल है। सब तक उपनिषदों का संदेश साफ़-साफ़ पहुँच सके इसके लिए पुराणों की रचना हुई। और इतिहास-काव्य हैं जैसे रामायण, महाभारत – इन सब में भी वेदान्त के सूत्रों को जनमानस तक लाने का प्रयास किया गया।

पुराण कहानियों से भरे हुए हैं और वो कहानियाँ जनसाधारण में प्रचलन में आ गयी हैं। लेकिन दो समस्याएँ हैं: पहली ये कि पुराणों की रचना भी वेदों के लगभग एक-हज़ार वर्ष बाद कई शताब्दियों तक होती रहीं, और सभी पुराणों के सभी भाग वेदसम्मत नहीं हैं। दूसरी ये कि पुराणों की जो पांडुलिपियाँ देश के अलग-अलग हिस्सों से मिलती हैं, उनमें आपस में बहुत अंतर हैं। स्पष्ट ही है कि पुराणों आदि में बहुत से भाग प्रक्षिप्त हैं, मिलावटी हैं। इसी प्रकार रामायण के न जाने कितने परस्पर-विरोधी संस्करण हमें भारत भर में देखने को मिलते हैं।

पिछले एक-हज़ार वर्षों में भारतीय संस्कृति विदेशी प्रभावों को सोखती रही है। पर फिर भी, भारतीय संस्कृति आज भी व्यावहारिक रूप से पौराणिक कहानियों-मान्यताओं तथा रामायण-महाभारत आदि इतिहास-काव्यों पर ही आधारित है। विशेषकर, पुराणों के कुछ अंश तो प्रक्षिप्त और वेदान्त-विरुद्ध हैं। और कुछ कहानियों व निर्देशों में सौन्दर्य भी है, और सत्य भी। पर अभी हालत ये है कि हमारे पास बस वो कहानियाँ हैं, उन कहानियों का मर्म समझा देने वाली कुंजी हमारे पास नहीं है। अगर उपनिषद् समझ में आ गए, कुंजी हाथ लग गई, सिर्फ़ तब हम भारतीय संस्कृति के एक-एक प्रतीक का सही अर्थ कर पाएँगे।

और अर्थ ऐसा खुलेगा कि हम अचंभित रह जाएँगे, "खजुराहो का ये अर्थ है! महाबलेश्वर का ये अर्थ है! उज्जैन का ये अर्थ है! ऋषिकेश का ये अर्थ है! शक्तिपीठों का ये अर्थ है! तीर्थों का ये अर्थ है!”

आज हम संस्कृति के प्रदूषण व पतन को लेकर अकसर व्यथित दिखायी देते हैं। मंचों पर इस विषय पर भाषण दिए जाते हैं, सड़कों पर नारे भी लगा दिए जाते हैं। पर सिर्फ़ शोर मचाने से नहीं होगा, "संस्कृति! स्वधर्म! स्वदेशी!” नारे लगाने से नहीं होगा। धर्म और संस्कृति का संबंध हृदय से होता है। जब आपके हृदय को कोई चीज़ भा जाती है, तब आपको नारे नहीं लगाने पड़ते उस चीज़ के पक्ष में। और भूलिए नहीं कि सच सबको प्यारा होता है। सच वेदान्त में है, बस उसे जनसामान्य तक पहुँचाने की आवश्यकता है।

अति संक्षिप्त ग्रंथ हैं उपनिषद् और भारतीय दर्शन का मुकुट हैं, शीर्ष हैं, ताज हैं। और दुनिया भर में जिन भी लोगों ने विचार की गहराइयों को छुआ है और दर्शन के समुद्र में गोते लगाए हैं, उन सब ने उपनिषदों की न सिर्फ़ प्रशंसा की है बल्कि उनको पूजा है।

आपकी संस्था अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रही है कि वेदान्त को जन-जन तक पहुँचाया जाए। उसी से अध्यात्म है, और फिर उसी से संस्कृति है, और फिर उसी से भारत का भविष्य भी है। तो जितना प्रयास हम कर सकते हैं, कर रहे हैं। अगर आप वाकई भारतीय संस्कृति को लेकर चिंतित हैं तो आइए, साथ जुड़िए, सहायता करिए। बड़ा विशाल अभियान है, सब की सहभागिता की ज़रूरत है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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