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संस्कृत भाषा का महत्त्व || आचार्य प्रशांत (2017)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, संस्कृत भाषा का महत्व क्या है?

आचार्य प्रशांत: आध्यात्मिक साहित्य सारा संस्कृत में है। अंग्रेज़ी व्यापार की भाषा है। और भाषा सिर्फ़ भाषा नहीं होती, भाषा एक पूरा संस्कार होती है। अगर किसी के मन पर अंग्रेज़ी छा गई है तो उसका मन व्यापारी हो जाएगा, गणित करेगा, हर बात में हानि-लाभ देखेगा; तुरन्त गणना करेगा कि, “मम्मी से मिल क्या रहा है मुझे?” ये है भाषा का मन पर प्रभाव।

संस्कृत साधारण भाषा नहीं है, इसको समझिएगा। ये भाषा आविष्कृत की गई थी आध्यात्मिक सिद्धांतों को दूसरे तक पहुँचाने के लिए। जो बात संस्कृत में कही गई है, वो बात किसी और भाषा में कही ही नहीं जा सकती। अभी जितनी वर्तमान भाषाएँ प्रचलन में हैं, उनमें संस्कृत के अगर क़रीब कुछ है तो हिंदी है। जो हिंदी के क़रीब नहीं है वो संस्कृत के क़रीब नहीं है; जो संस्कृत के क़रीब नहीं है वो फिर अध्यात्म के क़रीब नहीं हो सकता, और जो अध्यात्म के क़रीब नहीं है वो दुःख बहुत पाएगा।

ओशो का साहित्य है, आप अंग्रेज़ी में पढ़ोगे तो आपको मज़ा ही नहीं आएगा। दूसरी बात ये है कि ऐसा भी नहीं कि उनकी प्राथमिक भाषा हिंदी नहीं अंग्रेज़ी होती तो फ़र्क़ पड़ जाता। कुछ बातें ऐसी हैं—जैसे ऋषिकेश में ही ' मिथ डेमोलिशन टूर (संस्था की ओर से आयोजित शिविर) होते हैं, वहाँ जो सभी श्रोता होते हैं वो विदेशी ही होते हैं न? वहाँ मुझे साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है कि कुछ बातें इन तक पहुँचाईं हीं नहीं जा सकतीं। उदाहरण के लिए, ये अध्यात्म में बहुत आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि ये कबीर नहीं पढ़ सकते। ये कबीर का अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़ सकते हैं। और कबीर को आपने जैसे ही अंग्रेज़ी में अनूदित किया, कबीर ख़त्म हो जाते हैं। आप कबीर का दोहा अंग्रेज़ी में ट्रांसलेट कर दीजिए, बताइए इसमें क्या बचा? कुछ नहीं बचा न? जिसको हिंदी नहीं आती, कबीर उसके लिए ख़त्म हो गए कि नहीं हो गए?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ऐसा लग रहा है कि सार से ज़्यादा माध्यम आवश्यक हो गया है।

आचार्य प्रशांत: आप तो ग्रहण जब कर रहे हो तो चीज़ बाहरी ही है न? भाषा तो बाहरी ही होती है न? माध्यम की सहायता से ही तो आप कुछ ग्रहण करते हो? इसलिए वो बहुत आवश्यक होता है। नहीं तो आपको कुछ मिलेगा नहीं। यदि आपको दाल चाहिए तो माध्यम चम्मच होगा, न कि काँटा? माध्यम सही होना चाहिए। बल्कि माध्यम को पूरे ध्यान में रचना होगा। अगर माध्यम पूरे ध्यान में रचा नहीं जाएगा, तो आप सत्य तक नहीं पहुँच पाएँगे।

सत्य तो सभी जगह व्याप्त है। सत्य सर्वव्यापक है कि नहीं है? अगर आत्मा सर्वव्यापक है, सबकी एक ही है, तो बाहर जो गार्ड बैठा है, उससे क्यों नहीं बात कर रहे हो? लैंग्वेज इज़ पर्सनैलिटी (भाषा व्यक्तित्व है)! और जिसको आप कह रहीं थीं न कि ‘सार एक है’—वो आत्मा है। अब आप बताइए आपका पाला किससे पड़ रहा है— आत्मा से या व्यक्तित्व से?

प्रश्नकर्ता: व्यक्तित्व से।

आचार्य प्रशांत: अगर व्यक्तित्व महत्वपूर्ण है, तो फिर भाषा महत्वपूर्ण है; वरना तो सत्य एक है। आप किसी भी एक किताब को उठा लीजिए, मैं कह रहा हूँ वो भले ही एकदम ही घटिया किताब हो, तो भी आत्मा तो उसमें भी है, है कि नहीं है? तो क्या आप अपने बच्चे को एक घटिया किताब दे दोगे पढ़ने को ये कहकर के कि —"आत्मा तो इसकी भी सत्य है"? दे दोगे क्या? एक हत्यारा दौड़ा आ रहा है चाकू लेकर के, आत्मा तो उसकी भी निर्मल है, तो क्या आप उस हत्यारे से जाकर के गले लग जाएँगी कि आत्मा तो इसकी भी निर्मल है? आत्मा तो सबकी निर्मल है, लेकिन फिर इस तर्क का इस्तेमाल करके ये नहीं कहा जा सकता कि, "किसी को भी पढ़ लो!"

आपको वो चाहिए जो ‘आपके’ लिए ‘सही माध्यम’ बन सके; सब कुछ नहीं चलेगा। सार सबका एक है, लेकिन आपके लिए 'सब कुछ' नहीं चलेगा। आपको तो वो चहिए जो ‘आपके’ लिए सही माध्यम बन सके न? इसीलिए कुछ ही चुनिंदा पुस्तकें इस लायक हैं कि उनको पढ़ा जाए, उनपर समय दिया जाए। सब ऐसी नहीं हैं—बजाय इस बात के कि ‘सत्य-सार सर्वव्यापक है, समय के पार का है, सब में है’।

फ्रेंच में उपनिषद लिखे हुए हैं, आपके किसी काम के हैं क्या? वहाँ निर्णायक घटक क्या है? भाषा ज़रूरी है कि नहीं? जिन्हें सीखना होता था, वो आते थे और संस्कृत सीखते थे। आप जानती हैं कि परंपरागत रूप से अध्यात्म सीखने की ये शर्त रही है—नालंदा में, काशी में, कांधार में जितने भी हमारे पुराने विश्वविद्यालय थे—कि आप यदि आध्यात्मिकता सीखने आए हो तो पहले संस्कृत सीखो, क्योंकि 'सही माध्यम' अत्यावश्यक है। जब तक आपके पास सही माध्यम नहीं होगा, आप ग्रहण ही नहीं कर पाओगे। तो सही माध्यम की जो ज़रूरत है, उसे कम नहीं आँका जा सकता। वो अति आवश्यक है।

ध्यान से सुनिएगा, कबीर का है:

घट घट मेरा साइयां, सूनि सेज न कोय।

बलिहारी वा घाट के, जा घट परगट होय।।

घट माने घड़ा होता है, शरीर। हर शरीर में मेरा साईं निवास करता है, लेकिन आप तो 'सही माध्यम' तलाशो। आप ये मत कहो कि, "हर घट में साईं हैं।" ये तो बिल्कुल सही बात है कि पागल कुत्ते में भी परमात्मा है, तो क्या वो पागल कुत्ता पूजनीय हो गया? आपके किस काम का है? आपके काम का तो वो हुआ न जहाँ पर वो एक माध्यम की तरह प्रकट हुआ है, और आपके काम आ सकता है। अन्यथा तो सब बराबर है, इसमें कोई शक नहीं है।

संस्कृत में जो बात खुलकर सामने आती है, वो बात अंग्रेज़ी में नहीं आती है। मैं अंग्रेज़ी में भी बोलता हूँ, हिंदी में भी बोलता हूँ, मुझे पता है। कुछ बातें हैं जो जब ऋषिकेश में विदेशियों से महीने-महीने भर बात करता हूँ, मैं ख़ुद कई बार बड़ा अपने आप को असहाय अनुभव करता हूँ कि इन तक ये बात पहुँचाऊँ कैसे। क्योंकि भाषा बस भाषा नहीं है। आप अगर भाषा-दर्शन पढ़ेंगी, तब आपको पता चलेगा कि भाषा एक पूरी सांस्कृतिक-व्यवस्था है। अगर आप एक भाषा में पले-बढ़े हैं, तो इसका ये मतलब नहीं है कि आप मात्र उस भाषा के साथ पले-बढ़े हैं, आप एक पूरी सांस्कृतिक-व्यवस्था के साथ पले-बढ़े हैं। भाषा एक दर्शन है।

अब अंग्रेज़ी में 'ब्रह्म' के लिए कोई शब्द नहीं है, वो 'गॉड' बोलते हैं। उनके लिए 'ब्रह्म' और 'भगवान' एक बात है; वो दोनों को 'गॉड' बोल देंगे। क्या ये बस भाषा है? नहीं, ये मात्र भाषा नहीं है; ये संस्कार हैं। तो जो अंग्रेज़ है, उसे आप कैसे समझाओगे कि—एक गॉड ब्रह्म होता है, और एक गॉड भगवान होता है, और दोनों में अंतर है? उसके लिए तो बस गॉड है। उसे गॉड-एक, गॉड-दो कभी बताया ही नहीं गया। तो अंग्रेज़ को समझाना बड़ा मुश्किल है।

अब अंग्रेज़ी में उदाहरण देता हूँ। अंग्रेज़ होने का जो सबसे बड़ा नुक़सान होता है, वो ये है कि अंग्रेज़ी में 'गुरु' शब्द होता ही नहीं है। टीचर है, मास्टर है, लेकिन टीचर और मास्टर—गुरु नहीं हैं। तो उनके लिए समर्पण बड़ा मुश्किल हो जाता है। जो बच्चा लगातार अंग्रेज़ी बोल रहा है, वो ज़िंदगी में कभी समर्पण नहीं कर पाएगा, क्योंकि गुरु है ही नहीं उसके जीवन में। आप टीचर को सरेंडर नहीं करते, आप टीचर से सीखते हो, और मास्टर से आप ट्रेनिंग लेते हो, मास्टर आपको स्किल या नॉलेज दे देता है। गुरु से रिश्ता कुछ और होता है। वो रिश्ता तो तब बनेगा न जब आप अंग्रेज़ी से हिंदी में आओगे या संस्कृत में आओगे। आप अंग्रेज़ी में ही रह गए तो आप कभी समर्पण नहीं करोगे।

आपको जो भी पता होता है उसके लिए आपके पास एक शब्द होता है। हर छवि के लिए एक शब्द होता है न? और शब्द भाषा से आता है। अगर भाषा में वो शब्द ही नहीं है, अगर भाषा में वो संकल्पना ही नहीं है, तो आप ख़त्म हो गए न। आप क्या करोगे अब? बहुत कुछ है हिंदी में जिसके लिए आप अंग्रेज़ी में शब्द ही नहीं पाओगे। और ज़्यादातर ऐसे शब्द, जिनके लिए अंग्रेज़ी में शब्द नहीं हैं, वो आध्यात्मिक हैं। हृदय के क्षेत्र में अंग्रेज़ी एक बड़ी ग़रीब भाषा है। तो जो अंग्रेज़ी भाषा में जी रहा है, वो हृदय के तल पर बड़ा ग़रीब होगा, ये समस्या है। इसीलिए तो अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान आना पड़ता है। उनकी ग़रीबी का कारण ही यही है कि उनके जीवन से उनकी भाषा निकली है—तो जितना उनका जीवन सीमित है, उतनी ही उनकी भाषा भी सीमित है।

मैं आई.आई.टी. में था, एम्स में उनका एक फेस्टिवल होता था 'पल्स', तो मैं उसमें जाता था और उसमें भाग लेता था। मैं अंग्रेज़ी-हिंदी दोनों एक्सटेंपोर में बोलता था। एक ही दिन पर दोनों थे और अगल-बगल के कमरों में। मैं पहले अंग्रेज़ी वाले में गया, वहाँ एक्सटेंपोर के टॉपिक थे: “ इफ आई वर अ लेस्बियन (अगर मैं समलैंगिक होता)?”, “ वॉट इफ माईकल वर मैडोना (क्या होता अगर माइकल मैडोना होता)?” उस समय माइकल जैक्सन और मैडोना हॉट थे, अब नहीं हैं। मैं हिंदी वाले कमरे में आया, वहाँ एक्सटेंपोर के टाइटल थे: “भारत को कृषि-प्रधान देश से सेवा-प्रधान देश कैसे बनाएँ?”,“क्या परिवार की संस्था चरमरा रही है?”

देखिए, भाषा बदली तो पूरा जो माहौल है वही बदल गया। पूरा केंद्र ही बदल गया। मुझे ये नहीं मालूम कि उधर वाले टॉपिक (विषय) बेहतर थे या इधर वाले, मुझे ये पता है कि अंतर था। और ये बहुत अचंभित करने वाली बात थी कि भाषा बदलती है तो मन बदल जाता है। “मैं तुमसे प्यार करता हूँ,” और “आई लव यू,” एक ही बात नहीं हैं।

मुझे अंग्रेज़ी से कोई बैर नहीं है। मेरा आधा काम अंग्रेज़ी में चलता है। मुझे ये भी पता है कि बहुत सीमा है अंग्रेज़ी की; वो भाषा एक बिंदु के बाद दिल को छू नहीं पाती किसी के भी। ये नहीं कि भारतीयों के ही, अंग्रेज़ों के दिल को भी नहीं छू पाती। अंग्रेज़ भी जब भजन गाता है तो हिंदी में ही गाता है। अंग्रेज़ी भजन कैसा होगा? आप अंग्रेज़ को भी देखोगे तो "हरे रामा, हरे कृष्णा" ही करेगा। मैं बोलता था, जब ये जर्मन-फ्रेंच लोग मिलते थे कि, “आधा नुक़सान तुम्हारा हो चुका है कि तुम जर्मनी में पैदा हुए”।

घर पर भाषा भी शुद्ध रख सकें तो अच्छा है। थोड़ा 'अन-कूल' लगेगा, लेकिन भाषा जितनी शुद्ध होगी, समझ लीजिए कि मन भी उतना शुद्ध होता जाएगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं अपने दोस्त की मदद (हीलिंग) करना चाहता हूँ लेकिन वो मदद लेने से इनकार कर देता है। ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: वास्तव में असली चिकित्सा (हीलिंग) प्रेम में ही संभव है। जिसको आप हील कर रहे हो न, उसे भी पता है कि उसे हीलिंग चाहिए। दिल से सबको पता है। उसकी एक ज़िद्द है, छोटे बच्चे की तरह। उसकी ज़िद्द ये है कि, “पहले मुझे दिखाओ कि तुम मुझसे इतना प्रेम करते हो कि मेरे लिए किसी भी दुःख से गुज़र जाओगे और उसके बाद मेरी चिकित्सा (हीलिंग) हो जाएगी।”

जीसस की पूरी कहानी यही है। दुनिया जीसस की शिक्षाओं को ग्रहण करने के लिए तैयार हो गई, लेकिन उससे पहले दुनिया ने जीसस से कहा, “हम तुम्हारी शिक्षाओं पर चलेंगे लेकिन पहले तुम ये साबित करो कि तुम हमसे इतना प्रेम करते हो कि तुम हमारे लिए मरने को भी तैयार हो। तुम्हारी सारी बात मान लूँगा, लेकिन मेरी भी ज़िद्द है, मेरा अहंकार है। मैं कहता हूँ कि तुम्हारी बात मान लूँगा लेकिन तुम पहले दिखा दो कि तुम मुझसे बहुत प्यार करते हो।” तो आपकी दोस्त तब मानेगी जब आप जो हीलर हैं—हीलर तो गुरु ही हो गया। और कौन हीलिंग करता है? वो जो हीलर है, वो पहले ये दिखाए कि, “मैं तुम्हें सिर्फ एक 'एकेडमिक प्रोजेक्ट' की तरह नहीं हील कर रही। तुम्हें सिर्फ एक ग्राहक या मरीज़ की तरह नहीं हील कर रही। मेरा दिल लगा हुआ है तुमसे, मेरी करुणा है, कंपैशन है, ये एक प्रेम-संबंध है, इसलिए मैं तुम्हें हील करना चाहती हूँ।” और ये बहुत ही परस्पर विरोधी तरीक़े से परिलक्षित होगा। जब जो हीलर है, वो स्वयं उस दुःख को अनुभव करने लगे—आप जिसको हील करना चाहते हो, जब तक आप उसके दर्द से ख़ुद भी नहीं तड़पोगे, तब तक वो मानेगा ही नहीं कि - "मुझको ठीक होना है।" ये उसकी शर्त है, और आपको उसकी ये शर्त माननी पड़ेगी।

बात बहुत अजीब-सी है। किसी भी बीमार आदमी को ठीक करने के लिए एक तल पर तो आपको बहुत स्वस्थ होना चाहिए, और दूसरे तल पर आपको उसकी बीमारी के साथ एक हो जाना पड़ेगा। जब तक आप भी उतना ही कष्ट नहीं सहोगे जितना की सामने वाला सह रहा है, तब तक सामने वाला ठीक होने को राज़ी ही नहीं होगा। ये उसकी ज़िद्द है, ये उसकी अकड़ है, हठ है: “मैं क्यों ठीक होऊँ? मैं किसके लिए ठीक होऊँ? पहले तुम दिखाओ कि तुमको मेरी परवाह कितनी है।”

तो आप दिखा दीजिए कि परवाह कितनी है, वो ठीक हो जाएगी।

मैं जितनी बातें कहता हूँ वो सबको समझ में आती हैं। ऐसा कोई नहीं है जिसे ना समझ में आए क्योंकि बात बहुत सरल तरीक़े से कही जाती है। जो नहीं मानते वो इसलिए नहीं मानते कि, "तुम हो कौन कि तुम्हारी बात मानें? तुम्हारा हमसे रिश्ता क्या है कि हम तुम्हारी बात मानें? तुम्हारे कहने भर से अपनी पीड़ाएँ छोड़ दें? इतना प्यार तो नहीं करते तुम हम से। पीड़ा जैसी भी है, पुरानी साथी है; तुम नए हो। पहले तुम दिखाओ कि तुम साथी बनने को तैयार हो, तब हम पीड़ा को छोड़ेंगे जो हमारी पुरानी साथी है।”

जब आप बार-बार जाँच करते हो न, जब आप बार-बार पूछते हो किसी से कि “तुमने पढ़ा या नहीं पढ़ा?” जब आप दिखाते हो कि उसके पढ़ने में आपका व्यक्तिगत 'स्टेक' है, जब आप दिखाते हो कि तुम अगर नहीं पढ़ रहे तो मुझे तकलीफ़ हो रही है, तब वो पढ़ेगा। जब आप उसको दिखा दोगे कि तुम अगर नहीं पढ़ रहे तो मुझे तकलीफ़ हुई, तब वो पढ़ेगा। अगर वो इतना होशियार होता कि अपने हित की ख़ातिर पढ़ लेता, तो इसी होशियारी का उपयोग करके उसने पहले ही अपना हित ना साध लिया होता? अगर वो इतना समझदार होता ही कि आप उसे समझाएँ और वो झट से मान ले, तो उसी समझदारी का इस्तेमाल करके वो पहले ही कुछ अपना भला ना कर लेता?

इससे ही आपको पता चल जाना चाहिए कि जिसे आप साइकॉलजी या मनोविज्ञान कह रहे हो, वो कितनी सीमित चीज़ है। 'साइकि' माने क्या? मन। आप मन से डील नहीं कर सकते मन के केंद्र को समझे बिना। मन की कोई चिकित्सा नहीं हो सकती न जब तक मन का केंद्र रुग्ण है।

अध्यात्म बिल्कुल मनोविज्ञान है। मनोविज्ञान बस यहाँ पर आकर रुक जाता है कि 'अहम' बना रहे और स्वस्थ रहे। अध्यात्म कहता है कि - "अहम बना रहेगा तो स्वस्थ हो नहीं सकता; उसको गिरना होगा, समर्पण चाहिए।"

समझ रहे हैं?

तो इसीलिए नतीजा ये निकलेगा कि भले ही एक तात्कालिक रेचन हो जाए, वो रो ले या कुछ कर ले, पर उसको कोई दीर्घकालिक फ़ायदा नहीं हो सकता क्योंकि बीज बचा रह जाएगा। ये बिल्कुल ऐसा ही है जैसे किसी का पेट ख़राब है और उसको प्रेशर बन रहा है, तो आपने उसको एक बार वॉशरूम का रास्ता दिखा दिया। उसे तात्कालिक आराम तो मिल गया, लेकिन पेट तो ख़राब है ही, तो उसे बार-बार उसी रिलीफ की ज़रूरत पड़ती रहेगी। पेट ठीक नहीं हुआ, बस तात्कालिक आराम मिल गया है।

जिसको हम 'साइकॉलजी' कहते हैं, वो कुछ समय के लिए सफल तो रहेगी। उससे जो मनोवैज्ञानिक है, उसका काम चल जाता है; जो मरीज़ है, उसका काम भी चल जाता है; तो दोनों ख़ुश। मनोविज्ञान में होता क्या है कि जो दवाई दी जा रही है, उस दवाई का माहौल ही यही है, उस दवाई के साथ शर्त ही यही है कि - "तुम ये दवाई ले लो, आख़िरी उपचार की ज़रूरत नहीं।" ऐसा कोई मनोवैज्ञानिक आपको मिलेगा नहीं जो आपको बोले कि, "अभी ये दवाई ले लो और आगे दूसरी दवाई चाहिए होगी।" मनोवैज्ञानिक कहेगा, “जो मैं दवाई दे रहा हूँ, वो आख़िरी दवाई है”। और वो आख़िरी होती नहीं।

प्रश्नकर्ता: क्योंकि शायद उस मनोवैज्ञानिक की समझ भी उतनी ही है, उसने भी उसके बाहर देखा नहीं है।

आचार्य प्रशांत: उससे बाहर देखने के लिए मनोवैज्ञानिक को ख़ुद समर्पण करना पड़ेगा, मनोवैज्ञानिक को अपनी ज़िंदगी बदलनी पड़ेगी। वो क्यों देखना चाहेगा? उसकी भी तो अपनी वरीयताएँ हैं जीवन में—बीवी है, बच्चे हैं, नौकरी है, पैसा है। वो अगर अच्छा मनोवैज्ञानिक बनना चाहे, तो पहले उसे मनोविज्ञान छोड़ना पड़ेगा, उसे ख़ुद कुछ और हो जाना पड़ेगा।

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