प्रश्न: आचार्य जी, क्या संकोच न करने का अर्थ है कि कुछ भी कर सकते हैं, बोल सकते हैं?
आचार्य प्रशांत जी: संकोच न होने का अर्थ यह है कि – “मुझे जो करना है वो भी बे-खटके करना है, और जो नहीं करना है उसमें भी मुझे दिक्कत नहीं हो रही कि मैं क्यों नहीं कर रहा।”
अगर आप कुछ जानते ही हो कि नहीं बोलना है, तो बस नहीं बोलना है, शांत रहो। यह विचार ही बार-बार मन में न आए कि – “बोल ही दूँ क्या?” फ़िर थोड़ी खुजली-सी हुई – “अच्छा चलो बोल ही देते हैं।” फ़िर लगा नहीं बोलते, अच्छा बैठ जाओ।
‘संकोच न होना’ दोनों दिशाओं में काम करता है — बोलना है तो बिना संकोच के, और यदि चुप बैठना है तो चुप बैठने में भी कोई दिक्कत नहीं हो रही है। चुप हैं तो हैं, शांत हैं तो पूरी तरह शांत हैं, स्थिर हैं। यह नहीं लग रहा कि – क्यों स्थिर हैं? “काश मैं बोल सकता,” यह विचार नहीं आ रहा है। फ़िर हम मौन हैं, शांत हैं, बिलकुल शांत हैं।
‘संकोच’ का उल्टा अर्थ मत निकाल लेना। कोई संकोच नहीं करता, इसका अर्थ यह नहीं है कि वो पूरा मनमौजी हो गया है, निरंकुश हो गया है। ‘संकोच नहीं है’ इसकी एक ही जायज़ वजह हो सकती है — स्पष्टता। स्पष्टता में अगर शांत भी बैठे हो, तो बढ़िया।
हम संकोच न होने का आमतौर पर यह अर्थ निकालते हैं कि यह बिंदास है, कुछ भी जाकर बोल आता है। यह अधूरी बात है, आधी बात है।
जो संकोच नहीं करता वो चुप रहने में भी संकोच नहीं करता – यह पूरी बात हुई। वो बोलने में भी संकोच नहीं करता, और चुप रहने में भी।
तो कभी तुम चुप रह जाओ तो अपने आप को अपराधी मत समझ लेना, मौन बड़ी बात है। और कई बार शब्दों से ज़्यादा कीमती होता है मौन।
हाँ, वो मौन डरा हुआ मौन नहीं होना चाहिए कि ख़ौफ़ है इसलिए आवाज़ नहीं निकल रही। मैं उस मौन की बात नहीं कर रहा। मैं उस मौन की बात कर रहा हूँ जो उचित ही है।
अभी मैं बोल रहा हूँ, और कुछ लोग बिलकुल शांत हैं, सुन रहे हैं, तो यह मौन है। यह ख़ौफ़ का मौन नहीं है, यह ध्यान का मौन है। तुम यह नहीं कह सकते कि अभी यह संकोच का मौन है, बल्कि यह ध्यान का मौन है, जहाँ तुम पूर्णतया सुनने में मशगूल हो। उसमें कोई बुराई नहीं है।
जो चुप बैठा है वो भी ठीक है, बशर्ते कि उसके मन में द्वंद न हो। दिक्कत तब होती है जब द्वंद होता है मन में – “बोल रहा हूँ उसमें भी द्वंद है, और चुप बैठा हूँ, तब भी द्वंद है मन में।”
एक बात और समझिएगा — जिसको चुप बैठने में दुविधा नहीं है, उसी को और सिर्फ़ उसी को, बोलते समय भी दुविधा नहीं होगी।
क्लास में जो बच्चे पीछे बैठ के बहुत बोलते हैं, उन्हें जब प्रेजेंटेशन या अन्य एक्टिविटीज़ में बोलने को कहा जाता है तो वो बोल नहीं पाते। चूंकि पीछे बैठकर तुम अनुचित बोलते हो, इसीलिए जब मौका आता है तो बोल नहीं पाते हो।
जो अनुचित बोलेगा, उसको अनुचित रूप से चुप भी रहना पड़ेगा। और जो पीछे बैठ के भी मौन है, ध्यान में है, शांत है, उसका जब मौका आता है, तो वो खुल के बोलता है। खुल के वही बोल सकता है, जो चुप रहना भी जानता हो। जिसको चुप रहने में समस्या है, उसको बोलने में भी समस्या होगी।
तुम सब की लगातार यह कोशिश रहती है, इच्छा रहती है कि हम बोलें, खूब अच्छा-अच्छा। और तुम अक्सर यह सवाल करते हो – “मैं संकोच बहुत करता हूँ। बोलूँ कैसे?” तुम यह तो सवाल करते हो कि – “हम बोलें कैसे?” पर मुझसे कोई यह नहीं पूछता कि – “चुप कैसे रहें?”
और यह दोनों बातें अन्तर-सम्बन्धित हैं, जुड़ी हुई हैं।
जो चुप रहना नहीं जानता, वो बोलना भी नहीं जान पाएगा। जिसको मुखर होकर बहाव में बोलने का शौक़ हो, वो पहले मौन को साधे।
मेरा उदाहरण ले लो। तुम मुझसे कुछ पूछो, और मैं ध्यान से सुनूँ ही न, तो मैं कैसे जवाब दे पाऊँगा? और अगर दे भी देता हूँ, तो बहुत उल्टा-पुल्टा होगा। कुछ बोलने के लिए ध्यान से सुनना ज़रूरी है, और उसी का नाम ‘मौन’ है – बस शांत हो गए, बिलकुल स्थिर हो गए। फ़िर देखो कैसे बोलते हो तुम। फ़िर जो डर रहता है, संकोच में रहता है कि “अरे! बाप रे! इतने सारे लोगों के सामने बोल कैसे दूँ,” वो बिलकुल चला जाना है।
सिर्फ़ यही सवाल मत किया करो कि – “हम अच्छा बोलें कैसे?” यह सवाल भी किया करो कि- “हम शांत कैसे हो जाएँ?” सिर्फ़ शांति से ही अच्छा बोलना निकलता है। यह बात समझ में आ रही है?
जिसे निःसंकोच होकर बोलना है, वो चुप रहने की कला भी सीखे।
अगर इतनी-सी बात भी स्पष्ट हो जाए तो आज का संवाद पूरा हो गया, और कुछ कहे जाने की ज़रूरत नहीं है। मैं इस बात को दस बार दोहराने के लिए भी तैयाए हूँ, लेकिन बस तुम्हें यह बात गहराई से समझ में आ जाए।