संकल्प पूरे क्यों नहीं कर पाते? || आचार्य प्रशांत, छात्रों के संग (2014)

Acharya Prashant

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संकल्प पूरे क्यों नहीं कर पाते? || आचार्य प्रशांत, छात्रों के संग (2014)

प्रश्न : आचार्य जी, हम जीवन में संकल्प करते हैं और पाते हैं कि जल्द ही फीका पड़ने लगता है। ऐसा क्यों?

आचार्य प्रशांत: सही बात तो ये है कि जो काम शुरू किया, वो शुरू ही इसलिए नहीं किया कि ख़ुद समझ आई थी कोई बात, वो शुरू इसलिए किया क्योंकि माहौल ऐसा था कि सब कर रहे थे, तो हमने भी कर लिया। शिक्षक ने आज ख़ूब कक्षा में प्रोत्साहित किया कि पढ़ना है, पढ़ना है, तो तुम गईं और तुमने क्या करना शुरू कर दिया?

प्रश्नकर्ता: पढ़ना शुरू कर दिया।

आचार्य प्रशांत: और दो दिन बाद क्या देखा? दो दिन बाद क्या होता है?

प्रश्नकर्ता: सब वैसा ही हो जाता है।

आचार्य प्रशांत: कौन पढ़े, क्योंकि वो पढ़ाई के लिए जो तीव्र इच्छा थी, जो रुझान था, वो अपना नहीं था। वो किसका था?

प्रश्नकर्ता: बाहर से आया था।

आचार्य प्रशांत: वो शिक्षक का था न? अब शिक्षक रोज़ तो प्रोत्साहित करेगा नहीं। और रोज़ अगर प्रोत्साहन होने लग गया, तो उसका असर भी ख़त्म हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता: जी, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: तो शिक्षक ने प्रोत्साहित किया, दो दिन चला, फिर ख़त्म हो गया। तो ये तो हुई शुरुआत की बात! ये शुरुआत ही गड़बड़ होती है।

हमारे ज़्यादातर काम माहौल के प्रभाव में शुरू होते हैं। वो इसलिए नहीं शुरू होते कि हमें दिखा है कोई चीज़ महत्त्वपूर्ण है, तो हम कर रहे हैं उसको। वो इसलिए शुरू होते हैं क्योंकि कुछ ऐसा हुआ है, या किसी ने आकर कुछ कह दिया, कोई खास दिन आ गया, कुछ ऐसा हो गया।

ये बात समझ में आई?

ये शुरुआत ही गड़बड़ है। फिर आगे भी गड़बड़ होती है। आगे क्या गड़बड़ होती है? कि काम तो कर रहे हो, लेकिन मन की जो टेनडेनसी (वृत्ति) हैं गहरी, भीतरी, ‘वृत्ति’, वो शांत नहीं हैं।

प्रश्नकर्ता: जी आचार्य जी। यही मेरी समस्या है।

आचार्य प्रशांत: वो शांत नहीं है। तो वो मन फिर ऐसे-ऐसे, डगमग-डगमग चलता है। वो ज़बरदस्ती का *मल्टी-टास्क (*बहु-कार्यण)करना है। *मल्टी-टास्क (*बहु-कार्यण) को भी हमने बना लिया है कि बहुत बड़ी बात है।

हमारा मन ऐसा हो गया है कि वो लगा ही रहता है हर समय मल्टी-टास्क (बहु-कार्यण) में; जहाँ ज़रूरत नहीं है, वहाँ भी। अब जैसे यहाँ बैठे हो, तो अभी तो बैठे हो! अभी जा नहीं रहे हो बाहर। तो अभी कोई ज़रूरत नहीं है बाहर जाने की तैयारी करने की। दो मिनट बाद जाओगे ना? अभी तो नहीं जा रहे हो। तो अभी बिलकुल मस्त होकर बैठ सकते हो। मस्त बिलकुल!

पर बैग पकड़ रखा है। आवश्यकता क्या है बैग पकड़ने की? अभी जा रहे हो क्या? इस क्षण तो नहीं जा रहे हो, अगले क्षण जाओगे। तो जब जाना, तो उठा लेना। पर अभी क्यों थक रहे हो? मुट्ठियाँ भींच रखी हैं, पकड़ रखा है, थक रहे हो ना ज़बरदस्ती। और सुनने से ध्यान भी हट रहा है।

अब अभी मुझे बैठना है, चलना नहीं है। मुझे अभी बैठना है, चलना नहीं है, तो मैंनें क्या किया है देखो चप्पल का?

प्रश्नकर्ता: उतार दिया है।

आचार्य प्रशांत: अभी मुझे क्या करना है? दौड़ तो नहीं लगानी है, तो चप्पल का क्या करना है।

मन को ऐसा कर लो कि वो ख़ुद ही जो कुछ अभी व्यर्थ है, उसमें पड़े ही ना। पर हमनें मन को ऐसा कर रखा है कि वो एक साथ दस कामों की तैयारी करता रहता है। अभी में भी वो भविष्य की तैयारी करता है – “अभी तो नहीं जा रहा बाहर, पर पाँच मिनट में मैं बाहर जाऊँगा ना, तो अभी से बैग तैयार कर लूँ।”

कई लोगों को देखा है, उनकी ट्रैन होती है दस बजे की और वो सुबह चार बजे से उठकर तैयार होने लग जाते हैं, और पूरे घर में हल्ला करते हैं, “ट्रेन है… ट्रेन है…।” देखे हैं ऐसे लोग?

प्रश्नकर्ता: जी, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: और वो कहते हैं, “हम तो बड़े सावधान हैं, बड़े परिपक्व हैं। और ये परिपक्वता की निशानी है कि पहले ही तैयारी-वैयारी करके अच्छे से बैठ जाओ। ये हमारी परिपक्व होने की बात है।” क्या ये परिपक्वता की बात है? इससे सिर्फ़ यही पता चलता है कि अभी जो करना नहीं है, मन उसकी ओर भाग रहा है; भविष्य की ओर भाग रहा है, और दूसरे कामों की ओर भाग रहा है। इसके लिए जो पहली बात थी कि – शुरुआत ही ग़लत हुई।

वो तो तुम चलो संभाल लोगी, फिर जो दूसरी चीज़ है, इसके लिए थोड़ी साधना करनी पड़ेगी। इसके लिए खाने-पीने का ध्यान देना पड़ता है। इसके लिए अच्छी रीडिंग करनी पड़ती है। इसके लिए देखना पड़ता है कि जो तुम फिल्में देख रहे हो, गाने सुन रहे हो वो सब किस तरीके के हैं।

अगर तुम्हारा पूरा आचरण, आहार-विहार इस तरीके का है कि वो तुम्हें लगातार उत्तेजित करता है, तो फिर मन भागेगा इधर-उधर। हमारा जो पूरा वातावरण है, वो ऐसा है कि मन पर लगातार प्रहार करता रहता है।

तुमने कभी देखा है कि जब ये गाने आते हैं, खासतौर के वो थोड़े फ़ास्ट गाने होते हैं, उनमें कितनी जल्दी स्क्रीन बदलती है, बात-बात पर? देखा है कभी? इससे पहले कि तुम एक स्क्रीन को समझ पाओ, अगली आ जाती है – एक सेकंड, डेढ़ सेकंड के अंदर खट-खट-खट कैमरा बदल रहा है। देखा है ये?

प्रश्नकर्ता: जी, आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: अब इससे मन को क्या शिक्षा मिल रही है? मन को भटकने की शिक्षा मिल रही है, ठहरने की नहीं।

हमारे ऊपर जो प्रभाव पड़ रहे हैं, वो हमें ठहरने नहीं देते। वो हमें भटकने के लिए मजबूर करते हैं।

तुम एक दृश्य तो ठीक से देख भी नहीं पाते कि अगला दिखा दिया जाता है डेढ़ सेकंड के अंदर, और इसको हम कहते हैं, “रोमांच है।” रुकने का समय नहीं दिया जाता।

तो जब तुम्हारे भीतर जो कुछ आ रहा है वो तुम्हें ना रुकने के लिए मजबूर कर रहा है, कि तुम ना रुको, तो फिर कैसे रुकोगे? जो काम तुम कर रहे हो, उसमें भी नहीं रुक पाते; मन कहीं और चल जाता है। रुकने का तो हमें कुछ अभ्यास ही नहीं है।

हर उस चीज़ से बचो जो तुम्हें उत्तेजित करती है, भटकाती है, इधर-उधर खींचती है – खाने में, पीने में, गाने में, फिल्मों में, टी.वी. में, इंटरनेट में, सोशल मीडिया में, फेसबुक में। उन सब चीज़ों से, उन तत्वों से, उन लोगों से बचो जो व्यर्थ बातें करते हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं, ठिकाना नहीं, जो ख़ुद भटके हुए मन के हैं भटके हुए मन के लोगों के साथ रहोगे तो तुम पाओगे कि जहाँ भी कहीं हो, तुम्हारा वहीं से भागने का मन करता है। मन लगातार चंचल बना ही रहेगा।

समझ रहे हो?

गाना ऐसा सुनोगे जिसमें मिनट-मिनट में धिक-धिक-धिक-धिक, ऐसे चल रहा है, तो क्या होगा देखना? कुछ बदल रहा है तेजी से, तो फिर मन को यही शिक्षा मिली ना कि – लगातार बदलते रहो, ठहरो नहीं। आसन मत लगाओ कहीं, भागते रहो। बदलते रहो, लगातार बदलते रहो। समझ रहे हो बात को?

सावधान रहो!

विज्ञापनों को देखते हो उसमें क्या होता है? अब उनके पास तो कुछ पाँच-दस सेकंड होते हैं, वो पाँच-दस सेकंड में कितना कुछ ठूस देते हैं तुम्हारे भीतर। उनसे बचो! वो तुम्हें ठहरने नहीं दे रहे हैं। उनका एक ही इरादा है कि तुमको वो असहज कर दें, चंचल कर दें, तुमको हिला दें। पर हमें इन चीज़ों से प्यार हो जाता है। हमें अच्छा लगने लगे जाता है, आदत पड़ जाती है; उनसे ही बचना होता है।

तो दो बातें मैंनें कहीं।

पहली बात – देखो कि जो भी काम शुरू कर रहे हो, वो किसी के प्रभाव में तो नहीं शुरू कर रहे हो।

और दूसरी बात – अपने पूरे आचरण का, आहार-विहार का ख़याल रखो कि किन लोगों के साथ उठते-बैठते हो। इसका ख़याल रखो कि क्या पढ़ते-लिखते हो, क्या देखते हो। दिनभर जो भी हरकतें करते हो तो किन लोगों के साथ करते हो इसका ख़याल रखो।

इतना काम करोगे, तो काम बन जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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