संगति का अर्थ और परिणाम समझ लो, फिर विवाह करना || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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संगति का अर्थ और परिणाम समझ लो, फिर विवाह करना || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी चरण स्पर्श। जब से आप बैंगलोर विश्रान्ति शिविर में आये हैं, मेरे जीवन में बहुत परिवर्तन हो रहे हैं। मेरा जीवन सुधर रहा है। अट्ठाईस साल का होने के ख़ातिर मुझे सभी की तरह शादी के बारे में सोचना पड़ रहा है। आपने एक वीडियो में कहा है, ‘या तो मुक्ति, या शादी। चुन लो। स्प्रिचुअल कपल (आध्यात्मिक दम्पत्ति) जैसा कुछ नहीं होता।’

एक और वीडियो में कहा है कि मीरा मिले तो ही शादी करना। मुझे मीरा मिलती नहीं, क्योंकि मैं ख़ुद कृष्ण नहीं हूँ। आपने कहा है कि या तो ऊँचे लक्ष्य के प्रति समर्पित हो जाओ या विवाह कर लो। मैं बीच में फँसा हूँ। मैं कैसे इस ऊँचे लक्ष्य की तरफ़ समर्पित हो जाऊँ? आपसे निकट रहकर जीवन को सही दिशा देना चाहता हूँ। मैं आपके आदेशित मार्ग पर चलने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: इस तरफ़ मुक्ति है, उस तरफ़ शादी है, बीच में क्या है? बीच में भी शादी है, बस शादी के साथ-साथ बर्बादी भी है। मुक्ति सिर्फ़ एक ही तरफ़ है, उस तरफ़। उसके अलावा तो शादी-ही-शादी है। हाँ, कोई ऐसा हो कि कहे कि चाहिए तो मुक्ति, पर मुक्ति के साधक जितनी न श्रद्धा है न साहस, तो उसको सज़ा ये मिलती है कि उसे शादी भी करनी पड़ती है और जीवन की बर्बादी भी झेलनी पड़ती है। उससे कहीं भला तो वो होता है जो कहे, ‘मुक्ति इत्यादि चाहिए ही नहीं, ज़िन्दगी में एक स्त्री चाहिए, मुझे शादी चाहिए।’ ये व्यक्ति प्रसन्न रहेगा। इसे अपेक्षतया दुख कम होगा।

मुझसे इतने लोग मिलते हैं‌, सबसे ज़्यादा दुर्दशा उनकी होती हैं जिन्हें सत्य और संसार एक साथ चाहिए। पुरुषों की तरफ़ से कहूँ तो जिनको स्त्री-सुख और मुक्ति का आनन्द एक साथ चाहिए। ये सबसे ज़्यादा बुरी हालत में होते हैं। फिर कह रहा हूँ मैं, जिन्हें मुक्ति नहीं चाहिए, औरत ही चाहिए, उन्हें ज़्यादा दुख इत्यादि नहीं होता। उन्हें जो चाहिए, आसानी से मिल जाता है। लेकिन कोई कहे कि मैं आकांक्षी तो सत्य का हूँ, बोध का हूँ, मुक्ति का हूँ, लेकिन देखिए, अट्ठाईस का भी हूँ। और अट्ठाईस का हूँ, तो आचार्य जी आप तो समझते ही हैं न — क्या करूँ हाय, कुछ-कुछ होता है। (मुस्कुराते हुए)

देखो। (एक श्रोता को इंगित करते हुए) नाम ही काफ़ी है। ऐसों की बड़ी दुर्गति होती है। ये फिर पाते हैं कि एक-एक करके सब सामाजिक, सांस्कारिक, पारिवारिक, दैहिक मूर्खताओं में फँसते भी जा रहे हैं और रोते भी जा रहे हैं कि हाय! हाय! मैंने स्वयं ही अपने ऊपर बन्धन डाल लिये। हाय! हाय! मैंने स्वयं ही अपनेआप को मुक्ति से इतना दूर कर लिया।

देखो, मैं तुमको सान्त्वना दे सकता हूँ। मैं तुमको कोई बीच का रास्ता भी बता सकता हूँ। दिक्क़त मेरी ये है कि मैं तुमसे इतना बैर, इतनी घृणा रखता नहीं कि तुमको धोखा दूँ। नहीं तो बोल देता मैं, जैसे बहुतों ने बोला है, बड़े-बड़े सन्त-महात्मा भी कई बार यही बोल गये कि कोई बात नहीं, तू कर ले, तेरा हो जाएगा। मैं तुमको झूठी सान्त्वना नहीं देना चाहता।

मैंने कहा है दो ही तरीक़े हैं — या तो वो जो ऊपर बैठा है, नीचे बैठे-बैठे उसके हो जाओ। कह दो, ‘वही पति है मेरा।’ या फिर जगत में कोई ऐसा ढूँढ लो जो उस ऊपर वाले का हो।’ इसलिए मैंने कहा था कि कोई मीरा जैसी मिलती हो, तो कर लेना विवाह। वास्तव में, मैं विवाह इत्यादि के न पक्ष में हूँ न विपक्ष में हूँ। मेरा ताल्लुक़ तो सिर्फ़ संगत से है। मैं बात संगति की करता हूँ। बहुत बिलकुल सीधी ज़मीनी बात करता हूँ, संगति की। तुमने शादी करी, नहीं करी, कुछ भी, आजकल लिव-इन (विवाह किये बिना दाम्पत्य जीवन जीना) वगैरह भी खूब चल रहा है, तो इसका मतलब ये थोड़े ही है कि आचार्य जी कह रहे हैं, ‘शादी मत करो, लिव-इन कर लो।’

जब मैं कहता हूँ कि विवाह के मसले पर बड़े सतर्क रहना, तो मैं वास्तव में तुमसे ये कह रहा हूँ कि किसकी संगति कर रहे हो — चाहे विवाह में, चाहे दोस्ती में, चाहे लिव-इन में, चाहे जाते में — उसको लेकर बहुत सतर्क रहना, क्योंकि संगति अपना रंग तत्काल दिखाती है और बड़ी ताक़त से दिखाती है।

और विवाह का मतलब होता है कि तुमने किसी की संगति को अपने लिए दीर्घकालीन बना लिया, निश्चित बना लिया। उसी के साथ जागोगे, सोओगे, खाओगे, पीयोगे। अब ये बात बहुत शुभ भी हो सकती है और महा अशुभ भी। जिसके साथ उठ रहे हो, बैठ रहे हो, खा रहे हो, पी रहे हो, जिसका तुम्हें सब पता है, जिसके कपड़ों की अलमारी में भी तुम झाँक रहे हो, जिसके अन्तर्वस्त्रों के बारे में भी तुम्हें जानकारी है, जिसका ब्रश, जिसका टूथपेस्ट भी तुम जानते हो, जिसके शरीर की महक भी तुम्हारे शरीर की महक से मिलजुल गयी है, उसका तुम्हारे क़रीब होना जीवन की सबसे शुभ घटना भी हो सकती है, अगर वो व्यक्ति कृष्ण जैसा हो कि मीरा जैसा हो। फिर तो पूछो ही मत, क्या बात है!

किसके साथ उठते हैं, बैठते हैं, जागते हैं, सोते हैं? कृष्ण के साथ, मीरा के साथ। फिर तो पूछो ही मत! फिर तो मैं कह रहा हूँ कि कोई मिल जाए ऐसा, तो पीछे पड़-पड़ के विवाह कर लो। नहीं तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। होगी तुम में बड़ी कृष्ण भक्ति और रोज़ पाते हो कि बिस्तर में बगल में लेटा है दुर्योधन। और ये एक-दो दिन की बात नहीं है, अब जन्म भर के लिए तुमने तय कर लिया दुर्योधन की शयन संगिनी होना। अब निपुच आएगी सारी कृष्ण भक्ति।

संगति की ताक़त को समझो। पति-पत्नी में और कोई रिश्ता होता हो, न होता हो, संगति का तो बड़ा प्रबल रिश्ता होता है। उसी का बनाया खाओगे, उसी के साथ घूमोगे, उसी के साथ फिरोगे। देखो तो स्वयं को किसकी संगति दे रहे हो। रोज़ सुबह उठते ही किसका मुँह देखना तुमने स्वीकार कर लिया है? रात में भी नींद खुलेगी ऐसे, आँख खुली तो देखा बगल में, वो कौन है? कौन है? किसका मुँह देख रहे हो? नथुनों में बदबू भी जा रही है, तो किसकी जा रही है? अरे! चलो खुशबू भी जा रही है, तो किसकी जा रही है? कौन है वो? किसको प्रवेश दे दिया तुमने अपने अन्तःपुर में? इस बात की तरफ़ ज़रा सतर्क रहो बस!

और ये मत कहो कि मैं तो ढूँढ रहा हूँ, मुझे ऐसी कोई मिलती नहीं, तो मैं क्या करूँ? मेरे पास तो ऐसे ही सवाल लड़कियों के, स्त्रियों के भी आते हैं — ‘मैं ढूँढ रही हूँ। मुझे ऐसा कोई मिलता नहीं।’ नहीं, मैं रिश्ता नहीं फ़िट (जमाना) कराऊँगा। ख़ुद ढूँढो। और ये बहाना मत बताओ कि ढूँढ रहा हूँ, कोई मिलती नहीं। मिलेगी। सतर्क होकर ढूँढो, सब मिलता है।

संसार में माया ही माया फैली हुई है, तो माया से बचने की काट भी संसार में ही मौजूद है। ये बहुत बड़ी भूल भुलैया है, लेकिन बाहर निकलने का दरवाज़ा भी इसी में मौजूद है। मिलेगा, अगर तुम ईमानदारी के साथ ढूँढो। बस अकेलेपन से उकताकर या वासना से घबराकर जल्दी से कोई सस्ता समझौता मत कर लेना — ‘अब चलो, जो मिल रही है, वही सही। तीन-चार को तो मना कर दिया। अब कितनों को मना करें? और ये वाली बड़ी छबीली है, गोरी है, चिकनी है। इसको अब बोल ही देते हैं। रही बात भक्ति की, वो जो आचार्य जी बोलते रहते हैं, तो इसको दो-चार शिविर करा देंगे। आचार्य जी सिखा देंगे न भक्ति। वो किसलिए हैं, सब हम ही करेंगे क्या!’

यहाँ पर ये भी खूब चलता है। लोग जाकर के किसी को ब्याह लाएँगे, और फिर उसे लाकर के शिविर में खड़ा कर देंगे — ‘आचार्य जी, आपके लिये प्रोजेक्ट (परियोजना)। अब इसको थोड़ा ठीक कर दीजिए।’ नहीं, हमसे नहीं होगा। तुम्हारा काम है, तुम्हीं सँभालो।

ढूँढने से, कहते हैं, भगवान भी मिल जाते हैं, तुम्हें एक पत्नी नहीं मिलेगी? भगवान का नाम ले के ढूँढो, तो भगवान की भेजी हुई पत्नी मिल जाएगी। बस नाम भगवान का ही लेते रहना। कौन जाने वो बीवी के ही भेष में आ जाएँ, उनका क्या भरोसा?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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