संगठित धर्म और सनातन धर्म में भेद || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

4 min
213 reads
संगठित धर्म और सनातन धर्म में भेद || आचार्य प्रशांत (2017)

आचार्य प्रशांत: वो कहानी सुनी ही होगी, एक गाँव में एक फ़क़ीर रहता था, हम्म? तो पूजा के लिए बुलावा आए, अज़ान हो, और वो उपस्थित हो जाए। सालों से ऐसे ही चल रहा था, मान लो कि सौ-साल से ऐसा चल रहा था। एक दिन नमाज़ की ख़बर भेजी गई, अज़ान हुई, वो नहीं आया, लोगों ने कहा, “ये तो मर ही गया है। सौ सालों से आ रहा था, आज नहीं आया, और कोई कारण नहीं, मर गया ये।”

तो लोग दुखी होकर के उसके झोपड़े पर पहुँचे, मरा पड़ा होगा (ऐसा सोचकर)। वो वहाँ बैठकर रसगुल्ले खा रहा है। (यहाँ 'रसगुल्ले' अर्थात् व्यंग्य के संदर्भ में आचार्य जी कह रहे हैं) , अब ये सब चीजें हैं जो जोड़ने दिया करो, अच्छा लगता है। तो लोगों ने कहा, “बूढ़े आदमी, पूरे जन्म तूने जो पुण्य कमाया, आख़िरी वक़्त पर काहे गँवाता है उसको? तेरे मरने के दिन हैं, एक पाँव तेरा क़बर में, आया काहे नहीं? नमाज़ नहीं अदा करी।”

वो बोला, “हो गया, अब हो गया। जिसका बुलावा आता था, हमने उसका बुलावा स्वीकार कर लिया, उससे मिल गए। अब ये बुलावा हमारे लिए नहीं आ रहा, अब ये तुम्हारे लिए है। ये जो पाँच-वक़्त बुलाया जाता है, उनको ही तो बुलाया जाता है ना जो दूर होते हैं। अब मैं दूर रहकर क्या करूँगा? मैं सौ साल का हुआ, मेरी तो मिलने का यही मौका है, मैंने सिर झुका दिया, मैं फ़नाह हुआ। मैं गया, मैं मिल ही गया, मैं मिट गया, मुझे मरा ही मानो। अब मैं हूँ नहीं, तो मुझसे ख़फ़ा ना हो। मरे हुए से भी कोई ख़फ़ा होता है?”

धर्म की यात्रा पर एक बिंदु आता है जब धर्म का अतिक्रमण हो जाता है, आप धर्म को लाँघ जाते हैं, तब आप सनातन धर्म में प्रवेश करते हैं। उस धर्म में मात्र बहाव है, नाम नहीं है, मर्यादाएँ नहीं हैं, पूजा-अर्चना नहीं है, कुछ नहीं है; बस है, बस है। संगठित धर्म और सनातन धर्म में ये अंतर और ये संबंध है।

केंद्र पर कौन बैठा है? 'वो', जिसे 'सत्य' कहते हो, कि 'परमात्मा' कहते हो, कि 'ख़ुदा' कहते हो। और उसके बिल्कुल जो निकट उसकी आभा का क्षेत्र है, उसको कहते हैं - 'सनातन धर्म'। और दूर उससे जो धर्म के तमाम खोल हैं, वो हैं संगठित धर्म; वो सनातन धर्म से ही उपजते हैं लेकिन वो समय में होते हैं, तो वो मिट जाते हैं, उठते भी हैं।

उनका भी उपयोग है, ऐसा नहीं है कि वो व्यर्थ ही हैं।

समय-समय पर जैसे सनातन धर्म, संगठित धर्म के रूप में अवतरित होता है। लेकिन हर अवतार जन्म लेता है तो उसकी मृत्यु भी होती है; इसी तरह से संगठित धर्म की भी मृत्यु हो जानी चाहिए, उसका जन्म भी होना चाहिए और उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए।

आज की दुनिया के साथ तकलीफ़ ये है, विडंबना ये है, कि ये मुर्दों को ढो रही है; जो बहुत पहले मर गए, उनकी लाशें ढो रही है। आज ज़्यादातर जो संगठित धर्म हैं वो मुर्दा धर्म हैं; वो कभी अवतरित हुए थे और उन्हें बहुत पहले अब विदा हो जाना चाहिए था। वो विदा हुए नहीं, वो अभी-भी चले आ रहे हैं।

सनातन धर्म अकेला है जो चलता रहेगा। बाकियों को तो आना चाहिए, अपना किरदार निभाना चाहिए, और फिर चले जाना चाहिए।

दिक़्क़त तब होती है जब जिन्हें जाना चाहिए, वो जाने से इन्कार कर देते हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/UDsxne-eNY0

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles