सनातन धर्म की सच्चाई जानिए || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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सनातन धर्म की सच्चाई जानिए || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: सनातन धर्म का अर्थ क्या है?

आचार्य प्रशांत: सनातन कौन है, ये समझ लीजिए तो ये भी समझ जाएँगे कि सनातन धर्म क्या हुआ।

सनातन माने वो जो लगातार है; जो लगातार है। लगातार कौन है? लगातार प्रकृति है, अस्तित्व है न लगातार? तो माने प्रकृति है लगातार, और प्रकृति में जो अहम्-वृत्ति है, वो है लगातार। ठीक है? वो लगातार है; वो अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होती है अलग-अलग समय पर, पर है वो हमेशा। अस्तित्व का मतलब ही है प्रकृति, उसके रूप अलग-अलग बदलते रहते हैं समय के साथ, लेकिन उसकी मौजूदगी हमेशा रहती है। ठीक है?

और कैसी है वो अहम्-वृत्ति? वो प्यासी है, वो अशांत है, बेचैन है, उसी के लिए है धर्म; और किसी के लिए नहीं होता धर्म, उसी के लिए है धर्म। सारा धर्म अहंता के लिए ही होता है क्योंकि उसे ही किसी की खोज है, उसे ही कुछ पाना है, कहीं पहुँचना है। और उसे आदिकाल से, समय के पहले क्षण से ही कुछ चाहिए, जैसे समय की शुरुआत न हुई हो, एक बेचैनी की शुरुआत हुई हो; उसी बेचैनी का नाम है अहम्-वृत्ति, उसी के लिए धर्म है।

धर्म का अर्थ ही है वो सब-कुछ जो तड़पती हुई अहम्-वृत्ति को शांति तक पहुँचाए।

समझ में आ रही है बात?

तो सनातन है अहंता, तो सनातन धर्म हुआ अहंता को शांति तक पहुँचाना। माने? माने कि समय का कोई भी क्षण हो, इक्कीसवीं शताब्दी हो, भविष्य की पचासवीं शताब्दी हो, ईसा-पूर्व चालीसवीं शताब्दी हो; अंतर नहीं पड़ता कि समय के प्रवाह का कौन-सा क्षण है, भूत में है या भविष्य में है; उस क्षण में एक की मौजूदगी अवश्य ही होगी, किसकी मौजूदगी? अहम्-वृत्ति की, और जैसे उसकी मौजूदगी निरन्तर है, वैसे ही उसका धर्म भी निरन्तर है। निरन्तर माने जो बदलता नहीं; और उसके लिए क्या है धर्म निरन्तर? कि वो करो जो तुम्हें शांति तक ले जाता हो — इसको ही सनातन धर्म कहते हैं — वो करो जो तुम्हें शांति तक ले जाता हो। मात्र इसी बात को अटल मानो, मात्र इसी सिद्धान्त को स्थाई मानो, और किसी चीज़ को अटल मत मान लेना, और किसी चीज़ को अपरिवर्तनीय मत मान लेना। तो रूढ़ियाँ परिवर्तनशील हैं, बदल जाने दो।

मैं सनातन धर्म की बात कर रहा हूँ, कि क्या कहता है सनातन धर्म। सनातन धर्म को लेकर हमारे मन में बड़ी छवियाँ हैं, उन सब छवियों को त्यागिए। सनातन धर्म का जो मर्म है वो आपको समझा रहा हूँ। रूढ़ियाँ, परंपराएँ — ये सब परिवर्तनशील हैं, ये सनातन धर्म में नहीं आतीं, इन्हें तो समय के साथ बदलना होगा। एक समय था जब ये नहीं थीं, एक समय था जब ये हो गईं, फिर एक समय होगा जब ये नहीं रहेंगी, तो ये सनातन नहीं हो सकतीं।

सनातन तो वही चीज़ है जो लगातार है, और वो जो चीज़ जो लगातार है, उसकी प्यास भी लगातार है; उसकी प्यास को ही मिटाने का नाम सनातन धर्म है। एक सनातन तड़प हैं हम और उस सनातन तड़प की प्यास को मिटाने का नाम है सनातन धर्म।

कोई भी व्यक्ति हो, आज का हो, कल का हो, आने वाले कल का हो; स्त्री हो, पुरुष हो; इस देश का हो, उस देश का हो; युवा हो, वृद्ध हो; एक चीज़ उसमें निःसंदेह, निरन्तर साझी रहनी है — वो अशांत होगा, वो बेचैन होगा, वो अपूर्ण होगा, वो भ्रमित होगा, वो कुछ खोज रहा होगा; उसे पूर्णता तक पहुँचना है, उसकी तृष्णा को मिटना है, उसे स्पष्टता चाहिए, उसे बोध चाहिए। तुम कौन हो? तुम वही तड़प हो, उसी तड़प का नाम ‘मैं’ है। तुम्हें बोध की तरफ़ बढ़ना है, ये सनातन धर्म है। तुम्हें शांति की तरफ़ बढ़ना है लगातार, ये सनातन धर्म है। और मात्र यही सनातन है, और किसी चीज़ को सनातन मत मान लेना। हमने उन सब चीज़ों को सनातन बना दिया जो सनातन हैं ही नहीं। संस्कृति के कुछ तत्व हुए — हमने कह दिया, “ये सनातन हैं," वो सनातन कैसे हो गए? आचार-विचार, व्यवहार की कुछ बातें हो गईं, हमने कहना शुरू कर दिया कि ये सनातन हैं; वो सनातन नहीं हो गए। और चूँकि तुमने परिवर्तनशील चीज़ों को सनातन समझ लिया, इसीलिए जो सनातन है उसको तुम न जाने कहाँ भूल आए। समझ में आ रही है बात?

सनातन धर्म का अर्थ है — सब-कुछ छोड़ो, सत्य को तलाशो। क्योंकि सत्य के प्रति मेरी चाहत, मेरी तड़प, मात्र वही तो सनातन है; बाकी किसी बात की परवाह मुझे करनी नहीं, मुझे सच्चाई चाहिए, मुझे रोशनी चाहिए, सिर्फ़ यही बात सनातन है — इसको सनातन धर्म कहते हैं।

सिद्धान्तों की, संप्रदायों की, पंथों की, मज़हबों की लहरें एक के बाद एक उठेंगी, आती रहेंगी, जाती रहेंगी। न जाने कितने संप्रदाय आए और विलुप्त हो गए, न जाने कितने नाम बने, विस्तार लिये और फिर मिट गए — वो सनातन नहीं थे। उन नामों से आसक्त मत हो जाना, उन नामों में कोई चीज़ ऐसी नहीं है जो लंबी चले; और जिस चीज़ को लंबा चलना नहीं चाहिए, तुम उसे व्यर्थ ही लंबा खींचोगे तो अपने और दूसरों के लिए दुख के कारण बनोगे। जो सनातन है, बस उसे याद रखो, और उसके साथ बने रहो, उसके प्रति अपने दायित्व की पूर्ति करो, निर्वाह करो — ये सनातन धर्म है। और इसीलिए सनातन धर्म कभी मिट नहीं सकता, क्यों नहीं मिट सकता? क्योंकि जब तक इंसान है तब तक इंसान की वेदना है, और जब तक इंसान की वेदना है, सनातन धर्म है।

समझ में आ रही है बात?

तो सनातन धर्म इसीलिए कोई वेदों के साथ नहीं शुरू हुआ है, वो वेदों से भी पहले है। सनातन धर्म उस दिन से शुरू हो गया जिस दिन चेतना ने पहली बार आँखें खोली थीं। और कल को बिलकुल ऐसा हो सकता है — इतनी चीज़ें हुई हैं इतिहास में विचित्र, ये भी हो सकता है कि लोग वेदों को मानने से भी इंकार कर दें, लेकिन सनातन धर्म तब भी रहेगा। समझ में आ रही है बात?

बिलकुल ऐसा हो सकता है कि कोई भीषण दुर्घटना हो जाए, कोई बड़ा भारी पिंड आ कर के भारत-भूमि पर गिरे, या कोई घोर नरसंहार हो जाए, और किसी हिंदू का अस्तित्व न बचे, लेकिन सनातन धर्म तब भी रहेगा। यही सौंदर्य है सनातन धर्म का, वो किसी इंसान ने नहीं बनाया इसीलिए वो मिट नहीं सकता। आप ये नहीं कह सकते कि फलाना व्यक्ति आया था और उस व्यक्ति के आने के साथ सनातन धर्म की शुरुआत हुई। किसी व्यक्ति से अगर शुरू हुआ होता सनातन धर्म, तो किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा मिटाया भी जा सकता था। किसी काल में, किन्हीं ख़ास परिस्थितियों में अगर शुरू हुआ होता सनातन धर्म, तो किसी दूसरे काल में, किन्हीं दूसरी परिस्थितियों में मिट भी सकता था। पर सनातन धर्म न किसी व्यक्ति का शुरू किया हुआ है, न किसी परिस्थिति का शुरू किया हुआ है, न कोई व्यक्ति उसे कभी ख़त्म कर पाएगा, न कोई परिस्थिति उसे कभी ख़त्म कर पाएगी।

सनातन धर्म को जो मिटाने भी आएगा, उस मिटाने वाले के भीतर भी तो एक सनातन-प्यास कराह रही है न, तो सनातन धर्म कैसे मिट जाएगा? तुम जिस सनातन धर्म को मिटाने की कोशिश कर रहे हो, वो तुम्हारे भी भीतर मौजूद है, मिटाने वाले के भी भीतर मौजूद है, तुम उसे मिटा कैसे दोगे?

प्र२: आचार्य जी, क्या एक मुसलमान या ईसाई भी सनातनी हो सकता है?

आचार्य: उसके लिए उसे सच्चे तौर पर धार्मिक होना होगा। आप ये कहो कि “कोई भी आम-मतावलम्बी क्या सनातनी है?” तो नहीं, बिलकुल नहीं, बिलकुल भी नहीं। ठीक है?

सनातनी होने के लिए आपको एक शिखर पर होना पड़ता है। शिखर वो जगह है जहाँ पर आकर के सारी राहें मिल जाती हैं। किसी पर्वत पर चढ़ने के बहुत सारे रास्ते हो सकते हैं, ठीक है? कौनसी जगह है जहाँ वो सारे रास्ते मिल जाने हैं? शिखर, चोटी। तो सनातनी होना कोई हल्की-फुल्की बात नहीं है। सनातनी होने का मतलब होता है कि आपने धर्म के जितने भी निम्नतर आयाम थे वो त्याग दिये, अब आपको बस उससे प्रयोजन है, उससे मतलब है जो सनातन है। वो सब-कुछ जो कालबद्ध था, वो सब-कुछ जो परिस्थिति और स्थान-बद्ध था, आपने छोड़ दिया, आपने कहा, "ये सब मेरा धर्म नहीं है।" जो चीज़ें यूँही परम्परा से आयीं या स्थान से आयीं कि “भई, इस जगह पर इस तरह की परम्परा का पालन होता है,” उन सब चीज़ों को धीरे-धीरे त्यागते हुए जब आपको अर्थ सिर्फ़ सच्चाई की खोज से रह गया, तो आप सनातनी हो गए।

अब जब सिर्फ़ आपको सच्चाई की खोज से ही मतलब रह गया, तो फिर आपके ऊपर जो भी धार्मिक लेबल चिपके हुए थे, वो अर्थहीन हो गए न? बात समझ रहे हो? “क्या फ़र्क पड़ता है कि मैं कौन-से पंथ की दिशा से आ रहा हूँ, अब मुझे अपने पंथ से भी मतलब नहीं है, मुझे सिर्फ़ सत्य से मतलब है।" जिसको अब अपने पंथ से नहीं, मात्र सत्य से मतलब रह गया, वो सनातनी हो गया।

ज़्यादातर लोग जो अपनेआप को धार्मिक कहते हैं, उन्हें सच से ज़्यादा अपने तथाकथित धर्म से मतलब होता है; धर्म माने धार्मिक रीति-रिवाज़, रूढ़ियाँ वग़ैरहा। ऐसे लोग सनातनी बिलकुल भी नहीं हैं। सनातनी वो जिसे बस उससे मतलब है जो सनातन है। कोई रीति-रिवाज़, परम्परा, वेश-भूषा सनातन नहीं होती न, क्योंकि वो काल-जनित है, वो समय में उठी थी; कभी किसी समय में उठी थी और कभी किसी समय में उसे समाप्त हो जाना है तो वो सनातन नहीं है।

जिन लोगों को इन सब चीज़ों से बहुत मतलब है, कि “भाई, हम इस धर्म के हैं तो हम ऐसा पहनावा पहनते हैं, ऐसा खाते हैं, ऐसा पीते हैं, ऐसी भाषा बोलते हैं और इस तरह की मान्यता करते हैं, ऐसी कहानियों में विश्वास रखते हैं,” ये लोग सनातनी नहीं हो सकते। सनातनी वो है जिसे अब ये किस्से-कहानियों, रीति-रिवाज़ों, रूढ़ियों से मतलब नहीं; वो तो कहता है, "मुझे अब मात्र सत्य चाहिए, ब्रह्म चाहिए, मुझे तो आत्मा का साक्षात्कार करना है;” वो अब सनातनी हुआ।

प्र२: इतिहास में ऐसे कई व्यक्ति रहे हैं जो जीवन की ऊँचाइयों को छू पाए, जिन्होंने जो भी किया, बहुत अच्छे से किया। उदाहरण के तौर पर भगतसिंह, उन्होंने ख़ुद को खुले तौर पर एक नास्तिक कहा। तो क्या एक नास्तिक भी सनातनी हो सकता है?

आचार्य: देखो, जब ‘आस्तिक’ और ‘नास्तिक’ कहा जाता है तो वहाँ पर सत्य की सत्ता से स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया जाता। आस्तिक कहता है, “मुझे ईश्वर में विश्वास है,” नास्तिक कहता है, “मुझे ईश्वर में विश्वास नहीं है।" तो आस्तिकता और नास्तिकता, इन दोनों का वैसे ही सत्य से कोई संबंध नहीं है भाई! सत्य का ईश्वर से क्या लेना-देना? सत्य का ईश्वर से क्या लेना-देना है?

और अगर तुम सुनोगे वेदांत की तो वेदांत में तो ईश्वर और माया में बहुत भेद नहीं। भई! ब्रह्म, आत्मा, सत्य — ये एक बात हैं और इनका कोई भी संबंध ईश्वर से नहीं है, या भगवान से नहीं है। और आस्तिकता और नास्तिकता का संबंध ईश्वर या भगवान से है। तो कोई बिलकुल ब्रह्म-परायण हो सकता है, सत्य-परायण हो सकता है, नास्तिक होते हुए भी। कोई ऐसा बिलकुल हो सकता है जो कहे कि “मुझे ईश्वर में कोई विश्वास नहीं, पर मैं सत्य का प्रेमी हूँ,” बिलकुल ठीक है, कोई बात नहीं!

इसीलिए जो परम्परा रही है भारत में, उसमें ऑर्थोडॉक्स (रूढ़िवादी), हेटरडाक्स (विधर्मिक), दोनों का स्थान रहा है न? अनीश्वरवादियों के लिए भी स्थान रहा है कि नहीं रहा है? क्यों रहा है? इसीलिए, क्योंकि धर्म का वास्तव में सम्बंध ईश्वर से है ही नहीं! तो इसीलिए धार्मिक परम्परा में वो लोग भी शामिल हो सकते हैं जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते; क्योंकि आप ईश्वर में विश्वास करें, न करें, सत्य से तो प्रेम है न आपको? तो आइए, आपका धर्म में स्वागत है।

धर्म में उनके लिए भी जगह है जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं और उनके लिए भी जगह है जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखते। तो भगतसिंह भले ही ईश्वर में विश्वास नहीं रखते थे, पर वो गहरे तौर पर आध्यात्मिक व्यक्ति थे।

समझ में आ रही है बात?

प्र२: अगर धर्म सनातन सत्य को एक इंसान के लिए फैसिलिटेट करने के लिए या जीवन में व्यावहारिक रूप से उतारने के लिए काम आना चाहिए आदर्श रूप में, पर वो काम नहीं आ रहा है तो धर्म का त्याग कर देना सही है?

आचार्य: नहीं, धर्म का त्याग तुम कैसे कर दोगे जब तुम्हें अभी धर्म की ज़रूरत है? धर्म का त्याग कर दोगे तो जाओगे कहाँ? तुम वो हो जिसे कुछ चाहिए जिसके माध्यम से वो सत्य तक पहुँच सके, उसे धर्म कहते हैं। धर्म वो माध्यम है जो व्याकुल मन को शीतल सत्य तक पहुँचाता है। तुमने ग़लत माध्यम चुन रखा हो या माध्यम का तुम ग़लत इस्तेमाल कर रहे हो तो ये तुम्हारी भूल है, पर तुम कहो कि “मैं माध्यम का इस्तेमाल करूँगा ही नहीं, मैं माध्यम का त्याग कर दूँगा,” तो तुम जाओगे कहाँ?

प्र२: आचार्य जी, जैसे समाज में हम रहते हैं, धर्म अगर एक माध्यम है सत्य तक पहुँचने का तो धर्म को बदलना इतना आसान नहीं होता है।

आचार्य: नहीं, तुमसे कौन कह रहा है कि तुम जाकर के सार्वजनिक धर्म को बदलो? धर्म तो सर्वप्रथम तुम्हारे व्यक्तिगत प्रयोजन की चीज़ है न? तुम्हारे मन में धर्म को लेकर के स्पष्टता आ जाए, शुरुआत करने के लिए इतना बहुत है। तुम जान जाओ कि सत्य तक ले जाने के लिए तुमको एक साफ़-सुथरा, शुद्ध-धर्म चाहिए तो उससे तुम्हारी यात्रा सुचारू रूप से हो जाएगी। तुमने ही अगर धर्म का कोई विकृत, अशुद्ध, भ्रष्ट संस्करण पकड़ रखा हो तो इसमें धर्म की क्या ग़लती है? और फिर तुम कहो, “नहीं, मैं धर्म को ही त्याग दूँगा।"

ये ऐसी-सी बात है कि एकदम गंदी थाली हो और उस पर सैंकड़ों सालों का जूठन चिपका हुआ हो और उसमें तमाम तरीक़े की फंगस और बैक्टीरिया, सब लग गए हैं; ऐसी थाली है। उस थाली पर तुम खाना खाओ — खाना ताज़ा है — उस थाली पर तुम खाना खाओ और बीमार पड़ जाओ तो तुम बोलो, “मैं तो भोजन का ही त्याग कर दूँगा।" भोजन ख़राब था या तुम्हारी थाली? अब बरसों पुरानी होने के कारण कभी सफ़ाई न पाने के कारण एकदम गंदी हो चुकी है, उसमें शताब्दियों का जूठन चिपका हुआ है, बोलो? जवाब दो? पर थाली साफ़ करने की जगह तुम कह रहे हो, “मैं तो भोजन का ही त्याग कर दूँगा,” जियोगे कैसे?

प्र२: समाज इतना प्रोग्रेसिव (प्रगतिशील) तो नहीं है आचार्य जी कि थाली एकदम-से बदली जा सके।

आचार्य: तुमसे कौन कह रहा है, “समाज की थाली बदलो,” मैं तुमसे तुम्हारी थाली बदलने की बात कर रहा हूँ भाई!

प्र२: तो अगर किसी को ये एक्सिडेंटली (अकस्मात) दिखे कि “जो धर्म बचपन से मुझे मिल गया है, वो मुझे सनातन सत्य की तरफ़ नहीं ले जा रहा है, रूढ़ियों में फाँस रहा है,” तो उसे अपना धर्म बदल लेना चाहिए?

आचार्य: यही धर्म है!

(प्रेमपूर्वक हँसते हुए) धर्म की निरन्तर सफ़ाई करते रहना ही तो धर्म है, पागल! उस थाली को निरन्तर साफ़ करते रहना ही तो धर्म है।

सनातन धर्म कालातीत है, ठीक है? और जिस धर्म का तुम व्यवहार करते हो, वो काल-सापेक्ष है। काल-सापेक्ष जो धर्म है, वो कालातीत धर्म से बिलकुल मेल में रहे, सिंक में रहे, इसके लिए ये जो काल-सापेक्ष धर्म है, इसकी बार-बार सफ़ाई करनी पड़ेगी। हर दशक में, या हर शताब्दी में तुम्हें लोग चाहिए होंगे जो धर्म में जमी हुई मैल को, रूढ़ियों को, अंधविश्वासों को, उन सब चीज़ों को हटाते चलें जो तिथिबाह्य हो गयी हैं, जिनका अब कोई उपयोग बचा नहीं है।

धर्म निरन्तर वैसी सफ़ाई माँगेगा; सनातन धर्म नहीं, कौन-सा धर्म? काल-सापेक्ष धर्म। वो धर्म जो विवृत है, जिसको तुम व्यवहार में लाते हो, जिसको तुम प्रैक्टिस (अभ्यास) करते हो, उसको तो लगातार सफ़ाई चाहिए ही होगी। जब धर्म की लगातार सफ़ाई होती रहती है, तो धर्म सनातन धर्म बना रहता है। जब धर्म की लगातार सफ़ाई नहीं होती, तो वो जो तुम्हारा प्रेक्टिस्ड -धर्म है, विवृत-धर्म है और सनातन धर्म जो है, इन दोनों में बड़ा अंतर पैदा हो जाता है।

प्र२: आचार्य जी, अगर सारे काल-सापेक्ष धर्म, कालातीत सनातन सत्य की ओर ही ले जा रहे हैं, तो एक धर्म फिर दूसरे धर्म से लड़ता क्यों है?

आचार्य: क्योंकि एक गंदगी दूसरी गंदगी से लड़ती है। नहीं तो अगर दो लोग हैं, और दोनों को शिखर की ओर ही जाना है; दो हैं, दोनों को शिखर की ओर ही जाना है तो दोनों को समय और ऊर्जा कहाँ से मिल जाएगी आपस में झगड़ने की?

समझ में आ रही है बात?

धर्म वही अच्छा है जो शिखर की ओर ले जाए।

धर्म अगर तुमको और पचास तरीक़े की बातें बताता है, फ़ालतू के सिद्धांतों में उलझा कर रखता है, तो ये धर्म तुमको मुक्ति की ओर, आत्मा की ओर नहीं ले जा रहा, ये धर्म तुमको और बन्धनों की ओर ले जा रहा है।

प्र२: आचार्य जी, जिद्दू कृष्णमूर्ति ने जवानी में ही ये घोषणा कर दी थी कि सनातन सत्य तक पहुँचने के लिए काल-सापेक्ष धर्म की ज़रूरत नहीं है, "ट्रुथ इज़ अ पाथलेस लैंड।" और आपको हम जितना सुनते हैं, समझते हैं, उसमें ये बात आती है, कि “हाँ, आपको — जो आप हो — आपको सहारे की ज़रूरत है। अपने व्यावहारिक जीवन में काल-सापेक्ष धर्म आपके लिए अनिवार्य है।" तो आपमें और कृष्णमूर्ति में इस मुद्दे पर..?

आचार्य: परिभाषा बस का अंतर है। जब वो कह रहे हैं, “काल-सापेक्ष धर्म की ज़रूरत नहीं,” तो वो कह रहे हैं, “थाली पर जो जूठन जमा हुआ है, उसकी ज़रूरत नहीं है।" बाकी थाली, शुद्ध-थाली तो ख़ुद उन्होंने भी परोसी थी। जो उन्होंने परोसा है, उसी को तो तुम मेरे सामने पेश कर रहे हो। ये जो तुम बात उद्धृत कर रहे हो, ये कृष्णमूर्ति की परोसी हुई थाली ही तो है!

अगर किसी माध्यम की ज़रूरत नहीं थी तो कृष्णमूर्ति क्यों परोसते थे अपने वक्तव्य सब को? वो भी तो एक माध्यम ही दे रहे थे न तुमको? जैसे— शास्त्रों में वक्तव्य होते हैं, धार्मिक-शास्त्रों में क्या होते हैं? वक्तव्य ही तो होते हैं, वैसे ही कृष्णमूर्ति भी वक्तव्य देते थे। तो परोसा तो उन्होंने भी है। पर जब वो कह रहे थे, कि “तुमको ज़रूरत नहीं है थाली की," तो उससे उनका आशय ये था कि “तुम्हें ज़रूरत नहीं है थाली में चिपके हुए जूठन की। ये जो पुराना, सदियों पुराना जूठन चिपका हुआ है थाली में, इसको खा कर के तुम कहीं नहीं पहुँचने वाले। तो हटाओ इसको!”

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=GAQtcSaAcp8

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