प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन के सुपुत्र जो हैं, उनकी ओर से सनातन धर्म पर एक टिप्पणी आयी है, जिसने ट्विटर पर सबको हिला दिया और भारत में फिर से एक विवाद जाग चुका है। सब जानना चाहते हैं कि सनातन धर्म क्या है। एक ऐसा विषय जिस पर आप बहुत बार पहले बोल चुके हैं, उस पर फिर से बातचीत करने का मौक़ा है।
आचार्य प्रशांत: हाँ, देखा मैंने। देखिए, नाम से ही स्पष्ट होना चाहिए कि सनातन धर्म क्या है। धर्म का अर्थ होता है — वो जो धारण करने योग्य है और वो कर्म जो करने योग्य है। तो धर्म, बहुत मोटे तौर पर कहें तो, एक तरह का कर्तव्य है, ज़िम्मेदारी है। अब हमारे जो कर्तव्य हैं वो तो दिन-प्रतिदिन स्थिति के अनुसार और समय के अनुसार और सन्दर्भ के अनुसार बदलते रहते हैं। आप अभी यहाँ पर बैठे हैं तो आपका एक कर्तव्य है, आप कहीं बाहर हैं तो आपका कर्तव्य दूसरा होगा। इन सब कर्तव्यों को एक मोटे तौर पर धर्म कहा जा सकता है, कि जिस समय आपका जो कर्तव्य है उसको करना।
तो सनातन धर्म कौनसा है? वो कौनसी ज़िम्मेदारी है जो आपको सदा ही पूरी करनी है? ये जानने के लिए ज़रूरी होगा समझना कि वो कौनसी स्थिति है जिसमें हम हमेशा रहते ही हैं। क्योंकि बाक़ी सब जो-जो हमारी स्थितियाँ हैं वो तो बदलती रहती हैं। आप अभी जिस स्थिति में हो, थोड़ी देर बाद उस स्थिति में नहीं रहोगे। तो वो कौनसी स्थिति है जो सदा एक सी रहती है? जब हम उसको जान लेंगे जो हमारे भीतर कभी बदलता नहीं है, कोई एक स्थिति है जो लगातार बनी रहती है तो फिर हम ये भी जान लेंगे कि सनातन धर्म क्या होता है। अगर हम अपनी आन्तरिक सनातन स्थिति जान लेंगे तो फिर हम ये भी जान लेंगे कि सनातन धर्म क्या होता है।
हमारी सनातन स्थिति क्या है? हमारी सनातन स्थिति बेचैनी की है। हर आदमी बेचैन है, और सदा से बेचैन था। इसी तरीक़े से और कौनसी चीज़ें हैं जिनको आप देखो तो पाओ कि पहले जैसी थी आज भी वैसी ही हैं, और भारत में जैसी हैं वैसी ही अमेरिका में हैं, अफ्रीका में हैं, चीन में हैं, और कौनसी चीज़ें हैं? एक तो मैंने कहा कि हर आदमी बेचैन है, और कौनसी?
प्र: डर।
आचार्य: हर आदमी डरा हुआ है, और जब मैं आदमी कह रहा हूँ तो उसमें स्त्री-पुरुष दोनों आते हैं, युवा भी आते हैं और वृद्ध भी आते हैं, ठीक है? अमीर-ग़रीब सब आते हैं। तो हर आदमी बेचैन है, हर आदमी डरा हुआ है। हर आदमी डरा हुआ था तब भी, आज से दस-हज़ार साल पहले, पाँच-हज़ार साल पहले भी डरा हुआ था, आज भी डरा हुआ है।
और डर, हम पाते हैं कि हर नया बच्चा जो पैदा हो रहा है उसमें भी होता है। वही बात बेचैनी पर लागू होती है। नहीं निर्भर करता कि आप कहाँ के हो और आप किस विचारधारा के हो और किस धर्म के हो, क्या मानते हो, क्या नहीं मानते, आप बेचैन तो रहते ही हो। और कौनसी चीज़ें हैं?
प्र: लालच।
आचार्य: लालच हर एक में होता है। तो ये जो डर है, भ्रम है, लालच है, अज्ञान है, इन सबको कुल मिलाकर के एक ही कोई नाम दे देना उचित रहेगा कि ये मन की सनातन स्थिति रहती है। ठीक है? उसका नाम यही दे दीजिए — बन्धन। तो मन हमेशा मनुष्य का बन्धन में रहा है।
ये जैसे मनुष्य की परिभाषा ही है कि वो जो सदैव मानसिक रूप से बन्धन में ही रहता है। कोई काल हो, कोई देश हो, कोई स्थिति हो, कोई सन्दर्भ हो, मनुष्य सदैव भीतरी तौर पर प्रति क्षण बन्धन में ही रहता है। तो अब यहाँ से स्पष्ट होगा कि सनातन धर्म क्या है। फिर सनातन धर्म है अपने अज्ञान को हटाना और अपनेआप को बन्धन मुक्त करना। मात्र यही सनातन धर्म है।
मन अशान्त है, उसको शान्ति की ओर ले जाना सनातन धर्म है क्योंकि मन की अशान्ति जीव के अस्तित्व में निहित है। वो अशान्ति ऐसी चीज़ नहीं है कि किसी कारण से आपको मिल गयी। हमें कई बार लगता है कि हम किसी वजह से अशान्त हैं। नहीं, वो वजह ऊपरी है, हमारी पूरी संरचना ऐसी है कि हम अशान्त ही पैदा होते हैं और अशान्त ही मरते हैं।
तो जीव अशान्त है, उसको शान्ति की ओर ले जाना सनातन धर्म है। मन अन्धेरे में है, उसको प्रकाश दिखाना सनातन धर्म है। मन हिंसक है और मन डरा हुआ है, तो मन को प्रेम सिखाना और मन को निर्भय बनाना सनातन धर्म है। तो इन सारी ही बातों के लिए मैंने कहा कि कुल मिलाकर एक बात कह देते हैं कि मन को बन्धन-मुक्त करना ही सनातन धर्म है, बस इतना ही है सनातन धर्म।
तो आप कहेंगे कि ये तो आपने बहुत आसान कर दिया कि मन को बन्धन मुक्त करना सनातन धर्म है। नहीं, अब जब आप इसमें देखेंगे कि क्या-क्या नहीं है सनातन धर्म, तब वहाँ से चुनौती शुरू होती है। अगर मन को बन्धन मुक्त करना या मन के अज्ञान को ज्ञान से काटना सनातन धर्म है तो बाक़ी सबकुछ जो हम सनातन धर्म के नाम पर करते हैं, वो सनातन धर्म तो नहीं हो सकता, उसमें कुछ भी सनातन नहीं है। उसमें कुछ भी सनातन नहीं है।
तो सनातन धर्म बहुत साफ़-सुथरी, सीधी चीज़ है और निर्विवाद चीज़ है। उसके साथ आप क्या तर्क करेंगे! उसके साथ कोई बहस सफल नहीं हो सकती, वो चीज़ बिलकुल इतनी स्पष्ट है, इतनी प्रत्यक्ष है कि उसको काटा नहीं जा सकता। कि हाँ, हर व्यक्ति बेचैनी में है, उन्माद में है और अज्ञान में है, हमको उसको हटाना है और यही चीज़ सनातन धर्म है, बस इतना ही है।
प्र: आपने जो परिभाषा दी सनातन धर्म की, वो बड़ी मनोवैज्ञानिक है, आप उसमें मन को केन्द्र में रख रहे हैं और एक विज्ञान बता रहे हैं जिससे मन शान्ति की ओर बढ़ सके। जो आपको सुनते हैं, जिन्हें आपके कोर्सेज़ , आपकी पुस्तकों का अनुभव है, जो गहराई में उतरे हैं वो इस बात को समझ जाएँगे। पर जब मैं ट्विटर पर इस शब्द का इस्तेमाल होते देखता हूँ, जब मैं चैट जीपीटी से इस टर्म (शब्द) का मतलब पूछता हूँ, तो जो मुझे जवाब मिलता है वो आपकी परिभाषा से बहुत दूर का है।
आचार्य: हाँ, तो वहाँ पर एक बहुत मूल ग़लती हो रही है न। आपने एक शब्द उठा लिया है और आप उस शब्द का मनचाहे तरीक़े से इस्तेमाल कर रहे हो। और चूँकि ज़्यादातर लोग अब उस शब्द का ग़लत इस्तेमाल ही करने लगे हैं तो उनका दावा ये है कि हमारे बहुमत के चलते इस शब्द को अर्थ और परिभाषा भी वही दे दिये जाने चाहिए जैसे हमने दे दिये हैं। ऐसे तो ये बात बिलकुल भी ठीक नहीं है।
प्र: आचार्य जी, आपकी सनातन धर्म की जो परिभाषा है — आई माइट साउंड कॉन्ट्रोवर्शियल (हो सकता है मेरी बात सुनने में विवादित लगे) — उस परिभाषा के अनुसार तो एक मुस्लिम, ईसाई, यहूदी सभी सनातनी हो सकते हैं?
आचार्य: सभी हो सकते हैं। और आवश्यक नहीं है कि जो अपनेआप को हिन्दू कहता है वो सनातनी हो ही। एक अवसर पर मैंने कहा था कि भारत में शायद हज़ार हिन्दू भी नहीं हैं।
देखिए, हर वो इंसान जो आत्मज्ञान की जिज्ञासा रखता है और मुक्ति के प्रति लालायित है, उसको सनातनी माना जाना चाहिए। और जो व्यक्ति भले ही अपनेआप को किसी भी धर्म का बोलता हो लेकिन उसमें न आत्मज्ञान के प्रति कोई झुकाव है, न लगाव है, न मुक्ति की उसको चाहत है, उसको हम नहीं कह सकते कि वो सनातन धर्म का पालन कर रहा है, क्योंकि सनातन धर्म तो यही है कि तुम बन्धन में हो, मुक्ति की ओर बढ़ो। जो मुक्ति की ओर बढ़ ही नहीं रहा, उसको कैसे कह दें कि वो सनातन धर्म का पालन कर रहा है!
प्र: ये जो सनातनी इटरनल (शाश्वत) ज़िम्मेदारी है चेतना की, इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए ऑर्गेनाइज़्ड डोगमेटिक रिलीजन (नियमबद्ध तरीक़े से चलने वाला धर्म) ही क्यों ज़रूरी है? कोई विज्ञान के माध्यम से, कोई कला के माध्यम से ये ज़िम्मेदारी पूरी नहीं कर सकता क्या?
आचार्य: देखिए, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। आमतौर पर जब आप शब्द कहते हैं 'रिलीजन', ये पश्चिम का शब्द है रिलीजन , उसका सीधे-सीधे अर्थ 'धर्म' भी नहीं होता है। तो रिलीजन से आशय होता है सबसे पहले एक मान्यता, उस मान्यता में अक्सर कोई ईश्वर शामिल होता है, हालाँकि कुछ अनीश्वरवादी भी रिलीजन्स होते हैं। तो सबसे पहले एक मान्यता आती है और उस मान्यता के बाद अक्सर एक किताब आती है और उस किताब के बाद उसका कर्मकांड वगैरह आता है, ठीक है?
प्र: जी।
आचार्य: तो इसको हम आमतौर पर रिलीजन बोल देते हैं — मान्यता, किताब और रीति-रिवाज़, कर्मकांड, ये सब। तो बिलकुल भी ज़रूरी नहीं है कि सनातनी होने के लिए आप कोई मान्यता रखो और सनातनी होने के लिए आप किसी एक विशिष्ट पुस्तक को सही बोलो और बाक़ी सब पुस्तकों को आप घोषित कर दो कि ये तो एकदम ग़लत हैं और अधार्मिक पुस्तकें हैं। किसी एक तरह के कर्मकांड करके तो आप सनातनी बिलकुल भी नहीं हो जाते।
इसके विपरीत अब आप देखिएगा, सुनने में कैसा लगेगा, कई लोगों को हो सकता है अच्छा न लगे। सनातनी होने का अर्थ है मन के बन्धन को चुनौती देना, ठीक है? बिलकुल जो मूल परिभाषा है, उससे हम चिपककर चलेंगे, उसको पकड़ कर चलेंगे। तो मन का मूल बन्धन, जिन्होंने जाना है उन ज्ञानियों ने और विद्वानों ने हमें बोला है, मन का बन्धन मान्यता ही है। मन का मूल बन्धन मान्यता है। मन से सम्बन्धित दो शब्द कहे गये हैं जो कि मन की बीमारी होते हैं, मन का बन्धन होते हैं। मन से सम्बन्धित पहला शब्द है 'मान', वो भी मन जैसा सुनाई देता है। और दूसरा शब्द है 'मत'। मन जो कुछ भी मानता है, बिलीफ़ , और मन जो भी मत रखता है, ओपिनियन , यही मन का बन्धन है।
तो जो सच्चा सनातनी है उसका एक बड़े-से-बड़ा लक्षण तो ये है कि वो सब मान्यताओं को और मतों को चुनौती देता चलेगा। सब माने दूसरों के नहीं, पड़ोसी के नहीं, किसी और को नहीं कि वो अधर्मी है तो मैं उसकी मान्यता को चुनौती दूँगा।
सनातनी की परिभाषा ही यही है कि वो सबसे पहले अपनी मान्यता और अपने मत को चुनौती देगा, क्योंकि उसका लक्ष्य क्या है? उसका लक्ष्य है मुक्ति। जिसका लक्ष्य मुक्ति है और जो पूरी भीतरी आज़ादी का बहुत बड़ा प्रेमी है, सिर्फ़ उसको ही सनातनी कह सकते हैं। और भीतरी बन्धन ही यही हैं — मान्यता और मत। तो वो लगातार अपनी ही मान्यताओं को और मतों को चुनौती देगा, 'मैं फ़लानी बात में विश्वास रखता हूँ, मैं क्यों रखता हूँ? ये सब मेरी आस्था वगैरह है, ये कहाँ से आ रही है?' तो वो इन सबको चुनौती देता चलेगा।
जो रिलीजन वाली बात है वो तो सनातन धर्म के साथ लागू करना ही बड़ी मुश्किल है, क्योंकि रिलीजन की बुनियाद में बिलीफ़ बैठी है। रिलीजन की बुनियाद में बिलीफ़ बैठी है और सनातन धर्म की बुनियाद में जिज्ञासा बैठी है। रिलीजन तभी है जब आप विश्वास करो, आपको कुछ कहानी दे दी गयी है, कुछ बता दिया गया है और आपसे कहा जाता है इस बात को मानो और आप इस बात को मानने से इनकार कर दें तो आपको कह दिया जाता है कि अब आप इस रिलीजन के नहीं हो सकते हो। ये चीज़ रिलीजन की होती है।
और सनातन धर्म का मतलब होता है 'कुछ नहीं मानूँगा और जो कुछ मानता आया हूँ उसकी जाँच-पड़ताल करूँगा, उसका अन्वेषण करूँगा, उसको ठोक-बजाकर देखूँगा।’ जिज्ञासा! जिज्ञासा सबसे केन्द्रीय शब्द है सनातन धर्म का कि मैं जानना चाहता हूँ कि क्या चल रहा है। तो इसीलिए सनातन का और एक आयोजित रिलीजन का, ऑर्गेनाइज़्ड रिलीजन का साथ चलना कोई बहुत आसान बात नहीं है। सनातन के साथ क्या चल सकता है? सनातन के साथ चल सकता है एक ऐसा माहौल, एक ऐसी संस्कृति जो लगातार जानने को सबसे ज़्यादा मूल्य देती हो। जो लगातार जानने को सबसे ज़्यादा मूल्य देती हो।
तो बच्चा आपके घर में है, बच्चा बड़ा हो और आप उससे कह रहे हैं, 'ऐसे नहीं, ऐसे है। कुछ भी मत मान लो, जाओ परखो, प्रयोग करो, परीक्षण करो।' और फिर जो चीज़ सामने आये उसको भी यही कहो कि ये चीज़ अभी सामने आयी है, आज ठीक लग रही है, कल ग़लत लग सकती है। या मुझे मेरी एक मानसिक स्थिति में ये बात ठीक लग रही है, ऐसा भी हो सकता है कि मेरी मानसिक स्थिति बदले और मुझे भी ये बात ग़लत लगने लगे।
तो एक अनुकूल माहौल तो ज़रूर चलेगा सनातन धर्म के साथ, वो माहौल अगर नहीं है तो आपको सनातनी होने में बड़ी दिक्क़त आएगी। वो माहौल, मैंने कहा, परीक्षण का और प्रयोग का और प्रश्न का है। और इसीलिए मैं कहता हूँ कि आज सनातनी होना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि न परीक्षण को हम मूल्य देते हैं, न प्रयोग को, न प्रश्न को। लेकिन आप कहें कि सनातनी होने के साथ कुछ रीति-रिवाज़ बाँध दो तो बड़ा मुश्किल है। आप कहें सनातनी होने के साथ मान्यताएँ बाँध दो और कई तरह की आस्थाओं और विश्वासों को बाँध दो तो बड़ा मुश्किल है।
प्र: एक सनातनी व्यक्ति की और एक ऐसे माहौल की जिसमें सनातन प्रक्रिया अपना फैलाव ले सके, उसकी जो आप छवि गढ़ रहे हैं, वो छवि बड़ी ऐसी मालूम हो रही है कि जैसे उसमें विज्ञान है, दर्शनशास्त्र है, मनोविज्ञान है और जो रिलीजन है वो बड़ा कम दिख रहा है, यहाँ पर रीति-रिवाज़ बड़े कम दिख रहे हैं।
आचार्य: तो रिलीजन तो कभी भी भारतीय चीज़ रहा भी नहीं है न! रिलीजन की जो पूरी बात है वो भारतीय है ही नहीं। ये अलग बात है कि अब भारतीय भी अपने धर्म को रिलीजन बनाने पर तुले हुए हैं। अभी जो आप देख रहे हैं पिछले कुछ दशकों से, हम सनातन धर्म को अब्राह्मिक बनाने पर तुले हुए हैं। हम कह रहे हैं कि जैसे वहाँ पर कुछ बातों को लेकर के बिलकुल असहिष्णुता होती है, कट्टरता होती है वैसे ही यहाँ होनी चाहिए।
प्र: इस पर आचार्य जी थोड़ा गहराई में बताएँ, ये हम क्यों कर रहे हैं?
आचार्य: ये हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हममें हीन भावना है। अब कहने को तो ये हो रहा है कि हम — माने अगर मैं ये कहूँ कि जो भारतीय हिन्दू है — वो ईसाईयत का या इस्लाम का विरोध करने के लिए सनातन को दमदार देखना चाहता है। ठीक है? ऐसे ही तो कहते हैं? जबकि जो हो रहा है वो इसके बिलकुल उल्टा है। ये जो हिन्दू है जो सनातन धर्म को अब्रहमाइज़ कर देना चाहता है, अब्राह्मिक बना देना चाहता है, ये वास्तव में — अन्दर की बात है कि — ईसाईयत और इस्लाम का बड़ा प्रशंसक है, ये उनका फैन है।
तो ऊपर-ऊपर से तो ये भले ही दिखाता है कि मैं तुमसे दुश्मनी रखता हूँ, लेकिन अन्दर-ही-अन्दर ये उनका इतना प्रशंसक हो चुका है कि ये अपने धर्म को भी उनके रिलीजन जैसा बना देना चाहता है।
आप अपनी चीज़ को किसी दूसरे की चीज़ जैसा बना देना चाहें, इससे क्या साबित होता है? कि आप दूसरे की चीज़ के बड़े प्रशंसक हैं, एडमायरर हैं, तभी तो आप अपनी चीज़ को दूसरे की चीज़ जैसा बना देना चाहेंगे न! तो ये जो पूरी कोशिश चल रही है कि हिन्दुओं में भी वैसे ही लक्षण विकसित करो जैसे कि शेष विश्व में विशेषकर अब्राह्मिक धाराओं में पाये जाते हैं, सेमेटिक धाराओं में।
ये कुछ भी नहीं है, ये इसलिए है क्योंकि अपनेआप को लेकर हीन भावना बहुत आ गयी है हममें। हममें अपनेआप को लेकर हीन भावना आ गयी है। साथ-ही-साथ हमें ये लग रहा है कि नहीं, हमें उनकी बराबरी करनी है, जिनसे हम अपनेआप को हीन समझते हैं। तो बराबरी करने के लिए हमने क्या तरीक़ा निकाला है? कि हम उन्हीं के जैसे हो जाएँगे। आप ये नहीं देख रहे हो कि आप अगर उनके जैसा होना चाह रहे हो तो ये तो आपने उनकी बड़ी भारी प्रशंसा कर दी न! आप जिसके जैसा होना चाह रहे हो, एक तरह से आपने उसको अपना आदर्श बना लिया। और आगे खींचकर कहूँ तो आपने उसको अपना आराध्य बना लिया, पूज्य बना लिया। आपने कह दिया कि तुम इतने ऊँचे हो कि मैं तुम्हारे ही जैसा हो जाना चाहता हूँ।
अगर आप वास्तव में किसी को उतना ऊँचा नहीं समझेंगे तो आप ये कहेंगे न कि भई मैं जानता हूँ मुझे कैसा होना है और मुझे तुम्हारे जैसा होने की कोई ज़रूरत नहीं। 'मुझे कैसा होना है, वो बात मेरे भीतर निहित है। मुझे क्या होना चाहिए, क्या नहीं, इसके लिए मेरे पास उपनिषद् है, गीता है, वेदान्त है, षड्दर्शन है, वहाँ पर जाकर पूछूँगा न मुझे क्या होना है। मैं अपने धर्म को तुम्हारे रिलीजन की प्रतिछवि थोड़े ही बनाऊँगा।'
पर अभी भारत में काम चल रहा है सनातन धर्म को दुनिया भर के जो रीलिजन्स हैं, दुनिया भर के भी नहीं, जो अब्राह्मिक रिलीजन हैं विशेषकर, क्रिस्चियानिटी और इस्लाम, उनके जैसा बनाने की कोशिश चल रही है।
प्र: उनके जैसा से अर्थ है कि एक केन्द्रीय किताब हो, एक पैगम्बर हो, सबकुछ बहुत सीमित हो। तो हम सीमाओं में क्यों बाँध लेना चाह रहे हैं हमारे धर्म को?
आचार्य: हम को ऐसा लग रहा है कि उन्होंने ये सब करा, अपनेआप को सीमाओं में बाँध लिया इसीलिए उनकी तरक़्क़ी हुई है। दो तरह की तरक़्क़ी हम देखते हैं — अगर हम क्रिश्चियन्स को लें तो तो हम देखते हैं कि उनके पास धन बल है, बाहुबल है, ज्ञान बल है। धन ईसाइयों के पास है, ताक़त ईसाइयों के पास है और ज्ञान ईसाइयों के पास है, टेक्नोलॉजी सारी उनके पास है। तो उनको देखते हैं तो हमें लगता है कि हम अपने धर्म को भी उनके धर्म जैसा बना लें।
और संख्या बल इस्लाम के पास है। संख्या में हम देखें तो पिछले सौ सालों में इस्लाम बढ़ा है तेज़ी से। तो हम कहते हैं कि हम सनातन को भी इस्लाम जैसा क्यों न बना दें। हम कहते हैं, 'देखो इस्लाम जैसा भी था, भारत में आया तो अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश ये सब इधर-उधर हो गये। फिर हम भारत में देखते हैं, हम कश्मीर का उदाहरण देते हैं, केरल और बंगाल का भी उदाहरण देते हैं। हम कहते हैं, 'देखो इस्लाम सफल है। तो हम भी क्यों न फिर इस्लाम जैसे ही हो जाएँ।' तो एक तरह की हीन भावना है जो हमें उनकी नकल करने पर मजबूर कर रही है।
पर ये बात ग़लत है, ये हीन भावना ठीक नहीं है, आपके पास अपना ही जो है वो बहुत-बहुत सुन्दर और बहुत ऊँचा है। आपको किसी की नकल करने की ज़रूरत है नहीं।
प्र: सनातन धर्म को किसी ऑर्गेनाइज़्ड , आयोजित रिलीजन की ज़रूरत नहीं है, वो एक बड़ी व्यक्तिगत प्रक्रिया है, आप ऐसा बता रहे हैं?
आचार्य: बड़ी व्यक्तिगत प्रक्रिया है। उसको एक अनुकूल माहौल की ज़रूरत है, उसको एक सही संस्कृति की ज़रूरत है, उस संस्कृति में जो सनातनी है वो हर दिशा से जाकर के अपने लिए ज्ञान लेकर आएगा, वो हर तरीक़े के प्रयोग करने के लिए स्वतन्त्र होगा, यही सनातन धर्म है।
तो सनातन धर्म के साथ बहुत ज़रूरी है कि एक बहुत सुन्दर, उदार, खुली हुई और ऊँची संस्कृति चले। अगर वो संस्कृति नहीं चल रही है तो सनातनी हो पाना बड़ा मुश्किल है। अगर संस्कृति ही उदार नहीं है तो आप फिर कैसे प्रयोग-परीक्षण करके अपनी जो सनातन बेचैनी और अज्ञान है उसको दूर करोगे?
प्र: आचार्य जी, आपने सनातन धर्म को परिभाषित किया और आपने कहा कि क्या वो नहीं है। अब आते हैं जो आज की चर्चा का जो विषय है, जिस कारण जिज्ञासा उठी कि आपसे पूछा जाए — अगर सनातन धर्म वो है जो आपने हमें अभी समझाया, तो जिन सज्जन की टिप्पणी आयी है, वो जिस सनातन धर्म की बात कर रहे हैं, वो क्या है? और इतनी गालियाँँ क्यों पड़ रही हैं? क्योंकि आपने जो बताया वो तो बहुत सुन्दर बात है, हर व्यक्ति आज़ाद होना चाहता है, निडर होना चाहता है।
आचार्य: देखिए, वो जो सनातन धर्म की बात कर रहे हैं, वो वो है जिसका ज़मीन पर व्यवहार किया जा रहा है, वो प्रैक्टिस्ड हिन्दुइज़्म की बात कर रहे हैं। और मैं आपको बता रहा हूँ फंडामेंटल (मौलिक) सनातन धर्म। और दोनों में अन्तर तो है ही, ये तो मानना पड़ेगा। मूलभूत रूप से जो सनातन धर्म है और ज़मीनी तौर पर, व्यावहारिक तौर पर आप जैसा हिन्दू धर्म का आचार देखते हैं, इनमें तो ज़मीन-आसमान का अन्तर है।
तो जो टिप्पणी की गयी है — काफ़ी तीखी टिप्पणी है, कह सकते हैं अभद्र टिप्पणी है — वो जो टिप्पणी करी गयी है, वो वास्तव में करी गयी है उस हिन्दू धर्म के ख़िलाफ़ जिसका आम आदमी व्यवहार कर रहा है, प्रैक्टिस कर रहा है। तो उसके ख़िलाफ़ करी गयी है। उसमें ग़लती ये है कि उसको सनातन धर्म बोल दिया, जबकि वो सनातन धर्म है नहीं।
आम हिन्दू सनातनी तो है ही नहीं न। आम हिन्दू तो अपनी मान्यताओं और अंधविश्वासों में घिरा हुआ है। एक ऐसा ही कूप-मंडूक है कि जिसके जो मन में आया उस चीज़ का अपना आचरण कर रहे हैं। हर गाँव के अपने अलग देवी-देवता, इष्टदेव होते हैं और थोड़ी-थोड़ी दूर में मान्यताएँ बदलती रहती हैं। लाखों क़िस्म के अंधविश्वास हैं जिससे आज का हिन्दू घिरा हुआ है। और उन अंधविश्वासों को आज ज़बरदस्त तरीक़े से हवा भी दी जा रही है।
तो ये सब चीज़ें हैं जिनका निश्चित रूप से विरोध होना चाहिए और शायद उन सज्जन ने इन्हीं सब बातों को लक्ष्य करके कहा होगा कि सनातन धर्म को वो तमिलनाडु की धरती पर नहीं आने देंगे। लेकिन दिक्क़त बस ये है कि आप जिसको सनातन धर्म समझ रहे हो वो है नहीं सनातन धर्म। और जो वास्तविक सनातन धर्म है उसको आप जानते नहीं, उसको आप जानते होते तो आप ख़ुद ही उसके प्रेम में पड़ जाते, आप ख़ुद ही उसके प्रशंसक हो जाते। आप कभी ये नहीं कहते कि सनातन धर्म को हटा दो, मिटा दो।
जिसको आप हटाना-मिटाना चाहते हैं, वो चीज़ दूसरी है। और आपको समझना होगा, वो चीज़ धार्मिक नहीं है। वो चीज़ कहाँ से आ रही है उसको जानिए, उसका वास्ता धर्म से नहीं है। नहीं तो बड़ा गड़बड़ हो जाएगा। जिस चीज़ के लिए धर्म ज़िम्मेदार ही नहीं है, धर्म पर आप उस चीज़ का इल्ज़ाम लगाकर धर्म को भगा देंगे।
जैसे कहीं कोई अपराध हो गया हो। एक फ़िल्म थी, एक फ़िल्म में नहीं, बहुत सारी फ़िल्मों में ऐसा सीन देखा है मैंने कि कहीं कोई क़त्ल हो गया है, हत्या, और लाश पड़ी हुई है। जिसने मारा था वो तो भाग गया और कोई बचाने के लिए वहाँ पर पहुँच जाता है। जो बचाने के लिए पहुँच जाता है, पहली बात तो अब वो बचाने के लिए हाथ लगाया तो उसकी उँगलियों के निशान आ जाते है वहाँ पर। जो मारकर भाग गया है वो अपना हथियार वहीं छोड़ गया है, तो ये जो बचाने आया था, उस हथियार को उठाकर देखता है, इस हथियार से मारा है क्या, तो इस हथियार के साथ भी इसकी फ़ोटो आ जाती है, और इसकी उँगलियों के भी निशान आ जाते हैं। और जो गिरा हुआ है उसका खून बिखरा हुआ है, तो ये व्यक्ति वहाँ पर गया है उसको बचा रहा है तो इसके कपड़ों पर खून लग जाता है और ये सब हो जाता है।
तो ये जो बचाने गया है, इसको दोषी मानकर इसको पकड़ लिया जाता है, इसको सज़ा दे दी जाती है। अब ये कितनी विचित्र बात है न! ये जो मारने आया है ये मनुष्य के भीतर का अहंकार है, ये हम सबके भीतर छुपा हुआ जानवर है। जिसको मारकर गिरा दिया गया है वो दूसरा मनुष्य है, जिसका शोषण किया गया है, ठीक है? ये जो बचाने आया है ये सनातन धर्म है। लेकिन ये जो सनातन धर्म है बेचारा, ये पकड़ा जाता है जैसे अपराध इसने किया हो, जबकि ये बचाने के लिए आया है।
इसी पर मैं एक और उदाहरण दिया करता हूँ, उसको समझिएगा। आपके कोई शिक्षक हों, वो आपको पढ़ा रहे हैं और उन्होंने आपको किताब दी है कि इससे आप पढ़ेंगे। मान लीजिए वो गणित पढ़ा रहे हैं आपको, अब आपका मन है चंचल, जैसा सबका मन होता है, आवारा पक्षी की तरह इधर-उधर भाग रहा है वह। साल भर आपने कुछ पढ़ा ही नहीं, न गुरुजी को आपने सुना, न ग्रन्थ जी को आपने पढ़ा। और साल भर के बाद आप परीक्षा देने गये और हो गये उसमें फेल। और जब आप फेल हो गये तो आपने नारेबाज़ी शुरू कर दी, आपने कहा, 'मैं तो फेल हुआ ही इसलिए हूँ क्योंकि ये जो गुरु है, ये बड़ा ख़राब है, ये शिक्षक ग़लत है। और ये जो किताब दी गयी है इस किताब में सब उल्टा-पुल्टा लिखा हुआ है, इस किताब ने ही बर्बाद कर दिया मुझको।' तो आपने किताब को जला दिया और गुरु को मारकर भगा दिया।
जबकि बात ये है कि आप फेल बिलकुल विपरीत कारण से हुए हो। आप फेल इसलिए हुए हो क्योंकि आपने गुरु को कभी सुना नहीं, किताब को कभी पढ़ा नहीं। यही हालत आज के सनातनी की है, न तो उसने कभी ज्ञानियों को सुना, न उसने कभी ये जाना कि उसके वास्तविक ग्रन्थ कौनसे हैं। ज्ञानियों के नाम पर वो जाकर के सब उल्टे-पुल्टे क़िस्से-कहानी वालों को, गप्पबाज़ों को सुन रहा है, पता नहीं क्या कर रहा है! और ग्रन्थों के नाम पर वो जाकर के कोरी कथाएँ और ये सब अपना पढ़ रहा है और उसको लग रहा है, 'यही तो मेरे ग्रन्थ कहलाते हैं।'
तो न शिक्षक को सुना, न किताब को पढ़ा लेकिन जब फेल हो गये तो लाकर सारा दोष गुरु पर और ग्रन्थ पर डाल दिया गया। यही आज हो रहा है सनातन धर्म के साथ। ये कहते हैं कि अरे, ये देखो इन किताबों के कारण ही तो जातिवाद है। मैं पूछता हूँ किसने पढ़ी हैं वो किताबें? तुम वो किताब पढ़ कहाँ रहे हो? तुमने अगर किताब सचमुच पढ़ी होती तो तुम जातिवादी कैसे हो जाते?
ऋषियों पर आक्षेप कि इन ऋषियों ने ही तो इतना! तुमने उन ऋषियों की बात सुनी कब? कितने उपनिषद् पढ़े हैं तुमने, तुम कितने उपनिषदों के नाम भी जानते हो? जब तुमने उनकी बात कभी सुनी ही नहीं, तो तुम आज जो भी आचरण कर रहे हो, इसका दोष, इसका अपराध उनके ऊपर कैसे जा सकता है?
तो सनातन धर्म तो बेवजह ही मारा जा रहा है। भारतीय समाज अपने अनुसार चला है। न दर्शन पढ़े, न उपनिषद् पढ़े, अपने हिसाब से चलते रहे। अपनी कुछ मान्यता, अपनी कुछ सोच है, ये करें, वो करें। जिसके मन में जो आया वो करा। और जब वो सबकुछ करके असफलता मिल रही है, पा रहे हैं कि ज़िन्दगी में बहुत तरीक़े से पीछे हैं, दुनिया के देशों में भी पीछे ही रहे हैं और बहुत सारी लड़ाइयाँ हार रहे हैं, तो फिर उसका जो आरोप है, उसका जो ठीकरा है, वो जाकर के फोड़ दिया धर्म के मत्थे।
मेरा मूल प्रश्न यही रहता है, 'तुम धर्म पर चले कब थे? कब चले थे धर्म पर?' जो धर्म पर चला होता वो जीवन में हर प्रकार की लड़ाइयाँ कैसे हार जाता? आप आज के भारतीय को भी देखो तो उसमें चरित्रगत कितनी दुर्बलताएँ हैं, कितनी ज़्यादा दुर्बलताएँ हैं। एक धार्मिक आदमी में इतनी दुर्बलताएँ हो सकती हैं क्या? इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यही है कि वो अपने ग्रन्थों से बिलकुल परिचित ही नहीं है। हाँ, वो अपनेआप को कहता ज़रूर होगा धार्मिक। अति दुर्बल है, लेकिन उसका दावा यही है कि वो धार्मिक है।
इतना ही नहीं, वो एकदम सौ तरीक़े की बुराइयाँ अपने भीतर रखे हुए है और कमज़ोरियाँ अपने भीतर रखे हुए है, लेकिन ये भी हो सकता है वो अपनेआप को कट्टर हिन्दू बोलता हो। तो फिर तो हिन्दू होना बड़ी ही छोटी और सस्ती बात हो गयी, अगर इतना कमज़ोर आदमी, इतना बीमार आदमी भी अपनेआप को कह रहा है कि मैं हिन्दू हूँ। सिर्फ़ इसलिए कि वो नारे लगा सकता है, 'मैं हिन्दू हूँ।' वो भगवा पहन लेगा और नारे लगाएगा, 'मैं हिन्दू हूँ।' तो फिर तो हिन्दू होना बड़ी छोटी बात हो गयी कि हिन्दू होकर भी आप इतने कमज़ोर हो और इतने विक्षिप्त हो, इतने अज्ञानी हो।
नहीं, ऐसा नहीं है। अगर आप किसी को पायें कि उसके भीतर गहरा अज्ञान है तो अपनेआप को हिन्दू वो बोल सकता है, सनातनी वो नहीं है।
सनातनी होना माने उसमें जीना जो वास्तव में सनातन है। जो सनातन है वो वही है — मन की मुक्ति की चाह। अहम् का आत्मा के प्रति प्रेम ही सनातन है, आत्मा माने अन्तिम सत्य।
तो वही सनातन है। जो उसमें जी रहा है वही सनातन है। बाक़ी अपनेआप को जो बोलना चाहें बोल लें, सनातन धर्म में पचास तरीक़े की मान्यताओं के लिए और अन्धी परम्पराओं के लिए और अंधविश्वासों के लिए कोई जगह नहीं है। सनातन तो कहता है कि ये सब जो तुम कर रहे हो, पूछो अपनेआप से कि क्या कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ। बात यही नहीं है कि तुम कौनसी प्रथाओं का, परम्पराओं का पालन कर रहे हो, तुम ज़िन्दगी में जो कुछ कर रहे हो, कि तुम रोज़ दुकान पर आकर बैठ जाते हो, अगर आप वास्तव में सनातनी हैं तो पूछेंगे, ‘क्या मेरा जन्म इस उद्देश्य के लिए हुआ है?’ ‘मैं कौन हूँ, मेरा जन्म किसलिए हुआ है? मैं ये क्या कर रहा हूँ? ये मेरा रोज़गार क्या है, ये मेरा सम्बन्ध क्या है, ये किन चीज़ों में मेरा समय जा रहा है?’ असली सनातनी वो है जो इन चीज़ों में जिये, इन प्रश्नों के साथ एक रिश्ता रखे, वो है सनातनी। बाक़ी सब तो ऐसे ही हैं नारेबाज़ी।
प्र: आचार्य जी, आप कह रहे हैं कि ये जो पूरी रेजिंग कॉन्ट्रोवर्सी (ज्वलंत बहस) है, इसके केन्द्र में जो रिमार्क्स हैं, वो सनातन धर्म के प्रति हैं ही नहीं?
आचार्य: है ही नहीं। इसको ही तो स्ट्रॉ मैन फैलेसी बोलते हैं। स्ट्रॉ मैन फैलेसी यही होती है कि अब यहाँ पर कोई खड़ा हो, मैं कहूँ ये अंशु (प्रश्नकर्ता) है, ठीक है? असली अंशु यहाँ बैठा हुआ है, मैं कहूँ ये अंशु है। और फिर मैं कहूँ, 'ये नहाकर नहीं आया है, कितना गन्दा, मुँह पर धूल लगी हुई है', और फिर मैं अंशु की दुर्गति कर दूँ कि नहाता नहीं है, गन्धा रहा है, ऊपर से लेकर नीचे तक धूल लगी हुई है, ये और वो। तुमने बिलकुल ठीक बोला वहाँ कोई खड़ा है जिसकी धूल लगी है, जो नहाया नहीं है, गन्धा रहा है, ये तो बिलकुल ठीक है। पर वो अंशु नहीं है, भई! तो तुम जिसकी भर्त्सना कर रहे हो, वो वो है ही नहीं जिसका नाम लेकर के तुम भर्त्सना कर रहे हो।
प्र: आचार्य जी, सही नामकरण और सही आइडेंटिफ़िकेशन , क्लासिफ़िकेशन (पहचान, वर्गीकरण) बहुत ज़रूरी है। जैसे आप कहते हैं कि मनुस्मृति को ग्रन्थ और शास्त्र मत बोलो।
आचार्य: बिलकुल।
प्र: तो अगर मामला इतना ही सिमेंटिक है, शब्द पर है, तो आप कृपया आज की इस बातचीत में कुछ शब्द हैं उन पर हमें स्पष्टता दें। जो शब्द बहुत ट्विटर पर और हर जगह फैलते हैं, हमें दिखते हैं, बातचीत होते हैं वो हैं — हिन्दुइज़्म , हिन्दुत्व और सनातन। सनातन पर तो आपने बता ही दिया। तो हिन्दुइज़्म में और हिन्दुत्व में क्या भेद है, इस पर हमें बताएँ और इन दोनों के आमने-सामने जो सनातन शब्द है उसके क्या मायने हैं, उस पर हमें ज्ञान दें।
आचार्य: देखिए, सनातन वो है जो आपको आत्मज्ञान और अन्ततः मुक्ति की ओर प्रेरित करे, ठीक है?
प्र: जी।
आचार्य: और इसमें जो बात वेद कहते हैं वो बिलकुल साफ़ है। वो ये कहते हैं कि सबसे ऊपर आती है 'श्रुति'। जितने भी तरह की धार्मिक पुस्तकें हैं उनमें सबसे ऊपर आती है श्रुति। और दर्शन में जितने तरीक़े के प्रमाण होते हैं उनमें सबसे ऊपर आता है 'श्रुति प्रमाण'।
बात समझ में आ रही है ?
प्र: जी।
आचार्य: अब धर्म के क्षेत्र में हज़ारों पुस्तकें होती हैं। डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे कि पूरी दुनिया के सारे धर्म ले लो और उनका सारा धार्मिक साहित्य ले लो, किताबें, और उनको एक तरफ़ रख दो और सनातन धर्म ले लो उसकी किताबें एक तरफ़ रख दो। सनातन धर्म का जो पूरा वाङ्गमय है, जो पूरा भंडार है वो बाक़ी सब दुनिया भर के सारे धर्मों की किताबों पर भारी पड़ेगा। तो बहुत कुछ लिखा गया है न, क्यों लिखा गया है? क्योंकि तीन-चार हज़ार साल से लिखा जा रहा है, या कहा जा रहा है। वो कहा जा रहा है, सुना जा रहा है।
और उधर ऊपर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और इधर अफ़गानिस्तान से लेकर उधर कामरूप तक ये सब बातें जो हैं, ये कही जा रही हैं। और इतने सालों से कही जा रही हैं। तो सब लोगों ने इतनी-इतनी बातें कही, हर बात जो कही गयी वो अपनेआप में किताब बन गयी, पुस्तक बन गयी। सब पुस्तकें एक ही श्रेणी की नहीं होती हैं।
जो केन्द्र में है सनातन के, वो है श्रुति। और अगर आप श्रुति को नहीं मानते तो आप सनातनी तो छोड़िए, आप आस्तिक भी नहीं कहला सकते। बहुत कम लोगों को पता है कि आस्तिकता की परिभाषा ही यही है कि जो श्रुति में निष्ठा रखता हो। और श्रुति में क्या आता है? श्रुति माने वेद। और वेदों का दर्शन ही कहलाता है वेदान्त। वेदों का जो मर्म है वो कहलाता है वेदान्त। तो सनातनी वो है जो वेदान्त पर चले और आस्तिक भी वही है जो वेदान्त पर चले। जो वेदान्त से ज़्यादा महत्व किसी और चीज़ को दे, न वो सनातनी है, न आस्तिक है।
और जो बाक़ी सब ग्रन्थ हैं वो श्रुति में नहीं आते हैं, तो वो सनातन के केन्द्रीय ग्रन्थ नहीं हैं। आप उनको मानते चलिए, उससे कुछ नहीं हो जाएगा। मनुस्मृति के तो साथ ही स्मृति जुड़ा हुआ है। पुराण भी स्मृति के ही अन्तर्गत आते हैं, ये बात भी लोगों को नहीं पता, बहुत साधारण सी बात है, पता होनी चाहिए। तो पुराणों का वो दर्ज़ा बिलकुल भी नहीं है जो उपनिषदों का और गीता का है। पर अब लोग हैं जिनको कोई मतलब ही नहीं गीता से, वो अपनेआप को कहते होंगे कि हम कृष्ण के अनुयायी हैं लेकिन वो पुराणों को पकड़कर बैठ गये हैं। पुराण को आप पकड़ लेंगे उससे आप सनातनी नहीं हो जाएँगे, न आस्तिक हो जाएँगे।
आस्तिकता की परिभाषा ही यही है कि जो वेदान्त को माने वो आस्तिक है। समझिए बात को। भगवान को मानने से आस्तिक नहीं हो गये, कई आस्तिक दर्शन हैं जिनमें कोई भी भगवान या ईश्वर नहीं हैं। उदाहरण के लिए मीमांसा दर्शन है, उदाहरण के लिए सांख्य दर्शन है, उनमें भगवान या ईश्वर नहीं हैं। लेकिन वो आस्तिक दर्शन माने जाते हैं। आप बताइए, सांख्य योग में ये कहाँ हैं, भगवान कहाँ हैं?
और तो छोड़िए, मीमांसा में भी — पूर्व मीमांसा में — भगवान कहाँ हैं? देवी-देवता हैं पर एक रचयिता ईश्वर की तो बात नहीं है वहाँ पर। और सांख्य में तो देवी-देवता भी नहीं हैं। लेकिन सांख्य फिर भी आस्तिक दर्शन है, क्यों? क्योंकि वो वेद के प्रति निष्ठा रखता है।
तो सनातन धर्म के केन्द्र में वेद है, लेकिन हमने वेदों को छोड़कर बाक़ी बहुत सारी और किताबें हैं उनको बहुत महत्व दे दिया। हालाँकि वो भी कहना ज़्यादती होगी क्योंकि ज़्यादातर लोग किसी किताब को महत्व नहीं देते, न वो वेद को कोई महत्व देते हैं, न किसी भी दूसरी और धार्मिक पुस्तकों को कोई महत्व देते हैं। उन्होंने तो बस सुनी-सुनाई बात पकड़ ली कि मेरे पिताजी ये करते थे, मेरे दादाजी ये करते थे, इसी का नाम धर्म है। ज़्यादातर लोग ऐसे ज़िन्दगी चलाते हैं धार्मिक अपनी।
उनसे पूछो, 'तुम्हारा धर्म क्या है?' वो कहेंगे, 'जैसा हमारे गली-मोहल्ले में और गाँव में, कुनबे में और कुल में जो हमारी परम्परा चलती आयी है उसको धर्म बोलते हैं।' अब जब इस स्तर पर गिरा दिया गया धर्म को कि जो भी परम्परा चली आ रही है उसको धर्म मान लो तो फिर कौनसा सनातन बचा फिर, क्या होगा! तो सनातन वो है जो वेदान्त पर चले, सनातन धर्म माने वेदान्त है। ठीक है?
ये बात बहुत लोगों को विचित्र लगेगी, क्योंकि इस तरीक़े से पहले आमतौर पर बोली नहीं गयी है। पर मेरी बात का विरोध करने से पहले उस पर विचार करिएगा। और सनातन की, मैंने कहा, जान क्या है? जिज्ञासा। क्योंकि उपनिषदों का जो तरीक़ा है वो संवाद का है, ऐसे (हो रही वार्ता की ओर संकेत करते हुए), तुम पूछोगे, मैं बताऊँगा, मैं बात करूँगा; बातचीत चलेगी। वही जिसको बाद में जाकर के दर्शन में डायलेक्टिकल मेथड (संवाद की प्रक्रिया) कह दिया गया। वो बाद का भी नहीं है, आप अगर उसी समय पर जाएँगे तो सुकरात का भी वही तरीक़ा था। ठीक है? सुकरात को तो ग्रीस में श्रेय देते हैं कि डायलेक्टिकल मेथड यही लेकर आये हैं। पर उससे बहुत पहले से, ग्रीस में सुकरात वो डायलेक्टिकल मेथड लेकर आये, उससे पहले भारत में उपनिषदों में जो विधि थी वो डायलेक्टिकल ही थी।
तो ये तो सनातन धर्म हो गया, एकदम एक साफ़ चीज़, जिसका सम्बन्ध वेदों से है। और वेदों में दर्शन कहाँ है? वेदान्त में है, तो ये सनातन है जिसका सम्बन्ध वेदान्त से है। और जो बाक़ी भी दर्शन हैं, षड् दर्शन, वो भी जिस हद तक वेदान्त के साथ चलते हैं और वेदों में आस्था रखते हैं वो भी सब अनुकरनीय हैं, क्योंकि उनमें भी सबमें है तो जिज्ञासा ही।
भारतीय दर्शनों में आपको कहीं भी मान लेने के लिए नहीं कह दिया गया है। जो छ: आस्तिक दर्शन हैं, उनमें भी नहीं कह दिया गया है और जो तीन हेटेरोडाॅक्स दर्शन हैं, नास्तिक दर्शन, उनमें भी नहीं कह दिया है कि मान लो। सबकी खूबी है, सबने जिज्ञासा करी है। सबने प्रश्न लिखे हैं और सबने तर्क सम्मत बातें करी हैं। ठीक है?
अब आते हैं जिसको आप हिन्दुइज़्म बोलते हैं वो क्या होता है। तो जैसे सर्वोच्च न्यायलय ने जो परिभाषा दी है हिन्दुइज़्म की वो एकदम ठीक है। पूछा गया क्या है, वो बोले, ’रिलीजन तो है ही नहीं।' सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ’रिलीजन नहीं है।' बोल रहे हैं, 'ये तो एक जीने का तरीक़ा है, जिसमें जिसके जैसे मन में आये जी रहा है। अलग-अलग स्ट्रीम्स ऑफ फेथ (विश्वास की धाराएँ) हैं, जो जाकर के एक बहुत विशाल ओसियन (समुद्र) में गिर जाती हैं जिसको आप हिन्दुइज़्म बोल देते हो।' ये जो है, सर्वोच्च न्यायलय से बात आ रही है और ये बात ठीक ही आ रही है।
हो सकता है सुनने में बहुत लोगों को विचित्र लगे लेकिन ये बात सही है, क्योंकि हिन्दू का तो कोई अर्थ ही नहीं रह गया, जिसके जो मन में आ रहा है, वो मान रहा है और कह रहा है बस यही हिन्दू धर्म है। न उसमें कोई केन्द्रीय दर्शन है, न कोई केन्द्रीय जिज्ञासा है। कोई कुछ भी हो, कैसा भी हो, वो अपनेआप को हिन्दू बोल सकता है।
वास्तव में हिन्दू शब्द ही भौगोलिक है, ये तो हम जानते ही हैं, कि सिन्धु नदी के इस तरफ़, पूर्व में जो रहते थे उनको सिन्धु नदी के उस तरफ़ वालों ने, ईरानियों ने बोल दिया कि ये हिन्दू हैं। 'स' को वो 'ह' उच्चारित करते थे, तो उधर से उन्होंने उसको हिन्दू बोल दिया। तो वो जो उन्होंने भौगोलिक परिभाषा दे दी हिन्दुओं की, वो भाषा सही भी है एक तरीक़े से। कि भई जो भी रह रहा है इधर, वो जैसे भी चल रहा है उसको हिन्दू ही कह दो।
भई, आप आज तक मानते थे कि ईश्वर है, कल आप नहीं मान रहे ईश्वर है, तो ऐसा थोड़े ही है कि आप हिन्दू नहीं हैं, आप अभी भी हिन्दू हैं। आप कल तक एकदम शुद्ध शाकाहारी थे, आज आपने जाकर के सिर्फ़ माँस-ही-माँस चबाना शुरू कर दिया, आप तब भी हिन्दू हैं। कोई ऐसी स्थिति बनती ही नहीं कि कहो कि ये व्यक्ति अब हिन्दू नहीं है। अगर कभी कोई ऐसी स्थिति बन नहीं सकती जहाँ आप कह सको कि ये व्यक्ति अब हिन्दू नहीं है, तो फिर तो कोई भी हिन्दू हो गया न। नहीं तो कहीं पर तो सीमा खिंचती, कोई सीमा नहीं है।
प्र: ये एब्सॉल्यूट ओपन एंडेडनेस (पूरी तरीक़े से खुलापन) जो है, इज़ इट अ गुड थिंग ऑर बैंड थिंग? (ये अच्छी चीज़ है या बुरी चीज़ है?)
आचार्य: इट इज़ मीनिंगलेस थिंग , ये एक अर्थहीन चीज़ है। जिस शब्द की कोई परिभाषा ही न हो, उस शब्द को आप बार-बार बोलो तो उससे भाव क्या जाता है? कुछ भी नहीं। न तो कोई ऐसा बिन्दु है जहाँ आप कह सकते हो कि अगर आप ये कर लो तो आप हिन्दू हो गये, न कोई ऐसा बिन्दु है जिसका कोई सीमा हो और जिसका आप उल्लंघन कर दो तो कहा जा सकता है कि आप हिन्दू नहीं रहे। तो ये तो बात ही बहुत अर्थहीन हो गयी है न।
किसी ने ज़िन्दगी में कभी भगवद्गीता को हाथ नहीं लगाया, योगवशिष्ट को नहीं छुआ, उसने जाकर के कभी कठ उपनिषद् को नहीं छुआ, इतने सारे दर्शन हैं, उन सब दर्शनों पर भाष्य है, उनसे जाकर के उसने कभी बात नहीं करी, ऐसा व्यक्ति भी अपनेआप को हिन्दू बोल सकता है! क्यों? क्योंकि वो हिन्दू परिवार में पैदा हुआ है, तो अपनेआप को हिन्दू बोल सकता है। तो हिन्दू शब्द बहुत अर्थहीन हो गया है। बहुत अर्थहीन हो गया है तो फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी वैसे ही कह दिया कि क्या बोलें, ये तो है ही नहीं कुछ, ये तो एक वे ऑफ़ लाइफ़ (जीवन जीने का एक तरीक़ा) है, बस।
प्र: हिन्दुत्व क्या हुआ?
आचार्य: हिन्दुत्व तो एक विचारधारा है और राजनैतिक विचारधारा है। ठीक है? हिन्दुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जो पिछले सौ, दो-सौ सालों की जो संस्कृति है जो ज़्यादातर अंग्रेज़ों और मुगलों के प्रभाव से बनी है, उसी संस्कृति को वो कहना चाहता है कि यही असली भारतीय संस्कृति है और भारत राष्ट्र की परिभाषा इस संस्कृति पर आधारित होगी।
राष्ट्र का मतलब होता है — लोगों का एक समूह या समुदाय जो किसी साझे मूल्य के कारण सम्पृक्त है। तो कई लोग हैं, मान लीजिए उनकी भाषा एक है, तो वो अपनेआप को एक राष्ट्र या नेशन बोल देते हैं। कई लोग हैं जिनके खाल का रंग एक जैसा है, तो वो अपनेआप को खाल के रंग के आधार पर बोल देते हैं, 'वी आर अ नेशन' (हम एक राष्ट्र हैं)। तो जिन्ना ने, उदाहरण के लिए, बोल दिया था कि मुस्लिम सारा सेपरेट नेशन , क्योंकि उनका धर्म अलग है।
तो नेशनहूड यानि राष्ट्रवाद के नीचे सदा कोई यूनिफाइंग फैक्टर (एकता का कारण) होता है। तो जिन्ना ने कह दिया कि यूनिफाइंग फैक्टर है कि इनका धर्म एक है। यूरोप में आप जाएँगे तो वो फैक्टर क्या है जो वहाँ पर नेशनलिज़्म चलाता है वो लैंग्वेज़ (भाषा) है। ठीक है?
तो जो हिन्दुत्व है वो बोलता है, 'द नेशन इज फाउंडेड ऑन कल्चर, कल्चरल नेशनलिज़्म' (ये जो देश है वो एक संस्कृति पर आधारित है, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद)। और वो कौनसा कल्चर है? वही जो हमने पिछले सौ, दो-सौ सालों में चलते देखा है। अब उससे ज़्यादा हमें ज्ञान ही नहीं, हमने कभी पता ही नहीं किया कि भई, आपको अगर कल्चर की बात करनी है तो पीछे जाओ न, पूछो कि वेदों के समय में क्या संस्कृति थी।
प्र: आचार्य जी, क्या इसी को सनातन धर्म बोलकर भी भ्रमित करा जा रहा है?
आचार्य: हाँ बिलकुल। बहुत सारे लोग जो जानते नहीं कि सनातन धर्म क्या है, वो या तो हिन्दुइज़्म को या हिन्दुत्व को समझ लेंगे कि सनातन धर्म यही है। और फिर वो इन चीज़ों की, हिन्दुइज़्म और हिन्दुत्व की जो भी कुरूपताएँ देखेंगे उनको वो समझ लेंगे कि वो सनातन की कुरूपताएँ हैं। अब हिन्दुइज़्म तो फिर भी ऐसी चीज़ है जो कि एक बिलीफ़ सिस्टम (मान्यताओं की व्यवस्था) है कि जिसके जो मन में मान्यता आ रही है, वो मान रहा है, एक बिलीफ़ सिस्टम है। और ये बिलीफ़ सिस्टम पुराना हो गया।
सनातन धर्म को आप ऐसे मान लो। वैसे भी सनातन का मतलब है कि जिसकी कभी उत्पत्ति हुई नहीं है, जो सदा से है वो सनातन है। पर फिर भी अगर आपको उसमें एक समय-सीमा लगानी है तो सनातन धर्म को आप मान लो कि वो वेदों के साथ आया है, मान लो। हालाँकि मैं फिर बोलूँगा कि पारिभाषिक तौर पर सनातन का अर्थ है जो अनादि है, जिसकी कभी उत्पत्ति नहीं हुई। ठीक है?
जैसे कि मीमांसा दर्शन है, वो मानता है कि वेदों को ईश्वर ने भी नहीं बनाया, वेद सदा से हैं। 'वेदों को ईश्वर ने भी नहीं बनाया, वो सनातन है, सदा से है।' लेकिन थोड़ा सा अगर जो अकेडमिक व्यू (शैक्षणिक दृष्टि) है, उसकी ओर आओगे तो वेद लगभग चार-हज़ार साल पुराने माने जाते हैं अकेडमी में। तो सनातन वहाँ से आता है, चार-हज़ार साल पहले से। जिसको आप हिन्दुइज़्म बोलोगे कि सब अपनी-अपनी मान्यताओं पर चल रहे हैं, आज का जो हिन्दुइज़्म है, इसके पीछे की जो मान्यताएँ हैं वो मुश्किल से सात-आठ सौ साल पुरानी होंगी, वो ज़्यादातर पौराणिक मान्यताएँ हैं।
पुराण बहुत नये हैं, वेदों और उपनिषदों की अपेक्षा पुराण बहुत-बहुत नये हैं, बहुत नये हैं। कह दिया जाता है कि वेद भी वेदव्यास द्वारा और पुराण भी वेदव्यास द्वारा रचित है लेकिन वो वेदव्यास अलग हैं। ठीक है? जो भी विद्वान ग्रन्थों से सम्बन्धित अच्छा, ऊँचा काम करता था, सम्भवतः उसको वेदव्यास की उपाधि दे दी जाती थी। तो उपाधि एक है, इससे ये नहीं मान लेना चाहिए कि वेद और पुराण एक ही श्रेणी के हैं या एक ही समय के हैं। वेद और पुराण न तो एक ही श्रेणी के हैं, न एक ही समय के हैं। वेदों के कम-से-कम आप समझिए कि दो-हज़ार साल बाद पुराणों का रचना काल है। और पुराण तो अभी आठ-सौ, हज़ार साल पहले तक भी रचित होते रहे हैं, सात-सौ साल पहले तक। तो जो हिन्दुइज़्म है ये अधिकतर पौराणिक है।
सनातन धर्म वैदिक हुआ, हिन्दुइज़्म पौराणिक हुआ। और हिन्दुत्व तो अभी मुश्किल से सौ साल पहले की भी विचारधारा नहीं है। ये तो अभी साठ-सत्तर साल पहले की विचारधारा है, अस्सी साल पहले की, और ये राजनैतिक है।
प्र: तो अगर हिन्दुत्व या हिन्दुइज़्म की आलोचना की जा रही है समसामयिक राजनेताओं द्वारा या चिन्तकों द्वारा, तो वो कुछ हद तक सही भी है, होनी चाहिए। पर उसके नाम पर सनातन धर्म को अगर बोला जाए तो ये सही नहीं है न।
आचार्य: मेरा सबसे आग्रह है कि जिसको आप हिन्दुइज़्म बोलते हो या जिसको आप हिन्दुत्व बोलते हो, इनसे आपको जो भी समस्या है, वो हो सकता है बिलकुल वैध समस्या हो, जायज़ समस्या हो, जस्टिफायबल हो, लेकिन उसके कारण सनातन धर्म की निन्दा मत करो। भई, हिन्दुत्व का सनातन धर्म से क्या लेना-देना है! तो हिन्दुत्व में अगर आपको किसी प्रकार का खोट दिख रहा है तो वो खोट हिन्दुत्व की होगी। इसी तरीक़े से जो व्यावहारिक हिन्दू आचरण है उसमें आपको कोई खोट दिख रही है तो वो वो हिन्दुइज़्म की खोट होगी। लेकिन इन दोनों की ग़लतियों को आप सनातन धर्म के ऊपर आरोपित मत करो।
प्र: तो जो ये ग़ैर-ज़िम्मेदार टिप्पणी हुई है।
आचार्य: बिलकुल ग़ैर-ज़िम्मेदार।
प्र: जहाँ पर हिन्दुत्व की आलोचना करने के चक्कर में उन्होंने सनातन धर्म पर काफ़ी तीखी टिप्पणियाँँ कर दी है। आप उसको कंडेम (आलोचना करना) करते हैं?
आचार्य: नहीं, मैं बिलकुल ये कहूँगा कि आप अगर एक सार्वजनिक स्थान रखते हैं, जहाँ पर आपकी कही जा रही बात लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचती है, तो आपकी बड़ी भारी ज़िम्मेदारी है कि अपने शब्दों को बोलने से पहले ये तो जाँच लें कि उनमें यथार्थ कितना है। तो ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार और वक्तव्य किसी नेता को शोभा नहीं देते, ये बात तो बिलकुल है। ये सब बोलकर के किसका फ़ायदा हो रहा है? आपने द्वेष की ही लपटें और भड़का दी हैं। तो ऐसी बयानबाज़ी नहीं की जानी चाहिए। मंशा सुधार की होनी चाहिए, आग लगाने की नहीं। ठीक है?
मुझे ऐसा लग नहीं रहा कि ये जो वक्तव्य कहा गया है ये सुधार की मंशा से कहा गया है। बाक़ी कहने वाला जाने, मैं किसी के मन में प्रवेश करके तो नहीं जान सकता कि क्यों कहा गया है। पर जहाँ से मैं देख रहा हूँ, मुझे ये जो वक्तव्य है इसमें गैर-ज़िम्मेदारी तो दिखाई दे ही रही है।
प्र: आचार्य जी, बहुत बार लोगों को देखा गया है जब वो कुछ लिखते हैं तो एक ही साँस में वेद-पुराण-उपनिषद्, ऐसा बोल देते हैं।
आचार्य: ये बात ही बहुत ग़लत है।
प्र: तो ये जो शब्दों की हेरा-फेरी है, बैड कैटेगराइज़ेशन (ग़लत वर्गीकरण) है और ये जो ग़लत अर्थ दिये जा रहे हैं आध्यात्मिक शब्दों के, तो हाऊ टू एजुकेट द मासेज़ व्हाट इज़ राइट मीनिंग ऑफ व्हाट (तो जनता को कैसे समझाया जाए कि किन शब्दों का क्या सही अर्थ है)?
आचार्य: यही जो बातें हम कर रहे हैं, ये आम जनता तक पहुँचानी ज़रूरी है। आम जनता हज़ार तरीक़े की चीज़ें देखती है, ये चीज़ें थोड़ी देखती है। धर्म के नाम पर भी जाकर पता नहीं कौनसा कचरा पढ़ती है, देखती-सुनती है। जो वास्तविक बात है, आप जानिए कि आप जिसको अपना धर्म कहते हैं वो कहाँ से आ रहा है, क्या उसका ग्रन्थ है, क्या उसका दर्शन है। ये जनता देख कहाँ रही है! और जनता को धर्म के नाम पर दिन-रात अब ज़हर पिलाया जा रहा है। मेन स्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया दोनों और कर क्या रहे हैं, धर्म के नाम पर ज़हर ही तो पिला रहे हैं लोगों को।
प्र: आचार्य जी, इस पूरे मुद्दे को एक दूसरे कोण से देखते हैं। उन्होंने जो टिप्पणी करी, आपने कहा कि वो सनातन धर्म पर लागू होती ही नहीं।
आचार्य: होती ही नहीं।
प्र: वो जिस विचारधारा और जिस संस्कृति, जिस तरह के जीवन जीने की शैली पर बात कही गयी है वो उसी पर लागू होती है, और सनातन धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं है।
आचार्य: सनातन धर्म तो एक बड़ी मनोवैज्ञानिक और थोड़ी आत्मजिज्ञासा वाली बात है।
आचार्य: दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक।
प्र: पर वो जो तीर है वो कहीं तो लग रहा है।
आचार्य: जहाँ लग रहा है वहाँ लगना चाहिए। बस दिक्क़त ये है कि जिसको मारा जाना चाहिए उसकी जगह किसी और को मार रहे हो। पर ये बात बिलकुल ठीक है, किसी-न-किसी को लगना चाहिए।
देखिए, तमिलनाडु से आते हैं वो, और तमिलनाडु में जो पिछले लगभग सौ, सवा-सौ सालों का इतिहास है, वो पेरियार का इतिहास है। तो वहाँ उन्होंने क्या देखा था, पेरियार ने? पेरियार ने कुछ ऐसा देखा और फिर कुछ ऐसा करा, जिसके कारण तमिलनाडु में ये भावना बहुत प्रखर हो गयी है कि जिसको हम आमतौर पर हिन्दू धर्म कहते हैं उससे बचना बहुत ज़रूरी है।
तो पेरियार जब बच्चे ही थे, तो उनके घर में वैष्णव कथाओं का आयोजन होता था और वैष्णव भजनों का भी शायद। तो अब उन्होंने प्रश्न करे, वो पूछ रहे हैं, वो अभी बालक थे शायद टीन एजर रहे होंगे, किशोर। तो वो कुछ प्रश्न पूछ रहे हैं और जब प्रश्न पूछ रहे तो किसी का जवाब नहीं, लोग आकर के उनको क़िस्से-कहानियाँ सुना रहे हैं, कि इसमें ऐसा लिखा है, इस किताब में ऐसा लिखा है, इस जगह की ऐसी मान्यता है, यहाँ ये कहानी चलती है, इस पुराण में ये लिखा है।
तो उन्होंने पूछना शुरू कर दिया कि ये जो लिखा है, ये ऐसे है तो फिर ऐसे कैसे है। तो उनको डाँट-डपटकर चुप करा दिया गया, थप्पड़ भी पड़ गया होगा। तो इससे उनके मन में एक भाव उठा। फिर उन्होंने अपने आसपास के समाज को देखना शुरू किया, जैसे-जैसे वो बड़े होते गये। अपने आसपास के समाज को देख रहे हैं तो उनको दिखाई दिया कि यहाँ तो ज़बरदस्त शोषण है, और वो शोषण ब्राह्मणों द्वारा करा जा रहा था।
पेरियार के काम में एंटी ब्राह्मणिज़्म बहुत था, और उसकी वजह थी। उस समय का जो तमिलनाडु था, उसमें निश्चित रूप से शोषण तो ज़बरदस्त था और शोषण न सिर्फ़ वहाँ जिनको बोलते थे नेटिव द्रविडियंस , न सिर्फ़ उनका हो रहा था बल्कि महिलाओं का भी हो रहा था खूब।
तो उन्होंने ये सब देखा और उन्होंने कहा कि इन सबके मूल में तो वो धर्म ही है न, जिसको ये ब्राह्मण यहाँ पर चला रहे हैं और धर्म के नाम पर ही तो शोषण हो रहा है। तो शोषण को देखकर पेरियार के मन में धर्म के प्रति ही एक द्वेष पैदा हो गया, जुगुप्सा पैदा हो गयी। घृणा ही कह लीजिए, सीधे।
कहते हैं एक बार काशी आये।
प्र: जी
आचार्य: वो कहानी सुनी होगी।
प्र: जी।
आचार्य: काशी आये, वहाँ पर वो देख रहे हैं कि कैसे वहाँ पर गन्दगी फैली हुई है और लाशें हैं, वो कैसे जलायी जा रही हैं, काफ़ी सारे तो शव हैं जो नदी में बह ही रहे हैं। तो ये सब उन्होंने देखा और हतप्रभ रह गये। फिर भूख लगी, कहीं खाने को गये। वहाँ खाने गये तो उनको खाना नहीं दे रहे हैं और उनको बाहर निकाल दिया। पूछा, 'खाना क्यों नहीं दे रहे हैं?' बोले कि यहाँ सिर्फ़ ब्राह्मण को खाना मिलता है। तो उनको इतनी भूख लगी थी कि वो किसी तरीक़े से अपना ब्राह्मण का भेस बनाकर अन्दर जाने लगे। तो पहचान लिये गये, क्योंकि उस समय पर नियम ये था कि ब्राह्मण मूँछ नहीं रखेगा, इनके मूँछ थी तो पकड़ लिये गये। जब पकड़ लिये गये तो इनको बाहर फेंक दिया गया।
जब बाहर फेंक दिया गया, उसके कुछ समय बाद उनको ये समझ में आया कि ये जो यहाँ पर भोजनालय चल रहा है — जो भी रही होगी, भोजनालय, धर्मशाला, निःशुल्क ही खाना खिलाया जा रहा था ब्राह्मणों को — बोले, ये जो चल रहा है ये किसी दक्षिण भारतीय ने ही बनाया है। वो दक्षिण भारतीय शायद कोई तमिल रहा होगा, कोई तमिल है जिसने काशी में आकर खाने-पीने का बनाया है, और एक दूसरा तमिल है जो तमिलनाडु से आ रहा है काशी तो उसको खाने को नहीं दे रहे ये बोलकर कि तुम ब्राह्मण नहीं हो।
तो पेरियार ने ये सबकुछ देखा। और पेरियार ने देखा कि कैसे स्त्रियों पर अत्याचार हो रहा था और ये सब हो रहा था। तो तब से उनके समय से, सन् १९७३ तक थे पेरियार, और उनके समय से लेकर अब तक तमिलनाडु में, जिसको आप ब्राह्मण धर्म कहोगे उसके विरोध की ज़बरदस्त परम्परा बन गयी। इसीलिए तो ये जो आपकी जो नेशनल पार्टीज़ हैं कांग्रेस, बीजेपी ये तमिलनाडु में अपनी जगह नहीं बना पाती हैं। ठीक है?
तो पेरियार ने अपनी पार्टी बनायी थी सबसे पहले डीके , द्रविड़ार कज़गम। उससे निकली फिर डीएमके , द्रविड़ार मुनेत्र कज़गम। फिर उससे आगे आकर के निकाली एआईडीएमके। और बीच में उससे दो-चार और भी ग्रुप्स निकलते रहे। फिर पेरियार ने आगे अपनी जस्टिस पार्टी भी बनायी थी, ये सब करा था।
तो तमिलनाडु में धर्म विरोध की बहुत पुरानी परम्परा रही है, और उस परम्परा के पीछे काफ़ी हद तक वाजिब कारण भी है। उसी परम्परा पर आकर के जो ये उदयनिधि स्टालिन हैं उन्होंने वक्तव्य दिया। उन्होंने जो वक्तव्य दिया, उसमें नाम भी लिया है पेरियार और अंबेडकर का। हम पेरियार की चर्चा इसलिए करेंगे क्योंकि पेरियार तमिलनाडु से ही हैं और उदयनिधि भी तमिलनाडु से हैं, तो उनकी ज़्यादा बात करेंगे।
और जो विरोध है तमिलनाडु में वो सिर्फ़ जो हिन्दू धर्म है उसका नहीं रहा है, वहाँ पूरी उत्तर भारतीयता का ही विरोध रहा है। और इसीलिए हिन्दी के विरोध में भी वहाँ पर बड़ा उपद्रव रहा है, तमिलनाडु में विशेषकर। इसलिए नहीं कि उनको हिन्दी से समस्या है, उन्होंने कहा ये जो हिन्दी भाषा है इसके माध्यम से जो उत्तर भारत की संस्कृति है वो तमिलनाडु में आ जाएगी और उत्तर भारत की संस्कृति का मतलब ही है शोषण और दमन। तो आज़ादी से पहले भी वहाँ हिन्दी का विरोध था, आज़ादी के बाद १९४८ में, १९५२ में, फिर १९६० के दशक में जो वहाँ पर एंटी हिन्दी एजिटेशन (हिन्दी विरुद्ध आन्दोलन) हुआ था वो बहुत ज़बरदस्त था। उसको ये नहीं मानना चाहिए कि उन्हें हिन्दी से कोई समस्या है।
वो मानते हैं कि ये जो हिन्दी भाषी लोग हैं ये बहुत ज़्यादा रूढ़िवादी हैं, कंज़र्वेटिव हैं और ये तमिलनाडु को भी डुबो देंगे, ये तमिल भाषियों का मानना है। ये बात सही भी हो सकती है, ग़लत भी हो सकती है, वो एक अलग मुद्दा है। और अगर आप देखेंगे आज के तमिलनाडु को तो वास्तव में उत्तर प्रदेश से बहुत आगे निकल गया है। आज का तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश से बहुत आगे निकला हुआ है।
तो जो तमिल भावना है कि हम विकास तभी कर सकते हैं जब हम उन सब चीज़ों से बच कर चलें जो कि उत्तर भारत में पायी जाती हैं, तो उनकी भावना ऐसा लग रहा है जैसे कि सही साबित हो रही है, सत्यापित हो रही है। आप ह्यूमन डेवलपमेंट का कोई भी सूचक देखिए तो केरल, तमिलनाडु ये सब उत्तर प्रदेश और बिहार से बहुत आगे हैं।
और जब हम केरल की बात करते हैं तो वहाँ पर जो टेम्पल एंट्री मूवमेंट था, हमें वो पूरा याद करना पड़ेगा, उसमें भी पेरियार का बड़ा योगदान था। तो वास्तव में पेरियार का जो नाम है लोक संस्कृति में, उनमें से एक नाम ही यही है कि वो जिन्होंने 'वैकोम' में हमें सफलता दिलायी। तमिल में उसका शायद 'वैकोम वीरा' है, तो वो आप देख लीजिएगा।
तो केरल और तमिलनाडु को आप देखेंगे तो उत्तर प्रदेश और बिहार से बहुत आगे है, बहुत आगे है। दक्षिण भारत ही पूरा उत्तर भारत से बहुत आगे है। और उसके पीछे जो एक कारण रहा, वो यही रहा कि दक्षिण भारत ने ये कहा कि हम उत्तर भारत की संस्कृति को अपने यहाँ नहीं घुसने देंगे, हम उत्तर भारत की संस्कृति को अपने यहाँ नहीं घुसने देंगे। अब सही कहा कि ग़लत कहा, ये हम बाद में देख सकते हैं।
जैसे अब गोवा के एक मन्त्री थे, उन्होंने अभी कुछ दिन पहले या कुछ साल पहले एक वक्तव्य दिया था कि मैं गोवा को हरियाणा नहीं बनने दूँगा। उन्होंने कहा कि जो हरियाणा की जो पेट्रीआर्किकल , पितृसत्तात्मक सोच है, मैं उसको गोवा में नहीं आने दूँगा। गोवा में उदारवाद है। हरियाणा में तो अब घुँघट काढ़ो, पढ़ने भी नहीं देते हैं और इतनी भ्रूणहत्या होती है महिलाओं की। अब गोवा के मन्त्री ने जो कहा वो बात सही हो सकती है, ग़लत हो सकती है, एक अलग चर्चा का विषय है, उस पर विवाद भी हुआ था कि ये कह रहे हैं कि मैं गोवा को हरियाणा नहीं बनने दूँगा।
पर इससे ये तो पता चलता है कि दक्षिण में उत्तर भारत के प्रति सोच क्या रही है। उसी सोच का जो सबसे ताज़ा उदाहरण और अभिव्यक्ति है, वो है उदयनिधि स्टालिन का जो वक्तव्य आया है। दक्षिण में उत्तर के प्रति सोच ही रही है कि उत्तर भारत के लोग पिछड़े हुए हैं और दक्षिण वालों के पास उत्तर वालों के लिए ऐसा सोचने के पर्याप्त कारण भी हैं।
वास्तव में अगर आप देखेंगे उत्तर भारत को और दक्षिण भारत को और आप उनकी बहुत ऑब्जेक्टिव (वस्तुपरक) तरीक़े से तुलना करेंगे कि आर्थिक तरक़्क़ी कितनी है और उदाहरण के लिए इनफैंट मोर्टेलिटी रेट (शिशु मृत्यु दर) ले लीजिए कि वो केरल में कितना है और उत्तर प्रदेश में कितना है, तो आपको ऐसा लगेगा जैसे दक्षिण भारत और उत्तर भारत दो अलग-अलग देश हैं। दोनों के विकास के स्तरों में इतना ज़्यादा अन्तर है, इतना ज़्यादा अन्तर है कि आपको बिलकुल ऐसा लगेगा कि दक्षिण और उत्तर दो अलग-अलग देश ही हैं बिलकुल।
आप दक्षिण भारत जाइए और वहाँ पर जो हालात हैं, और जो वहाँ पर तरक़्क़ी हुई है, आप उसको देखिए और फिर आप उत्तर भारत को देखिए, ख़ासतौर पर जो हमारा हिन्दी हार्टलैंड है, काउ बेल्ट है, बीमारू राज्य जो हैं – राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, आप इनको देखि। तो आपको उत्तर की स्थिति बड़ी दयनीय, बड़ी सोचनीय लगेगी कि कितनी ख़राब हालत है! और आप दक्षिण को देखिए तो दक्षिण कुलाचे मारकर प्रगति करता हुआ आगे निकलता जा रहा है।
शत-प्रतिशत साक्षरता केरल में है, इकॉनोमिक पॉवर हाउस कर्नाटक और तमिलनाडु। उत्तर में पंजाब था भी तो पंजाब फिसलता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि की दर सबसे कम दक्षिण भारत में, फ़ीमेल एम्पावरमेंट सबसे ज़्यादा दक्षिण भारत में, दंगे सबसे कम दक्षिण भारत में। आप बताइए आप किस-किस दर पर नापना चाहते हो उत्तर और दक्षिण भारत को! प्रदूषण सबसे ज़्यादा उत्तर में। मॉडर्न टेक्नोलॉजी और मैन्युफ़ेक्चरिंग सबसे ज़्यादा दक्षिण में, दक्षिण में और कुछ हद तक वेस्ट (पश्चिम भारत) में महाराष्ट्र और गुजरात को भी शामिल कर लीजिए तो। पर उत्तर में तो कुछ नहीं दिखता।
तो इसलिए जो सब दक्षिण भारतीय राज्य हैं, विशेषकर तमिलनाडु, क्योंकि तमिलनाडु पर पेरियार का बड़ा ज़बरदस्त प्रभाव रहा है। विशेषकर तमिलनाडु, इनके मन में उत्तर भारतीयों के लिए एक तरीक़े से ऐसा भाव रहा है (हाथ से रोकने का संकेत करते हुए) कि भई, दूर रहो! तुमने बहुत गन्दगी फैला रखी है और वो गन्दगी तमिलनाडु में लेकर मत आओ। ये उनका भाव है, ये भाव सही हो सकता है, ग़लत हो सकता है, मैं उस भाव का अनुमोदन नहीं कर रहा हूँ। आप ये न कहिएगा कि ये तो ख़ुद ही तमिल वालों की ओर से बोल करके सब हिन्दी भाषियों की और उत्तर भारतीयों की भर्त्सना करने लग गये। मैं नहीं कर रहा हूँ। मैं आपको समझाना चाह रहा हूँ कि ये जो पूरी परम्परा रही है द्रविड़ियन पॉलिटिक्स की, ये कहाँ से आयी, क्यों आयी।
इसीलिए तो आप पाते हो कि बीजेपी को वहाँ पर तमिलनाडु में, और केरल में भी, बड़ी मुश्किल आती है। वो बीजेपी को उत्तर भारत की पार्टी मानते हैं, वो कहते हैं उत्तर भारत को नहीं घुसने देंगे, इसलिए नहीं की उन्हें उत्तर भारत से समस्या है, इसलिए क्योंकि उनको पिछड़ेपन से समस्या है। और उत्तर भारत पिछड़ेपन का प्रतीक बन गया है दक्षिण भारत के मन में।
एक दक्षिण भारतीय जब एक उत्तर भारतीय को देखता है, मैं बिलकुल स्टीरियोटाइपिंग (एक अनुमान लगाने जैसी बात) कर रहा हूँ, जेनरलाइज़ेशन है, लेकिन बात को समझिए मैं क्या बोलना चाह रहा हूँ। एक औसत दक्षिण भारतीय जब एक औसत उत्तर भारतीय को देखता है तो उसके मन से निकलता है — बैकवर्ड (पिछड़ा हुआ)। उधर देखता है, कहता है कि अरे! न इसके पास पैसा है, न इसके पास शिक्षा है, इसके पास बस क्या है? कट्टर मान्यताएँ और अंधविश्वास। अंधविश्वास दक्षिण में भी है, मैं इनकार नहीं कर रहा।
प्र: हमारे प्रति उनका ऐसा दृष्टिकोण है।
आचार्य: मैं बिलकुल ये नहीं कह रहा हूँ कि आप इसको ज़ीरो या वन की तरह, बाइनरी की तरह लें, कि दक्षिण बहुत अच्छा है और उत्तर बिलकुल ख़राब है। बाल की खाल निकालकर कुतर्क न करें। मैं जो कहना चाह रहा हूँ उसको समझने की कोशिश करिए।
प्र: ये उनका अपना नज़रिया है।
आचार्य: मैं समझना चाह रहा हूँ, कि ये वक्तव्य उदयनिधि स्टालिन ने दिया क्यों। क्यों दिया, इसके लिए हमें जो तमिलनाडु की जो पूरी पॉलिटिक्स है और जो द्रविड़ियन मूवमेंट रहा है, हमें उसके इतिहास में जाना पड़ेगा, लगभग सवा-सौ साल पीछे, और समझना पड़ेगा कि वहाँ पर पूरा कार्यक्रम चला क्या है। यहाँ तक कि पेरियार को कांग्रेस से भी ज़बरदस्त डिसइल्यूशनमेंट (निराशा) हो गया था, ठीक है? तो उन्होंने कांग्रेस भी छोड़ दी थी। पहले वो कांग्रेस के बड़े एक उत्साही सदस्य थे, गाँधीजी के साथ थे, लेकिन जब ये वैकोम वाला पूरा काम हुआ और उसमें गाँधीजी ने वहाँ की जो स्थानीय मन्दिर का जो प्रशासन था उनके साथ एक सन्धि कर ली तो पेरियार को बड़ी निराशा हुई। और अंबेडकर का भी ऐसा ही था, पहले वो साथ में थे कांग्रेस और गाँधीजी के, उन्होंने उनको छोड़ दिया था। तो ये सब रहा है।
तो तमिलनाडु ने बहुत दर्द बर्दाश्त करा है। ठीक है? तमिलनाडु ने भयानक क़िस्म का अंधविश्वास देखा है, अत्याचार देखा है, शोषण देखा है। और फिर उससे मुक्ति भी पायी है काफ़ी हद तक। मैं ये नहीं कह रहा कि अब वहाँ पर जाति प्रथा ख़त्म हो गयी है, ऐसा कुछ नहीं है। तो अंधविश्वास के ख़िलाफ़ पेरियार बार-बार बोला करते थे कि तर्क पर चलो, ये (दिमाग) जो है न, ये तुम्हारा सबसे बड़ा मित्र है और इसका तुम इस्तेमाल नहीं करते हो। तो कहते थे, 'बी रेशनल , सोचा करो, ऐसे ही किसी बात को मत मान लिया करो। जब तुम सोचोगे, विचारोगे, प्रश्न करोगे तब जाकर अन्दर का अंधविश्वास कटेगा।' तो ये सब चीज़ें थीं जो वो वहाँ लाना चाहते थे।
तो आज का जो तमिल है, आप देखते हो किस तरीक़े से अगर केन्द्र थोड़ा हिन्दी भाषा की बात करे तो तमिल तुरन्त प्रतिक्रिया करता है, उसकी वजह वही है, वजह वही है। ऐसा नहीं है कि लोगों को हिन्दी से कोई नफ़रत है। ऐसा नहीं है। मैं भी वहाँ गया हूँ, मिला हूँ, बहुतों को जानता हूँ। जो हिन्दी प्रचारिणी सभा है, उसकी सबसे बड़ी सदस्यता तमिलनाडु में ही है। तो ऐसा नहीं है कि तमिलनाडु के लोगों को हिन्दी से कोई समस्या है, उन्हें हिन्दी वालों के पिछड़ेपन से समस्या है।
वो कहते हैं, बड़ी मुश्किल से तो हमने अपने पिछड़ेपन से निजात पायी है, तुम फिर से वही सब चीज़ें यहाँ पर दोबारा ले आ दोगे। 'हमारे यहाँ निरक्षरता थी, हमारे यहाँ ग़रीबी थी, हमारे अन्दर अंधविश्वास था, हमारे यहाँ बीमारी थी, महिलाएँ हमारे यहाँ बड़ी ख़राब हालत में थी और दलितों की तो हालत पूछो ही नहीं। हमने बड़ी मुश्किल से इन सब को आगे बढ़ाया है, और हम नहीं चाहते कि तुम सनातन धर्म के नाम पर हमें दोबारा पीछे ढकेल दो।' तो उस उद्देश्य से उन्होंने वक्तव्य दिया है, हालाँकि हम ये बिलकुल पहले ही कह चुके हैं कि ये जो वक्तव्य है, ये गैर-ज़िम्मेदाराना है।
आपको ये कहना चाहिए था कि मैं तमिलनाडु में सामाजिक कुरीतियों को नहीं आने दूँगा। और ये बात बिलकुल सही होती, तमिलनाडु में क्या, पूरे देश में, तमिलनाडु में भी, उत्तर प्रदेश में, बिहार में, पूरे देश में, पूरे विश्व में कहीं भी सामाजिक कुरीतियाँँ नहीं आनी चाहिए, अंधविश्वास नहीं आना चाहिए, शोषण नहीं आना चाहिए। तो वो बात अगर कहते तो वो बात बिलकुल सही होती पर उसकी जगह उन्होंने सनातन धर्म को ही लपेट लिया, तो वो बात बचकानी है।
प्र: आचार्य जी, क्योंकि आप एक ऑब्जेक्टिव पर्स्पेक्टिव (निष्पक्ष नज़रिया) से दोनों ही मतों को एम्पेथाइज़ (सहानुभूति) कर पा रहे हैं, देख पा रहे हैं। आपने समझाया भी। तो आपसे कन्क्लूसिव रिमार्क (निष्कर्ष) चाहूँगा, कि एक तरफ़ स्थिति ये है कि उत्तर भारतीय है जो अपने हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म की मान्यताओं को सनातन धर्म बोल रहा है, और वो ख़ुद को सनातनी बनाना चाह रहा है। एक तरफ़ भारत का वो समाज है जो हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म की कुरीतियों को गाली दे रहा है सनातन धर्म बोलकर।
आचार्य: और दोनों ही तरफ़ जो हो रहा है, एकदम ग़लत हो रहा है।
प्र: समाधान क्या है? आप दोनों को ही एक शिक्षक होने के नाते क्या सलाह देंगे?
आचार्य: दोनों ही जगह वही स्ट्रॉ मैन फैलेसी (जो है नहीं उसे मान लेना और उस पर अपनी टिप्पणी देना) चल रही है न। जो इधर लोग हैं, जिसको वो हिन्दुइज़्म बोल रहे हैं, उनको समझ में आना चाहिए कि जिसको तुम हिन्दुइज़्म बोल रहे हो ये बस तुम्हारी सांयोगिक परम्पराओं का एक संकलन मात्र है। भई, कहीं भी आप पढ़ते हैं तो हिन्दुओं के शीर्ष ग्रन्थ क्या हैं? वेद हैं। आपको अपनेआप से पूछना पड़ेगा न कि मैं जो भी कुछ कर रहा हूँ एक हिन्दू होने के नाते, उसमें वैदिक कितना है। और वेदों का भी हृदय क्या हैं? उपनिषद्। वेदों का भी जो पूरा दर्शन है, वेदों का सार है, वेदों का जो शिखर है पूरा, वो उपनिषदों में है। तो आपको अपनेआप से पूछना पड़ेगा न कि क्या मैं वेदान्त समझता भी हूँ और समझता हूँ तो मेरी ज़िन्दगी में वेदान्त कितना उतरा है।
तो बार-बार कहना कि 'मैं हिन्दू हूँ, मैं हिन्दू हूँ' और आजकल ये नयी चीज़, 'हिन्दुत्व', चली है, इससे कोई लाभ नहीं है। आपको तो वेदों और वेदान्त की ओर जाना पड़ेगा, वहाँ जाकर देखना पड़ेगा। उनकी ओर जाने की जगह लोग क्या करते हैं? अब पढ़ना उनको कोई बहुत दुष्कर काम भी नहीं है, आप बिलकुल पढ़ सकते हैं, आप कुछ महीने लगाएँगे आप वेदों का पाठ कर सकते हैं। संस्कृत आती हो तो अच्छी बात है, नहीं आती तो हर तरीक़े के अनुवाद उपलब्ध हैं, आप पढ़ सकते हैं। पर घरों में वेद पाये नहीं जाते, लोग पढ़ेंगे कहाँ से! तो वेदों को पढ़ने की जगह हम वेदों को भी अपनी कल्पना की चपेट में ले रहे हैं।
हम कह रहे हैं, 'वेदों में तो न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी वर्णित है।'
मैं पूछता हूँ, 'कहाँ? कौन से मंडल में? मन्त्र बताओ, श्लोक बताओ? बताओ कहाँ है?'
कहते हैं, 'नहीं-नहीं, है, ज़रूर है।' कहेंगे, 'वेदों में तो वैदिक गणित वर्णित है।'
मैं कहता हूँ, 'कहाँ?'
कहते हैं, 'अथर्ववेद में।'
'कहाँ है अथर्ववेद में वैदिक गणित, दिखाओ? तुम नाम दे रहे हो 'वैदिक गणित', उसका वेदों से कोई सम्बन्ध नहीं है, वो है ही नहीं वेद में।'
पर लोगों को पता नहीं, लोग अभी भी सचमुच ये सोचते हैं कि वैदिक गणित का वेदों से कुछ सम्बन्ध है। वैदिक गणित तो मुश्किल से अभी सौ साल पहले — सौ साल भी नहीं, सत्तर-अस्सी साल पहले — एक सज्जन एक किताब लेकर आये और बोले, ये वैदिक गणित है। वैदिक गणित के नाम से साधारण प्रकार के अरेथमेटिक और अलजेबरा की ट्रिक्स हैं जो छठी, आठवीं, दसवीं क्लास तक में कुछ काम आ सकती हैं। लेकिन उसको लेकर के ऐसे कहते हैं कि हमारे वेदों में तो सारी गणित है, सारा विज्ञान है, सबकुछ है हमारे वेदों में। ये वेदों का अपमान है, आपने वेद पढ़े हैं नहीं और वेदों को लेकर के आप इस तरह हवा-हवाई बातें कर रहे हैं। वेदों का बड़ा अपमान है, नहीं करना चाहिए। आप जाइए, पढ़िए तो।
ऐसे ही कोई बोल रहा है कि सारी मेडिसिन वेदों में उल्लिखित है। कोई बता रहा है कि अरे ये सब क्या है, जो पूरी स्पेस टेक्नोलॉजी है वो तो वेदों में पहले लिखी हुई है। हम ये सब हरकतें कर रहे हैं। जो सीधा रास्ता है वो लो न, सीधी चाल चलो। सीधी चाल ये है कि जाओ और जो तुम्हारे शीर्ष ग्रन्थ हैं उनको पढ़ो न बेटा, पढ़ क्यों नहीं रहे हो?
'नहीं, पढ़ना नहीं है।'
'क्यों नहीं पढ़ना?'
'अरे, हमने आठवीं की किताब नहीं कभी पढ़ी, हम दसवीं में फेल हुए। जब हमने कभी कुछ नहीं पढ़ा तो हम वेद भी क्यों पढ़े!'
और जिन्होंने कभी कुछ नहीं पढ़ा वही आज सबसे ज़्यादा धार्मिक बने हुए हैं, वही सबसे ज़्यादा शोर मचाते हैं धर्म के नाम पर। जब उन्होंने कभी कुछ नहीं पढ़ा तो वेद भी काहे को पढ़ेंगे, उनको तो किताबों से ही डर लगता है, झुरझुरी छूटती है किताब देखकर। वेद, ऋगवेद सामने रख दिया तो वो भाग जाएँगे।
मैं ये सब कोशिश कर चुका हूँ न कि वेद पढ़ा दूँ लोगों को, तो ऐसे भागते हैं! हाँ, उन्हें अपने हिन्दू होने पर गर्व पूरा रहता है। मैं उनके पीछे-पीछे वेद लेकर भागता हूँ, वो कहते हैं अरे! बड़ा मोटा है। तो कहता हूँ ये भगवद्गीता ले लो, इसमें सात-सौ श्लोक हैं। ऋगवेद में दस-हज़ार हैं, छोड़ो। भगवद्गीता में सात-सौ श्लोक हैं, तुम ये ले लो। कहते हैं कि वो भी नहीं पढ़ना। तो मैं कहता हूँ अष्टावक्र गीता ले लो, इसे लेकर भी उनके पीछे जाता हूँ, इसमें सात-सौ भी नहीं, तो कह रहे, 'ये भी नहीं पढ़ना।'
कहते हैं, 'अरे! ज़िन्दगी भर तो हमने कुंजी से पढ़ाई करी है, वो भी परीक्षा के एक रात पहले। आप हमसे कह रहे हो कि दो-सौ श्लोक पढ़ लो, हम नहीं पढ़ेंगे।' दो-सौ भी नहीं पढ़ सकते, तो तुम अपनेआप को काहे के लिए हिन्दू बोलते हो? और तुम हिन्दू ही नहीं बोलते, तुम तो आक्रामक हिन्दू हुए जा रहे हो कि 'मैं ये कर दूँगा, वो कर दूँगा।' मैं तो पीछे भागता हूँ उनके कि हिन्दू हो न, तो बैठते हैं, बात करते हैं, पढ़ते हैं। पर नहीं पढ़ना। तो कैसे हिन्दू हो गये!
और ये बात जितना उत्तर भारतीयों पर लागू होती है, उतनी दक्षिण भारतीयों पर भी लागू होती है। आप किसी चीज़ की निन्दा करने निकले हैं, पहले जान तो लो वो चीज़ क्या है, बस यूँही निन्दा कर लोगे? निन्दा करना बड़ी ज़िम्मेदारी का काम होता है, चाहे निन्दा बोलो, चाहे आलोचना बोलो, जो भी, बहुत ज़िम्मेदारी का काम होता है। जान तो लो, जानने के बाद जो मन में आये बोल लेना, ठीक है।
तो उल्टा चल रहा है, आज जब एक दक्षिण भारतीय देखता है उत्तर भारत की ओर तो पाता है कि अंधविश्वास उत्तर भारतीय समाज में जितना था, पिछले कुछ सालों में और पाँच गुना होकर फूटा है वहाँ। अतार्किकता, अन्धभक्ति जितनी पहले थी उत्तर भारत में, वो पाते हैं आज और ज़्यादा फूटी है। तो वो जो दक्षिण भारतीय हैं, चाहे वो तमिल हों, तेलुगु हों, मलयाली हों, वो सिहर जाते हैं। वो कहते हैं, 'ये सब हमारे यहाँ न आ जाए कहीं। ऐसा नहीं है कि वहाँ है नहीं, है। ठीक है, वहाँ भी खूब है। पर उत्तर भारत की ओर देखते हैं तो वो कहते हैं, 'अरे, बाप रे बाप! कितना ज़बरदस्त अंधविश्वास अब यहाँ पर खड़ा हो रहा है, ये अंधविश्वास हमारी तरफ़ नहीं आना चाहिए।'
और सिर्फ़ अब यहाँ पर बातें चल रही हैं – न जानो, न समझो, बस चुपचाप विश्वास करो। फ़लानी चीज़ में विश्वास करो, आँख बन्द कर लो, ये करो, वो करो, ऐसे भजो। ये चल रहा है। तो कहते हैं, 'हमारे यहाँ नहीं आना चाहिए।' तो इन्हीं बातों के कारण फिर वे वक्तव्य देते हैं कि सनातन धर्म इधर न आ जाए, क्योंकि सनातन धर्म पर उन्होंने आक्षेप क्या लगाये हैं? कि बाँटता है, जाति प्रथा को आगे बढ़ाता है और?
प्र: सामाजिक कुरीतियाँँ।
आचार्य: सामाजिक कुरीतियाँँ लेकर आता है। वो सोच रहे हैं कि इन सबका सम्बन्ध धर्म से है, इनका सम्बन्ध धर्म से नहीं है। धर्म तो इन सब चीज़ों की काट होता है। ये बात हमें समझनी पड़ेगी, हमारे भीतर जितनी भी गन्दगी है, हमारे भीतर वो जो एक आदिम पशु बैठा हुआ है, उसकी काट है वास्तविक अध्यात्म, उसी को वास्तविक धर्म बोलते हैं।
धर्म और अध्यात्म अगर अलग-अलग हैं तो धर्म एकदम झूठा है। धर्म सच्चा तभी है जब धर्म और अध्यात्म एक हों। या आप कह सकते हैं, अध्यात्म ही सच्चा धर्म है। तो हमारे भीतर जो गन्दगी है और जो पशु बैठा है, अध्यात्म तो उसकी काट है, अध्यात्म तो उससे मुक्ति का नाम है। तो अध्यात्म पर हम क्यों उल्टे-पुल्टे आरोप लगा रहे हैं? ये ऐसी सी बात है कि मैं सड़ा-गला खाना खाकर बीमार पड़ा हूँ और इल्ज़ाम दवाई पर लगा रहा हूँ, और अब कह रहा हूँ ये दवाई उठाकर फेंक दो, मैं उसके कारण बीमार पड़ा हूँ। और जिस कारण आप सचमुच बीमार पड़े हो, उससे आपको बड़ा मोह है, बड़ा लगाव है। अब आपका क्या होगा?
दवाई जो थी वो तो आपने फेंक दी, वो दवाई ही आपकी एकमात्र आशा थी, वो आपने फेंक दी। और आप उन चीज़ों को बिलकुल इल्ज़ाम नहीं दे रहे हैं जिनके कारण आप सचमुच बीमार हुए हो। उनको तो आप बिलकुल और दिल से लगा रहे हो, कह रहे हो, 'यही तो असली धर्म है, मैं यही सब और करूँगा।' बेकार की बातें, गप, क़िस्से, कहानियाँँ। धर्म के नाम पर कहानियाँँ चला रखी हैं, कि ऐसा हुआ, फिर वैसा हुआ, फिर उसने ये बोला इससे, फिर इसने ये बोला उससे, फिर फ़लानी नदी पर ये आ गया, ऐसा हो गया, वैसा हो गया। ये सब चला रखा है। ये धर्म होता है? ये धर्म है?
और जो दवाई है उसको आप दूर करते हो, दवाई से आपको बड़ी उकताहट होती है। आपके सामने उपनिषद् रख दिये जाएँ, आप कहेंगे, 'अरे, ये तो कैसी बात बोल दी, हमें नहीं समझ में आता।' क्या नहीं समझ में आता? साधारण बात है, समझ में आता नहीं या समझने की नीयत नहीं है? ये खूब चलता है, कहते हैं कि जो वास्तविक अध्यात्म है वो आम आदमी की समझ में नहीं आ सकता। खूब चलता है ये। समझ में आ नहीं सकता या नीयत नहीं दिखा रहे हो? उसमें तो ऐसा कुछ भी जटिल नहीं जो समझ में नहीं आ सकता, क्योंकि आप ही के जीवन की बात हो रही है।
जब आध्यात्मिक जिज्ञासा की बात हम करते हैं, तो उसमें हम ये तो पूछ नहीं रहे हैं कि एटम के अन्दर क्या होता है, और प्रोटोन को आगे भी और तोड़ सकते हैं कि नहीं, ये तो हम पूछ नहीं रहे हैं। आध्यात्मिक जिज्ञासा का तो मतलब ही यही होता है — 'मैं कौन हूँ? मेरे ज़िन्दगी में क्या चल रहा है? मैं सम्बन्ध कैसे बनाता हूँ? क्रोध कहाँ से आता है? मुझे वासना कहाँ से उठती है? मेरी कल्पनाएँ सब कहाँ से आ रही हैं? मैं किसी चीज़ की कामना कर रहा हूँ तो क्यों कर रहा हूँ? उसके पीछे जा रहा हूँ, पहले क्या पाया था, अब क्या पा रहा हूँ?' ये सब प्रश्न पूछे जाते हैं। इसमें क्या जटिल है कि आप बोलते हो, 'अरे, ये सब तो हमें समझ में नहीं आता'?
'हमें समझ में नहीं आता तो हम क्या करेंगे? हम तो जा रहे हैं क़िस्से-कहानियों में मन लगाएँगे।' ये बेईमानी है, ये ऐसा नहीं है कि ये अक्षमता है कि समझ नहीं आता। इसमें जो कमी है वो समझने के सामर्थ्य की नहीं है, इसमें कमी समझने की नीयत की है। हमारी नीयत ख़राब है इसलिए हमें धर्म नहीं समझ में आता।
प्र: क्या सनातन धर्म और अध्यात्म ये शब्द प्रायः एकदम साथ-साथ चलते हैं?
आचार्य: एकदम साथ। सनातन धर्म अध्यात्म ही है।
प्र: हिन्दुइज़्म , हिदुत्व, इन सबका अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है?
आचार्य: आप एक आम हिन्दू को देखो, उसकी ज़िन्दगी में या उसकी धार्मिक ज़िन्दगी में अध्यात्म कितना होता है? जिसको आप धार्मिक जीवन बोलते हो, एक आम आदमी का धार्मिक जीवन देखो, उसमें आध्यात्म कहाँ है?
प्र: आचार्य जी, बड़ा एक विचित्र सा प्रश्न है, आपने जैसे पेरियार जी का जो जीवन बताया, कुछ कहानियाँँ बतायीं, जिस तरह के आत्मावलोकन से वो गुज़रे होंगे, जैसी जिज्ञासाएँ की होंगी, वो तो बड़ी आध्यात्मिक और सनातनी रहे होंगी?
आचार्य: हाँ बिलकुल! अब ये मेरी बात फिर से थोड़ी विवादास्पद हो जाएगी, पर रामास्वामी पेरियार तो वास्तव में अगर एकदम परिभाषा की बात करें तो सच्चे सनातनी थे। वो सच्चे सनातनी थे, उसी अर्थ में जिस अर्थ में मैं बोलता था कि भगत सिंह पक्के आस्तिक हैं। तो लोग कहते हैं कि उन्होंने तो किताब लिखी है 'व्हाइ आई एम एन एथीस्ट'। मैं कहता हूँ, उनसे बड़ा आस्तिक आपको मिलेगा नहीं जो मुक्ति के लिए अपना प्राण देने को तैयार हो, उससे बड़ा सनातनी कौन हो सकता है! क्योंकि सनातन धर्म का मतलब ही है मुक्ति, उससे ऊपर कुछ नहीं। मुक्ति के लिए अगर प्राण भी देना पड़े तो दे दो, यही सनातन धर्म है।
तो भगत सिंह से बड़ा आस्तिक कौन होगा? लोग कहते हैं, 'नहीं-नहीं, ये तो आप गड़बड़ कर रहे हैं।' तो वैसे अगर अभी मैं बोलूँगा कि पेरियार सच्चे सनातनी थे और ये सब जो अपनेआप को करोड़ों लोग हिन्दू बोलते हैं, ये सनातनी नहीं हैं, असली सनातनी तो पेरियार हैं, तो लोगों को बड़ी दिक्क़त हो जाएगी। यही बात मैं अम्बेडकर पर बोल दूँ तो अभी देखिए कैसा विवाद उठेगा, जलजला उठेगा बिलकुल।
अब बोल दी, लीजिए। क्या बताऊँ, कि अंबेडकर सच्चे सनातनी हैं। कहेंगे, 'अरे! वो तो अन्त समय में जाकर के बौद्ध भी हो गये थे, इतने हज़ारों लोगों को लेकर बौद्ध हो गये थे, आप बोल रहे सनातनी हैं!' भई, सनातन का अर्थ समझोगे तो जानोगे न! किसी भी चीज़ में मान्यता रख लेना, किसी भी चीज़ में आस्था रख लेना, ये सनातन धर्म नहीं होता। जो मिल गया उसी कहानी में विश्वास कर लिया, उसी कहानी के अनुसार जीवन जी रहे हैं, तमाम तरीक़े का कर्मकांड चला रखा है, ये नहीं सनातन धर्म होता है।
जिसमें, जीवन को जो भी चीज़ें रोककर रखती हैं, तुम्हारी चेतना को, तुम्हारी प्रतिभा को जो कुछ बाँधकर रखता है उसको काट डालने की प्रबल चाह हो, वो है सच्चा सनातनी।
और ये परिभाषा कोई मैं नहीं दे रहा हूँ, ये परिभाषा उपनिषद् देते हैं, ये परिभाषा स्वयं श्रीकृष्ण देते हैं, यही सनातनी परिभाषा है सनातन धर्म की।
प्र: शुरुआत में आपने सनातन प्रक्रिया को कैसा माहौल चाहिए, उसकी बात करी थी। तो अभी चन्द्रयान-३ की जो सफलता हुई, तो इस पर जो मेहनत लगी होगी, जिन वैज्ञानिकों ने इतने सालों तक काम किया होगा।
आचार्य: हाँ, उनको सनातनी मान सकते हैं, काफ़ी हद तक।
प्र: माहौल रहा होगा जो सनातन संस्कृति को चाहिए।
आचार्य: आप अगर विज्ञान की बात कर रहे हैं और कह रहे हो कि सनातन मन के विकसित होने के लिए एक अनुकूल माहौल माने संस्कृति चाहिए तो वो माहौल तो ज़्यादा विदेश में पाया जाता है। तो सच्चे सनातनी के पाये जाने की ज़्यादा सम्भावना इस समय यूरोप या अमेरिका में है, क्योंकि वहीं पर विचारों का खुलापन, विचारों की उदारता, चित्त की स्वतन्त्रता, इसका माहौल है। भारत में तो माहौल ही नहीं है, भारत में तो इस वक़्त ये हालत है कि आप कुछ बोल दो, आपको तत्काल बोल देंगे, 'धर्मद्रोही है, इसकी भर्त्सना करो या इसको मार दो', ये चल रहा है भारत में तो।
आइंस्टीन हैं न सनातनी असली! घुस गये बिलकुल वो, स्पेस-टाइम (स्थान और समय) को ही उन्होंने कह दिया, 'नहीं बाबा, जो तुम सोच रहे हो कि अलग-अलग हैं स्पेस और टाइम , न-न-न, जोड़ो इनको एक्स , वाई , जेड , टी (x,y,z,t) करो। और हर चीज़ बदलते फ्रेम के साथ नहीं बदलती। अगर धर्म का आशय होता है एबसॉल्यूट की खोज तो कम-से-कम भौतिक जगत में जो एक एबसॉल्यूट है, वो तो आइंस्टीन उठाकर लाये। बोले, एक चीज़ एबसॉल्यूट है — 'स्पीड ऑफ़ लाइट' , फ्रेम ऑफ रेफ्रेंस बदल भी दो तो वो नहीं बदलेगी। तो ये हुआ न सनातनी! अब कहेंगे, 'यहूदी थे, सनातनी बोल रहे हो! यहूदियों को सनातनी बोलते हो!' हाँ भई, कर लो मेरी भी निन्दा, कर लो। करते ही रहते हो, और कर लो।
प्र: तो कौन सनातनी है, कौन राष्ट्रवादी है, इसके ठप्पे हम एक-दूसरे पर लगाना बन्द करें, बातों का इशारा इस ओर है?
आचार्य: हाँ। एक-दूसरे पर ठप्पा हम लगा भी इसलिए रहे हैं ताकि दूसरे को हीन साबित करके अहंकार अपनेआप को श्रेष्ठ घोषित कर सके। सारा आध्यात्म इसीलिए होता है, ताकि भीतर जो अहम् बैठा है, इसकी करतूतों पर नज़र रख सको और देख सको कि कितना मूर्ख है। और अन्ततः इससे कहो कि तू जा, सो जा। 'आत्मा की गोद में, सत्य की गोद में, तू सो जा, अहंकार।' यही अध्यात्म का अन्तिम लक्ष्य है।
नहीं तो हम बाक़ी सारे काम तो इसीलिए करते हैं न कि मैं तुझसे बेहतर हूँ। अहंकार कहता है, 'मैं तुझसे बेहतर हूँ, मेरा घर तुझसे बेहतर है, मेरी पत्नी तुझसे बेहतर है, मेरा सबकुछ तुझसे बेहतर है, तो फिर मेरा धर्म भी तो तुझसे बेहतर है।' तो दुनिया में जितने लोग हैं सबको यही लगता है कि उन्हीं का धर्म सबसे बेहतर है, ये अहंकार है बस, और कुछ नहीं।
जबकि धर्म का काम है वास्तविक अहंकार को गिराना, लेकिन अहंकार धर्म को भी अपना चारा बना लेता है, खाना, भोजन। धर्म इसलिए होता है कि वो अहंकार को नष्ट कर सके। हो उल्टा जाता है, अहंकार धर्म को खा-पीकर बढ़िया डकार मारता है और मोटा हो जाता है, और कहता है, 'और धर्म लाओ', जितना धर्म लाओगे अहंकार उतना बढ़ेगा।
प्र: और ये अहंकार के द्वारा गटका गया धर्म ही है जिसके कारण ये नौबत आ गयी है कि ऐसे कॉमेंट्स आ रहे हैं।
आचार्य: बिलकुल। मुझे इतना दुख हो रहा है कि सनातन धर्म को लेकर के ऐसी बातें कही जा रही हैं। जो सबसे ऊँचा शब्द है 'सनातन धर्म', आज वो कैसे निन्दा का विषय बन गया है! कैसे गाली जैसी चीज़ बन गया है! और कौन ज़िम्मेदार है? वो लोग ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने धर्म को इतना गिरा दिया, जो धर्म के नाम पर अंधविश्वास फैला रहे हैं वो ज़िम्मेदार हैं। इनके मुँह से 'धर्म' शब्द आ कैसे गया? या तुम ये सब जो कर रहे हो उसमें तुमने धर्म का नाम जोड़ कैसे दिया?
जो धर्म के नाम पर लोगों को कहानियाँँ सुना-सुनाकर मनोरंजन कर रहे हैं, ये लोग ज़िम्मेदार हैं कि आज 'सनातन' शब्द की इतनी अवमानना हुई है। 'सनातन' शब्द को इतना अपमान झेलना पड़ा, कौन ज़िम्मेदार है? यही सब तो ज़िम्मेदार हैं लोग।
लोगों को श्रीकृष्ण की गीता से नहीं मतलब है, श्रीकृष्ण के रास से मतलब है। ये लोग हैं न जो कृष्ण की गीता का और वेदान्त का अपमान करवा रहे हैं। ये गीता का नाम ही नहीं लेते, ये बार-बार बस वही कि ऐसा हुआ, वैसा हुआ फिर फ़लानी गोपी, फिर ये और वो, और नाम लोगे तो उससे हो जाएगा।
अरे! तुम ही तो हो जो फिर सनातन का अपमान करवा रहे हो और दुनिया हँस रही है सनातन पर कि देखो, सनातन का मतलब है इस तरह की कपोल-कल्पनाएँ, क़िस्सेबाज़ी, जिसके नीचे दर्शन कुछ नहीं, जिसके नीचे समझ, अंडरस्टैंडिंग कुछ भी नहीं। और लोग हँस रहे हैं चारों-तरफ़ से।
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