संवेदनशीलता ही वास्तविक सभ्यता है || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

7 min
31 reads
संवेदनशीलता ही वास्तविक सभ्यता है || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: देखिये, ये अदब है ज़िन्दगी जीने का। हम बच्चों को ना अपने, बड़े ही सतही एटिकेट सिखाते हैं। जीवन भी एक सम्मान माँगता है। हमको वो सम्मान देना नहीं आता, हमें सतही अदब तो आता है। कुछ मैनर्स ,एटिकेट हम जान गए पर उसके आगे की बात हम नहीं जानते हैं। बहुत सतही है। बहुत, बहुत ही सतही है और वो नकली है। एक असली एटिकेट भी होता है। आप कैसे जानोगे कि कब किसकी आँखों में आँख डाल के देखना है, और कब नहीं देखना? कैसे जानोगे? कौन सी मर्यादा आपको ये सिखा सकती है? और इसका बड़ा एटिकेट है, कि आंख कब झुकनी है और कब उठनी है। एक कमरा है, उसमें साँस भी कब लेनी है, उसका भी एक एटिकेट है क्यूंकि साँस लोगे तो हवा भी कंपित होती है। और वो गहरी संवेदनशीलता से ही निकलती है बात, अन्यथा, ये कोई किताब नहीं सिखा पाएगी। ये बिलकुल नहीं जान पाओगे।

श्रोता: सर, संवेदनशीलता एक्सैक्ट्ली क्या होती है?

वक्ता: संवेदनशीलता होती है कि जो कुछ भी है, मैं उसको अनुभव कर रहा हूँ। आप कब कहते हो कि, ‘’मेरा कोई अंग अब संवेदनाहीन हो गया?’’ जब आप उस पर कुछ रख भी दो, तो भी कुछ पता न चले। है ना? उसको चिकोटी भी काटो, तो पता न चले। तो जो हो रहा है, वो उसको रजिस्टर नहीं कर पा रहा जो है । वो उसको रजिस्टर नहीं कर पा रहा, तो इसको आप क्या बोलते हो संवेदनहीनता है ना? तो संवेदनशीलता क्या हुई? कि हल्की से हल्की चीज़ भी जो हो रही है, आप उसके प्रति सजक हो।

श्रोता: लेकिन, हमारा मन तो फ़िल्टर कर देता है बहुत चीज़ें?

वक्ता: मन फ़िल्टर कर देता है, सो अलग बात है। मन तक पहुँच भी रही है? मन को ये ट्रेनिंग भी दी है कि जो आ रही है हल्की हिलोरें, उनका महत्त्व है। तो हम में वो संवेदनशीलता है नहीं, और वो बड़ी गहरी संवेदनशीलता होती है।

श्रोता: एम्पेथी कहते हैं संवेदनशीलता को?

वक्ता: सेंसिटिविटी और वो सिखाई नहीं जा सकती। उसकी ट्रेनिंग नहीं हो सकती। घुस कर के कहीं पर लोगों को नमस्कार करना है, आप ये तो सिखा दोगे बच्चों को, पर घुसे और देखा कुछ, और कदम ठिठक ही जाएँ। ये कैसे सिखाओगे?

श्रोता: सर, जो हमने ऑब्ज़रवेशन सेशन किया था अभी उसके द्वारा हम यही सीख नहीं दे रहे, एक तरह से?

वक्ता: दे रहे हैं, बिलकुल दे रहे हैं। कैसे? जो कुछ भी सूक्ष्म है ना, वो हमको समझ में आना बंद हो चुका है। हम उसको रजिस्टर ही नहीं करते। हल्की गुनगुनाहटें, अव्यक्त बातें, इनका हमारे लिए कोई मतलब बचा नहीं है। मौन, मौन के हल्के से हल्के स्पंदन, वो कहाँ कुछ भी कंपाते है हमारे अन्दर? जिस किसी ने सूक्ष्म को, सटल को रजिस्टर करना बंद कर दिया, वो धीरे-धीरे अब मुर्दा होता जा रहा है। आप समझ रहे है ना? मुर्दा, किसको आप बोलते हो? आप उसी को बोलते हो ना, जिसको थप्पड़ भी मार दो तो भी वो नहीं हिलेगा? संवेदनहीनता हो गई है पूरी, इसी का नाम तो है कि जीवन ख़त्म हुआ। तो हम वैसे ही होते जा रहे हैं। खामोशी चिल्ला भी रही होती है, तो हमें सुनाई नहीं देती।

खामोशी जानते हैं, कैसे चिल्लाती है? बिलकुल कभी थोड़ा सा प्रयोग करिएगा। सन्नाटा हो रात का गहरा, गहरा सन्नाटा। आप सो रहे हैं आपके बगल में कुछ लोहे का रखा हुआ है, मान लीजिए पानी पीने की गिलास रखा हुआ है लोहे का, और बिलकुल शांति है। ये नहीं कि ऐ.सी की आवाज़ है, कूलर की आवाज़ है, या हाईवे से ट्रक की आवाज़ है, बिलकुल शांति है। और आप ध्यान में हैं, बिलकुल गहरे ध्यान में हैं। और वो गिलास गिर पड़े तो ऐसा नहीं प्रतीत होता कि खामोशी पर अचानक बलात्कार कर दिया गया हो। खन- खन- खन- खन- खन! ये होता है संवेदनशीलता का मतलब कि हल्का से हल्का भी कुछ हो; चाहे इन्द्रियों के जगत में या मानसिक जगत में, तो हम जगे हुए रहें उसके प्रति।

शब्दों को ही नहीं पढ़ें, उसके भाव को भी पढ़ें। कहने वालों ने कहा है, इसलिए कि जीवन अपनी कहानी पूरी तरह से कहता है पर मौन में कहता है। और फिर आप में बड़ी संवेदनशीलता चाहिए मौन की आवाज़ सुनने के लिए। पर हमें तो व्यक्त आवाजें भी सुनाई देनी बंद हो गई हैं। हमसे अगर कोई बोले कुछ आहिस्ता, हौले से कुछ बोले, तो हमें कहाँ समझ में आता है। चिल्लाना पड़ता है। चिल्लाना पड़ता है ना? तो मौन तो बिलकुल ही आहिस्ता बोलता है, वो तो फुसफुसाता भी नहीं है। शून्य सामान आवाज़ है उसकी, अनहद नाद है उसका, सुनाई ही नहीं पड़ेगा। तो इसी लिए हमें जीवन की कहानी का कुछ पता नहीं क्यूंकि जो भी सूक्ष्म है, उस पर न तो हमें ध्यान देना आता है, न ही सुनना आता है।

कोई चिल्लाए, लाउडस्पीकर चाहिए वो भी कान के बिलकुल करीब तो हमें सुनाई पड़ता है। यह जीवन का है। समझिएगा कि आप जागते जा रहे हो, जब आपको वो सब दिखाई देने लगेगा, जो अभी दिखाई नहीं देता। जब आपको वो सुनाई देने लगे, जो अभी सुनाई नहीं देता। आप गहरे मौन में चले जाइए, अभी तो आप पाएँगे कि ये जो बाहर से आवाजें आ रही हैं ये सड़क से, ये भी सुनाई दे रही हैं। ये पहले रजिस्टर ही नहीं हो रही थीं। थीं पर रजिस्टर ही नहीं हो रही थीं। जैसे-जैसे मौन में जाते जाओगे, वैसे-वैसे जो कुछ सूक्ष्म है वो भी आपके सामने खुलता जाएगा।

एक उदाहरण देता हूँ ये आवाज़ सुन रहे हैं (पंखे की आवाज़ की ओर इशारा करते हुए) ज़रा सी भी नहीं है, पर आप अभी इसलिए सुन पा रहे हैं क्यूंकि आप अभी थोड़े शांत हो गए हैं। दूसरा उदाहरण देता हूँ: ठीक इस समय अगर कोई बाहर से आए, तो वो यहाँ आएगा, बैठेगा, तो उसको वो बड़ी साधारण सी बात लगेगी कि वो पर्स की या चैन की आवाज़ करे, कोई किताब निकाले और उसके पन्ने पलटे और उसको आवाज़ में कुछ भी अप्रिय नहीं लगेगा। उसको ये नहीं लगेगा कि मैंने कुछ गलत कर दिया। पर जो बाकी आप लोग बैठे हो, आपको वो आवाज़ इतनी ज़ोर की सुनाई देगी कि आप कहोगे कि, ‘’रुको, कितनी आवाज़ कर रहे हो।’’

आप जब खुद शोर में होते हो तो नक्कारखाने में सूक्ष्म आवाजें नहीं सुनाई देती, बिलकुल नहीं सुनाई देती।

प्रेम का अपना एक कायदा है, उस कायदे को जानिए। आपने वो कायदा नहीं सीखा, तो आप अशिक्षित हैं। जैसे बोलते हो ना कोई गँवार चला जा रहा है, जानता नहीं है। जीवन की भी कुछ रस्में होती हैं, रिवायतें होती हैं; उनको जानिए। जीवन की रस्म ये है कि, अनओबट्रूसिव रहो। अनओबट्रूसिव का मतलब जानते हैं? दखलअंदाजी मत करो, इसको सीखिए। बिना दखलअंदाजी के जीवन कैसे बिताना है। जिसने कायदा नहीं सीखा, उसने कुछ नहीं सीखा।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories