समलैंगिकता पर

Acharya Prashant

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समलैंगिकता पर
ये कौन-सी बड़ी बात हो गई कि किसी पुरुष को स्त्रियाँ अच्छी लगतीं हैं, किसी को स्त्रियाँ अच्छी नहीं लगतीं? तुम्हें स्त्रियाँ नहीं अच्छी लगतीं तो तुम्हें कुछ और अच्छा लगता होगा। तुम किधर की ओर भी खिंच रहे हो, तुम सत्य की ओर तो नहीं खिंच रहे न? जो कुछ भी तुम्हें खींच रहा है, वो झूठ ही है। लोगों को बड़ी दिक़्क़त होती है, समलैंगिक लोगों से। और वो दिक़्क़त उन्हें क्यों होती है? क्योंकि वो चाहते हैं कि स्त्री है तो पुरुष की ओर जाये और पुरुष है तो स्त्री की ओर जाये। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा एक व्यक्तिगत सवाल है। मेरे घर में लगभग प्रतिदिन कोई-न-कोई मुद्दा होता है जो मेरी सेक्सुअलिटी (कामुकता) पर रिवॉल्व (घूमना) होता है कि आई डोंट गेट अट्रैक्टेड टू वूमेन (मैं महिलाओं के प्रति आकर्षित नहीं हूँ), ऐसा एक माहौल है घर में। तो घर वाले चाहते भी हैं कि मेरे को शादी करना है और मैं उसके अगेंस्ट(खिलाफ़) हूँ। तो ये घर में बहुत दिनों से इसपर एक युद्ध जैसा चल रहा है कि क्या हो। तो इसके लिए मैं क्या करूॅं?

आचार्य प्रशांत: दो गंजेड़ी थे, एक खम्भे पर चढ़ गया, एक गड्ढे में गिर गया। जो गड्ढे में गिर गया वो खम्भे पर चढ़नेवाले से कम नशे में था? तो कुछ होते हैं जो स्त्रियों की ओर आकर्षित होते हैं, वो गड्ढों में गिरे होते हैं। कुछ होते हैं जो स्त्रियों की ओर नहीं आकर्षित होते हैं, वो खम्भों पर चढ़े होते हैं।

जो खम्भे पर चढ़ा है, गॉंजा तो उसने भी उतना ही चढ़ा रखा है न जितना गड्ढे में गिरनेवाले ने? बात ये है कि तुम गड्ढे में गिर रहे हो या खम्भे पर चढ़े हुए हो या बात ये है कि नशा नहीं होना चाहिए? गड्ढा, खम्भा एक हैं। दोनों नशे के प्रतिनिधि हैं।

एक आदमी है जो औरतों की ओर भागता है, एक आदमी है जो दौलत की ओर भागता है, एक आदमी गाड़ियों की ओर भागता है, एक आदमी पुरुषों की ओर ही आकर्षित हो जाता है, एक आदमी प्रतिष्ठा की ओर आकर्षित हो जाता है। इन सब में कोई मूलभूत अंतर है क्या?

तो ये कौन-सी बड़ी बात हो गई कि किसी पुरुष को स्त्रियाँ अच्छी लगतीं हैं, किसी को स्त्रियाँ अच्छी नहीं लगतीं? तुम्हें स्त्रियाँ नहीं अच्छी लगतीं तो तुम्हें कुछ और अच्छा लगता होगा।

कह तो रहा हूँ, कोई गड्ढे में जाकर गिरता है, कोई खम्भे पर चढ़ जाता है। नशे में कुछ भी हो सकता है। हाँ, जो खम्भे पर चढ़ते हैं उन्हें अपनी श्रेष्ठता का गुमान हो जाता है, वो कहते हैं, हमें देखो!

और कई बार जो गड्ढे में गिरते हैं उन्हें अपनी श्रेष्ठता का नाज़ होता है। वो कहते हैं, हमें देखो! हमने सही काम किया है, हम गिरे थोड़े ही हैं। हम स्नान कर रहे हैं। हम गड्ढाजल में स्नान कर रहे हैं। अरे! तुम किधर की ओर भी खिंच रहे हो, तुम सत्य की ओर तो नहीं खिंच रहे न?

जो कुछ भी तुम्हें खींच रहा है, वो झूठ ही है। लोगों को बड़ी दिक़्क़त होती है, समलैंगिक लोगों से। और वो दिक़्क़त उन्हें क्यों होती है? क्योंकि वो चाहते हैं कि स्त्री है तो पुरुष की ओर जाये और पुरुष है तो स्त्री की ओर जाये।

स्त्री, पुरुष की ओर चली भी गई तो क्या पा जाएगी? पुरुष, स्त्री की ओर चला भी गया तो क्या पा जाएगा? और अगर देह ही पानी है तो क्या फ़र्क पड़ता है कि तुम किसकी देह पा रहे हो? अगर देह ही तुम्हारा लक्ष्य है, अगर देह के तल पर ही तुम्हारी गतिविधि हो रही है तो इसको पाओ कि उसको पाओ कि रबर को कोई गुड़िया ही पकड़ लो! वो भी चलतीं हैं सेक्स डॉल्स। देह-तो-देह है, मिट्टी-तो-मिट्टी है, पदार्थ-तो-पदार्थ है।

तो ये कोई प्रश्न नहीं हुआ। मूल बात का उत्तर दो, मूल बात ये है कि जिसकी ओर खिंचना चाहिए तुम्हें वास्तव में, उसकी ओर खिंचते हो कि नहीं खिंचते हो? ज़िन्दगी समझना चाहते हो या नहीं समझना चाहते हो? उलझे–उलझे ही रहना चाहते हो या सुलझाव तुम्हें आकर्षित करता है?

तमाम तरह की चिंता और बेचैनी में ही रहना चाहते हो या शांति तुम्हें खींचती है? वो है असली चीज़ जिसकी ओर बढ़ो! तुम स्त्री की ओर बढ़ो, तुम पुरुष की ओर बढ़ो, तुम गधे की ओर बढ़ो, तुम घोड़े की ओर बढ़ो, सब एक बराबर हैं। ये सारी बातें एक तल की हैं, समझ रहे हो न?

अलग सिर्फ़ वो होता है जो परमात्मा की ओर बढ़ता है। उसकी ओर बढ़ो, उसकी बात करो। वो असली काम करो, फिर ये नकली सवाल भूल जाऍंगे। घरवाले अभी तुम पर तोहमत(आरोप) लगाते हैं। कल को हो सकता है कि तुम घरवालों के कहे अनुसार बदल जाओ। और घरवाले तुम्हें स्वीकृति देने लगें, मान्यता देने लगें।

तो तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी ज़िन्दगी बेहतर हो जाएगी? आज जो लोग तुम पर आक्षेप लगाते हैं, कल वो तुम्हें सम्मान देने लगेंगे। लेकिन भीतर का सूनापन तो फिर भी बना रहेगा न। भीतर का जो सूनापन है, न उसे औरत भर सकती है, न उसे आदमी भर सकता है।

जो लोग तुम पर तोहमत लगा रहे हैं, उनका सूनापन भर गया? औरत अपने घर आदमी ले आती है, आदमी अपने घर औरत ले आता है। ये तो समलैंगिक नहीं हैं न ये तो विषमलैंगिक हैं। तो इनकी विषमताओं ने इनका जीवन भर दिया? शांत हो गए ये?

परमात्मा को पाना इतना ही आसान होता कि ब्याह लाओ। तो फिर तो सब तर गये होते।

प्रश्नकर्ता: लेकिन आचार्य जी, कभी–कभी ये प्रश्न भी मेरे मन में उठता है कि परमात्मा है तो मतलब वो क्या है?

आचार्य प्रशांत: तुम्हारा स्वेटर है? (प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए)। ये तिनका है? परमात्मा माने क्या है? गेंद है? गुलाल है? गद्दू सिंह हैं? परमात्मा क्या है? ये प्रश्न क्या है?

हर बात में कहते हो तुम कि तू क्या है? मैं कहता हूँ, ये अंदाज़-ए-गुफ्तगु क्या है? ये किस तरीक़े की बात कर रहे हो? हर बात में कहते हो कि तू क्या है? और मैं कहता हूँ, ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है? ये तरीक़ा क्या है बात करने का? कि बात–बात में कहते हो, तू क्या है? परमात्मा क्या है?

क्या है? अंडा है? हाथी है? घोड़ा है? क्या चाहते हो? क्या बता दिया जाये? आसमान का बादल है?

ये जो सुन रहा है न अभी भीतर, समझना चाहता है, वो परमात्मा है। वो जिसकी खातिर तुम जिज्ञासा करते हो, वो परमात्मा है। वो जिसके लिए मन बेचैन रहता है, वो परमात्मा है। आई बात समझ में?

तो नहीं कहा जा रहा, परमात्मा को पाओ। तुमसे कहा जा रहा है कि बेचैन हो न तो बेचैनी मिटा दो। तुम्हारी बेचैनी ही प्रमाण है परमात्मा का। तुम्हारे प्रश्न ही प्रमाण हैं कि परमात्मा है। उसी की खातिर तो सारे सवाल करते हो, वही तो चाहिए। जो तुम्हें चाहिए–ही–चाहिए उसका नाम परमात्मा है।

परमात्मा वो चाहत है जो बदल नहीं सकती। तुम्हारी सारी चाहतों के नीचे जो चाहत है उसका नाम परमात्मा है। उसे तुम कोई और नाम भी दे सकते हो। सत्य बोल दो, शांति बोल दो, मौन बोल दो, कुछ भी बोल दो।

इच्छाएँ हैं न तुम्हारे पास? तो यही प्रमाण है कि परमात्मा है। उसी की मूल रूप से इच्छा है तुमको।

“जिन्हें नशा उतारना हो, वो बोतल का ब्रांड बदलने की कोशिश में न लगे रहें। पहले ‘खम्भा छाप’ पीते थे, अब ‘गड्ढा छाप’ पी रहें हैं, पर पी ज़रूर रहें हैं।”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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