समभाव क्या है? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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समभाव क्या है? || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: दिखता दोनों को है, ज्ञानी को भी और अज्ञानी को भी, आँखें दोनों की ही काम करती हैं| ज्ञानी, अज्ञानी आँखें दोनों की ही काम करती हैं| पर एक यदि पत्ती को देखेगा तो उसके लिए पत्ती क्या है? ‘पत्ती’, एक शब्द, एक परिभाषा, एक संकल्पना, और दूसरा जब पत्ती को देखेगा, तो उसका पत्ती को देखना एक दूसरी ही घटना है, अव्याख्य घटना| वो पत्ती के साथ एक है, वो पत्ती में और अपने में अंतर नहीं पा रहा है| जिसको कृष्णमूर्ति कहते हैं, “दृष्टा दृश्य है”| उसके लिए पत्ती अब एक परिभाषा नहीं है| उसके लिए पत्ती क्या है? जैसा उन्होंने लिखा है, ‘आश्रय भूत एक नित्य सत्य है’| यही लिखा है न ? क्या लिखा है ?

श्रोता १: एक सत्य, पूर्ण अरूप तत्व में प्रकाशित होता है |

वक्ता: उसको दिखाई पड़ेगा कि इसमें और मुझमें, और पत्थर में और हवा में एक तत्व है| ये भेद होता है ज्ञानी और अज्ञानी की दृष्टि में| अज्ञानी की दृष्टि में पत्ती और हवा दो अलग-अलग तत्व हैं, और वो उनमें क्या रखेगा? भेद रखेगा| ज्ञानी पत्ती को देखेगा तो ये नहीं है कि पत्ती नहीं दिखाई पड़ेगी| तुम उससे कहोगे, “पत्ती उठा कर लाओ”, तो पत्ती ही उठा के देगा, पत्थर नहीं उठा कर दे देगा| पर गहराई से उसको ये पता है कि पत्ती हो, और चाहे पत्थर हो, और चाहे उन दोनों को जानने वाली चेतना हो, ये क्या हैं? ये एक हैं| यही दोनों की दृष्टि में अंतर है और इसी को समभाव भी कहते हैं|

श्रोता २: एक दृष्टि|

वक्ता: एक दृष्टि, ये एक दृष्टि है|

श्रोता ३: पर इन सबके तो आकार हैं|

वक्ता: आकार हैं| ‘पत्ती’ माने आकार|

श्रोता ३: और निराकार?

वक्ता: निराकार, आँख से तो नहीं दिखेगा| किस आँख से? जो आँख पत्ती को देखने वाली है, उससे तो नहीं दिखेगा| लेकिन आँख के पीछे जो निराकार है, जिसके कारण आँख आकार को देख पाती है, वो निराकार को देख लेगा| अभी थोड़ी देर पहले महर्षि क्या कह रहे थे? कि यदि देह हो, तो देह को ही देखोगे| और यदि आँख, मात्र आँख है, तो वो आकार को ही देखेगी, क्योंकि आँख आकार को देखने के लिए ही बनी है| पर यदि आँख ऐसी है कि वो अपने पीछे के स्त्रोत को समझती है, तो फिर वो पत्ती के स्त्रोत को भी समझेगी| नहीं समझे? अगर आँख अपने ही स्रोत को नहीं जानती, तो वो पत्ती के स्रोत को भी नहीं जानेगी| तो आँख ऐसी करो जो बाहर बाद में देखती हो, जिसने पहले भीतर जा कर अपने स्रोत को, अपनी व्यवस्था को जान लिया हो, अपने उद्गम को जान लिया हो| जिस आँख ने अपने उद्गम को जान लिया, वो आँख पत्ती के उद्गम को भी जान लेगी| नहीं समझ रहे हो?

संसार के स्रोत की बात हम करते हैं, अपने स्रोत को समझते नहीं हैं| और ये बड़ा साधारण सा प्रश्न है कि जो अपने स्रोत को नहीं समझता, उसे हक़ क्या है ये सब बातें करने का कि दुनिया किसने बनाई? लेकिन हमें ये बातें करने में बड़ा मज़ा आता है कि ये दुनिया किसने बनाई, ये क्या हुआ| हम क्या हैं, हमें ये पता नहीं, दुनिया का हिसाब-किताब हमको जानना है, ये असंभव है| और यही काम हमारी शिक्षा व्यवस्था करती है| या कि नहीं करती है? मैं क्या हूँ इसकी ख़बर नहीं, दुनिया जाननी है| नहीं हो सकता| नहीं हो सकता |

श्रोता २: और सर, यही लागू करने वाली बात है|

वक्ता: यही लागू करने वाली बात है|

श्रोता ३: कुछ भी जानने के लिए पहले स्वयं को जानना होगा|

वक्ता: बढ़िया, बहुत बढ़िया|

श्रोता २: और सर, इसमें ये भी है कि हम नकार भी नहीं सकते कि हम जानना नहीं चाहते, क्योंकि जानना हमारा स्वभाव ही है |

वक्ता: जानते तो हम रहते ही हैं| तुम आँख खोलते हो, और आँख खोलते ही क्या शुरू हो जाता है?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जानना|

वक्ता: तो इसलिए जानना स्वाभाव है|

श्रोता ४: बहुत लोग यह कुतर्क भी करते हैं कि मैं तो जानना ही नहीं चाहता| तो फिर..?

वक्ता: हाँ, बहुत लोग हैं जो ये भी कहते हैं कि अगर मैं नहीं जानना चाहता तो, मुझे समझना ही नहीं है| किसको बेवक़ूफ़ बना रहे हो? हर समय तुम जान ही रहे हो, तुम लगातार जानना चाहते हो| तो मत बोलो कि मैं जानना नहीं चाहता| हर समय तुम जानना ही चाहते हो| और क्या करते हो? आँख किसलिए है? कान किसलिए है? कान क्या कर रहा है लगातार?

श्रोता ३: ये जो सवाल कहा, उसने वाक्य कहा कि मैं जानना नहीं चाहता, इसका मतलब पिछला कोई वाक्य उसने समझा होगा, तभी तो ये जवाब आया|

वक्ता: बहुत बढ़िया| हाँ, बिल्कुल ठीक| एक प्रयोग करके देखते हैं| बोलो, ‘मैं जानना नहीं चाहता’|

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मैं जानना नहीं चाहता|

वक्ता: क्या कहा?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मैं जानना नहीं चाहता|

वक्ता: क्या कहा?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मैं जानना नहीं चाहता|

वक्ता: क्या कहा?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): मैं जानना नहीं चाहता|

श्रोता २: तो फिर पूछ ही क्यों रहे हो|

श्रोता ३: ये कैसे जान रहे हो कि मैं नहीं सुन रहा हूँ?

श्रोता १: मगर ये बार-बार दोहराना, ये क्यों कर रहे हो? इसका मतलब तुम जान रहे हो कि मैं सुन नहीं पा रहा|

वक्ता: मैं दावा करता भी रहूँ कि मुझे नहीं सुनाई पड़ रहा, मैं नहीं जानना चाहता, तो भी जान तो रहा ही हूँ| ये बेईमानी है कि मैं कहूँ ‘क्या कहा?अरे क्या कहा?’| फोन कॉल होती है, जब वो एक ऐसी हालत मैं पहुँच जाती है जहाँ पर आप खुले आम काट भी नहीं सकते हो, तो अक्सर आप ऐसे ‘हेल्लो…..हो…. लो, लो, ख़राब हो गया’ कहकर कॉल कटते हो|

(हँसी)

तो ये वैसे वाली बेईमानी है कि मैं जानना नहीं चाहता |

श्रोता ३: लेकिन ऐसा होता है बहुत बार कि कोई पूछे कि आवाज़ नहीं आ रही, वहाँ से जवाब आता है, ‘नहीं’|

(हँसी)

श्रोता २: जैसे आपने अभी कहा कि जैसे ही आँख खोलते हो, वैसे ही जानना शुरू होता है| ये भी अपूर्ण है| इससे थोड़ा और पीछे जाते हैं कि तुम जब हो, तभी जानने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है|

वक्ता: बेशक-बेशक, हाँ-हाँ| तुम ऐसे सोचो कि जब तुम सो रहे हो, जिसको तुम बोलते हो, ‘मैं सो रहा हूँ’, अगर उस समय भी कोई नाक बंद कर दे, तो जानोगे कि नहीं जानोगे?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): जानेंगे|

वक्ता: तो तुम ये दावा भी नहीं कर सकते कि सुषुप्ति में नहीं जान रहे| सुषुप्ति में भी अगर कोई धीरे से नाक पर क्लिप लगा दे, तो जानोगे कि नहीं जानोगे? तुम लगातार जान रहे हो|

जानना ही तुम्हारा होना है |

-‘ज्ञान सेशन’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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