सम्बन्ध क्या हैं? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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सम्बन्ध क्या हैं? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

श्रोता: सम्बन्धों को कैसे बनाए रखें?

वक्ता: पहले यह समझना पड़ेगा ‘सम्बन्ध’ माने क्या ? यह शब्द जब हमारे दिमाग में आता है तो इसके दो अर्थ हो सकते हैं। ध्यान से समझिएगा:

एक अर्थ तो यह है कि कुछ शब्द हैं जिनको हम सम्बन्ध मान लें। दोस्त, माँ, बाप, पति, पत्नी, बहन, भाई। हम कहते हैं इसका अर्थ है सम्बंधित होना। यह सम्बन्ध हैं। जीवन में यही तो सम्बन्ध होते हैं। मालिक-नौकर, शिक्षक-छात्र। यही तो सम्बन्ध होते हैं। तो इन शब्दों को हम सम्बन्ध मान लें और मुझे ऐसा लग रहा है कि रोहित जब कह रहे हैं कि “सम्बन्धों को कैसे बनाए रखें?” तो ‘बनाए रखें’ से मतलब ही यही है कि इस तरह के जो सम्बन्ध हैं उनको कैसे वैसा ही रखा जाए जैसा उनको होना चाहिए। होना चाहिए का क्या अर्थ है? कि हमे पहले ही पता है कि अगर माँ है और बेटा है तो उनमें ‘इस’ प्रकार का सम्बन्ध होना चाहिए। थोड़ा बहुत दाएं-बाएं हो सकता है पर अगर ज्यादा विचलन हो तो हमें स्वीकार नहीं होगा। अगर दो दोस्त हैं तो उनमें ‘ऐसा’ ही सम्बन्ध होना चाहिए। और जैसा पहले से ही निर्धारित है कि ‘ऐसा’ सम्बन्ध दो दोस्तों के बीच में होता है, उस से हटकर अगर कोई सम्बन्ध बन रहा है तो हमको बड़ी अजीब बात लगेगी। हम स्वीकार नहीं कर पाएंगे।

सम्बन्धों के देखने का एक तरीका तो यह है कि सम्बन्धों का अर्थ है, दो लोगों के बीच में बंधा-बंधाया रिश्ता। दो लोगों का जो आचरण होता है वह इस-इस प्रकार से हो, उसके कुछ नियम, यह है सम्बन्ध। और शायद रोहित ऐसे ही सम्बन्धों की बात कर रहे हैं।

सम्बन्ध एक दूसरे प्रकार के भी होते हैं।थोड़ा उसको देखेंगे। वह दूसरा प्रकार होता है कि अभी जब तुम यहाँ बैठे हुए हो और तुम्हारे हाथ में एक कॉपी है और एक पैन है तो तुम उस से सम्बंधित हो। निश्चित रूप से सम्बंधित हो! तुम यहाँ पर बैठे हो, मेरे साथ हो, मेरी बातें सुन रहे हो, तुम मुझसे सम्बंधित हो। मैं तुमसे बात कर रहा हूँ तो मैं तुमसे सम्बंधित हूँ। और ज़रूरी नहीं है के यह जो सम्बंधित है यह पहले से ही परिभाषित हो।

बड़ा मुश्किल है पहले से ही परिभाषा कर पाना कि अभी यह जो घट रहा है यह क्या है। इसको तुम एक शब्द में कैद नहीं कर पाओगे। ठीक-ठीक देखा जाए तो इसमें कुछ-कुछ दोस्ती जैसा भी है, कुछ-कुछ शिक्षा जैसा भी है, कुछ ऐसी आत्मीयता है जो घरों में पाई जाती है, तो तुम कह सकते हो कि मैं बड़ा भाई हूँ अभी। तुम एक शब्द में इसको सीमित कर ही नहीं पाओगे।

मैं पूछूं के जो तुम्हारे पास किताब है उस से तुम्हारा क्या रिश्ता है तो तुम उसको किस शब्द में सीमित करोगे? और सीमित कर नहीं पाओगे क्योंकि उस किताब से तुम्हारा रिश्ता निरंतर बदल भी रहा है। जब तुम उसे नहीं पढ़ रहे, जब तुम उसे दर-किनार कर रहे हो तो तुम्हारा उस से एक रिश्ता है, पूरे सेमेस्टर उसे हाथ नहीं लगाते तो एक रिश्ता है और एग्जाम के दिनों में वही किताब क्या हो जाती है? बड़ी महत्वपूर्ण! ज़्यादातर समय उस ही किताब के साथ बीतने लगता है जिसको तुमने पिछले कुछ दिनों में बहुत ध्यान से देखा भी नहीं था। रिश्ता बदल गया। क्या नाम दोगे? और मज़े की बात यह है कि साल पूरा होते ही वही किताब बंद होकर के कहीं रख दी जाती है। रिश्ता फिर बदल गया। क्या नाम दोगे?

तो एक सम्बन्ध तो वह है जो अतीत से आ रहा है। घर, परिवार, राष्ट्र, दोस्ती-यारी। और वह पूर्व निर्धारित है। पहले से ही पता है कि ऐसा है.

मैं इसका दोस्त हूँ और दोस्ती में ऐसा-ऐसा किया जाता है, बात ख़त्म। यह मेरी बहन है, यह मेरा भाई है और इनका साथ ऐसा रिश्ता होता ही है। दुनिया में हर भाई का हर बहन से यही रिश्ता होना है। बात पक्की।

दूसरा तरीका है रिश्तों को देखने का कि रिश्तों में कोई अतीत नहीं होता। रिश्ता ठीक अभी का होता है। अगर तुम मुझे अभी ध्यान से सुन रहे हो तो बड़ा बढ़िया रिश्ता है। बड़ा अच्छा सम्बन्ध है। अगर अभी कुछ लिख रहे हो किताब पर तो उस किताब से तुम्हारा बड़ा गहरा और घनिष्ठ सम्बन्ध है।

और इसी तरीके से दो प्रकार का जीवन होता है। एक जीवन तो वह कि मुझे पहले से ही पता है कि मेरा किस से क्या रिश्ता है और उसको जीना कैसे है, और मैं उसको उसी तरीके से जिए जा रहा हूँ। कोई मेरा भाई है तो मुझे पता है भाई के साथ अच्छे से रहना चाहिए, भाई मुसीबत में हो तो मदद करनी ही पड़ेगी। क्यों? क्योंकि ऐसा सिखाया ही गया है। और यह बात अतीत से चली आ रही है।

दूसरा यह है कि जो मेरा भाई है उस से ठीक अभी एक वास्तविक दोस्ती है, वास्तविक मित्रता है और उस वास्तविक मित्रता के कारण मुझे अच्छा लगता है उसके पास होना। उस से बात करना, उसकी मदद करना। क्या करना चाहोगे? अपने भाई की मदद इसलिए करना क्योंकि वह तुम्हारा भाई है या इसलिए करना क्योंकि तुम्हें वह बहुत पसंद है और भाई नहीं भी होता तो बहुत अच्छा दोस्त होता।

*पहला विकल्प*, क्योंकि वह भाई है। एक ही घर में रहते हो और भाई हो तो ऐसा होना ही पड़ेगा। पहले से ही एक रिश्ता निश्चित कर दिया गया है कि यह तो मेरा भाई है, ऐसा तो होना ही पड़ेगा इसके साथ। तो एक तरीका तो यह है अपने भाई के साथ होने का।

और *दूसरा विकल्प*, कि यह भाई नहीं भी होता तो भी मेरी इस से मित्रता इतनी गहरी है कि मुझे इसके साथ होना बहुत अच्छा लगता है। फिक्र किसको है कि भाई है कि नहीं। भाई कम है दोस्त ज्यादा है।

इन दो तरीको में से ज्यादा जीवित तरीका कौन सा है?

सभी श्रोतागण: दूसरा।

वक्ता: तो इसका मतलब है कि आप अभी साथ हैं मेरे। बढ़िया!

*रोहित,* *सम्बन्ध समझ में आ रहे हैं ?* एक चीज़ होती है *‘रिलेशन-शिप ‘*। पहले से ही बनी हुई है। जब पहले से ही सोच के बैठे हो कि इस व्यक्ति से मेरा ऐसा सम्बन्ध होना ही है तो उस सम्बन्ध में कुछ नया नहीं रह जाता। कोई ताज़गी नहीं रह जाती। कोई जीवन ही नहीं रह जाता।

*दूसरी चीज़ होती है*, ठीक अभी-अभी सम्बंधित होना। उसको हम रिलेशन-शिप की जगह रिलेटिंग कह सकते हैं। क्योंकि वह ठीक अभी हो रहा है। इसमें कुछ दूसरी बात होती है। इसमें जान होती है। इसमें असलियत होती है।

अब यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस तरीके के रिश्ते रखना चाहते हो। पर इतना मैं कहे देता हूँ कि जहाँ कहीं भी रिश्ते सिर्फ कुछ शब्दों के नाम भर होंगे, वहाँ उन रिश्तों में कुछ होगा नहीं। चल रहा होगा पर वह ऐसे ही चल रहा होगा जैसे एक जेल में दो कैदी साथ-साथ चल रहे होते हैं कि उनके पास कोई विकल्प ही नहीं है। अब एक साथ डाल ही दिए गए हैं तो एक साथ रहना ही है। उनका कोई प्रेम नहीं है आपस में। उनकी कोई मैत्री नहीं है आपस में। एक विचित्र सी मजबूरी भर है। निभा रहे हैं! रिश्ते निभाने की चीज़ नहीं है।

रिश्ते आनंद की बात है। सम्बंधित होना मौज की बात है। मैं अगर तुमसे सम्बंधित हूँ तो मुझे अच्छा लग रहा है तुमसे बात करके। और मैं चाहूं तो निभा भी सकता हूँ। बहुत मौके ऐसे देखे होंगे कि दिखता होगा कि बस रिश्ता ढोया जा रहा है। जब रिश्ता ढोया जाता है तो बड़ी मुर्दा चीज़ हो जाती है। फिर उसमें बोरियत होती है। फिर उस से छोड़ने का मन करता है।

एक शायर का है,

*प्यार को प्यार ही रहने दो*, कोई नाम न दो|

और हम नाम दिए बिना मानते नहीं हैं। हमको अच्छे से पता है कि यह तो भाई है। सगा भाई! इस से इतनी दूरी तक जाया जा सकता है। और यह है चचेरा भाई। तो इस से इतनी ही दूरी तकजाऊँगा। फिर कोई और दूर का भाई है। और कोई बस दोस्त है। पता है कि इतनी ही दूरी तक जा सकते हैं। हमने हज़ार नाम दे रखे हैं, हमारे जो रिश्ते हैं वह नामों में कैद हैं। फिर इसी कारण छटपटाहट होती है क्योंकि हम व्यक्ति को देखते ही नहीं।दोस्ती, मैत्री या प्रेम तुम आदमी से करोगे या एक शब्द से करोगे? पर तुम्हारे सामने एक व्यक्ति खड़ा हो और तुम्हें व्यक्ति दिखाई ही ना दे, सिर्फ रिश्ते का नाम दिखाई दे तो तुम्हारे जीवन में मित्रता आएगी कहाँ से? तुम्हारे सामने एक आदमी खड़ा है, तुम्हें दिखाई दे रहा है कि भाई है। भाई है तो इसके साथ अच्छा ही होना है। तुम्हारे सामने एक दूसरा आदमी खड़ा है, तुम्हें वह आदमी नहीं दिखाई दे रहा। तुम्हें बस यह दिखाई दे रहा है कि मैं इसे जानता नहीं या यह तो पडोसी के यहाँ का है और पड़ोसियों के परिवार से हमारी दुश्मनी रही है। तुम्हें व्यक्ति नहीं दिखाई दे रहा। तुम्हें एक रिश्ता दिखाई दे रहा है। जब व्यक्ति दिखाई ही नहीं दे रहा और अतीत से आया हुआ एक पूर्व-निर्धारित रिश्ता भर दिखाई दे रहा है तो फिर कुछ भी होने की सम्भावना रहेगी नहीं।

व्यक्ति को देखना असली बात है। और उस व्यक्ति के अतीत को देखना एक शब्द को देखने की बात है। मैं तुमसे बात कर रहा हूँ। यह पहली बार नहीं है कि तुमसे बात कर रहा हूँ। मैं अभी यह देखूं कि अभी तुम कैसे हो, और अभी तुम सुन रहे हो बड़े ध्यान से या मैं यह याद करूँ कि अतीत में तुम कैसे थे?

*तुमसे जो मेरा सम्बन्ध है मैं उसको अतीत से बांधकर नहीं रख सकता। मैं यह नहीं कह सकता कि अतीत में यह कैसे थे,* उसी से निर्धारित होगा कि मेरा इनसे रिश्ता क्या है और उसी से निर्धारित होगा कि अभी मेरा इनसे व्यवहार क्या है। तुम अभी जैसे हो मेरे लिए बहुत अच्छे हो और इतना काफी है। किसी अतीत कि *आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे सामने जो व्यक्ति बैठा है उसे देखो। उस से तुम अपने सम्बन्ध का नाम मत देखो। वह काफी है!*

घर जाते हो तो यही मत करो कि मुझे पता है यह लोग कौन हैं। माता हैं, पिता हैं, यह बहन बैठी है और वह भाई बैठा है, वह नौकरानी है, वह पड़ोसी है, यह एक-आद दोस्त हैं। तुमने किसी इंसान को नहीं देखा। तुमने सिर्फ लोगों के माथे पर रिश्तों का ठप्पा लगा दिया। तुम उस व्यक्ति को देख ही नहीं पा रहे ठीक से क्योंकि तुमने पहले ही कह दिया ‘यह पिता है’। जब तक पिता को देखोगे, इंसान को नहीं देख पाओगे। और यही कारण है कि हमारे सम्बन्धों में इतनी दूरी बनी रहती है। क्योंकि हम शब्दों से चिपके हुए हैं, ‘पिता!’ उस व्यक्ति को देखा कभी ठीक-ठीक? अब बेटा बनकर देखोगे तो बाप ही दिखाई पड़ेगा। व्यक्ति को देखो और फिर असली घनिष्ठता आ पाएगी। फिर दोस्ती कर पाओगे, फिर प्रेम की सम्भावना होगी।

*सम्बन्ध नहीं*, व्यक्ति!

*सम्बन्ध अतीत का होता है,* *व्यक्ति अभी का होता है. इसी पल ,* इसी क्षण।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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