समझ और ज्ञान || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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समझ और ज्ञान || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्नकर्ता: सर, मैं इंटेलिजेंस (समझ) और इन्फ्लुएंस (प्रभाव) में अंतर समझती हूँ, पर आखिरकार मैं दूसरों से इन्फ्लुएंस (प्रभावित) हो जाती हूँ।

आचार्य प्रशांत: ऐसा कभी होता नहीं। कहावत भर है कि ‘आँखों देखी मक्खी निगलना’। कभी आँखों देखी मक्खी निगली जाती नहीं। जो समझ गया, वो नहीं निगलेगा मक्खी। कुछ हो जाए, वो नहीं निगलेगा मक्खी। जो जान ही गया कि क्या होते हैं बाहरी प्रभाव, कुछ हो जाए वो प्रभावित होगा नहीं। तुमको भ्रम हो जाता है कि तुम समझ गए। तुम समझ नहीं गए हो, तुमने पढ़ लिया है। तुम समझे नहीं हो। समझ का मतलब जानते हो क्या होता है? समझ का मतलब होता है कि जीवन ही रूपांतरित हो गया। समझ कभी एक क्षेत्र की नहीं होती कि, "मुझे ये बात समझ में आ गई है।" बात समझ में नहीं आती, जीवन ही समझ आता है। कभी ये मत कहना कि, "वो बात तो समझ आ गई, मगर ये बात समझ नहीं आई।" नहीं! क्योंकि सब जुड़ा हुआ है। एक पर्दा हटता है, तो सौ परदे हटते हैं। सब जुड़ा हुआ है। जैसे कि एक बटन दबाओ और सौ बल्ब जल उठें। सब जुड़ा हुआ है। तो ये मत कहना कि, "एक बल्ब ऑन करना है, एक नहीं होता।" यह पूरा सर्किट है, करंट बहेगा तो पूरे से बहेगा अन्यथा बह नहीं सकता।

देखो होता क्या है। तुमसे यह बात कही गई एक दिन, एक दिन का मुद्दा था कि इंटेलिजेंस वर्सस इन्फ्लुएंस * । यह वैसा ही है कि तुमको कोई आकर बताए बड़े अच्छे से कि मक्खी क्या होती है, और मक्खी के शरीर पर कैसे-कैसे बैक्टीरिया चिपके होते हैं, और ठीक-ठीक नाम बता दे बैक्टीरिया के, और मक्खी की जो * एनाटोमी (शारीरिक रचना) है वो तुम समझ गए, और तुमको लगा कि इससे तुम्हें बात समझ में आ गई है। तुम्हें बात समझ में नहीं आ गई है, तुम्हें मक्खी और बैक्टीरिया के विषय में ज्ञान मिल गया है। यह ज्ञान उस समय तुम्हें समझ का भ्रम देगा, मगर थोड़ी ही देर बाद क्या होगा? दृश्य-२: तुम बाहर निकलोगे और तुम्हें शराब पिला दी जाएगी। अंदर होश का कुछ माहौल बना था, जागने की कुछ सम्भावना बनी थी, पर बाहर निकलते ही बेहोशी के दूत खड़े हैं, और उनके हाथ में मस्त बोतलें हैं। कहेंगे कि, "आ और पी ले!" पी लिया, अब चढ़ गई है अच्छे से। अब उसके बाद दूध में मक्खी है या पानी में मक्खी है, या कि शराब में मक्खी है, किसको खबर है! तुम मक्खी नहीं, मक्खियाँ निगल जाओगे फिर झटका लगेगा, तबियत ख़राब होगी, तब कहोगे कि, "जो मैंने उस दिन पढ़ा था, वो किसी काम नहीं आया। मक्खी के बारे में सब उस दिन बता दिया गया, बैक्टीरिया के बारे में सब उस दिन बता दिया गया, लेकिन देखो फिर भी मैंने मक्खी खाई, एक नहीं बहुत सी मक्खीयाँ खाईं।

तुमने ज्ञान ले लिया था। उस ज्ञान को तुम चाहो तो मन के एक कोने में सजा कर रख लो, जैसे ड्राइंग रूम में तस्वीरें सजा दी जाती हैं, उस तरह तुमने ज्ञान को मन में सजा लिया। तुम्हारा ये इरादा नहीं था कि घर को ही बदल डालो। जीवन का कायाकल्प तुम नहीं चाहते थे। तुम चाहते थे कि, "मैं तो वो ही रहूँ जो मैं हूँ, और मक्खी निगलना भी छूट जाए।" और तुम क्या हो? तुम धारणाओं से घिरे हुए हो, तुम्हें नहीं पता वास्तव में दोस्त कौन है, तुम्हें नशे का अर्थ नहीं पता, तो तुम मक्खी निगलोगे। हम ये चूक कर जाते हैं कि ज्ञान को समझ मान लेते हैं। ज्ञान, समझ नहीं है। ज्ञान तुम्हारा होता है। तुम रहते हो, और ज्ञान तुम्हें मिल जाता है। एक हिंसक आदमी है, उसको ज्ञान चाहिए, बहुत सारा ज्ञान चाहिए। उसको हिंसा बढ़ाने के लिए ही ज्ञान चाहिए। क्या ज्ञान चाहिए? बंदूकों के बारे में, बंदूकों की जो पूरी मैकेनिक्स है, वो उसे समझनी पड़ेगी। तो उसको पूरा ज्ञान चाहिए। उसको और भी ज्ञान चाहिए कि कहाँ हमला कर सकता हूँ, कैसे अधिक-से-अधिक क्षति पहुँचा सकता हूँ। ये ज्ञान उसकी हिंसा को कम करेगा या उसकी हिंसा को आगे बढ़ाने में मदद करेगा?

श्रोतागण: मदद करेगा।

आचार्य: तो ज्ञान का लक्षण ये है कि तुम जो हो, वही रहो और साथ में ज्ञान भी इकट्ठा कर लो। तुम्हारे मन पर अंतर नहीं पड़ने देंगे, जानकारी और आ जाएगी। तो ज्ञान उसके लिए बस सुविधा है अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए। वह जो करना चाह रहा था वही कर रहा है, उसे ज्ञान और मिल गया। समझ, बोध बिलकुल ही दूसरी चीज़ हैं। समझ में यह नहीं हो रहा कि तुम जो हो वह ही रहे आओ और समझदार भी हो जाओ। मूलभूत अंतर समझना। ज्ञान में तुम जो हो वो ही रहे आओगे और बहुत सारा ज्ञान इकट्ठा कर लोगे। समझ में तुम्हें बदलना पड़ेगा। तुम समझ इकट्ठी नहीं कर सकते। समझ का अर्थ ही वही है, वो जो तुम्हारे होने को ही बदल दे। वो तुम्हारे द्वारा इकट्ठे की जाने वाली चीज़ नहीं है। वो तुम्हें ही परिवर्तित कर देती है। तो तुम्हें अपने आप पूछना पड़ेगा कि, "जिसको मैं कह रही हूँ कि मैं समझ गई, क्या उसके बाद मेरे मन का जो मूलभूत ढाँचा है, बेसिक स्ट्रक्चर है, क्या वो बदला है? क्या मेरी दृष्टि नई हो गई है? या मैंने ठान लिया है कि अपने अहंकार को तो कायम ही रखूँगी? जिन सिद्धान्तों पर मैं चल रही हूँ, उनको नहीं बदलने दूँगी। जो मेरी गहरी-से-गहरी आदतें हैं, उन्हें नहीं छोड़ूँगी। जो मेरे आकर्षण हैं, मोह हैं, उनको पकड़े ही रहूँगी पर फ़िर भी समझदार हो जाऊँगी।"

और हम में से बहुत लोग ये चूक करते हैं। वो ऐसी सी बात है कि कैंसर का कोई रोगी डॉक्टर के पास जाए और डॉक्टर से कहे कि, "जो भी दवाई दीजिए, करने को तैयार हूँ, बस कैंसर ख़त्म नहीं होना चाहिए। क्योंकि मैं हूँ कौन? मैंने बड़ा तादात्मय बैठा लिया है कि मैं कैंसर हूँ। अब कैंसर नहीं ख़त्म होना चाहिए। कैंसर ख़त्म होता है, तो जैसे मैं ही ख़त्म हो जाऊँगा। तो आप कहिए कि थोड़ा दौड़ लगा लूँ, आप कहिए तो थोड़ा दाँत ठीक कर लूँ, पर कैंसर मत ख़त्म कीजिए क्योंकि मैं कैंसर हूँ।" अब बीमारी नहीं जा सकती क्योंकि तुम बीमारी से जुड़ गए हो। तुमने अपने आप को बीमारी ही मान लिया है। समझ का अर्थ है कि तुमने अपने आप को जो मान लिया है, वो मानना छोड़ना पड़ेगा। समझ का अर्थ है कि तुम्हारे सारे तादात्मय को टूटना पड़ेगा। आइडेंटिफिकेशन हटे, तब मानना कि तुम समझे। वो नहीं हटे, तो समझे नहीं। उसका अर्थ ये है कि, "तुमने ज़िद्द पकड़ रखी है कि बदलूँगी नहीं। हाँ, मुझे दो-चार बातें बताओ, मैं ज्ञान इकट्ठा करुँगी, ज्ञान अच्छी चीज़ है, दूसरों को बताने के काम आती है, आप इम्प्रेसिव हो जाते हो। ज्ञान इकट्ठा करुँगी, बदलूँगी नहीं।"

अगर ज्ञान से लोग बदल सकते, तो तुम ये सोचो कि दुनिया में इतना ज्ञान है, और बड़े-बड़े ज्ञानी परम बेवकूफी की हरकतें करते नज़र नहीं आते। ज्ञान भर से कुछ हो सकता तो अब तक तो पता नहीं क्या हो जाता। क्रांतियाँ। पचास साल से गीता पढ़ रहे हैं, और मन में डर अभी भी बैठे हैं। डरपोक रहे ही आए, और गीता रोज़ पढ़ते हैं। पाँच वक़्त के नमाज़ी हैं और जीवन बेईमानी से भरा हुआ है। देखे नहीं हैं ऐसे लोग? एक-से-एक व्रत रखते हैं, और तुम पूछो कि, "क्या ये पढ़ा है आपने?"

"हाँ, ये भी पढ़ा है।"

जींवन उथला और नकली। क्या देखे नहीं तुमने ऐसे लोग?

प्र: हाँ सर।

आचार्य: तो ज्ञान किसके काम आया? ज्ञान अहंकार के काम आया। क्योंकि जो साधारण अहंकारी होता है, उसको तो तुम कुछ कह सकते हो कि, "देखो भाई तुमको कुछ पता नहीं है, तू हमारी सुन।" ज्ञानी को तो तुम कुछ समझा भी नहीं सकते। ज्ञानी कहेगा कि, "हमें क्या नहीं पता है।" उसका ज्ञान अब अहंकार के हाथ का खिलौना है। समझ बिलकुल दूसरी चीज़ है। समझ कभी अहंकार के हाथ का खिलौना नहीं बन सकती। समझ तो अहंकार को ही गला देगी। तो किस दिन मानो कि समझ गए? जिस दिन कुछ टूटता सा लगे। किस दिन मानो कि कुछ बात बनी? जिस दिन दुनिया नई-नई सी लगे। किस दिन मानो समझ गए? जब ऐसी सी एक शान्ति अनुभव हो जो आमतौर पर होती नहीं।

दोनों तरह के अनुभव हो सकते हैं समझने पर। एक अनुभव यह भी हो सकता है कि पाँव तले ज़मीन खिसकती नज़र आए, कि जीवन के सारे आधार छिन गए क्योंकि हमारे सब आधार अहंकार ही हैं। जब अहंकार छिनता है, जब हमारी धारणाएँ टूटती हैं, तो हमें डर सा लगता है। हमें गुस्सा भी आता है। पर अगर ज़ोर का गुस्सा आ रहा है, धारणाओं पर चोट सी पड़ रही है, तो समझना कि कुछ हो रहा है। चोट तो लग रही है, पर चोट तो सिर्फ अहंकार पर लग सकती है। और किस चीज़ पर चोट कैसे लगेगी? तो कुछ हो तो रहा है। और दूसरा अनुभव भी हो सकता है कि अचानक ऐसा लगे कि इसी क्षण पर सभी बंधन खुल गए, मुक्त से हो गए। तब भी मानना कि कुछ हो रहा है।

और जब यह सब ना प्रतीत हो तो इसका मतलब ये है कि पुराने ज्ञान ने नई सूचना को अपने आप में समेट लिया है। तुमसे कुछ बात कही गई जो शब्दों तक ही रह गई और शब्दों में कुछ रखा नहीं है। क्या रखा है 'इंटेलिजेंस ' शब्द में? उसे लेकर घूमोगे? 'इंटेलिजेंस ' शब्द में अपने आप में कुछ भी कीमती नहीं है। तो तुमने शब्द इकट्ठा कर भी लिया, तो तुमको क्या मिल गया? उस शब्द की मार हो तब कुछ हुआ। वो शब्द काट कर रख दे, तब कुछ हुआ। तो काटने के दो लक्षण बताए हैं। मन से गहरा प्रतिरोध उठेगा, पर मन का एक कोना स्वागत भी करेगा। वह आशंकित भी करेगा, वो आकर्षक भी लगेगा। जब दोनों घटनाएँ एक साथ होती देखो, तो समझना कि कुछ बदल रहा है। जब ये भी लगे कि जान जा रही है, और ये भी लगे कि नया जन्म सा मिल रहा है तो समझना कि समझे। जब ये तो समझ में आए कि पुराना सड़ा-गला था, पर ये भी समझ में आए साथ-ही-साथ कि कोई बात नहीं पुराना जा रहा है, पर कुछ नया सुन्दर सा जीवन में प्रवेश कर रहा है, तब मानना कि समझ आई। दोनों एक साथ होंगे, डर भी लगेगा, चाहत भी होगी। दूर भी भागना चाहोगे, और खिंचे भी चले आओगे। जैसा प्यार में होता है वैसा। तब मानना कि बात समझ में आई। समझ इतनी सस्ती चीज़ नहीं कि तुम कहो कि, "हाँ, समझ गया!" समझ गया कि दो-चार बातें सुनीं और कहा 'समझ गया'। अगर समझ इतनी सस्ती है, तो मक्खी निगले ही जाओगे। पूरी दुनिया मक्खी निगल रही है। भ्रम में मत आना कि समझ गए। समझ बड़ी सरल है, अगर तुम तैयार हो। समझ बड़ी दुष्प्राप्य है, अगर तुमने तय कर रखा है कि मुझे अपनी गठरी खोलनी ही नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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