साक्षित्व कब घटित होता है? || आत्मबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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साक्षित्व कब घटित होता है? || आत्मबोध पर (2019)

उपाधिविलयाद्विष्णो निर्विशेषं विशेन्मुनि:। जले जलं वियद्वव्योम्नि तेजस्तेजसि वा यथा।।

उपाधियों के नष्ट हो जाने पर मुनि सर्वव्यापक सत्ता अर्थात् विष्णु में, जल में जल, आकाश में आकाश और तेज में तेज की भाँति विलीन हो जाता है।

—आत्मबोध, श्लोक ५३

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, डाइनैमिक मेडिटेशन नियमित हो रहा था, जो अब छूट गया है, उसके बाद विपश्यना करने लगा नियमित, वो भी एक समय के बाद छूट गया। लम्बी दूरी तक चलना शुरू किया है। जब चलता हूँ, तभी साक्षी हो पाता हूँ, तब कोई स्लेफ़ टॉक या विचार नहीं होते, ऐसे लगता है कि शरीर ही चल रहा है या पैर ही चला रहे हैं। मैं पेशे से मैकेनिक हूँ। जब स्क्रू कस रहा होता हूँ तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्क्रूड्राइवर ही काम कर रहा है। ऐसा ही खाना खाते समय, नहाते समय इत्यादि यांत्रिक कार्यों में अब होता है।

श्लोक में जब उपाधियों के नष्ट होने की बात कही जा रही है, तो क्या उसी स्थिति की बात की जा रही है जो अभी मेरी है? अगर है, तो क्या इसी तरह ध्यान को चौबीस घण्टों में फैलाना है? कृपा करके समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: जल में जल का मिलना, आकाश में आकाश का मिलना, तेज में तेज का मिलना प्रतीक हैं, सूचक हैं। वास्तव में किसमें किसके मिलने की बात हो रही है? वास्तव में बात हो रही है अहम् के आत्मा में मिलने की; वास्तव में बात हो रही है झूठ के सत्य में विलीन हो जाने की।

सब झूठ मिला सत्य में और मिलकर मिट गया, क्योंकि सत्य अनन्त है। वो झूठ को बिलकुल पचा जाता है, पचाकर ख़त्म कर देता है; सच मात्र बचा; वही कर्ता है। जब सत्य कर्ता होता है, तो पहली बात ये कि वो सिर्फ़ सत्य का ही कारोबार करता है, वो और कोई कारोबार करता नहीं।

अहम् दो तरीके से विलीन हो सकता है, एक तो ये कि वो सत्य में ही मिल जाए, तब पूरे तरीके से अविरोध की स्थिति आ जाती है। अब कौन किसका विरोध करेगा? सत्य है, वही कर्ता है, अपना कर रहा है। और अविरोध अगर तुम्हारे जीवन में आ रहा है, जैसा तुमने लिखा, तो उसका एक दूसरा कारण भी हो सकता है, और वो होता है अहम् का प्रमाद में आ जाना।

सोते हुए आदमी को किसी चीज़ से विरोध बचता है क्या? बल्कि जब तुम पाते हो कि स्थितियाँ बड़ी अस्वीकार्य हो रही हैं, तो तुम सोने चले जाते हो, क्योंकि अगर जगते रहोगे तो बड़ी तड़प होगी, बड़ी उलझन होगी। माहौल ऐसा है कि उसे स्वीकार नहीं कर सकते, घटनाएँ कुछ ऐसी घटी हैं कि बर्दाश्त नहीं हो रहीं, तो तुम सोने चले जाते हो। सोने से राहत मिलती है, सोना अविरोध की स्थिति है।

अब फँस गया मामला, इसका मतलब अविरोध समाधि में भी आ सकता है और सुषुप्तावस्था में भी आ सकता है।

जो समाधि में पहुँच गया मुनि, वो अविरोध का जीवन जीता है और जो गहरी नींद सो गया, वो भी अविरोध का जीवन जीता है, उसे भी जीवन में कोई दिक़्क़तें नहीं बचतीं। वो कहता है, “भीतर कोई हलचल नहीं है, कोई द्वंद नहीं है। जो हो रहा है, वो बस करने दे रहे हैं, होने दे रहे हैं।”

अंतर कैसे पता किया जाए?

अंतर ऐसे पता किया जाए कि मैंने कहा, जब अहम् आत्मा में मिल जाता है, जब कर्ता आत्मा मात्र बचती है, तो उसका कारोबार सिर्फ़ सत्य का होता है। अपने कारोबार को देखो, क्या सत्य का कारोबार है तुम्हारा? सत्य का अविरोध तो सिर्फ़ सत्य से होता है न?

तुम कह रहे हो, “मैं जो भी कर रहा हूँ अभी, उसमें कोई द्वंद नहीं बचा।” तुम्हारे शब्दों में, "कोई सेल्फ़ टॉक नहीं होती।” तुम्हें लगता है कि तुम साक्षी हो गए हो, ऐसा लगता है कि शरीर ही चल रहा है, पैर ही चल रहे हैं। स्क्रू कसते हो तो लगता है कि स्क्रूड्राइवर ही काम कर रहा है। ऐसा ही खाते समय, नहाते समय होता है। तो द्वंद तो बाकी ही है। एक है जो दूसरे को देख रहा है और कोई तीसरा भी है जो इन दोनों को भी देख रहा है। जो दूसरा है, जो तुम्हारी हर गतिविधि को देख रहा है, उसको तुम साक्षी का नाम दे रहे हो।

साक्षी का होना कभी बताया नहीं जा सकता। साक्षित्व कोई पकड़ में आने वाली घटना नहीं है, कि तुम बताओ कि “जब मैं लम्बी सैर पर निकलता हूँ, तब मैं साक्षी हो जाता हूँ।” तुम्हें कैसे पता तुम साक्षी हो जाते हो? कौन है जिसे पता चल रहा है कि वो साक्षी हो गया, भाई? इसका मतलब साक्षी को भी कोई पीछे बैठकर देख रहा है।

बोध में, समाधि में या समर्पण में अकर्ता हो जाना बड़ी विशिष्ट बात होती है। उसमें साधारण चैन नहीं मिलता, उसमें बड़ी उच्च कोटि का चैन मिलता है। साधारण चैन तो यही है कि अगर आप काम कर रहे हैं, कुछ भी काम हो, तो उसको निर्द्वंद रूप से कर रहे हैं। कोई भी काम हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है क्या काम कर रहे हैं, कुछ भी कर रहे हैं, उसको निर्द्वंद रुप से कर रहे हैं।

समाधि का चैन होता है: सत्य को अपनी बागडोर सौंप देने का चैन। वो सब झूठ मिटाता है, वो सब उलट-पुलट कर देता है। वहाँ बड़ा द्वंद भी उठता है बाहर-बाहर, वहाँ ख़ून-खराबा होता है, क्योंकि सत्य जब कर्ता बनेगा तो झूठ का सारा कारोबार नष्ट करेगा।

तो तुम ख़ुद जाँच लो, तुम्हारे झूठ का सारा कारोबार नष्ट हुआ है क्या? तुम जो काम कर रहे हो, वो सत्य की सेवा में है क्या? क्योंकि सत्य तो जब काम करता है तो सारे सच्चे काम ही करता है। तुम जिस काम में लगे हो, वो सत्य को समर्पित है क्या?

इतना आसान नहीं है साक्षित्व, कि तुम कहो कि “मैं कोई भी काम कर रहा हूँ, उसको चैन से कर रहा हूँ या उससे अलग हटकर कर रहा हूँ तो ज़रूर ये साक्षी या समाधि की स्थिति है।” ना! सबसे पहले ये बताओ कि काम कौन-सा कर रहे हो। कोई कसाई कहे कि “मैं अब बड़े चैन से माँस काटता हूँ। जब माँस काटता हूँ तो बस हाथ माँस को काट रहा होता है, मैं तो साक्षी होता हूँ”, तो वो मज़ाक कर रहा है। तुम्हें सत्य और साक्षित्व उपलब्ध हुआ होता तो सबसे पहले तुम्हारा पेशा बदलता।

अध्यात्म का मतलब ये बिलकुल नहीं होता, ये सब लोग समझ लें, कि तुम जो काम कर रहे हो, उसी काम को और बेहतर करने लगोगे, उसी काम को और सुकून से करने लगोगे। अध्यात्म का मतलब होता है कि सबसे पहले तुम सही काम चुनना सीखोगे। ग़लत काम करते हुए उसको तुम निर्द्वंद भाव से करो या सुकून के भाव से करो, ये कोई अध्यात्म नहीं हो गया। ये अध्यात्म का मज़ाक है! सबसे पहले काम सही चुनो। छोटी-सी ज़िंदगी है।

क्राइस्ट ने देखा एक लड़के को, वो तालाब किनारे बैठ करके मछली मार रहा था। सुंदर, तेजवान लड़का था, पर कर क्या रहा था? मछली मार रहा था। उसके पास गए, बोले, "ज़रा-सी ज़िंदगी है, मछली मारने में ही गुज़ार देनी है? यही काम चुना है तुमने जीने के लिए, ऐसे करोगे सत्य की सेवा, मछली मार-मारकर?"

यही सवाल हर व्यक्ति को अपने-आपसे पूछना चाहिए, “ये धंधा क्यो कर रहे हो?” क्राइस्ट की कहानी में तो वो लड़का क्राइस्ट के साथ चल पड़ा था; तुम्हारी कहानी, तुम जानो!

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