प्रश्नकर्ता: आपने बताया कि संकल्प बदलने मात्र से ही जीवन बदल जाता है। तो अब तक मैं जितना समझ पाया हूँ कि कर्म करना ही जीवन है। हम कर्म ही कर सकते हैं और अगर मैं अपने जीवन को देख पा रहा हूँ, तो जो कुछ जीवन में पहले चल रहा था ठीक, तो उसमें से तो कुछ नहीं बचा करने लायक़। तो अब अन्दर एक बेचैनी चलती रहती है कि भई, कुछ करना है। और जो कुछ भी थोड़ा-बहुत आपकी प्रेरणा से कर रहा हूँ, उसमें लगता है ये तो कुछ नहीं है।
एक अरजेन्सी (आपात स्थिति) सी दिखती है, बहुत कुछ करना है, समय नहीं है। एक उत्साह भी आता है अन्दर से और कभी-कभी थोड़ा-बहुत डर लगता है कि शायद ये माया तो नहीं। तो इसमें मुझे कैसे पता कि जो मेरे अन्दर से निकल रहा है वो सारा ठीक है कि नहीं है और कब माया टेक ओवर (कब्ज़ा) कर लेगी? इसमें मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: माया के जितने उपकरण, जितने संसाधन हैं, वो सब ऐसों के हाथ लगे हुए हैं दुनिया में, जो झूठ का ही पक्ष लेते हैं। वो झूठ का पक्ष लेते हैं और उनके पास बुद्धि है, उनके पास शिक्षा है, उनके पास उत्साह है, महत्वाकांक्षा है। उन्हीं के पास पैसा है, केपीटल। तो प्रकृति के जितने संसाधन हो सकते हैं, चाहे बाहरी चाहे आन्तरिक — बाहरी ऐसे जैसे पैसा, आन्तरिक ऐसे जैसे बुद्धि, ज्ञान — ये किसके पास हैं? बहुत दुर्भाग्य की बात है कि ये सब उनके पास हैं जो झूठ का खेल खेल रहे हैं।
और ये तो दुर्भाग्य है ही, इससे बड़ा दुर्भाग्य आप जानते हैं क्या है? कि जिनको सच पसन्द है, जो सच की बात करते हैं, या सच के साथ हैं, वो बस कीर्तन करना जानते हैं। महत्वाकांक्षा झूठों के पास, डिग्रियाँ, ज्ञान, अनुभव, तन्त्र, व्यवस्था, आर्गेनाइजेशंस झूठों के पास। सच्चों के पास क्या है, वो बैठकर बातें करते हैं और वो अपने इसी अहंकार में खुश रहते हैं कि हम तो सच्चे हैं, ‘देखो हमें दो-चार बातें ऐसी आती हैं जो झूठों को नहीं आतीं।’
बहुत-बहुत ज़रूरत है कि सच के पक्ष में भी तो कोई ऊर्जा दिखाये। हाँ, हम जानते हैं कि ऊर्जा माया का ही दूसरा नाम है, बिलकुल जानते हैं। हम जानते हैं कि जो भी चीज़ें शरीर से सम्बन्धित हैं, संसार से सम्बन्धित हैं, मायावी हैं, बिलकुल जानते हैं। पर माया की काट माया के संसाधनों के उपयोग के बिना नहीं हो सकती। याद करिएगा, “जा ठग ने ठगनी ठगी।” उसी का इस्तेमाल करके उसको काटना होगा। यही ज़बान है, यही वाणी।
शरीर क्या है? तात्विक दृष्टि से देखें तो शरीर तो मिथ्या है, झूठी बात है। एक-एक शब्द झूठा है क्योंकि सच किसी शब्द में आ नहीं सकता। सच अगर शब्दों में नहीं होता तो जो बातें कही जा रही हैं, निश्चित रूप से ये सच तो नहीं हैं। तो फिर क्या हो रहा है यहाँ पर? यही हो रहा है न कि जो शब्द झूठ को फैलाने का काम करते हैं, उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करके, उसी वर्णमाला के अक्षरों का इस्तेमाल करके झूठ को काटने का काम किया जा रहा है।
हम सच की चर्चा तो नहीं कर सकते वर्णमाला का इस्तेमाल करके, लेकिन झूठ को तो काट सकते हैं न। इसी तरीक़े से आप सच नहीं ला सकते अपनी ऊर्जा, अपने ज्ञान, अपने अनुभव का इस्तेमाल करके, लेकिन झूठ को तो काट सकते हैं न। झूठे महत्वाकांक्षी को सच्चा महत्वाकांक्षी टक्कर क्यों न दे, बोलो?
गीता का ज्ञान मिल गया अर्जुन को, अब वो क्या बोले कि दुर्योधन के बाणों को, कर्ण के बाणों को, दुर्योधन की गदा को गीता झेलेगी? बाण को तो बाण ही झेलेगा न। बाण को तो बाण ही झेलेगा न। वही बाण दुर्योधन के हाथ में है, गड़बड़ बात है। वही बाण अर्जुन के हाथ में है, बिलकुल दूसरी बात है। उसी सिंहासन पर दुर्योधन बैठ गया, गड़बड़ बात है। उसी सिंहासन पर युधिष्ठिर बैठ गये, ऐसा श्रीकृष्ण चाहते हैं। बहुत ज़रूरी है कि सिंहासन से दुर्योधनों को हटाया जाए।
बात समझ रहे हैं न?
क्योंकि कोई तो बैठेगा सिंहासन पर, सिंहासन है तो खाली तो रहेगा नहीं। सच्चे लोगों ने सिंहासनों को खाली क्यों छोड़ रखा है दुर्योधनों के लिए? कैपिटल (पूँजी) है तो कहीं लगेगी और किसी के तो हाथ में रहेगी। सब काले लोगों के हाथ में ही कैपिटल क्यों छोड़ रखी है हमने, जो उसका इस्तेमाल मानवता को, पृथ्वी को तबाह करने के लिए कर रहे हैं? बोलिए, क्यों?
और आपने सत्ता उनको सौंप दी, कैपिटल उनको सौंप दी, ज्ञान उनको सौंप दिया, व्यवस्थाएँ, तन्त्र, सिस्टम सब उनको सौंप दिये और उसके बाद आप बैठकर कह रहे हैं कि दुनिया में बहुत पाप बढ़ा हुआ है। ज़िम्मेदार तुम हो। सारी दुनिया पापियों के हाथ में सौंपने के बाद तुम बैठकर के आहें भर रहे हो कि दुनिया में पाप बहुत बढ़ा हुआ है! री-क्लेम , वापस लो। श्रीकृष्ण और क्या कह रहे हैं लगातार? कि सिंहासनों पर धर्मराजों का अधिकार होना चाहिए, दुर्योधनों का नहीं।
वो सीधे-सीधे ये कह रहे हैं कि सत्ता पर धर्म को विराजना चाहिए, अधर्म को नहीं। और धर्म कैसे आएगा सिंहासन पर अगर धर्म लड़ने को नहीं तैयार है? धर्म की क्या हालत है? 'अर्जुन की तरह मैं भाग रहा हूँ, मैं नहीं लड़ूँगा, मैं अहिंसक हूँ, मैं नहीं लड़ता।' पहला पूरा अध्याय ही यही है। लगभग उतरकर भाग ही गया, पीछे से उसे खींचकर लाये हैं, बैठो, कहीं नहीं भागना है। चलो उठाओ बाण। जैसे छोटे बच्चे को बोलते हैं न, ‘सोनू, चलो बॉ एंड एरो उठाओ।’ तो उसको उठवाकर हाथ में दे रहे हैं। वो बोल रहा है, ‘हाथ काँप रहे हैं, पाँव काँप रहे हैं, ये क्या कर रहे हैं, मैं नहीं लड़ूँगा, वो वहाँ बब्बा खड़े हैं।’
ऐसा ही है सज्जनों की टोली। हमें सज्जनों की नहीं, सैनिकों की टोली चाहिए। और सज्जन सब कैसे होते हैं? सज्जन सब ऐसे होते हैं — 'हेहेहे! कोई बात नहीं है, बच्चे हैं, वो दुनिया पर राज कर रहे हैं, करने दो न! हेहेहे!’
(श्रोतागण हँसते हुए)
ये 'हेहेहे' हमें कहीं नहीं ले जाएगा। वो आपके घर में घुसकर मारेंगे, यही होगा। और हो भी यही रहा है न, कि नहीं हो रहा है? घर में घुसकर ऐसे ही थोड़ी होता है कि दरवाज़ा तोड़कर ही घुस रहा है, टीवी से नहीं घुस आये वो आपके घर में? जिनके बच्चे हैं छोटे, वो अच्छे से जानते हैं कि आपके बच्चों को आपसे छीना जा रहा है। उन्होंने आपके घर में घुसकर आपके बच्चे छीन लिये आपसे, उन्होंने आपके घर में घुसकर आपका धर्म छीन लिया आपसे, बोलिए हाँ या न?
तो वो तो घर में घुसकर मार रहे हैं, और हमारा बस यही है कि हेहेहे! घर में घुसकर के उन्होंने हमसे मर्यादा छीन ली, सरलता छीन ली, प्रेम छीन लिया। और घर में घुसकर हमारे घर में वो डाल क्या गये हैं? टीवी उठा लो, मोबाइल फ़ोन उठा लो, देख लो न लगातार उसमें से क्या उड़ेला जा रहा है हमारे घरों के अन्दर। और हम कह रहे हैं, ‘नहीं-नहीं, कोई बात नहीं, देखिए, हमारा तो एक छोटा सा दायरा है, हमने उसको साफ़-सुथरा रखा है।’
साफ़-सुथरा रख पाये हो क्या, बताओ ज़रा? पूरी दिल्ली की हवा प्रदूषित होगी तो आपकी घर की हवा साफ़ रह लेगी? ये कौनसा हिसाब बता रहे हो कि नहीं साहब, हम तो देखिए दुनिया-जहान से क्या मतलब रखते हैं, हम तो भगवान के भक्त हैं, सज्जन आदमी हैं, हम तो बस अपने छोटे से एकान्त में भजन-कीर्तन करते हैं।
अच्छा, वहाँ पर एक्यूआई (वायु की गुणवत्ता) कितना है, बताना ज़रा? जिस एकान्त में बैठकर तुम कीर्तन कर रहे हो, वहाँ कितना है एयर क्वालिटी इंडेक्स (वायु की गुणवत्ता), बताओ? तो ये जो एकान्त साधना और ये सब है न कि हम उलझते नहीं दूसरों से, हम तो अपना बस साफ़-सुथरा रखते हैं, ये ख़ुद को झाँसा देने वाली बात है। आपको क्या लग रहा है आपके बच्चों से आपका जो रिश्ता है, उसको इन दुष्टों ने ख़राब नहीं कर दिया? आपके पति से, पत्नी से या माँ-बाप से आपका जो रिश्ता है, उसको इन दुष्टों ने ख़राब नहीं कर रखा?
कोई यहाँ ऐसा बैठा है जिसके रिश्तों में कहीं कुछ-न-कुछ किरकिरा न हो? किरकिरा समझते हो? चावल खा रहे हो, बीच में कंकड़ आ गया, अब कैसा लगता है? बढ़िया पुलाव था और बीच में आ गया कंकड़, कैसा लगता है? हमारे सब रिश्तों में यही है। पुलाव वैसे बढ़िया है, लेकिन कट से बोलता है, 'आह!' उसके बाद इधर-उधर खोजते हो कि थूकें कहाँ पर, सामने वाले की थाली पर ही कहीं न थूक दें, बहुत ज़ोर की लगी है।
ऐसा किसने किया, बताओ न? सब तकलीफ़ में हैं, किसी का कुछ चल रहा है, किसी का कुछ चल रहा है। उन्होंने करा है। उन्होंने इसीलिए करा है क्योंकि आपने उन्हें अनुमति दी है। सक्रियता दिखानी पड़ेगी, सज्जनता से आगे बढ़कर सैन्यता दिखानी पड़ेगी। आप सुरक्षित नहीं रह पाओगे अगर ताक़त, पैसा, व्यवस्था सबकुछ उनके हाथ में है तो। मत रहिए इस ग़ुमान में कि हमारा क्या बिगड़ता है। सबकुछ बिगड़ता है।
लगकर काम करिए, जो कुछ आपने दिया था अपने व्यापार को, व्यवसाय को, आज तक अपनी तरक़्क़ी के लिए, उससे दूना दीजिए उन कामों को जो आप परमार्थ के लिए कर रहे हैं। अभी तक तो फिर भी ये सम्भव है कि आप जो करते थे, उसमें आपको कहीं हार मिल गयी तो आपने स्वीकार कर ली। अब ऐसे लड़िए कि हारना स्वीकार करना ही नहीं है।
अभी तक तो फिर भी हो सकता है कि आपने कहा हो कि चलो अब और ज़्यादा काम-धन्धा आगे बढ़ाने से क्या होगा, सन्तोष कर लेते हैं। अब जो आप काम में उतर रहे हैं उसमें सन्तोष करिएगा ही मत। ऐसे आगे बढ़िए जैसे हाथी आगे बढ़ता है। रोका नहीं जा सकता फिर उसे, कोई सामने आ जाए। और गति वैसी रहे जैसे बिजली की। हाथी सा ज़ोर, बिजली सी गति।
समझ रहे हैं बात को?
क्योंकि आदमी जब कुछ अपने लिए करता है न, तो फिर भी कह सकता है कि अपने लिए और कितना करूँ, स्वार्थ की भी सीमा होती है, पेट भर गया, कितना खायें। लेकिन जब कुछ आप परमार्थ के लिए कर रहे हों तो फिर करने की कोई सीमा नहीं होती। लगकर करिए, डूबकर करिए, डटकर करिए। और अर्जुन की तरह लड़िए। ये लड़ाई जीतकर दिखानी है। अभी न संयम की बात करिए, न संन्यास की, न सन्तोष की। अभी तो बात है साहस और समर की।
ठीक है?
प्र: आचार्य जी, ताक़त भी है, हौसला भी है, हथियार भी हैं, बस मार्गदर्शन चाहिए।
आचार्य: सब है, आप बस लगकर करिए। ये लड़ाई जीतने जैसी है। ठीक है न? बहुत लड़ाइयाँ लड़ी गयीं व्यर्थ। ये एक सार्थक युद्ध है, एंड दिस डिजर्व टू बी विन (ये जीतने लायक़ लड़ाई है)। और अगर जीत नहीं सकते तो कम-से-कम न्याय तो करें इसके साथ। जितना इसको दे सकते हैं, पूरी आहुति तो दें, फिर जो होगा देखा जाएगा।
वो किस हद तक घुस आये हैं! आज मैं सुबह से गंगा तट पर ही था। कुछ लोग मुझे वहाँ मिले भी थे आपमें से ही। आप वहाँ पर करतूतें देखिए जो चल रही हैं। सिर्फ़ इतना ही देख लीजिए कि वो जो सेल्फ़ी ली जा रही हैं, वो क्या कहानी बयान कर रही हैं। बस ये देख लीजिए, ज़्यादा नहीं।
और मुझे एक नौजवान मिला, पच्चीस ही वर्ष का था। आया तेज़ी से अचानक, मध्यप्रदेश में एक जगह का है, बोलता है, ‘आपको सुनता हूँ, मुझे मेरे घरवालों ने घर से निकाल दिया है।‘ अभी बात नहीं पूरी हुई। वो जाकर किराये पर जहाँ रहने लगा, मकान-मालिक ने उसको घर से निकाल दिया है। बोला, ‘अगर तुम इनको सुनोगे तो तुम्हें किराये पर नहीं रहने देंगे।‘ ये इस हद तक हावी हैं। इस हद तक हावी हैं, लड़ाई हम न लड़ें तो क्या करें? इन्होंने तो गला पकड़ रखा है!
लड़के-लड़कियाँ माँस छोड़ रहे होते हैं, रोज़ मैसेज आते हैं, कॉमेन्ट्स आते हैं कि माँ कह रही है, ‘मैं आत्महत्या कर लूँगी अगर आज तूने बकरा नहीं खाया तो।‘ एक प्रतिशत की अतिशयोक्ति नहीं है। एक प्रतिशत की नहीं है और मैं पूरा तो बता ही नहीं पा रहा कि क्या-क्या मसले सामने आते हैं, क्योंकि बहुत बातें व्यक्तिगत हैं। दुनिया में पैठिए तो पता चले कि दुनिया की हालत क्या है। तो शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व जैसी अब कोई सम्भावना बची नहीं है, अब आर-पार की बात है।
इनका सीधा खेल है। इनका खेल है जी भरकर भोगो, दुनिया तबाह करो, दूसरों को तबाह करो, पेड़ काटो, जानवर काटो, मौज मारो और जीवन इसीलिए है। ये इनका कुल सिद्धान्त है। और इस सिद्धान्त के ख़िलाफ़ जो भी जा रहा है, उसके ये जानी दुश्मन हो जा रहे हैं। आप कोई बहुत अच्छा काम करिए, जिसमें आपको पैसा ज़रा कम मिल रहा हो, और देखिए आपके माँ-बाप ही आप पर कितने ताने कसेंगे।
संस्था में हम सब लोग आपको क्या लगता है कि बहुत परेशान रहते हैं कि दुनिया हम पर दबाव बना रही है। कहा तो ये घर में घुस आये हैं। घरवाले ही कहते हैं, ‘घटिया-से-घटिया काम करो, पर रोकड़ा तो बनाओ न।’ एक ही सवाल होता है फ़ोन आने पर, ‘कितना बना रहा है, कितना बना रहा है, कितना बना रहा है?’ ये इनका सिद्धान्त है।
और ऐसा नहीं है कि जो यहाँ पर हैं वो भूखों मर रहे हैं। मस्त काम करते हैं, खाते हैं, पीते हैं, खेलते हैं, सैलरी भी मिलती है, सबकुछ है। लेकिन दुष्टों का जो सिद्धान्त है न, वो ये है कि कामना इतनी बड़ी (दोनों हाथों से बड़े मुँह का आकार बनाते हुए), सुरसा के मुँह जितनी बड़ी होनी चाहिए। और मिले, और मिले, और मिले, खा लो, सब खा लो और बिलकुल जानवर के तल का जीवन जियो। ऐसा जीवन जिसमें त्याग के लिए कोई जगह न हो। हमें तो भोगना है, त्यागें क्यों। ऐसा जीवन जिसमें प्रेम के लिए कोई जगह न हो। 'अजी साहब, प्रेम वगैरह क्या होता है, आओ सेक्स करें।' जिसमें चेतना की किसी ऊँचाई के लिए कोई जगह न हो। 'ज्ञान का क्या करना है!'
आप देख रहे हो ज्ञान का कितना अपमान है अभी? आपसे मैं अभी कहूँ कि सब लोग सूची बनाइए दस-दस सेलिब्रिटीज की, जिन्हें आप जानते हैं, जो पब्लिक लाइफ़ में, सामाजिक जीवन पर छाये हुए हैं बिलकुल, सूची बनाइए। आप हैरान रह जाएँगे, उस दस में शायद ही कोई ऐसा हो जो अपने ज्ञान के कारण जाना जाता हो, बल्कि उसमें ज़्यादातर ऐसे होंगे जिनको दो धेले का, किसी तरीक़े का कोई ज्ञान नहीं है। ये इनका सिद्धान्त है कि ज्ञान का ज़बरदस्त अपमान करके रखो।
तो सम्मान फिर किसका है? जिस्म का सम्मान है, चकाचौन्ध का सम्मान है, पैसे का सम्मान है। जो जितने धुआँधार तरीक़े से कन्ज्यूम कर रहा हो, भोग रहा हो, उसका सम्मान है। और आपको जानना हो कि ये लड़ाई क्यों ज़रूरी है, तो बस अभी आप या तो यूट्यूब शॉर्टस या इंस्टाग्राम रील्स खोलकर देख लीजिए। आपको समझ में आ जाएगा कि हम कहाँ को आ चुके हैं और अब आगे भी कहाँ को जा रहे हैं।
बहुत तकलीफ़ हो रही है मुझे ये कहते हुए कि हमारे देश का औसत नौजवान, औसत लड़का, औसत लड़की, अब एक औसत पॉर्नस्टार बन चुका है और बहुत ज़िम्मेदारी के साथ ये बात बोल रहा हूँ। और मैं कुछ गिने-चुने पॉर्नस्टार्स की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं इस देश के औसत लड़के-लड़की की बात कर रहा हूँ। और ये घर-घर में हो रहा है। आप इससे मुँह छुपाना चाहते हों तो आपकी मर्ज़ी।
उन्हें वो सबकुछ करना है जो चेतना को गिराता है, उन्हें वो सबकुछ करना है जो ऊँचे मूल्यों के ख़िलाफ़ जाता है। ऊँचे मूल्यों को वो ख़तरा समझते हैं। सादगी, सहनशीलता, संयम — ये उनकी भाषा में गालियाँ हैं। सरलता को वो बेवकूफ़ी मानते हैं। अपने समय में विवेकानन्द भी युवाओं में उतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे, जितने आज के समय में गालीबाज़ लौंडे युवाओं में प्रसिद्ध हैं।
आप किसी औसत नौजवान के पास चले जाइए और उससे पाँच-सात क्रान्तिकारियों के नाम पूछ लीजिए, वो नाम नहीं बता पाएगा। और पाँच-सात गालीबाज़ों के नाम पूछिए वो खटाक से बता देगा। ये करा है उन्होंने हमारे घरों में घुसकर।
आपमें से विवाहित कितने लोग हैं, थोड़ा हाथ उठाइए? (प्रतिभागियों से पूछते हुए) कई लोगों के तो बच्चे वगैरह भी होंगे। मैं आपसे नहीं कह रहा कि संसार को बचाने के लिए लड़ो, मैं कह रहा हूँ अपने घर को बचाने के लिए लड़ो। वो आपके घर में घुसकर आपको मार रहे हैं।
आपको समझ में नहीं आ रही बात?
बस इतना सा है कि वो जो आपकी पराजय हो रही है न, वो दिन-प्रतिदिन हो रही है या हल्के-हल्के, आहिस्ते-आहिस्ते, शनै:-शनै: हो रही है तो आपको रोज़ाना पता नहीं चलती। वरना जितनी पिटाई वो कर रहे हैं हमारी, उतनी अगर वो एकमुश्त कर दें, एक बार में, एक दिन में, तो बहुत ज़ोर का घाव दिखाई देगा।
वो प्रयोग याद है न। मेंढक को डालो उबलते हुए पानी में तो वो तुरन्त कूदकर बाहर आ जाता है, उसकी जान बच जाती है। पर मेंढक को पानी में डालो और पानी को आहिस्ता-आहिस्ता गर्म करो, वो मर जाता है। उसे पता ही नहीं चलता है कि ये इतना गर्म हो गया। हमारी हालत उस दूसरे मेंढक जैसी है। वो दिन-प्रतिदिन अतिक्रमण करते जा रहे हैं हमारे जीवन का लेकिन धीरे-धीरे, दिन-प्रतिदिन, ग्रेजुअल एंक्रोचमेंट (क्रमशः अतिक्रमण)। हमें पता भी नहीं लग रहा कि उन्होंने कितना घेर लिया है हमें।