प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! आचार्य जी अपनी निचाइयों से ऊपर उठने के जितने भी संकल्प लेता हूँ, वो कुछ दिन तो ठीक चलते हैं। लेकिन कुछ समय बाद संकल्पों से बाहर निकलने के लिए मैं जितना खींचता हूँ, उतना नीचे गिरता हूँ। और इस तरह फिर से उसी जगह पर आ जाता हूँ और इसी तरह ये चक्र चलता रहता है।
आचार्य प्रशांत: वो चलेगा न ऐसा, क्यों चलेगा अब समझना गौर से, तुम अपनी हालत को देखते हो ठीक है! उस हालत में तुम्हें कोई खोट नज़र आती है, खोट भी क्यों नज़र आती है? क्योंकि कोई नुकसान हो रहा होता है तुम्हारा उस हालत से। या लोग ताने मार रहें होते हैं लोग कह रहें होते हैं अरे! ये ठीक नहीं ऐसा-वैसा। तो तुम कहते हो ‘भई ये बदलनी चाहिए अपनी ये हालत।’
और बदलने के लिए तुम क्या करते हो? तुम सोचते हो कि अगर मेरी हालत ऐसी न हो तो कैसी हो? ठीक! तुम एक विकल्प तलाशते हो, तुम कहते हो अभी मैं ऐसा हूँ, ऐसा नहीं होना चाहिए, तो मैं एक विकल्प का निर्माण करता हूँ।
कहाँ? अपने खोपडे़ में कल्पना करके। और फिर तुम उस विकल्प की तरफ़ बढ़ने की कोशिश करते हो, तुम उस विकल्प को आज़माते हो, और अधिकांशतः ये होता है कि तुम उस विकल्प पर टिक नहीं पाते हो, तुम वापस लौटकर के अभी जैसे हो, वहीं वापस आ जाते हो, ये होता है?
क्यों होता है? क्योंकि तुम्हारे मन में अभी तुम जैसे हो और तुम जो कुछ भी अभी के अलावा हो सकते हो, वो सब मौजूद तो पहले से ही था। मान लो तुम्हारे पास पाँच विकल्प हैं कुछ होने के, कैसा होने के? मान लो अभी तुम देर से जगते हो, ज़्यादा खाते हो, ठीक है! काम कम करते हो, ये अभी तुम्हारी एक स्थिति है।
तुम्हारे पास इस स्थिति के अलावा पाँच तरह के विकल्प और हो सकते हैं जैसे एक विकल्प ये हो सकता है कि तुम वो इंसान हो जो रोज़ सुबह जल्दी उठकर के दौड़ जाता है। तुम्हारे पास एक विकल्प ये भी हो सकता है कि तुम वो इंसान हो जिसने जीवन में एक सार्थक काम चुन लिया है और अपना पूरा जीवन उसी को झोंक दिया है।
एक तीसरा ये हो सकता है कि तुम वो व्यक्ति हो जो किसी परिणाम वगैरह की परवाह नहीं करता और जो चीज़ सही है वो करेगा, जो चीज़ ग़लत लगी उसको मुँह पर बोल देगा। इस तरीके के मान लो तुमने पाँच विकल्प तुम्हारे मन में आ सकते है।
ये पाँच विकल्प तो तुम्हारे मन में पहले से ही मौजूद है। इन पाँचों विकल्पों को आपस में तौलने के बाद ही तो तुमने वर्तमान का चयन करा था। तुम अभी एक जगह पर बैठे हो उसका नाम क्या है? एक। उस एक के अलावा तुम्हारे पास पाँच और विकल्प है दो, तीन, चार, पाँच, छः।
ये छ: तुमको बहुत समय से पता हैं। और इन छः को तुमने खूब माप-तौल लिया है। मापने-तौलने का तुम्हारे पास पैमाना क्या है क्राइटिरिया (पैमाना) क्या है? कि सबसे ज़्यादा मज़ा कहाँ मिलेगा। सबसे ज़्यादा मज़ा कहाँ मिलेगा, वो क्यों बनाया है पैमाना? क्योंकि हम पैदा ही ऐसे होते हैं। हमें चेतना और तरक्की से ज़्यादा मज़ा चाहिए होता है।
इसमें तुम्हारी गलती नहीं है, बच्चा भी ऐसा ही होता है छोटा। छोटे बच्चे को किसमें ज़्यादा मज़ा आता है?तुम उसको ले जाकर के कहो, ‘चल ये गन्दा पानी पड़ा है इसमें छप-छप कर।’ उसमें ज़्यादा उसको मज़ा आएगा? या उसको पकड़ कर बोलो कि चल अब लिख ‘अ’ से अनार? जल्दी बोलो।
एकदम कीचड़ पड़ा हो और उसमें उसको ले जाओ और बोलो कि इसमें छप-छप करो, उसमें उसको ज़्यादा मज़ा आता है या ‘अ’ से अनार लिखाओ तो उसमें ज़्यादा मज़ा आएगा। तो हम पैदा ही ऐसे होते हैं कि जितने गन्दे काम होते हैं उसमें मज़ा आता है और जो काम ज्ञान को, चेतना को बढ़ाते हैं उनसे हम दूर भागते हैं। ठीक?
तो तुम्हारे पास छ: विकल्प थे जीवन जीने के, उसमें जिस विकल्प में तुमको मज़ा आ रहा था वो तो तुमने चुन ही रखा है। तुम्हारी दृष्टि में यही सर्वश्रेष्ठ विकल्प है। अब कोई आकर के ताना मारता है कहता है, ’देखो! घटिया आदमी, गन्दा काम करता है, बेकार जीवन जीता है, तो तुम आहत होकर के थोड़ी देर के लिए विकल्प नम्बर चार आज़माते हो।
लेकिन जो विकल्प नम्बर चार है ये तो तुम्हारे द्वारा चयनित क्राइटिरिया पर पहले ही इंफिरियर (हल्का, कमतर) है। नहीं समझे बात को। मर्सिडीज़ है, ठीक है! ब्रैंड बताओ? बीएमडब्ल्यू है, ऑडी है, फेरारी है, टोयोटा की कोई बड़ी कार है और स्कूटी है।
ठीक है! तुम्हें मज़ा आता है एक दो कौड़ी की घटिया गन्दी गली में घुस करके, वहाँ पर कोई ऐसी ही कोई रहती है उसको छेड़ने में। क्या करोगे बीएमडब्ल्यू का, वहाँ घुसेगी ही नहीं।
कोई भी विकल्प तुमको ऊँचा या नीचा, तुम्हारे द्वारा निर्धारित मापदंड के अनुसार लगता है न? जब तुम्हें करना ही यही ज़िन्दगी में, जब तुमने तय कर रखा है कि मज़ा किसमे है? महबूबा की गन्दी गली में घुसकर के सीटी मारने में।
तुम करोगे क्या अब बीएमडब्ल्यू का, बीएमडब्ल्यू उस गली में घुस ही नहीं पाएगी, वो फँस गयी है, स्कूटी मस्त है और स्कूटी तुम्हारे पास पहले से है। लेकिन आज ताऊजी ने आकर ताना मारा, ‘है निठल्ला! निकम्मा! बेकार बैठा है, इसके पास बीएमडब्ल्यू नहीं है।’ तो तुम आहत हो गये। तो तुमने थोड़ी देर के लिए किसी से किराये पर ऑल्टो माँग ली।
थोड़ी देर के लिए किराये पर ऑल्टो ले आये क्योंकि ताऊजी बड़ा तीखा व्यंग्य मार कर गये थे बिलकुल ऐसे दिल में पार हो गया। तो तुम ऑल्टो ले आये किराये पर, ज़ूम कार से। अब वो ऑल्टो ही तुम्हारे काम नहीं आ रही क्योंकि वो सड़ी हुई महबूबा की घटिया गली में ऑल्टो ही नहीं घुस रही।
तो तुम वापस लौट कर कहाँ आ जाओगे? स्कूटी पर। हम ऐसी ज़िन्दगी जीते हैं इसीलिए हमारे ढर्रें नहीं बदलते। तुम्हारा ढर्रा नहीं बदलेगा क्योंकि तुमने जीवन में मज़े का जो क्राइटिरिया बनाया है, उस क्राइटिरिया पर तुम्हारा वर्तमान ढर्रा पहले ही नम्बर एक है।
तुम नम्बर एक से नीचे क्यों आना चाहोगे। अगर तुम्हारा क्राइटिरिया ये है कि मुझे ज़िन्दगी में मुफ़्त की खानी है और बिस्तर तोड़ना है। तो तुम अगर एक बेरोज़गारी का जीवन जी रहे हो और पड़े हुए हो और पिताजी से ले-लेकर खा रहे हो, तो ये तो सर्वश्रेष्ठ जीवन है न। क्योंकि तुम्हारा क्राइटिरिया ही क्या है?, राम नाम जपना,पराया माल अपना।
इस क्राइटिरिया पर जो तुम्हारा जीवन है, पहले ही सुपर ऑप्टिमल है ये बदल सकता ही नहीं है। तो तुम इसे अगर बदलने की कोशिश भी करोगे तो तुम लौट-लौटकर अपने पुराने ढर्रों पर ही वापस आओगे।
तो ढर्रा बदलने का ये तरीका कभी काम नहीं आएगा, इसीलिए लोग कहते हैं कि अभी न्यू ईयर (नया साल) आ रहा है, रेज़ोल्यूशन (प्रण) लेंगे हम। लेकिन चार दिन में वो टूट जाता है, टूट इसलिए जाता है, क्योंकि तुम जो चाहते हो वो तो तुम्हें पहले ही मिल रहा था।
तुम कुछ और करते हो तो बल्कि तुम्हें मिलना वो बन्द हो जाता है जो तुम चाहते हो। तो तुम्हें लौटकर वापस आना पड़ता है जहाँ तुम्हें वो पहले ही मिल रहा होता है जो तुम चाहते हो। जब तक तुम उस घटिया महबूबा को चाहना नहीं छोड़ोगे तब तक तुम्हारी ज़िन्दगी में बीएमडब्ल्यू आ ही नहीं सकती। वो स्कूटी और वो घटिया, वो दोनों एकसाथ हैं।
बात समझ में आ रही है?
तुम्हारी ज़िन्दगी में जो कुछ भी है वो तुम्हारी ज़िन्दगी की किसी दूसरी चीज़ से जुड़ा हुआ है। वो तैयार नहीं होगी कभी अपनी तंग गलियों को छोड़ने के लिए। और तुम तैयार होगे नहीं कभी उसको छोड़ने के लिए। तो बीएमडब्ल्यू तुम्हारी ज़िन्दगी में कभी आएगी ही नहीं क्योंकि बीएमडब्ल्यू के आने का मतलब होगा उसको छोड़ना।
कुछ बात बन रही है या मैंने ज़्यादा घूमा दिया?
जो तुम्हारी केन्द्रीय चाहत है जब तक वो नहीं बदलेगी तब तक तुम्हारी वर्तमान परिस्थितियाँ नहीं बदलेगी। लोग कहते हैं न वो अपनी आदतें नहीं बदल पा रहे, अपने ढर्रे नहीं बदल पा रहे, अपना व्यक्तित्व, पर्सनैलिटी नहीं बदल पा रहे। वो तुम इसलिए नहीं बदल पा रहे क्योंकि तुम्हारी केन्द्रीय चाहत नहीं बदल रही। तुम सबसे ऊपर जिस चीज़ को चाहते हो, जब तक उसको नहीं बदलोगे तब तक तुम्हारा रूप, रंग, ढाँचा, लेखा-जोखा, कुछ भी नहीं बदलेगा।
नहीं समझ पा रहे हो?
मैं बहुत बड़ा ज्ञानी बनना चाहता हूँ, ये तुम कह रहे हो बनना चाहते हो लेकिन तुम्हारी जो असली केन्द्रीय चाहत है छुपी हुई, वो क्या है? बिस्तर तोड़ना। तो बिस्तर तो तुम तोड़ ही रहे हो, कुछ बदलेगा क्यों। वो तो तुम तोड़ ही रहे हो। वो तो तुम्हारी वर्तमान हालत है ही, ऑलरेडी (पहले से ही), अद्यतन, अभी, तुम तो अपने जीवन के शिखर पर विराजे ही हुए हो, कुछ क्यों बदलेगा क्योंकि तुम्हारे लिए शिखर का नाम क्या है? बिस्तर तोड़ना। इसे कहते हैं तामसिक पूर्णता।
मैं गलत जगह पर अपनेआप को पूर्ण समझने लगा हूँ। मैं वहीं जमकर के बैठ गया हूँ कुछ क्यों बदलेगा तुम्हारे जीवन में। क्यों बदलेगा? तुम सुख पा रहे हो बस तुम गलत जगह सुख पा रहे हो, तुम तमस में सुख पा रहे हो।
हमारी भाषा में सुअर गाली होता है, क्यों? क्योंकि वो कीचड़ में लोटता है और टट्टी खाता है। सुअर की दुनिया में टट्टी क्या है? सुख। तो वो सुअर ही रहेगा जीवनभर। क्योंकि वो अपना पैमाना नहीं बदल रहा उसके अनुसार, सुख की परिभाषा ही यही कि टट्टी खाओ और कीचड़ में लोटो।
तो तुम्हारे भाषा में सुअर गाली है। सुअर के लिए सुअर का जीवन मस्त है बिलकुल ऐसे (बाज़ुओ को फैलाकर) मोटा होता है। तुमने कोई दुखी सुअर देखा? तुमने कोई आत्महत्या करता सुअर देखा? तुमने देखा कि कोई सुअर तनाव में है, कि कोई इज़्ज़त नहीं देता दुनिया में? है? देखा कोई ऐसा सुअर?तुमने कोई दुबला-पतला सुअर भी देखा है आजतक? मस्त एकदम बिलकुल खा-पीकर के, दुनिया की आबादी बढ़ती जा रही हैं, सुअरों को खाने की कोई कमी नहीं है। तुम जब खाना खा रहे होते हो सुअर खुश हो रहा होता है कि खाओ-खाओ, खाओगे नहीं तो निकालोगे कैसे। सुअर बहुत खुश है।
खुशी ऊँचाई का पैमाना नहीं हो सकती। क्योंकि खुश तो तुम एक-से-एक ज़लील, गिरी हुई, निकृष्ट अवस्थाओं में भी हो लेते हो। लोग कहते हैं न, ‘जो भी है बस खुश रहना चाहिए यार।’ उनको ऐसे दिखाओ पिगी-पिगी, सी हाऊ हैप्पी द पिगी इज़ (देखो सुअर कितना खुश है), सी! (देखो!)।
पिगी नहीं बनने का न, खुश तो पिगी भी बहुत होता है। और न कभी परेशान हो जाया करो, मेरे पास आते हैं,कहते ह हैं, ‘आपके पास रहते हैं हम बड़े गम्भीर हो जाते है, आपके सत्रों में हमने देखा हैं कई बार लोग रो भी पड़ते हैं। आप खुद भी हमें कई बार तनाव में लगते हैं। और दुनिया को देखिए कितनी खुश हैं।’ तो ऐसे में बोलता हूँ, ‘बेटा ज्ञान का पासवर्ड है पीआईजी (पिग), जब भी ऐसे खुश लोगों को देखो तो याद करो कि पीआईजी कितना खुश रहता है।’
उसे कोई तकलीफ़ नहीं। ज़्यादातर दुनियावाले भी ऐसे ही हैं। कीचड़ में लोट रहे है कोई तकलीफ़ नहीं। पहले ऊँचाइयों से प्यार करना सीखो, तब जीवन में दर्द भी आएगा और तरक्की भी। ये खुशी वगैरह बहुत छोटी चीज़ें हैं। हमारी ज़िन्दगी कामना पर चलती है। दोहरा रहा हूँ जब तक अपनी केन्द्रीय चाहत नहीं बदलोगे कुछ नहीं बदलेगा। तुम ये नहीं कर सकते कि मूलभूत रूप से चाह तुम उसी चीज़ को रहे हो जिसको पाँच साल पहले चाहते थे और जीवन तुम्हारा बदल जाए, न। तुम्हें देखना पड़ेगा कि आज तक तुमने जो चाहा है वो चीज़ बहुत ही घटिया थी और चाहने लायक नहीं थी।
तुम्हें अपने अतीत पर थूकना पड़ेगा। तब जाकर जीवन में बदलाव आएगा। तुम अगर वही इंसान हो भीतर-ही-भीतर, छुपे-छुपे जो तुम हमेशा से रहे हो, तो भूल जाओ कि कोई वास्तविक परिवर्तन आ सकता है।
प्रगति तुम्हारी उस दिन नहीं होती जिस दिन तुम्हारे सपने पूरे होने लगते हैं, प्रगति तुम्हारी उस दिन होती है, जिस दिन तुम अपने सपनों पर हँसना शुरू कर देते हो। जिस दिन तुम्हारे सपने तुम्हारे लिए चुटकुला बन जाते हैं, तुम कहते हो ये देखो इस तरीके के तो हमारे सपने हुआ करते थे। ये देखो ऐसी तो हमारी इच्छाएँ होती थी। ये देखो ऐसीओं से तो हमें प्यार हुआ करता था, ऐसे तो हम बेवकूफ़ थे। जब तुम ऐसे हो जाओ कि अपनी ही चाहतों पर हँसना शुरू कर दो, तब समझो कि जीवन अब बदलेगा। तुम्हारी चाहतें वही पुरानी हैं तो तुम भी वही पुराने रह जाओगे।
जवान लोग सब यहाँ बैठे हो, दो काम बहुत ही सोच-समझकर करना, एक प्यार और एक नौकरी। और आमतौर पर जब गलत होते है तो दोनों एकसाथ गलत होते हैं। और खतरनाक बात ये है कि इन दोनों में से एक अगर सही होना शुरू हो गया तो दूसरे को भी या तो सही होना पड़ता है या पीछे छूटना पड़ता है।
आपका जो घटिया व्यावसायिक , पेशेवर जीवन होता है जो आपकी घटिया प्रोफेशनल लाइफ होती है। उसका बड़ा गहरा सम्बन्ध आपके घटिया व्यक्तिगत जीवन से होता है। एक अन्दर की बात बताये देता हूँ, जिस आदमी के पास ज़िन्दगी में करने के लिए कोई ऊँचा, सार्थक काम आ गया न, उसे फिर घटिया आशिकी ज़रूरत नहीं पड़ती।
आपको रोमांस वगैरह लाइफ में ज़्यादा चाहिए ही तब होता है जब आप कोई बहुत बेकार काम कर रहे होते हो, बहुत घटिया नौकरी करते हो, दिन में आठ-दस घंटे वो आपके बिलकुल प्राण चूस लेती है। वो आपको आपकी नज़रों में ही कुत्ता बना देती है। वो आपको आपकी ही दृष्टि में बिलकुल गिरा देती है। आपको अपने से ही नफ़रत हो जाती है उस काम को करके। तो फिर आप जाते हो प्यार का आँचल खोजने के लिए शाम को, रात को, कि दिनभर जो मैं अपनी ही नज़रों में बेगैरत हुआ हूँ, दिनभर जो मैं अपनी ही दृष्टि में अपमानित हुआ हूँ, अब कहीं थोड़ी शीतलता मिल जाए, अब कहीं पर जाकर के थोड़ी प्रसन्नता मिल जाए, तो फिर आप एक राजा-रानी, परी वगैरह कुछ खोजते हो। और चूँकि आप वही व्यक्ति हो जिसने एक घटिया नौकरी का चयन किया है इसीलिए आपने अपने जीवन में जिस स्त्री या पुरुष का भी चयन किया होता है वो भी घटिया होता है क्योंकि चयनकर्ता तो एक ही है।
अब ये बड़ी रोचक चीज़ हो जाती है, घटिया नौकरी में तप्त होकर, क्षुब्ध होकर, अपमानित होकर, लात खाकर, आप जाते हो अपने प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी किसी के पास पनाह लेने, लेकिन ये जिस व्यक्ति के पास आप जा रहे हो, ये वही व्यक्ति है जिसको आपने ही चुना है। तो ये व्यक्ति भी उतना ही गलत है जितनी आपकी नौकरी। आगे कुआँ, पीछे खाई। बोलो साँपनाथ से डसवाना है या नागनाथ से? और चूँकि ये जो आपके जीवन में व्यक्ति है वो है इसीलिए व्यक्ति आपको जाने-अनजाने मजबूर करे रहता है घटिया काम करने को ही।
व्यक्ति गलत है, ये अपने खर्चे बढ़ाएगा आपको मजबूर करेगा कि इतने पैसे तो तुम कमाओ भई , उतने पैसे कमाने के लिए आपको कोई ज़लील नौकरी करनी ही पड़ेगी।
प्यार बहुत सोच-समझकर करना। नौकरी भी बहुत सोच-समझकर करना। नौकरी सिर्फ़ पैसे कमाने का ज़रिया नहीं होती, वो तुम्हारी ज़िन्दगी ही होती है।