
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, लगभग दो साल हो गए हैं। मैं आपको सुन रहा हूँ। उससे पहले लगभग 2010 के आसपास से मैं कुछ-न-कुछ ध्यान की विधियाँ वग़ैरह सीखकर बहुत कॉन्फ़िडेंट रहता था कि हाँ, मैं सही पाथ में आ गया हूँ। उसके बाद तरह-तरह के लोगों को सुनता रहा। उससे पहले भी, मुझे अंदर से एक रहता था कि आई नीड अ गुरु, नहीं तो मुझे लगता था कि कुछ तो खोखला है। मैं ध्यान वग़ैरह कर रहा हूँ, पर उससे बात बन नहीं रही है। मुझे समझ में आ रहा था कि मैं ख़ुद से ही बेईमानियाँ कर रहा हूँ।
फिर आप आए तो मुझे लगा कि यही मुझे चाहिए था। उसके बाद मैं मल्टीनेशनल एक एजुकेशनल कॉर्पोरेट में काम करता था। उसके बाद वो छोड़कर अपना एक एकेडमी शुरू किया और उसमें आपकी जो बातें होती हैं, उसको उसका एसेंस कैप्चर करके लेसंस में डालकर उन्हें बोलता हूँ कि उनको ट्रेनिंग मिल रही है।
पर वो ट्रेनिंग के साथ-साथ, मैं ये सारे बोध की बातें लाइब्रेरी बनाया, उसमें बोध की किताबें, आपकी किताबें बहुत सारे लेकर कर रहा हूँ। लेकिन करते-करते, मेरे दिमाग में और जब आत्म-अवलोकन चलता रहता है, तो मेरे दिमाग में बार-बार ये, ये दिमाग में नहीं, मतलब ये मुझे दिखता है क्लियरली कि एक साइड है मेरे अंदर जो आपको बेच रहा है। मैं आपको बेच रहा हूँ अपने अहंकार को खिलाने के लिए। क्योंकि, आपने अभी आपने बोला, अटैक्स। सारा दिन अटैक्स देखता हूँ मैं आप पर, ऐसे-ऐसे गंदे लैंग्वेज भर देते हैं आपके सोशल मीडिया में। मैं किस-किस को बोलूँ, मैं पूछता हूँ, क्यों बोल रहे हो? आप बताइए। कोई आंसर नहीं होता है उनका, बस उनको गालियाँ देनी होती हैं। तो बहुत बड़ा एक वर्ग है जो आपका नाम सुनकर चिढ़ते हैं।
तो मैं अपने एकेडमी में हर समय, जब लेसंस में आपका नहीं मेंशन करता कि ये आचार्य जी से ही मैंने लिया है। तो मैं उनको दे देता हूँ और वो बहुत तारीफ़ करते हैं उसकी। तो मेरा एक साइड रहता है, जिसको बड़ा मज़ा आता है कि हाँ, मैंने ही तो किया।
अब आई रियली वांट टू नो कि डिसर्नमेंट, क्या मैं कॉन्फ़िडेंट रहूँ अपने डिसर्नमेंट पे, कि जो मैं कर रहा हूँ, कहीं मैं सोच रहा हूँ कि ये बैटल फील्ड में हूँ और मैं कहीं श्रीकृष्ण के विरुद्ध ही तो नहीं लड़ रहा। तो अब मैं जब इन्वेस्ट करने का सोचता हूँ कि इस एकेडमी में और इन्वेस्ट करूँगा, उसको और फैलाऊँगा, इस काम को और ज़्यादा ताक़त देने की कोशिश करूँगा। तो मेरे दिमाग में ये रहता है कि कहीं ये मैं ख़ुद को, मतलब मेरे आध्यात्मिक जर्नी में, स्पिरिचुअल जर्नी को सैबोटाज करके, मेरे ईगोइक जर्नी तो आगे लेकर नहीं चल रहा है इसको।
आपने कई बार बोला है, इस टाइप के क्वेश्चंस को बहुत बार आपने एड्रेस किया है। तो आपका जो आंसर रहा है, वो यही रहा है, कि क्वेश्चन करते चलो, आत्मवलोकन करते चलो, जिससे बोध से जो आएगा उससे करते रहो। लेकिन फिर भी मैं पूछ रहा हूँ, क्योंकि मुझे लगता है कि मौका मिला है आपसे फेस टू फेस आने का तो शायद कुछ बत्ती जले।
आचार्य प्रशांत: देखिए, सच कोई चीज़ तो होता नहीं है न, कि उस पर किसी की मालिकियत हो जाए, हक़ हो जाए, कॉपीराइट हो जाए। तो आप सच को अगर आगे बढ़ा भी रहे हैं, तो आपने किसी और की चीज़ नहीं बेच दी। ठीक है? उसको आप बिल्कुल बेझिझक आगे बढ़ा सकते हैं। और यही कारण है कि जो पुराने लोग होते हैं, उनके कथनों पर किसी व्यक्ति विशेष, या समुदाय विशेष, या संस्था विशेष का अधिकार कभी होता भी नहीं है। और न उनकी बात को उद्धृत करने के लिए या आगे बढ़ाने के लिए आपको किसी से अनुमति, परमिशन लेनी होती है।
अब यहाँ पर श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक हो कोई, तो उसके लिए हमें जाकर के किसी की अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वो बात सच्चाई से संबंधित है, किसी की व्यक्तिगत बात नहीं है। और खैर, उस समय तो ये व्यवस्था भी नहीं थी कि कॉपीराइट या ट्रेडमार्क ये सब हो जाए। लेकिन जब वो व्यवस्था शुरू भी हो गई, तो उसके बाद बहुत सारे विद्वानों ने ये करा कि जब तक हम ज़िंदा हैं, ठीक है, क्योंकि हमारी सामग्री हो सकता है, हम उसको आगे-पीछे, ऊपर-नीचे करना चाहें, संशोधित करना चाहें, तो हमारा उस पर अधिकार रहेगा। पर हमारी मृत्यु के बाद, हमारी कही हुई बात सार्वजनिक हो जाएगी, मतलब कोई भी उसको ले सकता है।
तो सच पर किसी का एकाधिकार, मोनोपोली, वर्चस्व नहीं होता है। आप बेशक उसका जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल कर सकते हैं। ये हुई एक बात।
अब इसी के साथ चलने वाली दूसरी बात ये है कि सच को जो आगे बढ़ा रहा है, वो बंदा भी तो सच का होना चाहिए न। जो सच को आगे बढ़ा रहा है, अगर वो अपने स्वार्थ की ख़ातिर सच को आगे बढ़ा रहा है, तो उसको ही सच नहीं मिला है, वो आगे क्या बढ़ाएगा?
तो पहली बात तो ये कि चाहे वो कबीर साहब के दोहे हों, साखियाँ हों, चाहे यहाँ के श्लोक हों, चाहे और जो सब प्राज्ञ जन हुए उनकी बातें हों, आप बेखटके उन सब बातों को जी भर के पिएँ और दूसरों को भी पिलाएँ। उसमें ऐसा कुछ नहीं है कि आप अगर बैठकर कह रहे हैं कि “आओ बैठो, और ये मुनि अष्टावक्र की बात है, और मैं इस पर चर्चा कर रहा हूँ,” तो उसमें आपने उनको बेच दिया। वो तो ख़ुद चाहते हैं, एक अर्थ में, कि उनको बेचा जाए। एक अर्थ में समझो, वो तो ख़ुद चाहते हैं कि और-और रोशनी की तरह उनका प्रसार हो जाए, वो तो ख़ुद चाहते हैं। लेकिन तुम दूसरों तक वही तो पहुँचाओगे जो तुम्हारे पास है।
अगर तुम्हारा केंद्र स्वार्थ का है, तो दूसरों तक भी सच के नाम पर आप स्वार्थ को ही पहुँचा दोगे। आपको लगेगा कि आप उन्हें कोई अच्छी चीज़ दे रहे हो, पर आप उन्हें कुछ गड़बड़ चीज़ दे दोगे। आपको लगेगा कि आप उनका भला कर रहे हो, पर भलाई से ज़्यादा उनकी बुराई हो जाएगी। और क्या हम नहीं जानते कि धर्मग्रंथों का ही इस्तेमाल करके समाज की कितनी बुराई की जा सकती है, और दुनिया भर में इतिहास में की गई है। क्या हमने देखा नहीं है? क्या हमने देखा नहीं है कि सब ग्रंथों के कितने विकृत रूप चलाए जा सकते हैं, बोलो?
तो आप गीता को तो आगे बढ़ा लोगे, पर गीता को आप आगे बढ़ाओगे क्या बनकर? झुन्नूलाल बनकर। तो फिर वो झुन्नू गीता हो जाएगी और श्रीमद्भगवद्गीता नहीं रह जाएगी। वो आपके हाथ में पड़ेगी, वो बदल जाएगी।
गीता में सच है, और सच को सच के ही हाथ से बँटना चाहिए। सच अगर स्वार्थ के हाथ में पड़ जाएगा, तो सच का भी ख़तरनाक दुरुपयोग हो जाएगा।
तो गीता हो या और सब जितने ज्ञानी लोग हुए हों, इनकी कोई भी बात हो, इनको बेहिचक बाँटो, बरसाओ, जितना बढ़ा सकते हो, बढ़ाओ। लेकिन दूसरों तक पहुँचा रहे हो, उससे पहले पूछो, मुझ तक पहुँची क्या? सदा सतर्क रहो। क्योंकि जितना अहंकार धार्मिक प्रक्रिया में आ सकता है, उतना अहंकार तो कभी भौतिक प्रक्रिया में भी नहीं आएगा। आपने बहुत अच्छे से देखा है कि भौतिक रूप से भी जो सबसे श्रेष्ठ, ऊँचे हो जाते हैं लोग, वो भी आकर आध्यात्मिक आदमी के पाँव छूते हैं। सेठ जी हों या नेताजी, पाँव तो छूते वो बाबा जी के ही हैं। देखा है न?
तो आध्यात्मिक अहंकार कि कोई सीमा नहीं होती फिर। मैं सबसे बड़ा हूँ, तुम कोई होंगे दुनिया के। मैं तो दुनिया से ही बड़ा हूँ। तो दुनिया में कोई हो, मैं उससे बड़ा हूँ। समझ में आ रही है बात? दूसरों तक हमें ज़रूर पहुँचाना है, लेकिन साथ ही साथ ये सवाल कायम रहे। “मुझ तक कितना पहुँच रहा है?” या ऐसा है कि जो चीज़ आएगी, मुझे तो ऐसे बाईपास कर गई। दूसरों तक पहुँचनी चाहिए, सारी सच्चाई दूसरों के लिए है, मेरे लिए नहीं है, ऐसे तो नहीं रखना है न।
उसमें भी आप तर्क ये दे सकते हैं। चलो, मुझ तक नहीं पहुँची, मेरे माध्यम से दूसरों तक तो पहुँच गई। आप ये तर्क दे सकते हैं, पर ये तर्क गड़बड़ होगा। क्योंकि आपसे आगे वही बढ़ेगा, वही अग्रेषित होगा जो आपको मिला होगा। बहुत साफ़ पानी आ रहा है और आप उसको सबको पिलाना चाहते हो, पर पिलाओगे कैसे? और ये (हाथ) गंदा है तो पानी साफ़ होगा, पर आपने पिलाया तो कुछ गंदा पिला दिया। पानी गंदा नहीं था, पर आपके पिलाने के कारण गंदा हो गया। तो इसका बस ख़्याल रखिएगा, बाक़ी खूब पिलाइए, एकदम बेखटके पिलाइए, सब कुछ अपना मान के पिलाइए।
जिन्होंने ये बातें आपको दी हैं, उनको पता था कि सत्य कालातीत होता है, सार्वजनिक होता है। किसी का नहीं होता, वो ख़ुद बोलते थे, “ये बात पार्थ, तब उसने उससे कही, उसने उससे कही, उसने उससे, उसने उससे कही, अब मैं तुमसे कह रहा हूँ, कोई मेरी बात थोड़ी है। ये बात ऐसे होते-होते ख़ुद कह रहे हैं, कोई मेरी बात थोड़ी है। और कोई नई बात वहाँ होती भी नहीं, वही पुरानी बात है, आपका पूरा अधिकार है उस बात को बढ़ाने का, पर बहुत-बहुत सावधान रहकर और साफ़ रहकर।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक क्वेश्चन है मेरा कि क्योंकि अहंकार, माया तो बहुत ज़्यादा ताक़तवर होता है और बार-बार डेल्यूज़नल कर देता है सबको। तो ये करते वक़्त भी, जब मैं ख़ुद को रेड हैंडेड बार-बार पकड़ रहा हूँ और वो मेरे ख़्याल से, वो भी एक स्पिरिचुअल अकंप्लिशमेंट ही है कि आप जो एपरेंटली जो अच्छा कर रहे हो, उसके पीछे भी कुछ तो है जो एक पेटी डिज़ायर से निकल रहा है। कि आपको लोग अच्छा बोल दें या आपका जो कमी है उसको आप छुपाने के लिए कम से कम ये बोल दें, देखिए मैं काम कर रहा हूँ ख़ुद के कमियों पर।
तो वो बेचने वाला फ्रेज में इसलिए बोला था, आई एम सेलिंग ऑफ़ समथिंग दैट आई एम डूइंग वेल टू गेन पीपल्स।
आचार्य प्रशांत: तो वो तो आपको ख़ुद ही देखना पड़ेगा, उसी के ख़िलाफ़ तो सावधान रहना पड़ेगा न। तो सारा साहित्य जो आप दूसरों तक पहुँचा रहे हैं, वो इसलिए है कि वो जाने कि दुनिया से आज़ाद रहना है। ठीक? और आप अगर ख़ुद ही आज़ाद नहीं हो, आप चाह रहे हो कि आपको दुनिया की ताली मिले, शाबाशी मिले, स्वीकृति मिले। तो आप जो दूसरों तक पहुँचा रहे हो, वो तो चीज़ गड़बड़ा गई न फिर। आप दूसरे तक दे रहे हो और दूसरे से थोड़ा सा एप्रिसिएशन तो माँग ही रहे हो न। और जिसको दे रहे हो, वो बात यही है कि दूसरे ताली दें या गाली दें, तुम वो करो जो सही है। बात गड़बड़ा गई न, आप तक ही नहीं पहुँची है मतलब।
प्रश्नकर्ता: तो हम प्रिटेंड तो नहीं कर सकते कि हम एनलाइटेंड हो गए।
आचार्य प्रशांत: नहीं हम प्रिटेंड नहीं कर सकते, पर फिर हम रिएक्ट करेंगे न, हम रिएक्ट करेंगे। हमें चाहिए है ताली और हमने गीता दूसरों तक पहुँचाई, मिल गई गाली। हमें चाहिए क्या थी?
प्रश्नकर्ता: ताली।
आचार्य प्रशांत: तो दूसरों से ताली ही मिले, इसके लिए मैं गीता का फिर क्या करूँगा? अर्थ कुछ ऐसा कर दूँगा कि वो ताली बजा दें, ये होगा।
प्रश्नकर्ता: तो एट व्हाट पॉइंट शुड आई स्टॉप मायसेल्फ?
आचार्य प्रशांत: जिस पॉइंट पर दिखाई दे कि आप जो बोल रहे हो, वो आपको ही नहीं समझ में आया है। तो इसीलिए बात को बिल्कुल-बिल्कुल निजी रखना चाहिए। शुरुआत भले ही शास्त्र से करो। ठीक है? पर बात आपकी होनी चाहिए। फिर आप वही बोलोगे जो आपका है, तो उसमें मिलावट हो नहीं सकती, फिर ठीक है। और आप बहुत आगे बढ़ भी नहीं पाओगे, लोग आपका मुँह देखने लगेंगे।
आपकी स्थिति बड़ी-बड़ी एब्सर्ड हो जाएगी। आप ऐसी बात बोल रहे हो कि आपके चेहरे पर झलक रहा है कि वो बात आपको ही नहीं समझ में आई है। आप बहुत अजीब से लगते हो, वैसा करते वक़्त और बहुत लोग वैसी चेष्टा करते हैं, और अच्छा रहने दो, ठीक-ठीक बिल्कुल ठीक है। समझ में आ गया। अपने आप को और जलील मत करिए।
“नहीं, देखो, नॉन डुअलिटी होता है, पर उसके बीच में एक डुअलिटी से हटकर ट्रियलिटी आ जाता है, जो रियलिटी है।” फँस जाओगे आप और वो जो सुन रहा होगा, वो भी कहेगा, “अरे बेचारा,” कहते हैं न, “अरे भाई किस फील्ड में आ गए आप, क्यों कोशिश कर रहे हो बेइज़्ज़ती हो रही है, रुक जाओ।” इसीलिए देखते नहीं हो, बाबा जी लोग आमतौर पर संवाद नहीं करते हैं क्योंकि तब तक इतना है कि वहाँ कुछ, मतलब गुरु के गुरु ने था किया गुरु को अमर फल भेंट, तब से गुरु जी कर रहे वही नोट डिक्टेट।
तो वहाँ तक तो ठीक है। पर अगर ऐसा खुला आदान-प्रदान शुरू हो जाए, तो बाबा जी फँस जाएँगे और उनकी स्थिति बहुत ऑकवर्ड हो जाएगी। अब या तो वो ये करेंगे कि तू नरक में जाएगा, पापी, बैठ जा। तुझे शर्म नहीं आती, गुरु से ऐसा सवाल पूछते हुए। या फिर ऐसे मुस्कुरा के एक नया जो तरीका होता है नियो स्पिरिचुअलिटी में। “आई सी, वन डे यू विल मूव बियॉन्ड दिस क्वेश्चन इनटू डीप साइलेंस। जस्ट बी पेशेंट, सीट।” फिर ये सब करना शुरू कर दोगे, धाँधली। तो इसीलिए वही बोलो जो तुम्हारी हस्ती से निकल रहा है। उससे ज़्यादा बोलोगे तो जलालत मिलेगी और दूसरों को ख़राब करोगे। खुद बेइज़्ज़त होओगे और दूसरों तक पता नहीं क्या संदेश पहुँचाओगे।
वही बोलना चाहिए जो बात बिल्कुल अपनी ही ज़िंदगी से आ रही हो।
जब ये सब बातें किसी से बोल रहे हो न, इसको कहते हैं डोंट गेट अहेड ऑफ योरसेल्फ। जो हो वही बोलो, ठीक है?
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। कई बार क्या होता है, जब हम सच्चाई लोगों को सामने रखने की कोशिश करते हैं, तो बहुत एक्सट्रीम हेट्रेट देखने को मिलता है। ख़ाकर फीमेल क्रिएटर्स को और लड़कियों को। मतलब दोनों को देखने को मिलता है, बट लड़कियों को गाली बहुत मिलती है।
आचार्य प्रशांत: मुझसे ज़्यादा?
प्रश्नकर्ता: नहीं, आपसे ज़्यादा नहीं।
आचार्य प्रशांत: यही जवाब है, तितिक्षस्व।
प्रश्नकर्ता: हाँ, तो वो फीलिंग होती है, लेकिन कई बार ऐसे अंदर से सैडनेस आ जाती है कि एक पॉइंट के बाद थोड़ा टूटा हुआ फील करता है, कि ऐसा क्या बुरा बोला जा रहा है कि इतनी गाली मिल रही है। तो ऐसे स्टेट में, मतलब ख़ुद को शांत कैसे करना चाहिए, ऐसे लगता है कि फिर एक्सिस्ट ही क्यों करना है।
आचार्य प्रशांत: शांत होने की क्या, शांत हो जाओ थोड़ी देर को, उसके भी मजे ले लो। आनंद में ऐसा थोड़ी है कि मन में स्थितियाँ आती जाती नहीं हैं। अशांति आई है, अशांति के भी मजे ले लो थोड़ी देर। अच्छी बात है। बाल खींच लो, कुछ कर लो, जाकर के पर्दे-वर्दे फाड़ लो। जो करना है, कर लो थोड़ी देर। और क्या करना है इसमें? कुछ नहीं। जब गाली मिले तो मुझे याद कर लिया करो।
प्रश्नकर्ता: नहीं, मन करता है फिर उनको भी गाली देने का। वो शांति नहीं आ पाती है मतलब।
आचार्य प्रशांत: तो दे दिया करो उसमें क्या। और जब उनको चोट लगे, तो उनको भी यही बोलो। अब उनको याद कर लो।
प्रश्नकर्ता: नहीं, लेकिन वो लोगों को मतलब दिक़्क़त क्या है? उनके अच्छे के लिए ही बोला जा रहा है, फिर वो शांत क्यों नहीं हो पाते? मतलब क्या चाहिए उनको?
आचार्य प्रशांत: आप भी कभी वैसे ही थे, सब वैसे ही थे, और वो भी कभी हो सकता है यहाँ आकर बैठे। ठीक है? मैंने आप पर मेहनत की, आप उन पर मेहनत कर लो। संस्था के पास 16,000 ऐसे लोगों की लिस्ट है, जिन्होंने फॉर्म वग़ैरह भरने के बाद खूब गाली गलौज करी है। ठीक है? और फॉर्म शायद उन्होंने भरा ही इसीलिए है ताकि अंदर घुसने का मौका मिले और अंदर जाकर के करेंगे।
कई सालों में कुल मिलाकर के 16,000 ऐसे हैं। अब वो कई सालों से कोई हो सकता है, दो साल पहले उस लिस्ट में चला गया हो, कोई हो सकता है चार साल पहले, कोई छह महीने पहले। उन तक भी हम संदेश भेजते हैं और जब भेजते हैं तो उसमें से कुछ लोग फिर आ जाते हैं, गीता सत्रों में वापस आ जाते हैं। वापस आ जाते हैं और वापस आकर लिखते भी हैं कि अरे ये था, वो था, कोई बात नहीं, अब मैं आ गया हूँ। कम आते हैं, इक्का-दुक्का आते हैं, पर आ जाते हैं। ठीक है?
लंबी प्रक्रियाएँ हैं। बहुत-बहुत पुरानी गंदगी है, समय लगेगा। बहुत पुरानी गंदगी है, सोचो कितना पुराना हमारा देश है। कम से कम पिछले हज़ार सालों में तो बहुत गड़बड़ करी गई है। वो सब साफ़ करने में समय लगेगा, ये जो गाली गलौज कर रहे हैं, ये बेचारे तो शिकार हैं गंदगी के। इन्हें पता भी नहीं है कि इनके मुँह से कौन बोल रहा है, इनके मुँह से अतीत की सड़न बोल रही है। अभी इनमें इतनी आत्म-जागरूकता नहीं है कि ये जान पाएँ कि ये तो अभी हैं ही नहीं। ये तो ऑटोमेटेंस हैं, मशीन हैं, रोबोट की तरह ये किसी और की बात बोले रहे हैं ग़ुलाम की तरह। लगेगा समय, ठीक है।