सही और गलत की पहचान

Acharya Prashant

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सही और गलत की पहचान
सही और गलत उधार की बातें हैं। जो बात एक देश में सही है, वो दूसरे में गलत मानी जाती है। जो आज सही है, वो कल गलत था। दो सौ साल पहले भारत में माना जाता था कि पति की मृत्यु पर पत्नी आत्मदाह करें — तब ये सही था। आज कोई इसे स्वीकार नहीं करेगा। तुम भूल जाते हो कि सही-गलत तुम्हें किसी और ने सिखाया है, और उन्हें भी किसी और ने। असली सही यह है कि तुम अपनी समझ और होश से जियो। बेहोशी में किया हर काम गलत है। सही और गलत क्या है, इसके लिए तुम्हारी विवेक-दृष्टि ही काफ़ी है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: सर, आपने कहा कि बाहरी ताकतों के इशारों पर मत नाचो, अपनी समझ के अनुसार चलो। पर अगर अपनी समझ के अनुसार चलूँ तो क्या प्रमाण है इस बात का कि जो होगा वो सही ही होगा? मैं कैसे जानूँ कि अगर मैं अपनी समझ से काम कर रहा हूँ तो मैं सही हूँ? कैसे पता?

आचार्य प्रशांत: तुम्हें अभी कैसे पता है कि जो हो रहा है वो ठीक है? तुम्हें अभी सही और गलत का कैसे पता है? अभी तुम्हें सही और गलत का बस इतना ही पता है कि किसी और ने तुम्हें सिखा दिया है कि क्या सही है और क्या गलत और तुमने मान लिया है कि अगर ऐसा हो जाए तो सही होता है, और ऐसा हो जाए तो गलत होता है। अब ये तो बड़ी गहरी बीमारी हो गई कि सही और गलत भी वही है जो किसी और ने बता दिया। हमारे सही और गलत भी हमारे नहीं हैं, आयातित हैं। और अलग-अलग लोगों के सही और गलत उनके अपने दृष्टिकोण हैं।

तुमने ये कैसे मान लिया कि वो सही और गलत जो तुम्हें सिखाए गए हैं वो सही ही हैं? तुम्हें सिखाया गया कि सफ़लता सही है और असफ़लता गलत है। तुम्हें सिखाया गया है कि इस प्रकार की नैतिकता सही है और उस प्रकार की अनैतिकता गलत है। तुम्हें कैसे पता कि सही और गलत जैसा कुछ होता भी है? क्या तुम ये नहीं जानते हो कि जो बात एक देश में सही है वो दूसरे देश में गलत है? क्या तुम नहीं जानते कि एक ही जगह पर जो आज सही है वो कल गलत था? क्या तुम ये नहीं जानते हो कि एक धर्म में जो बात सही है वो दूसरे धर्म में गलत है? एक घर में जो सही है दूसरे घर में वो गलत है, क्या तुम ये नहीं जानते?

सही और गलत कुछ है ही नहीं सिवाय कुछ लोगों के व्यक्तिगत दृष्टिकोण के। इसी सही और गलत की घुट्टी हमें पिलाई गई है और हम सोचते हैं कि जैसे ये कोई दैवीय बात है, जैसे वास्तव में कुछ सत्य होता है सही और गलत में।

न कुछ सही है और न कुछ गलत है, बस कुछ लोगों ने मान लिया है कि कुछ सही है और उस पर ठप्पा लगा दिया सही का। और कुछ लोगों ने मान लिया कि कुछ गलत है और उस पर ठप्पा लगा दिया गलत का। आज से दो सौ साल पहले इस देश में इस बात को सही माना जाता था कि पति मर जाए तो पत्नी उसके साथ आत्मदाह कर ले। आज आप में से कितने लोग ये चाहेंगे? इसी देश में, दो सौ साल पहले तक यह सही था। सही और गलत तो समय, काल, परिस्थिति, जगह, इन सब पर निर्भर बातें हैं, आदमी के मन से निकली हैं। तुम्हें किसने बोल दिया कि कुछ सही है ही? पर बहुत सारी बातों को तुम मन में बहुत गहरी जगह दे कर बैठे हो और तुम सोचते हो कि ये तो निश्चित रूप से सही हैं।

तुम्हें लगता है शिक्षा निश्चित रूप से सही है, तुम्हें लगता है कि पैसे कमाना निश्चित रूप से सही है, तुम्हें लगता है कि आदर, सम्मान और ये जो तमाम तरह की बातें जो बचपन से तुम्हें सिखा दी गईं, ये निश्चित रूप से सही हैं। तुम ये भूल जाते हो कि ये तुमको किसी ने दे दी हैं और जिसने तुमको दे दी हैं, उसको भी किसी और ने दे दी थीं। किसी के मन की पैदाईश हैं ये सारी बातें। दुनिया भरी हुई है ऐसे लोगों से जो सही ही सही करना चाहते हैं? हर बच्चे को बचपन से सिखाया जाता है कि झूठ मत बोलो, हिंसा मत करो, सम्मान करो, प्रेमपूर्ण रहो और दुनिया भरी हुई है हिंसा से, नफरत से, झूठ से, बलात्कारियों से और तुम कभी नहीं सोचते कि ये वही लोग हैं जिन्हें बचपन में तमाम सही सिखाया गया था और गलत से दूर रहने की हिदायत दी गई थी।

तुम सोचते नहीं हो कि एक-एक बच्चे से ये बातें कही जाती हैं, फिर भी दुनिया ऐसी क्यों है? वो ऐसी इसलिए है क्योंकि ये सब सही और गलत उधार की बातें हैं, इनका कोई अर्थ नहीं है। बच्चा इनको बाहरी-बाहरी तौर पर ले तो लेता है पर उनको कभी अपना जीवन नहीं बना पाता। बना सकता ही नहीं है क्योंकि ये बात उसकी समझ से नहीं आई है, वो बस एक बाहरी प्रभाव है उसके ऊपर। माँ ने सिखा दिया है। और अगर बच्चा थोड़ा समझदार है तो पूछेगा माँ से कि माँ हिंसा गलत क्यों है, माँ सच क्यों बोलूँ? माँ के पास कोई जवाब नहीं होगा या अगर कोई होगा भी तो वही होगा जो उसे उसकी माँ ने दिया था। और अगर बच्चा शरारती है तो और पूछेगा, और थप्पड़ खा जाएगा।

सही और गलत तो आदमी के मन की धारणाएँ हैं, तुम इन पर चल कर क्या पाओगे? तुम मुझसे पूछ रहे हो कि इस बात की क्या गारंटी है कि अपनी समझ से जो किया जा रहा है वो सही ही है। कुछ भी सही-गलत होता ही नहीं तो गारंटी कैसी। अब तुम थोड़े भौंचक्के हो गए हो। तुम्हारे मन में सवाल चल रहा होगा कि तो क्या सब कुछ सही है, सब कुछ चलता है। सब सही ही सही है, सब गलत ही गलत है।

अगर आखिरी तौर पर कुछ सही है तो वो यही है कि तुम अपनी समझ के अनुसार चलो, अपने होश में जियो और गलत बस यही है कि अपने होश में जीवन न बिताना।

बेहोशी की स्थिति में तुम जो भी करोगे वही गलत है और अपने विवेक से, अपने होश में, तुम जो करोगे वही सही है। फिर भले ही पूरी दुनिया बोलती रहे कि गलत है, पर मान मत लेना। ठीक है, हो सकता है कि समाज के नियमों के अनुसार वो गलत हो, पर अस्तित्व के नियमों के अनुसार वो सही ही है। अस्तित्व के नियम और समाज के नियम मेल नहीं खाते, बल्कि बड़े विपरीत होते हैं। जीवन के नियम और समाज के नियम बिल्कुल अलग-अलग होते हैं। सही और गलत सामाजिक अवधारणाएँ हैं, समाज के नियम हैं। बात समझ रहे हो?

ये गारंटी माँगो ही मत कि मैं सही हूँ या गलत हूँ। तुम अपनी समझ से अगर कुछ कर रहे हो तो वो सही ही है, तुम्हें किसी के सर्टिफिकेट की आवश्यकता नहीं, तुम्हारी अपनी दृष्टि ही काफी है। अब ये बहुत बेचैन कर देने वाली बात है। ‘सर कोई नहीं मान रहा क्या तब भी हम सही हैं?’ हाँ, तब भी तुम सही हो। ‘सर पूरी दुनिया कह रही कि हम गलत हैं, क्या तब भी हम सही हैं?’ हाँ, तब भी तुम सही हो।

अगर वो बात गहराई से तुम्हारी समझ से निकली है, अगर वो बात तुमने किसी से सुनकर रट नहीं ली है, अगर वो बात किसी बाहरी प्रभाव का नतीजा नहीं है, अगर वो बात एक सामाजिक धारणा नहीं है जो तुमने ओढ़ ली है, तो निश्चित रूप से जो तुम कर रहे हो वही ठीक है, फिर भले ही वो नियमों के खिलाफ़ जाता हो, या कानून के खिलाफ़ जाता हो। थोड़ी भयानक सी बात है, डर लग रहा है। ‘क्या अपराधी बन जाएँ? सर जेल भेजना चाहते हो?’ डर शोभा नहीं देता, जवान लोग बैठे हो। गारंटी मत माँगो। गारंटी तो एक डरे हुए मन का लक्षण है कि ‘क्या गारंटी है?’ और दुकानदार बोल रहा है ‘दो महीने की।’ जीवन कोई दुकान नहीं है जहाँ गारंटियाँ माँगने बैठ गए ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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