सही अभिभावक की पहचान || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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सही अभिभावक की पहचान || आचार्य प्रशांत (2018)

आचार्य प्रशांत: (प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए) आपने प्रश्न किया है अपनी बेटी के बारे में। उसका हित ही चाहती हैं न? ये बिलकुल ठीक है कि उसकी देह के तल पर सुरक्षा होनी चाहिए। पर ये भी याद रखिए कि अतिशय सुरक्षा दे दी तो पंख खोल कर कभी उड़ नहीं पाएगी। उसके शरीर में, मन में कभी जान नहीं आ पाएगी। विवेक बहुत आवश्यक है। वो सीमा निर्धारित करनी बहुत आवश्यक है कि कहाँ तक वास्तव में उसे सुरक्षा की ज़रूरत है और कहाँ यदि सुरक्षा दी तो उसका नुक़सान हो जाएगा।

आप उसका हित चाहती हैं। भुलिएगा नहीं, आप उसे इतनी भी सुरक्षा नहीं देना चाहतीं कि उसका अहित हो जाए।

प्रश्नकर्ता: बच्चों के बारे में कहीं पढ़ा था। हम बच्चों को जो बताते हैं कि यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए, क्या यह भी कंडीशनिंग (अनुकूलन) है? कुछ बातें तो उनके जीवित रहने के लिए ज़रूरी हैं, वह तो बतानी ही पड़ेंगी।

आचार्य: समाज ने जो भी नियम-कायदे निर्धारित किए हैं, अंततः इसलिए किए हैं ताकि आदमी शांत रह सके। भुलिएगा नहीं, बच्चा जो पैदा होता है, बहुत-सी पशुता अपने साथ लेकर पैदा होता है। तो फिर इसलिए उसे सभ्य बनाना पड़ता है। सामाजिक शिक्षा सारी इसलिए है ताकि तुम जानवर ही ना रह जाओ, ताकि तुम अपनी पाशविक वृतियों से आगे निकल पाओ। अब वो सामाजिक शिक्षा की नीयत तो ये है पर वो वास्तव में क्या कर जाती है? कि पशुता की बेड़ियाँ कुछ तो आप लेकर पैदा हुए थे और कुछ और आपको पहना दी गईं।

बच्चे को कुछ भी बताते वक़्त अपनेआप से ये प्रश्न पूछें कि मैं इसे जो भी कुछ बता रहा हूँ उससे इसकी बेड़ियाँ कटती हैं या बढ़ती हैं? बताना भी ज़रूरी है क्योंकि नहीं बता रहे तो, वो तो ‌बेड़ियों में पहले से ही है। उसकी बेड़ियाँ काटेगा कौन?

पर अगर ग़लत बता दिया, बताने वाला ख़ुद नासमझ हुआ, तो बेड़ियाँ काटने के चक्कर में बेड़ियाँ और बांध दी, सुलझाने के चक्कर में और उलझा दिया।

इसीलिए अभिभावक का जो दायित्व है, माँ-बाप का जो स्थान है, वो बड़ा महत्वपूर्ण है। अगर माँ-बाप नहीं जानते हैं कि जन्म देना किसे कहते हैं, पालन-पोषण किसे कहते हैं, तो बच्चे का जन्म व्यर्थ ही गया समझिए।

प्र: पर, जैसे बच्चे बहुत छोटे होते हैं वो समझते नहीं चीज़ों को। तो कभी-कभी उनको किसी चीज़ से रोकने के लिए उन्हें बोलनी पड़ती हैं चीज़ें। मैं कोशिश पूरी करती हूँ फैक्ट्स ही बताऊँ, पर कभी-कभी कुछ चीज़ों को रोकने के लिए बोलना पड़ता है।

आचार्य: याद रखिए, छोटे पौधे को बचाने के लिए, आप उसके इर्द-गिर्द जो बाड़ खड़ी करते हो, जो जाल बुन देते हो, उसकी उपयोगिता निश्चित रूप से है। पर‌ अगर उसको सही समय पर हटाया नहीं, तो उसी जाल में पौधे का दम घुटेगा।

ठीक है, आपने एक समय पर उसको बता दिया कि देखो ये नीचे सॉकेट है बिजली का, इसमें उंगली मत डालना। इसमें अंदर-करंट तो वो समझती नहीं—इसके अंदर क्या है? इसके अंदर चूहा बैठा है। उंगली डाली, तो चूहा उंगली काटता है। ठीक है, उसको बता दिया कि इसके भीतर चूहा बैठा है।

अब भूलिएगा नहीं ये बता दिया है आपने। जिस दिन पाइए कि अब परिपक्व हो गयी तो आप ही लेकर जाइए। कहिए, देखो जिस चूहे को मैं तुम्हें बताती थी वो चूहा कुछ इस तरह का है। वो चूहा इन‌ तारों में बहता है, वो चूहा इस प्रकाश में नज़र आता है, इस पंखे में नज़र आता है। उस चूहे में बड़ी ऊर्जा है, वो ऊर्जा अगर संयमित कर दी, बांध दी तो हमारे काम आ जाती है। पर वही ऊर्जा अगर असंयमित हो गई तो प्राण ले लेती है।

प्र२: आचार्य जी, कुछ चीज़ें हैं जो हमें ही क्लियरिफाइड (स्पष्ट) नही हैं, जैसे भगवान का कॉन्सेप्ट है। तो अभी मैं ख़ुद स्योर नहीं हूँ कि क्या भगवान है? या जो हम आरतियाँ करते हैं या पूजा-पाठ करते हैं उसका क्या महत्त्व है? उन चीज़ों को बच्चों को इंट्रोड्यूस (अवगत) करवाना चाहिए या नहीं करवाना चाहिए? मतलब क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए?

आचार्य: बच्चा पूछेगा ये मंदिर में घंटी क्यों बज रही है, तो सीधा ज़वाब दीजिए कि लोगों को लगता है इससे उनको फ़ायदा होगा। इसमें आपको ये बताना थोड़ी आवश्यक है कि भगवान क्या है। भगवान थोड़ी आ रहे हैं घंटी बजाने! घंटी कौन बजा रहे हैं? लोग बजा रहे हैं। लोग क्या इसलिए बजा रहे हैं कि उन्हें भगवान का पता है? लोग घंटी इसलिए बजा रहे हैं कि उन्हें लगता है कि इससे कोई है जो प्रसन्न हो जाएगा और उन्हें कुछ लाभ दे देगा। यही बता दीजिए।

बच्ची पूछ रही है ये घंटी क्यों बजी; बताइए क्योंकि कुछ लोगों को लगता है कि घंटी बजाने से फ़ायदा होता है। बात ख़त्म। क्योंकि बात तो वास्तव में इतनी-सी ही है। लोग घंटी भगवान के लिए थोड़ी बजाते हैं। किसके लिए बजाते हैं? लाभ के लिए बजाते हैं। बता दीजिए लाभ मिलता है, लोगों को ऐसा लगता है।

वो पूछेगी, 'तो सही में मिलता है फ़ायदा?' तो कहिए कि पता नहीं पर लोगों को लगता ज़रूर है कि फ़ायदा मिलता है, नहीं तो इतनी घंटियाँ न बजतीं।

प्र३: क्या श्रद्धा यह है कि भले ही हमें पता न हो क्या करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए, पर सब सही होगा, यह विश्वास रखना चाहिए?

आचार्य: ये फेथ नहीं है, ये उम्मीद है। ज़ोर देकर बोलो तो ये अधंविश्वास है। 'हम कुछ भी कर रहे हैं, ठीक हो जाएगा।' फेथ दूसरी चीज़ है बेटा,फेथ का अर्थ होता है सही हो या ग़लत हो, जो भी होगा ठीक होगा। अच्छा हो या बुरा हो, जो भी होगा बस बाहर-बाहर होगा। हम ठीक हैं, हम अस्पर्शित हैं, ये है श्रद्धा। श्रद्धा ये नहीं कहती कि जो होगा ठीक होगा, श्रद्धा कहती है बुरा भी हो जाएगा तो भी कोई बात नहीं है। बुरा बिलकुल हो सकता है। ऐसा नहीं कि बुरा नहीं हो सकता। जब तुम ये सोचोगे, 'नहीं, बुरा नहीं होगा, अच्छा ही अच्छा होगा।' तो तुम कोरी उम्मीद कर रहे हो, इस पर चोट पड़ेगी, दुख होगा।

प्र३: शायद मैं ग़लत समय पर सही काम करता हूँ, इसीलिए परिणाम भी ग़लत ही आ जाता है।

आचार्य: अगर ग़लत टाइम है तो उसमें तुम सही चीज़ कैसे कर रहे हो? सही चीज़ तो हमेशा समय सापेक्ष होती है। जैसा समय है उसी के अनुसार तुम्हें कुछ करना पड़ेगा न, तभी तो उसे सही कह सकते हो। तुम ये थोड़ी कहोगे कि काम तो मैंने बिलकुल ठीक किया पर ग़लत समय पर कर दिया।

'काम ठीक था लेकिन; काम तो बिलकुल ठीक था।' अरे, अगर ग़लत समय पर किया तो काम कैसे ठीक था?

पर ये अहंकार का अच्छा बहाना होता है, 'देखिए, काम तो बिलकुल ठीक किया, समय ग़लत था।'

गेंद ऊपर उछली थी तब सो रहे थे। अब गेंद नीचे गिर गई है, मैच ही ख़त्म हो गया, उसके बाद यूँ करके (गेंद पकड़ने की कोशिश में) खड़े हैं। 'काम तो सही कर रहे हैं, बस ज़रा ग़लत समय पर कर रहे हैं, एक घंटा पहले ऐसा करना चाहिए था।'

ग़लत समय पर कोई सही काम होता है क्या? जिस समय पर जो उचित है उसी काम को सही कहते हैं।

प्र३: मैंने एक मूवी देखी थी, वर्ल्ड वॉर टू (द्वितीय विश्व युद्ध) के बारे में। जैसा उसमें कहानी दिखाया गया है, कितना सच है, कितना झूठ पता नहीं। जिन लोगों की ग़लतियाँ भी नहीं थीं, वो लोग भी बीस-बीस साल तक जेल में रहते हैं। अब वहाँ संदेश ऐसा मिल रहा था कि तुम नहीं भी कर रहे हो, फिर भी समय ऐसा है।

आचार्य: ये तुम चैतन्य रूप से नहीं कर रहे‌ हो। हम सब जुड़े हुए लोग हैं। तुम्हें सिर्फ़ उन्हीं ग़लतियों की सज़ा नहीं मिलती जो तुमने करी है। तुम्हें अपने पूरे कुनबे की करतूतों की सज़ा मिलती है। अभी ये तुम हवा पी रहे हो, इस हवा में ज़हर है। वो ज़रूरी थोड़े ही है कि ज़हर तुमने ही घोला हो हवा में? कोई और भी घोलेगा तो भी सज़ा तुम्हें ही मिल रही है न, कि नहीं मिल रही है?

सड़क पर जा रहे हो, एक पियक्कड़ ड्राइवर ने आकर तुम्हें ठोक दिया। तुम कहोगे मेरी तो कोई ग़लती थी नहीं। हाँ, सतही तौर पर तुम्हारी कोई ग़लती नहीं थी पर फिर भी तुम्हें सज़ा मिलेगी। क्योंकि हम सब एक डोर से बंधे हुए हैं। ये पूरा एक ख़ानदान है, मन एक है, नियति एक है। इसलिए समझाने वाले समझा गए हैं कि अपना हित भर देखने से नहीं होगा। जब तक सबका कल्याण नहीं होता, तुम्हारा नहीं हो सकता। क्योंकि तुम्हें दूसरे के किये का लाभ भी मिलता है और दूसरे के कियेl की सज़ा भी मिलती है। हम सब जुड़े हुए हैं, पृथक इकाईयाँ नही हैं कि मैं जो करूँ, बस मुझे वही फल मिलना चाहिए। ऐसा नहीं होता।

तो ये बिलकुल हो सकता है कि किसी ने अपने जीवन में कोई बुराई न की हो पर उसे बीस साल सज़ा मिल जाए। उसने नहीं करी है बुराई पर हज़ारों सालों से जो बुराई हो रही है उनका फल तो उसे ही भुगतना पड़ेगा।

हाँ, वो इतना ज़रूर कर सकता है कि जब वो बीस वर्ष जेल में है तब वो जान जाए कि जिसको ये सज़ा मिल रही है उसको सज़ा पता नहीं कितने सारे संचित कर्मों की वजह से मिल रही है। वो एक चक्र में फँसा हुआ है और उस चक्र के अनुसार अब विधि का विधान भोग रहा है। उसको तो जेल होनी ही थी, उसे कष्ट मिलना ही था, 'मैं' उससे बाहर हूँ। इतना ज़रूर हो सकता है।

तुम बैठे हो। तुम्हें डेंगू का मच्छर आकर काट गया। तुमने क्या भूल करी थी? तुम तो सत्संग में बैठे थे। सत्संग में बैठे हो, बिलकुल स्थिर हो कर बैठे हो। मच्छर के लिए बढ़िया मौक़ा है, तुम हिलोगे ही नहीं। इतना बढ़िया बैठा हुआ शिकार उसे ऐसे नहीं मिलता और सत्संग में हो अभी तुम तो बड़े आत्मिक अनुशासन में हो। मच्छर ख़ून चूस रहा है, तुम हिलोगे भी नहीं। अभी तुम्हें अहिंसा भी बहुत है। वैसे मार भी देते।‌

तुमने क्या भूल करी थी कि तुम्हें डेंगू हो गया। तुमने तो कुछ नहीं करा था। अगर डेंगू हो जाए तो यही कर सकते हो। ये जो शरीर है और जो मच्छर है उन्हें तो साथ-साथ चलना है। क्या ऐसा हो सकता है कि मच्छर हो और शरीर न हो या शरीर हो और मच्छर न हो? मच्छर और शरीर एक ही चीज़ हैं। दो अलग-अलग दिखाई देते हैं बस।

समझ में आ रही है बात?

ठीक वैसे, जैसे मिट्टी और फूल एक चीज़ हैं वो दो अलग-अलग दिखाई देते हैं बस। उनका बड़ा गहरा रिश्ता है। तो उनका तो अपना चक्र चलता रहेगा, उनकी अपनी कहानी चलती रहेगी। वो कहानी तुम चलने दो। जब तुम कहते हो, 'वो कहानी चलती रहेगी' तब तुम उस कहानी से आज़ाद हो जाते हो। तुम पीछे हट जाते हो। तुम किरदार नहीं रह जाते उस कहानी में। मच्छर इसको (शरीर को) काट गया, अब ये बीमार है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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