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साधना के बाह्य प्रतीकों का आंतरिक अर्थ || गुरु नानक पर (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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29 reads

मुंदा संतोखु सरमु पतु झोली धिआन की करहि बिभूति ॥ ~ पौढ़ी (जपुजी साहिब)

अनुवाद: संतोष को वैसे ही मन के समीप धारण करो जैसे कुंडल, विनय को ऐसे साथ लेकर के चलो जैसे तुम्हारा भिक्षा पात्र, और ध्यान को देह पर लगाने वाली भस्म।

आचार्य प्रशांत: संत का हमेशा यही काम होता है कि आप जिन बातों को भौतिक समझने लग जाएँ, वो उनके आत्यंतिक अर्थ निकाल कर रख दे आपके सामने। आप जीव को भौतिक समझें और वो जीव का असली अर्थ आपके सामने रख दे, आप पूजा को और प्रसाद को और अक्षत को भौतिक समझें और वो उनका वास्तविक अर्थ आपके सामने रख दे। आप प्रेम को भौतिक समझें और वो प्रेम का पारमार्थिक अर्थ आपके सामने रख दे। वही ये कर रहे हैं, वो कह रहे हैं, “संतोष को वैसे ही मन के समीप धारण करो जैसे कुंडल धारण किए जाते हैं”, सदा धारण किए रहते हो और कुंडल सारी इन्द्रियों के और मन के समीप रहते हैं, तो संतोष को ऐसे ही धारण करो।

प्रश्नकर्ता: स्पर्श भी कर रहे होते हैं।

आचार्य: बढ़िया, वैसे भी कह लीजिए।

विनय को ऐसे साथ लेकर के चलो जैसे तुम्हारा कटोरा—भिक्षा पात्र।

प्र: जैसे कमंडल।

आचार्य: कमंडल, लगातार साथ रहे।

खाली रहो, पाने के लिए तैयार—यही विनय है।

जो भस्म लगाते हो अपने ऊपर, उस भस्म का कोई मोल नहीं है। धूल मलने से क्या मिलेगा? राख मलने से क्या मिलेगा? साधना के जो बाह्य उपकरण हैं कहीं उनसे चिपककर ना रह जाओ, उनका सत्त पाओ—ये बड़ा आवश्यक है। नहीं तो राख और कुंडल और भिक्षा पात्र, ये लिए रहने से क्या हो जाएगा? और माला और जनेऊ और सत्तर चीज़ें और होती हैं, हर घर में पायी जाती हैं, उनसे क्या मिल जाना है?

सिर्फ़ वस्तुएँ ही नहीं होतीं जिनको मन ये समझ कर बैठा रहता है कि इनमें कुछ सत्त मिल जाएगा, बल्कि विचार भी। सत्य का विचार कर लेगा और सोचेगा सत्य मिल गया। जैसे कि देवता की मूर्ति देख कर सोचता है कि ब्रह्म प्राप्ति हो गयी। जैसे तुम किसी देवता की मूर्ति को देखो और सोचो कि समर्पण मूर्ति को किया जा सकता है, वैसे ही सत्य और प्रेम के बारे में विचार करके मन क्या सोचता है? “सत्य मिल गया, मैं सत्य को जानता हूँ।”

वो सुनी है न कहानी…

एक फ़कीर गाँव में रुक रहा है तो लोग उसके हाव-भाव देख रहे हैं, तो बिलकुल ही अजूबा। गाँव वालों ने आकर के कहा कि, “हमें ऐसा लग रहा है कि आप बहुत ज्ञानी किस्म के हैं, तो शुक्रवार को आकर हमारी मस्जिद में आप सत्य के बारे में कुछ कहिएगा।” फ़कीर ने मना किया कि, “अरे! मुझे नहीं आना है। मैं क्या सत्य के बारे में बोलूँगा?” लोगों ने बड़ा आग्रह किया, “आ जाओ, आ जाओ।” तो वो गया। लोगों ने पकड़ लिया, बोले, “हाँ, बोलिए।” उसने बोला, “बोलने से पहले पूछना चाहूँगा कि आप में से कोई है जिसे सत्य के विषय में कुछ भी पता है?” तो लोगों ने हाथ खड़े कर दिए। तो वो उतर आया और चला गया। लोगों ने कहा, “बोले क्यों नहीं?” बोलता है “इन्हें पहले ही पता है, मैं क्या बोलूँगा? जिस तरीके से इतना इन्होंने जान लिया, उसी तरीके से और जान लेंगे। जिस राह पर दो कदम बढ़ाए हैं उसी पर चार कदम और बढ़ा लेंगे। मेरी क्या ज़रूरत?” लोगों ने कहा, “अच्छा, अब समझ में आया, ग़लती हो गयी। ये जवाब नहीं देना चाहिए कि हमें कुछ पता है।”

अगले शुक्रवार उसे फिर बुलाया।

वो खड़ा हुआ बोला, “भाइयों सत्य के विषय में कोई है जिसे कुछ पता है?” सब चुप, किसी ने हाथ नहीं उठाया। उन सब को देखा और फिर से उतर आया। बाद में लोगों ने कहा, “अब क्यों उतर आए?” बोला, “इन जाहिलों से कौन बात करेगा? जिन्हें कुछ पता ही नहीं है।”

(सभी श्रोता हँसते हैं)

लोगों ने कहा, “तीसरी बार पकड़ में आ जाएगा इस बार नहीं छोड़ेंगे।” तो तीसरे हफ्ते फिर बुला लाए उसको। फिर चढ़ा, बोला, “भाइयों किसी को सत्य के विषय में कुछ पता है?” तो इस बार योजना तैयार थी, आधों ने हाथ उठाया, आधों ने नहीं। वो फिर उतर आया। अब लोगों को गुस्सा आया, उन्होंने पकड़ा और बोले कि, “क्या है? अबके क्यों नहीं बोले?” उसने कहा, “जिनको पता है वो बाकियों को बता दें। मेरी क्या ज़रूरत है?”

(सब ज़ोर से हँसते हैं)

तुम कुछ भी बोलोगे तो उसे विषयाश्रित ही बनाओगे। तुमने बोला “जानता हूँ”– तो भी ग़लत। तुमने बोला “नहीं जानता हूँ” – तो भी ग़लत। तुम कुछ ना बोलो, मौन में चले जाओ तो ही सही।

तुम ये बोल रहे हो कि, “जानता हूँ”, तो तुम हो ही बेवकूफ। और तुम बोलते हो कि, “नहीं जानता हूँ", तो भी तुम खूब जाहिल हो। ये भी कहने के लिए कि, “मैं नहीं जानता हूँ” कोई छवि होनी चाहिए न। किसके बारे में नहीं जानते हो?

संतों का काम हमेशा यही रहता है कि—तुम्हें बताएँ कि तुम जो सोच रहे हो, जिस चीज़ को तुमने पकड़ रखा है वो प्राथमिक नहीं है। तुम किसी हल्की चीज़ को पकड़ कर के बैठे हो और असली से चूकते जा रहे हो।

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