प्रश्नकर्ता: क्या ज़िंदगी में किसी दूसरे व्यक्ति का साथ ज़रूरी है? आज मैंने प्रेम पर आपका लिखा पढ़ा। आपने बताया कि प्रेम दूसरे से चिपकने का नाम नहीं है। जब मन शांत हो, अकेला हो, तभी प्रेम समझ में आता है। लेकिन मैं अकेले नहीं रह पाती। क्या फिर मुझे प्रेम कभी समझ में नहीं आएगा? अतीत में मुझे लगा था कि मुझे प्रेम हुआ है, लेकिन अब समझ आता है कि वो सच्चा प्रेम नहीं था। आगे से कैसे परखूँ कि प्रेम सच्चा है या नहीं?
आचार्य प्रशांत: बहुत सरल है।
परखना है कि प्रेम सच्चा है या नहीं, तो बस ये देख लो कि तुम्हारा प्रेम तुमको दे क्या रहा है — सुख या होश?
शुरुआत में ही पूछा है कि क्या किसी दूसरे व्यक्ति का साथ ज़रूरी है? दूसरे व्यक्ति का साथ तो होगा ही होगा। क्या आप कभी किसी से संपर्क में ही नहीं आएँगे? या हो सकता है कि कोई कहे कि मैं बहुत आत्मीय-अंतरंग, निकट संबंध नहीं बनाऊँगा, लेकिन फिर भी किसी-न-किसी सीमा तक तो आपको संबंधित होना ही पड़ेगा। और जहाँ संबंध है, वहाँ साथ है। तो जीवन में संबंधों से बचकर तो नहीं रहा जा सकता। संबंध तो बनेंगे ही बनेंगे। प्रश्न ये है कि उन संबंधों की गुणवत्ता क्या है? तो उसके लिए परखने का ये तरीका है कि देख लीजिए कि जिससे आप संबंधित हो रहे हैं, उसके साथ से, उसके संबंध से, आपको सुख मिल रहा है या होश?
जब किसी के साथ से आपको सुख मिल रहा होता है, तो आपको और ज़्यादा प्रेरणा मिल जाती है, कारण मिल जाते हैं वैसा ही बने रहने के, जैसे आप हैं। समझिए! कोई आया आपकी ज़िंदगी में और उससे आपको सुख मिल रहा है; सुख आपकी किस हालत को मिल रहा है? जो हालत आपकी फिलहाल वर्तमान में है ही। तो आपकी जो हालत है, उसी में अगर आपको सुख मिल रहा है, तो आप उस हालत को क्यों बदलेंगे? बल्कि वो हालत अगर बदल रही होगी, तो आप उस बदलाव का विरोध करेंगे न? क्योंकि सुख तो वैसा रहते हुए मिल रहा है, जैसे आप हैं। तो सुख बेड़ी बन जाता है किसी भी तरह के सुधार के खिलाफ। सुख किसी भी तरह के उत्कर्ष को, सार्थक बदलाव को, अवरुद्ध कर देता है।
एक व्यक्ति आपकी ज़िंदगी में आया और वो कह रहा है कि "तुम जैसे हो, मैं तुम्हारी उसी हालत में तुम्हें सुखी कर दूँगा।" आपकी एक हालत है, उसकी एक हालत है। आपकी जो हालत है, वो दूसरे की हालत से सुख पा रही है। दूसरे की जो हालत है — जो भी उसकी शारीरिक दशा है, मनोदशा है — वो आपकी वर्तमान हालत से सुख पा रही है। दोनों जैसे हैं, वैसा रहते हुए एक-दूसरे से सुख भोग रहे हैं। तो अब आप बताइए कि दोनों ही क्या एक-दूसरे को बदलने के लिए, बेहतर होने के लिए, सुधरने के लिए प्रेरित करेंगे? नहीं करेंगे। बल्कि अगर कोई बदलाव हो रहा होगा आप में, तो वो दूसरा व्यक्ति आपके बदलाव के खिलाफ हो जाएगा। क्यों? क्योंकि आप अभी जैसे हैं, आप वैसे रहते हुए ही तो उसको सुख दे पाते हैं न? उसको सुख आपकी किस हालत से मिल रहा है? जो हालत आपकी अभी है, वर्तमान में है। भले ही वो कितनी भी गई-गुज़री हालत हो, लेकिन वो हालत दूसरे व्यक्ति के स्वार्थ के काम आ रही है। तो आप अगर बदलने-सुधरने लगेंगे, तो वो दूसरा व्यक्ति नाराज़ हो जाएगा। वो कहेगा, "तुम धोखा दे रहे हो!" और उसकी बात में दम है, क्योंकि उसको आपसे लाभ — सुख के अर्थ में लाभ — हो ही बस तभी रहा था जब आप जैसे भी गए-गुज़रे, बदहाल थे, वैसे ही रहें।
ये प्रेम के नाम पर कुछ और है; दुर्भाग्यवश, अधिकांशतः प्रेम के नाम पर यही होता है — मैं जैसा हूँ, मुझे प्रसन्न कर दो; और तुम जैसे हो, मैं तुम्हें प्रसन्न कर दूँगा। लेकिन सुख तो भाता है, अहंकार सुख की ही तलाश में रहता है, तो इसीलिए ये जो झूठे क़िस्म का प्रेम है, बड़ा प्रचलित है।
तुरंत जाँचिएगा, अपने आप से पूछिएगा — "ये जो व्यक्ति मेरी ज़िंदगी में आ रहा है, ये मेरी ज़िंदगी में चुनौती की तरह आ रहा है या मज़े की तरह आ रहा है?"
चुनौती की तरह जो भी आपकी ज़िंदगी में आएगा, उससे आपको थोड़ी तो असुविधा होगी। हो सकता है बौद्धिक तल पर आपको पता भी हो कि वो जो चुनौती आपको प्रस्तुत कर रहा है, वो चुनौती आपके काम की है, आपके लाभ की है — लेकिन फिर भी आप थोड़ा खिसिआएँगे। मन-ही-मन भाव उठेगा कि 'ये आ ही क्यों गया ज़िंदगी में? ये परेशान करता है, मजबूर करता है, मेहनत करवाता है, चुनौती देता है। अहंकार कोंचता है। परेशान करता है भाई ये आदमी। ये नहीं पसंद है।'
दूसरी ओर, जो आपकी ज़िंदगी में आएगा और कहेगा, “तुम जैसे भी हो, मुझे बहुत प्यारे हो। बल्कि, तुम जैसे हो, वही चीज़ मुझे प्यारी है। आहा हा हा! कितने खूबसूरत हो तुम! कितने प्यारे हो तुम! क्या बात है! समस्त विभूतियों से युक्त तुम ही तो हो, तुम में रब दिखता है, भगवान हो तुम मेरे।” — उसके साथ आप बहुत प्रसन्न हो जाएँगे, क्योंकि उसने तो चढ़ा दिया आपको चने के झाड़ पर।
चने के झाड़ पर चढ़ने का फायदा यह होता है कि किसी भी अन्य ऊँचाई से अब आप अवरुद्ध हो जाते हैं, और ऊपर चढ़ने में जो श्रम लगता है, उसके विरुद्ध अब आप सुरक्षित हो जाते हैं। चने पर ही चढ़कर बैठ गए हैं और आपको आपके प्रेमी ने बता दिया है कि “बस यही तो आसमान है।” तो अब आगे की जितनी भी ऊँचाइयाँ थीं, उनका आपके लिए कोई महत्व नहीं रहा, कोई अर्थ नहीं रहा। आपके पास कोई कारण, कोई प्रेरणा नहीं बची कि अब आप और ऊँचा चढ़ें। आपके प्रेमी ने कहा — “तुम आसमान पर ही तो बैठे हुए हो।”
ऐसे ही प्रेमियों की हमको तलाश रहती है — सुख दे दें, सांत्वना दे दें, झूठी तसल्ली दे दें, तारीफ़ें कर दें — और बदले में फिर जो कुछ हमें उनसे मिलता है, हम उसको सूद समेत लौटाते भी हैं। कहते हैं न, “तुम मेरी पीठ खरोचो और मैं तुम्हारी खुजली करूँ।” दोनों खुश हैं।
यही एक विधि आप लगा लें, ऐसे ही परीक्षण कर लें तो बहुतों की पोल खुल जाएगी। बहुत सारे भावी संबंधों का राज़ फ़ाश हो जाएगा। बहुत सारी कहानियाँ विस्तार लेने से पहले ही खत्म हो जाएँगी। बहुत सारी बीमारियाँ जड़ पकड़ने से पहले ही मिट जाएँगी।
पूछ लिया करिए, “यह जो इंसान मेरी ज़िंदगी में है, क्या यह मुझे बढ़ते, बदलते, बेहतर होते देखना चाहता है — या मैं जैसा हूँ, यह उससे ही संतुष्ट है?”
अब एक बड़ा सवाल आएगा आपके सामने। जो आपकी ज़िंदगी में आया है, अगर वो आपको प्रेरित कर रहा है कि तुम बदलो, बेहतर हो, तो इसका मतलब है कि वह जानता है कि आप जैसे हो, आप ठीक नहीं हो। तभी तो वह कह रहा है कि आप सुधर जाओ, बेहतर हो जाओ।
तो हैरत भरा सवाल यह आता है कि जब वो जानता है कि आप ठीक नहीं हो, तो फिर वह आपकी ओर आकर्षित ही क्यों हो रहा है?
यही प्रेम की निःस्वार्थता है, निष्कामना है।
आपका प्रेमी अगर सच्चा है, तो वह आपके पास आपका मुरीद या प्रशंसक बनकर नहीं आ सकता, आपका फ़ैन बनकर नहीं आ सकता। वह तो आपके पास एक तरह से आपका आलोचक बनकर ही आएगा।
अब यही बात हमें अखर जाती है, चुभ जाती है बिल्कुल — “प्रेमी है और आलोचना कर रहा है?” हाँ भाई! अगर असली है, तो यही करेगा।
तो फिर हम बड़े चक्कर में पड़ जाते हैं। कहते हैं, “अगर वह हमारी आलोचना ही कर रहा है, तो प्रेमी कैसे हुआ? अगर वह आलोचना कर रहा है, तो फिर वह हमारी ओर आकर्षित हो ही क्यों रहा है? जब उसे हम बुरे ही लगते हैं, तो वह हमारी ओर आएगा ही क्यों?”
यही तो बात है।
प्रेम में आप किसी की ओर इसलिए नहीं जाते कि वह आपको अच्छा लगता है। प्रेम में आप जिसकी ओर जाते हैं, इसलिए जाते हैं क्योंकि आप उसका भला चाहते हैं। दोनों बातों में बहुत अंतर है।
प्रेम अगर सच्चा है, तो उसमें आप जिसकी ओर जा रहे हैं, वह आपको अच्छा वगैरह नहीं लग रहा होता कि, “अरे रे रे! बड़ा भाता है, बड़ा सुहाता है, कितना सुंदर है, कितना प्यारा है, आहा हा हा!” — न, यह सब नहीं।
प्रेम में तो आप अच्छी तरह जानते हैं कि दूसरे की थाली में कितने छेद हैं। प्रेम में आप भलीभांति जानते हैं कि दूसरे के चरित्र पर कितने धब्बे हैं। प्रेम में आप भलीभांति जानते हैं कि दूसरे के मन में, आचरण में कितनी कमजोरियाँ हैं। फिर भी आप उसकी ओर जाते हैं।
क्यों जाते हैं? राम जाने।
सांसारिक दृष्टि से देखें तो सच्चे प्रेम का कोई कारण नहीं होना चाहिए। झूठे प्रेम का तो कारण है — दूसरे की ओर जाओगे तो सुख पाओगे, दूसरे को भोग लोगे, मज़ा आएगा।
सच्चे प्रेम में तो आप जिसकी ओर जा रहे हो, आप भलीभांति जानते हो कि वह कितने पानी में है। आपको साफ़ पता है कि आप जिससे संबंधित हो रहे हो, उसमें लाख दोष हैं, लाख विकार हैं — फिर भी आप उसकी ओर जा रहे हो।
तो हमारा साधारण संसारी मन झंझट में पड़ जाता है। एकदम सकपका कर पूछता है — “तो फिर उसकी ओर जा ही काहे को रहे हो, जब पता है उसमें इतने विकार हैं?”
राम जाने! यही तो प्रेम की बात है।
प्रेम में आप दूसरे की ओर इसलिए नहीं जाते क्योंकि उसकी वर्तमान स्थिति आपको सुख दे देगी। प्रेम में आप दूसरे की ओर इसलिए जाते हो क्योंकि आपको पता है कि उसकी वर्तमान स्थिति सच्ची नहीं है — वह बस एक झूठ है, एक बंधन है, एक कैद है, जिसमें वह दूसरा व्यक्ति फँसा हुआ है। उस दूसरे व्यक्ति को उसकी वर्तमान स्थिति की कैद से छुड़ाना ज़रूरी है — आप इसलिए उसके पास जाते हो।
“तुम्हें क्या मिलेगा फिर, दूसरे को कैद से छुड़ाकर?”
देखो भाई! अब पूछ ही रहे हो तो बता देते हैं — वह जब आज़ाद हो जाएगा न, तो आज़ादी देखने में बड़ा आनंद है।
“हैं! उसकी आज़ादी देखकर तुम्हें क्या मिलेगा?”
आज़ादी उसकी या हमारी नहीं होती, तेरी या मेरी नहीं होती — आज़ादी, आज़ादी होती है। और ‘आज़ादी मात्र’ बड़ा आनंद देती है।
किसी की आज़ादी देखो — सब शिखर एक होते हैं। ज़मीनें अलग-अलग होती हैं, ज़मीनों के ऊपर आसमान एक होता है।
दूसरे की ओर इसलिए नहीं जा रहे हैं क्योंकि वह जैसा है, वैसा ही प्यारा है—अजी कहाँ! दूसरा जैसा है, अगर वैसा ही आपको प्यारा लग रहा है, तो आप उसकी ओर जा रहे हैं सिर्फ उसका शोषण करने, उसे भोगने के लिए। बात बुरी लग रही हो तो भी समझिएगा। मैं यह नहीं कह रहा कि दूसरे की ओर जाओ इसलिए कि उससे नफ़रत है, या उसके पास जाकर उसे घृणा की दृष्टि से देखो, उसका अपमान करो—यह सब नहीं कह रहा।
प्रेम का मतलब है: वह जो व्यक्ति है और उसकी जो वर्तमान वैयक्तिकता है, उसकी जो वर्तमान दशा है—उसमें रखा क्या है? अरे! हमारी ही वर्तमान दशा में कुछ नहीं रखा, हम तुम्हारी वर्तमान दशा के कायल कैसे हो जाएँ? हमारे ही जिस्म में कुछ नहीं रखा, हम तुम्हारे जिस्म पर लट्टू कैसे हो जाएँ? हम जिन चीज़ों को जानते हैं कि दो कौड़ी की हैं, उन्हीं चीज़ों के ग्राहक कैसे हो जाएँ?
तो ऐसा नहीं है कि हम तुम्हारे पास इसलिए आ रहे हैं क्योंकि तुम बड़े कुशल हो, बड़े चतुर हो, बड़े सुंदर हो, बड़े आकर्षक हो, बड़ा मोहित करते हो—बेकार बात! हो तो तुम कुछ नहीं। देखो, प्रेम करते हैं तुमसे, इसीलिए साफ-साफ बता रहे हैं: कुछ नहीं हो तुम। एकदम तृण मात्र हो—घास का तिनका—जिस पर भाग्य पाँव रख-रख कर चलता है, जिसे किस्मत अपने भारी-भरकम पहियों तले रौंदती रहती है। ऐसे ही हम हैं, ऐसे ही तुम हो।
तुम्हारी हालत में हमें कोई आकर्षण नहीं है, पर जब हम जानते हैं कि तुम्हारी अभी की हालत झूठ है, तो हम यह भी जानते हैं कि कोई सच होगा तुम्हारा—और तुम्हारे उस सच से हमें प्यार है। क्यों? क्योंकि हमें सच से प्यार है। झूठ व्यक्तिगत होते हैं, सच तो एक होता है। अभी जो तुम्हारी हालत है, वह तुम्हारा व्यक्तिगत झूठ है। दूसरे की जो हालत है, वह उसका व्यक्तिगत झूठ है। ये सारी हालातें, ये सब कैद हैं—कैदखाने हैं। इनसे जो आज़ादी मिलती है, वह व्यक्तिगत नहीं होती; उसमें सब एक होते हैं। हम वही देखना चाहते हैं, वही लालसा है हमारी, वही स्वार्थ है हमारा। उसी दिन के लिए तुम्हारे पास आए हैं। यही हसरत है हमारी।
पूछ रहे थे न, कारण क्या है? "जब तुम जानते हो कि हम में इतने दोष हैं, तो हमारे पास आते क्यों हो बार-बार?" आपका किसी से प्यार हो और आप उसकी कुछ खोट निकाल दें, तो वह तुरंत कहता है, "हम इतने ही बुरे हैं तो हमारे पास आए ही क्यों? चलो निकलो यहाँ से!" जवाब मैं बता देता हूँ: तुम्हारे पास इसलिए आए हैं क्योंकि तुम्हें वैसा देखना चाहते हैं जैसा तुम हो सकते हो। अभी तुम जैसे हो, वह तुम्हारी हस्ती की अवमानना है। तुम अभी हो नहीं, तुम अभी अपने-आपको ढो रहे हो। तुम जो हो सकते हो, हम उस फूल को खिलते देखना चाहते हैं। तुम जितना उड़ सकते हो, हम उस पक्षी की परवाज़ देखना चाहते हैं—इसलिए तुम्हारे पास आए हैं। यही प्रेम है।
प्रेम के पास आँखें होती हैं, इसीलिए मैंने प्रेम का संबंध आलोचना से जोड़ा। आलोचना का अर्थ ही होता है—लोचन, यानी आँखें। प्रेम साफ-साफ देख पाता है, आँखें हैं उसके पास, कि कितने दोष हैं तुम में। झूठा नहीं होता है प्रेम, मक्कार नहीं होता है प्रेम, चाटुकार नहीं होता है प्रेम कि साफ दिख रहा है सामने वाले में कितने दोष हैं और फिर भी मक्खन मले जा रहा है, कि इससे कुछ लाभ हो जाएगा।
क्या लाभ हो जाएगा? आमतौर पर एक ही लाभ होता है: अगर जवान हो तो शारीरिक लाभ, नहीं तो कुछ आर्थिक लाभ, या किसी तरह की सुरक्षा, या कुछ और। यह प्रेम नहीं है।
तो आपके जो भी रिश्ते वगैरह रहे हैं, उसमें गौर से देखिएगा कि दूसरे से आप जुड़े ही क्यों थे? बड़ा मुश्किल होता है सच्चे प्रेम का संबंध बनाना क्योंकि सच्चा प्यार तो बिलकुल छाती पर वार जैसा होता है। कोई नहीं आता उसमें आपको ये ढाँढस देने कि, “आ हा हा! क्या बात है, तुमसे बढ़कर कौन!”
लोग कहते हैं सच्चा प्यार मिलता नहीं। मैं कहता हूँ सच्चा प्यार तुमसे बर्दाश्त होता नहीं; मिल तो आज जाए, झेल लोगे?
बड़े अफ़साने लिखे जाते हैं। शायरों की दुकानें ही चल रही हैं इसी बात पर कि हम तो बड़े काबिल थे पर कमबख्त ज़िंदगी ने धोखा दे दिया। हमें सच्चा प्यार मिला नहीं।
झूठ! तू इस लायक है कि सच्चा प्यार झेल लेता? काबिलियत भी छोड़ दो, नियत है? सच्चे प्रेमी के सामने दो दिन नहीं खड़े हो पाओगे, भाग लोगे। पर बताऊँ? भागने से पहले उसे मारोगे। उसे मार कर भाग लोगे।
हमें प्रेम नहीं चाहिए, हमें भ्रम चाहिए, हमें धोखा चाहिए। हमें चाहिए कोई ऐसा जो हमें खूबसूरत धोखों में रख सके। हमें चाहिए कोई ऐसा जो हमें रंगीन सपनों में रख सके। हमें चाहिए कोई ऐसा जो हमसे कहे:
"अरे! नहीं तुम कहाँ मक्कार हो? अरे! नहीं, तुम कहाँ घूसखोर हो? अरे! नहीं तुम्हारी कमर कहाँ कमरा हो रही है? तुमसे खूबसूरत कौन! तुमसे गुणी कौन! तुमसे विद्वान कौन! तुमसे बढ़कर कौन!”
हमें चाहिए कोई ऐसा जो हमसे कहे कि तुम जैसे भी हो, हमारे लिए तो तुम ही हो। हमें चाहिए जो कोई कहे कि तुम्हारी हर खोट मंज़ूर है।
साज़िश होती है। हमें पता होता है कि जब तक हम उसकी खोट नहीं मंज़ूर करेंगे, वो हमारी नहीं करेगा। साज़िश होती है। हमें पता होता है अगर हमने उसे प्रेरित किया बेहतर होने के लिए, तो फिर हम पर भी दबाव पड़ेगा न? जिम्मेदारी पड़ेगी कि हम भी बेहतर हो जाएँ। बेहतर होने में मेहनत लगती है भाई! बिस्तर तोड़-तोड़ कर कोई बेहतर नहीं हो जाता।
हमें बेहतर होना नहीं है, तो हम ये भी नहीं पसंद करते कि हमारा साथी भी बेहतर हो जाए। बेहतरी हमें उसकी उस सीमा तक चाहिए, जिस सीमा तक उसकी बेहतरी हमारे भोग के काम आती है।
उदाहरण के लिए, किसी की मोटे पैसे की नौकरी लग जाए — उसकी बीवी खुश हो जाएगी। मोटे पैसे की नहीं भी लगी है और वो मोटी घूँस लाता है, तो घरवाले खुश रहेंगे। ये बेहतरी थोड़े-ही है? ये तो भोगने का इंतजाम है।
वास्तविक तरक्की जब हो रही होगी आपकी — अंदरूनी तरक्की — तो देखिएगा आपसे कितने लोग तुरंत रुसवा हो जाते हैं। आप बहुत सारी कमाई करने लगें — चाहे काली कमाई हो — और उससे घर पर भोगने के साधन खड़े करने लगें, घरवाले खुश रहेंगे। क्योंकि अभी आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वो सीधे-सीधे उनके भोग के भी तो काम आएगा।
लेकिन आपकी असली तरक्की होने लगे, फिर देखिए कि कौन आपके साथ खड़ा होता है?
जो आपकी असली तरक्की में आपके साथ खड़ा रहे — वो सच्चा प्रेमी है। जो आपसे कहे कि:
"ठीक है! कोई बात नहीं, रुपया नहीं आएगा, पैसा नहीं आएगा। ठीक है कोई बात नहीं, कुछ भौतिक कष्ट होंगे, सांसारिक तौर पर कुछ कमियाँ आएँगी — लेकिन तुम आगे बढ़ो। तुम वो हो जाओ जो होना नियति है तुम्हारी। प्रकट हो जाओ बिलकुल, खिल जाओ फूल की तरह — हम उसी में संतुष्ट हैं। वही हमारा लक्ष्य है।”
ऐसा कोई मिल जाए तो जानिएगा कि प्रेमी है।
दुनिया में जो सबसे बिरली चीज़ है, अनुपलब्ध चीज़ है — जैसे हो ही ना, एकदम विलुप्त, अप्राप्य — उसका नाम प्रेम है। और मज़ाक की बात ये कि जिसको देखो, उसको प्यार हुआ पड़ा है।
सोलह-सोलह साल के लौंडे आशिक हुए पड़े हैं। जब से संस्था ने टिकटॉक पर अकाउंट बनाया है, मैं तो हैरत में हूँ — इतना प्यार? ये संसार है कि स्वर्ग? यहाँ तो सब प्रेमी हैं!
एक से एक ज़लील, लुच्चे-लफंगे, गंवार — लेकिन आता है सबको प्यार। क्या बात है यार!
मुँह धोने की तमीज़ नहीं, आशिकी चरम पर है। और उनको देखने वाले भी ऐसे ही।
उनका प्यार देखने के लिए मिलियंस में प्यारे कतारबद्ध खड़े हुए हैं। वो जितने हैं, वो सब प्यार ही बरसा रहै हैं या बरसा रही हैं। मुझे पक्का पता है — इनमें से तीन-चौथाई बारहवीं पास नहीं कर सकते। करें भी नहीं होंगे। परीक्षा जब आती होगी सर पर, तब कहते होंगे, "नकल का कुछ है जुगाड़?"
और जुगाड़ भी उन्हें उनके प्रेमीजन ही करा देते होंगे।
कोई ज़िंदगी में काबिलियत नहीं, कोई अंतर्दृष्टि नहीं, बेहतर होने की कोई ललक नहीं, लेकिन आशिकी परवान चढ़ी हुई है, गजब! बाल रंगे रखे हैं जैसे कि मुर्गा घूम रहा हो, आधे पंख उसने हरे रंग में रंगवा रखे हों। कैसे भाई? तुम्हें कुछ नहीं आता, तुम्हें प्यार कैसे आ गया?
कहते हैं, "आप क्या जानें आचार्य जी! उम्र में आप बड़े होंगे पर किस्से तो हमारे ही लंबे-लंबे हैं। आपने बहुत कुछ किया होगा, पर बीस की उम्र में जो कुछ हमने कर डाला, वो थोड़े ही किया होगा आपने?"
ज़रूर बेटा! हमारी दाढ़ी तो हमेशा से ही सफेद थी।
ऐसे थोड़े ही प्यार होता है कि, “हो गया! मुझे भी हो गया!”
“क्या हुआ?”
“प्यार हो गया।”
“कैसे हुआ?”
“वो तो प्राकृतिक है, न? हो जाता है।”
वो जो प्राकृतिक तरीके से हो जाए और जल्दी-जल्दी हो जाए, फटाफट होने लगे, रोज़ ही होने लगे, चाहा नहीं और हो गया, उसे दस्त कहते हैं। कि चाहा नहीं, हो गया। कच्छा खराब हो गया। चाहते नहीं थे, हो गया। दस्त लगे हैं भाई! ऐसा ही होता है उसमें। अधिकांश लोगों का प्यार ऐसा ही होता है—दस्त! लूज़ मोशन ।
लूज़ मोशन माने असंतुलित चाल। लूज़ मोशन को दस्त भी बोल सकते हो। लूज़ माने कहीं भी, किधर को भी चल दिए। लूज मोशन!
तो प्यार क्या है हमारा ज़्यादातर? टिकटॉक वाला प्यार खासतौर से?
लूज़ मोशन —किधर को भी चल दिए।
लूज़ली चल रहे हैं न। हवा आयी, इधर को चल दिए। लूज़ हैं भाई! कहीं को भी जा सकते हैं, किसी ने फूँक मारी तो इधर को चल दिए। लूज़ हैं भाई! किधर को भी जा सकते हैं।
फिर तीस-चालीस की उम्र में पहुँचकर हमें ताज्जुब होता है कि, “अरे! प्यार तो बहुत किया, अफेयर्स तो बहुत थे हमारे, कुछ मिला नहीं, घाव, चोट, और निशान के अलावा। कुछ पाया नहीं, वक्त की बर्बादी के अलावा।”
क्यों?
क्योंकि प्यार प्राकृतिक नहीं होता, बच्चे! प्यार आध्यात्मिक होता है। अभी कुछ दिन पहले मैंने धर्म पर बात की, मैंने कहा धर्म हटा दो जीवन से, फिर बताओ प्रेम कौन सिखाएगा तुमको? मैंने कहा धर्म हटा दो जीवन से तो बताओ फिर कि प्रेम और करुणा तुम्हें कौन बताएगा? विज्ञान या संविधान?
आजकल लोग इन दो के बड़े कायल हैं, बड़े मुरीद हैं। कहते हैं, “दुनिया को अगर जानना है, दुनिया की वस्तुओं को अगर जानना है, तो उसके लिए विज्ञान है, और समाज में कैसे जीना है उसके लिए संविधान है।”
कहते हैं, “अब और किसी विधान की ज़रूरत क्या है? किसी और शास्त्र की, किसी और धर्म की ज़रूरत ही नहीं है। हम तो इन दो पर चलते हैं — विज्ञान पर और संविधान पर।”
मैं पूछ रहा था उनसे कि मुझे बता दो, विज्ञान की कौन-सी प्रयोगशाला में प्रेम बनता है? या संविधान के कौन-से अनुच्छेद में प्रेम और करुणा का वर्णन है? बता दो!
तो लोगों के जवाब आए, कॉमेंट्स आए। लोग बोले, "आप क्या बोल रहे हैं? धर्म नहीं होगा तो प्रेम नहीं हो सकता? सब पशु भी तो आपस में प्यार करते ही हैं न? इतने सारे वीडियो हैं, आप देखिए, यूट्यूब पर हैं, नेशनल ज्योग्राफिक पर हैं, जहाँ दिखाते हैं कि एक जानवर दूसरे जानवर की मदद कर रहा है वगैरह-वगैरह। उन्हें प्रेम किसने सिखाया? उनके पास तो धर्म नहीं है फिर भी उन्हें प्रेम पता है।"
पगले! वो प्रेम नहीं है। उसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। मुझसे बात करने आते हो, स्वागत है तुम्हारा — पर पहले पूरा वीडियो देख कर के, पूरी बात समझ करके फिर आया करो न। जानवर एक-दूसरे के प्रति जो दिखाते हैं, वो भी उनकी जैविक संस्कारिता मात्र है, फिजिकल कंडीशनिंग मात्र है।
उदाहरण के लिए तुम देखते हो कि पक्षियों का एक झुंड बिल्कुल कतारबद्ध होकर उड़ रहा है — इसको तुम अनुशासन थोड़े ही बोलोगे! ये तो उनकी विधि है अपनी सुरक्षा करने की। देखा है पक्षियों को कैसे उड़ते हैं? खासतौर पर जो लंबी दूरी की यात्रा कर रहे होते हैं पक्षी। ये एक विधि है, जिसके द्वारा वो अपनी सुरक्षा कर सकते हैं। प्रकृति ने उनके डीएनए में ये निर्देश डाला हुआ है, ये इंस्ट्रक्शन डाला हुआ है कि जो स्वजाति का हो, जो अपनी ही जाति का हो, उसके साथ किस तरह के संबंध रखने हैं। और वो निर्देश अगर नहीं डाला होगा, तो फिर सब जातियाँ-प्रजातियाँ नष्ट होने लगेंगी न?
ठीक वैसे ही जैसे माँ के डीएनए में प्रकृति ने पहले से ही ये निर्देश भर रखा है, ये सॉफ़्टवेयर डाल रखा है कि जब बच्चा पैदा होगा, तो उसके प्रति ममता रखनी ही रखनी है। ममता प्रेम थोड़े ही है।
इसी तरीके से अगर तुम पाओ कि एक जानवर दूसरे जानवर की मदद कर रहा है, तो वो प्रेम नहीं कहलाता है। वो तो प्राकृतिक निर्देशों का पालन कर रहा है — प्रकृति ने जो चीज़ उसके जिस्म में भर दी है, वो उसी के अनुसार चल रहा है। ये प्रेम नहीं कहलाता।
अब बहुत लोग इस बात पर ताज्जुब में पड़ जाते हैं, अचंभा मानते हैं कि, “अच्छा, अगर ये नहीं प्रेम है तो फिर प्रेम क्या होता है?”
बेटा, धर्म की तरफ आओ, तो बताएँ प्रेम क्या होता है! भला हुआ कि तुमने इतना तो माना कि तुम्हें नहीं पता है कि प्रेम क्या होता है। अब अगर ईमानदार हो, जानना ही चाहते हो कि प्रेम क्या होता है, तो आओ — तुम्हें मिलवाएँगे, बड़े लोगों से मिलवाएँगे, साहबों से मिलवाएँगे, वो तुमको बताएँगे कि प्रेम क्या होता है।
इतना समझ लो — जानवर का जानवर के प्रति बर्ताव प्रेम नहीं कहलाता। भले ही तुम पाओ कि एक जानवर दूसरे जानवर से मुँह रगड़ रहा है या उसकी किसी तरह की सहायता करता हुआ प्रतीत हो रहा है — वो प्रेम नहीं कहलाता।
वो प्रेम है भी तो बड़ी ही निम्न कोटि का प्रेम है, बहुत आरंभिक चरण का प्रेम है। प्रेम की ऊँचाइयाँ क्या होती हैं, ये जानने के लिए तो तुम्हें ज्ञानियों के, संतों के, ऋषियों के पास जाना पड़ेगा। वहाँ तुमको कुछ बात पता चलेगी, वहाँ तुमको प्रमाण भी मिलेंगे — पर आओ तो, पढ़ो तो!
ऐसे थोड़े ही कि अब हम सोलह साल के हो गए हैं, मूँछें आ गई हैं, जिस्म में कहीं पर माँस भर रहा है, कहीं से बाल आ रहे हैं — तो अब हम भी प्रेम के काबिल हो गए हैं! ऐसे नहीं आ जाता प्रेम।
प्रेम समझना होता है, प्रेम सीखना पड़ता है।
मैं कह रहा हूँ — बहुत अद्भुत, बड़ी अप्राप्य, बड़ी दुर्लभ, और बड़ी बिरली चीज़ है प्रेम। बैठे-बिठाए नहीं मिल जानी है कि किसी काबिल नहीं, कुछ जाना नहीं, कुछ पढ़ा नहीं, कुछ मेहनत करी नहीं, लेकिन आशिक हो गए। ऐसे कैसे आशिक हो गए भाई? हो ही नहीं सकते! तुम अभी पात्रता ही नहीं रखते, एलिजिबिलिटी ही नहीं है तुम्हारी आशिकी की। तुम्हें हो कैसे गया इश्क? इश्क पर तो बहुत ऊँचे लोगों का हक होता है। तुमने इश्क का नाम भी कैसे ले लिया? ये लड़कियों का पीछा करने को तुम इश्क बोलते हो? यह बाबू-शोना करने को तुम इश्क बोलते हो? ये इश्क है?
न तो इश्क विज्ञान में है, न संविधान में है, और न ही प्रकृति के विधान में है। इन तीनों जगहों में कहीं इश्क मत खोज लेना। अब बताओ, कहाँ पाओगे? और हम इन्हीं तीनों जगह में सब कुछ तलाशते रहते हैं। हमें लगता है, जो कुछ है — यहीं पर है, यही तो सत्य है।
विज्ञान वाले भी प्रेम को विज्ञान की भाषा में परिभाषित करने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं। वो कहते हैं, "जब दिमाग में इस तरह के तत्व का उत्सर्जन होता है, फ़लाना रसायन जब ब्रेन में सक्रिय हो जाता है, तो इसको हम प्रेम कहते हैं।" तुम्हें लाज नहीं आती? तुम कह रहे हो, तुम्हारी बीवी से जो तुम्हारा रिश्ता है वो एक इंजेक्शन का कायल है? अगर प्रेम तुम किसी रसायन या रासायनिक प्रक्रिया को कह रहे हो तो फिर तो तुमने जो रिश्ते बना रखे हैं — अपनी बीवी, अपने बच्चों, अपने माँ-बाप के साथ — वो सब कुछ एक रसायन पर निर्भर करते हैं, जो कभी तुम्हारे दिमाग में डाला जा सकता है, कभी निकाला जा सकता है। ये तुम्हारा रिश्ता है? इनके लिए जी रहे हो फिर तुम? फिर जी क्यों रहे हो? तो ये विज्ञानवादी लोग हैं — ये कहते हैं प्रेम विज्ञान की चीज़ है। पगले हैं!
फिर संविधानवादी लोग होते हैं। वो कहते हैं, "देखो, जो सामाजिक व्यवस्था है, उसमें सब लोगों को समान अधिकार वगैरह होने चाहिए। आदमी आदमी को छोटा न समझे, बड़ा न समझे, जात-पात के नाम पर, धर्म के नाम पर, भेदभाव न हो; लिंग के आधार पर, रंग के आधार पर, भेदभाव न हो — बस यही तो प्रेम है।"
तुम पागल हो! ये प्रेम की बड़ी छोटी बात है कि तुमने आदमी-आदमी में भेदभाव नहीं करा। क्या भेदभाव नहीं करा? कि मैं इसके प्रति भी उदासीन हूँ, मैं उसके प्रति भी उदासीन हूँ? तो संविधान के अनुसार तो तुमने बिलकुल ठीक करा। संविधान तो बस तुमको भेद रखने से मना करता है न — डिस्क्रिमिनेशन नहीं होना चाहिए। संविधान ये थोड़े ही कहता है कि लव द अदर (दूसरे से प्रेम करो)। कहता है क्या? संविधान बस ये कहता है कि इसको और उसको समान देखो। संविधान ये थोड़े ही कहता है कि प्रेम करो! इसके लिए भी प्रेम करो, इसके लिए भी जान दे दो, उसके लिए भी जान दे दो! ये संविधान थोड़े ही सिखाएगा। पगले हैं वो जो सोचते हैं कि संविधान से काम चल जाएगा। बहुत घूम रहे हैं आजकल — वो गीता की प्रतियाँ जलाते हैं और संविधान को सर पर रखते हैं। पागल! संविधान तुम्हें बोध सिखाएगा? संविधान तुम्हें मुक्ति सिखाएगा? संविधान तुम्हें करुणा, भक्ति, प्रेम सिखाएगा? और अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम नहीं है और बोध नहीं है, तो संविधान भी तुम्हारे क्या काम आएगा?
फिर प्रकृतिवादी होते हैं, वो कहते हैं, “अरे! प्यार क्या है? सबको पता है प्यार क्या होता है। चूहे को और कुत्ते को भी पता होता है प्यार क्या है।”
इनकी बात मैं पहले ही कर चुका हूँ। पागल! चूहा और कुत्ता जो कर रहे होते हैं, उसे तुम प्यार बोलते हो? तो फिर जब किसी को गाली देनी होती है तो उसको 'कुत्ता कहीं का' काहे को बोलते हो? तो एक तरफ तो तुम मुझे तर्क दे रहे हो कि प्यार तो कुत्तों को भी पता है और दूसरी ओर जब किसी को गरियाना होता है तो बोलते हो, "हट कुतरे!" क्यों भाई? अगर कुत्ता भी जो जानता है वही चीज़ प्यार है, तो तुम भी अपनी प्यारी को 'कुतिया' बोला करो न। और जैसे कुत्ता-कुतिया आपस में संबंध रखते हैं — कि जब गर्मी छायी तो चिपक लिए और उसके बाद, “तू अपने रास्ते और मैं अपने रस्ते। पिल्लों को अब तू संभाल, और उन पिल्लों में भी कोई पिल्ली जब बड़ी हो जाएगी तो फिर वो मेरे ही काम आएगी।” फिर यही रिश्ता रखो न।
लेकिन नहीं, लोग आते हैं कहते हैं, "देखिए साहब, प्यार तो जानवर भी समझते हैं।" पहली बात तो समझते नहीं, और दूसरी बात — अगर समझते भी हैं, तो वो बहुत निचले तल का होता है। दूसरी-तीसरी बार कह रहा हूँ — जानवर प्यार नहीं समझ जाते। जानवर अगर प्यार समझते हैं तो जीज़स ने बेकार ही जान दी। जानवर अगर प्यार समझते हैं तो कृष्ण की गीता का भी कोई महत्व नहीं है। जानवर ही अगर प्यार समझते हैं तो कबीर साहब व्यर्थ ही प्यार समझाते रह गए उम्र भर। क्यों समझा रहे थे? वो कह देते, “ये तो जानवर भी समझते हैं, इंसानों को समझाने की जरूरत क्या है?”
प्रेम तुम्हें सिर्फ आध्यात्म सिखा सकता है।
दोहरा रहा हूँ — न विज्ञान, न संविधान, न प्रकृति। जिसके जीवन में अध्यात्म नहीं है, उसका जीवन प्रेमहीन होगा — बड़ा रूखा, अंतहीन मरुस्थल।