सच्चा प्रेमी कौन? || आचार्य प्रशांत, संत रहीम पर (2014)

Acharya Prashant

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सच्चा प्रेमी कौन? || आचार्य प्रशांत, संत रहीम पर (2014)

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार

रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार

संत रहीम

वक्ता: “जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोडू रे”, तुम्हारा ही हक़ है कि नाराज़ हो सको। क्योंकि तुम ही हो जो नाराज़ हो कर भी नाराज़ नहीं होओगे तुम ही हो जो गति करते हुए भी अचल रह जाओगे तुम ही हो जो बाहर से लाल-पीले होते हुए भी भीतर रंग-हीन रह जाओगे। हम नहीं हो सकते नाराज़ क्योंकि हम जब नाराज़ होते हैं तो हम नाराज़ ही हो जाते हैं हम जब क्रोधित होते हैं तो हम क्रोध ही बन जाते हैं। हम नहीं हो सकते नाराज़। तुम्हें पूरा हक़ है नाराज़ होने का।

सिर्फ़ उसी को नाराज़गी का हक़ है, जो नाराज़ हो ही ना सकता हो। सिर्फ़ उसी को गति का हक़ है, जो अपनी जगह से हिल ही ना सकता हो। सिर्फ़ उसी को हज़ारों में खो जाने का हक़ है, जो कभी खो ही ना सकता हो। सिर्फ़ उसी को रूठने का हक़ है, जिसका प्रेम अनंत हो।

“रूठे सुजन मनाइए जो रूठे सौ बार”

तुम्हारा काम है रूठना।

तुम जब भी रूठोगे, हमें कुछ बताने के लिए ही रूठोगे

तुम जब भी रूठोगे, वो तुम्हारे प्रेम का ही प्रदर्शन होगा

तुम जब भी दूर जाओगे, हमें और करीब बुलाने के लिए ही जाओगे।

मूर्ख होंगे हम अगर तुम्हारे रूठने का और भी कोई अर्थ निकालें।

ये सु-बुद्धि है।

ये कहती है कि मैं अपनी सीमाएं जानती हूँ। एक ही है जो सुजन कहलाने योग्य है, उसको अपनी छोटी-सी सीमाओं में बांधूंगी नहीं। वहाँ तो जो कुछ भी हो रहा होगा, भला ही हो रहा होगा; वहाँ तो जो भी मुझे रास्ता दिखलाया जा रहा होगा, वो वापसी का ही रास्ता होगा।

“रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार”

हार टूटता है क्योंकि धागा कमज़ोर होता है, मोतियों में नहीं कोई खोट होती। और संतो ने हमेशा गाया है — *“तुम भये मोती पिया, हम भये धागा”*। तो हार यदि टूट रहा है तो हमारे कारण टूट रहा होगा, तुम्हारे कारण नहीं टूट रहा है। मोती थोड़ी टूटते हैं, धागा टूटता है।

हार टूट रहा हो तो कोई मूर्ख ही होगा जो मोतियों को मूल्यहीन समझ ले। हार यदि बार-बार टूटता प्रतीत हो, तो अंतर्गमन की ज़रुरत है। अपने धागे को देखो कि उसमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उन मूल्यवान मोतियों को, बड़े-बड़े चमकते-सुंदर मोतियों को वो गूथ भी पाए; अपने धागे को मज़बूत करो। मोतियों को हक है रूठ जाने का; धागा टूटेगा, मोती रूठेंगे।

फिर तुम्हारा धर्म यही है कि मोतियों को पुनः इकट्ठा करो और अपने धागे को मज़बूत करो। रूठे मोतियों से रूठा नहीं जाता, झुक-झुक करके उन्हें उठाया जाता है। बिखर गए हों मोती तो मोतियों का उपचार नहीं किया जाता। बिखर गए हो मोती तो मोतियों के विकल्प नहीं तलाशे जाते। बिखर गए हो मोती तो अपने आप से कहा जाता है — “कैसा अभागा हूँ मैं, देने वाले ने मोती दे दिए और मैं एक धागे का भी बंदोबस्त नहीं कर पाया जो इन मोतियों को बनाये रख सकता।”

“रूठे सुजन मनाइये जो रूठें सौ बार, रहीमन फिरि फिरि पोइए टूटे मुक्त हार”

सोने का हार भी यदि टूटता है तो कमी सोने में नहीं कारीगरी में होती है। कमी तख्तों में नहीं है, कमी तुम्हारे अनगढ़ हाथो में है।

जीवन हमारा इन्हीं दो का खेल है —

एक वो जो हमें मिला ही हुआ है, और मोती की तरह, सोने की तरह कीमती है; और दूसरा वो जो हम हैं, जीव, अहंकार।

इन्हीं दो के पारस्परिक रिश्ते की जो कहानी चलती है उस का नाम जीवन है।

तो जीवन और कुछ नहीं हुआ, एक तरीके से परमात्मा और अहंकार की कहानी है।

क्या रिश्ता बैठा इन दोनों में?

एक होता है पगला अहंकार जो कहता है कि – जो कुछ भी आनंदपूर्ण है, जो कुछ भी कीमती है जीवन में वो मेरे कारण है। और जो कुछ भी दुःख, क्लेश, शोक है, वो उन ताकतों के कारण है जो मुझसे बाहर हैं। वो अपने कल्याण का श्रेय खुद लेता है, और अपने पतन का ठीकरा परमात्मा के सर फोड़ता है। कुछ ठीक होता प्रतीत होता है तो वो कहता है मेरा पुरुषार्थ; कुछ उपद्रव होता दिखाई देता है तो वो कहता है, “हे भगवान! ये तूने क्या किया!” ये वो व्यक्ति है जो न मोती का मूल्य जानता है, न धागे का। ये मोती को मूल्यहीन और धागे को मूल्यवान समझता है।

और एक दूसरा मन होता है। एक दूसरा अहंकार होता है, वो जान चुका होता है अपनी सीमा को और अपने उचित स्थान को। वो कहता है कि अगर प्रशंसा मिल रही है हार को, तो धागे को नहीं मिल रही है, मोतियों को मिल रही है। वो कहता है कि अगर देवता की मूर्ति पर चढ़ाया जा रहा है हार और दुनिया उसके सामने नमन कर रही है, तो धागे को नहीं कर रही है, मोतियों को कर रही है।

और इससे विपरीत जो चित्त होता है, वो कहता है न – “मुझे देखो। अरे! मैं बड़ा कीमती हूँ। ‘मैं-धागा’ बड़ा कीमती हूँ, देखो मैं कैसे-कैसो के गले में विराजता हूँ।” अब मोतियों के पास एक ही विकल्प रह जाता है कि वो रूठ जाएँ। अब मोतियों का रूठना पक्का है।

मोती रूठे ना तो धागे को मोतियों का मूल्य कैसे पता चले। तो देव प्रतिमा पर चढ़ा हुआ हार और रूठ गए मोती, गए मोती। धागा अपनी अकड़ में और अपनी शान में अभी भी ऊपर चढ़ा हुआ है। अब आवश्यक है कि वो देख ले कि संसार में उसका क्या होगा, वही धागा अब पैरों तले कुचला जाएगा। धागे की हैसियत, धागे की कीमत तभी तक है जब तक मोतियों के साथ है और मोतियों का साथ बना रह सके इसके लिए मोतियों की कद्र आवश्यक है।

धागा जिस क्षण मोतियों की कद्र छोड़ता है, उसी क्षण हार टूट जाता है। हार इसलिए नहीं टूटता कि उसे टूटा ही रहना है; हार इसलिए टूटता है ताकि हार बना रह सके। हार टूटेगा तभी तो धागे को कद्र होगी, जब कद्र होगी तभी तो हार बना रहे सकेगा। खेल है, चलता रहता है; कहानी है न, अभी कहा था।

जीवन, अहंकार, और परमात्मा के आपसी खल की कहानी है; जीवन, धागे और मोतियों में पिरोई हुई एक कथा है ।

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार

रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार

बराबरी की बात मत मान लेना। बराबरी की कोशिश मत करना। ज़रा समानता का ज़माना है, सब को ही ये लगता है कि हम किसी से कम नहीं। हर व्यक्ति कानून की नज़र में बराबर है। सब को वोट डालने का हक है, तो धागा और मोती भी बराबर ही होने चाहिए – इस भ्रम में मत रह जाना। कि अच्छा तुम ही रूठ सकते हो अब हम भी रूठ के दिखायेंगे।

उसकी ओर से प्रसाद मिले तो प्रसाद है; उसकी ओर से विषाद मिले तो भी प्रसाद है।

समझ रहे हो न!

यही नहीं कि प्रसाद है तो मीठा-मीठा है और विषाद है तो विष-समान है। विषाद को भी प्रसाद ही मानना, मीठा ही मीठा मानना, सर-माथे लेना।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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