प्रश्नकर्ता: जो साधना की शुरुआती दौर में हैं, जो आपके वीडियो अभी देखना शुरू ही किये हैं उन्हें बाकी लोगों से कैसा रिश्ता रखना चाहिए — चाहे वो माता-पिता हों, या कोई विपरीत लिंगी या कोई मित्र — जिससे आसक्त भी न हों और साधना भी न टूटे?
आचार्य प्रशांत: साधना माने क्या? साधना क्या होती है? एकदम ज़मीनी तौर पर समझिए। साधना मानें, अपने ऊपर काम करना। ठीक है? साधना का कोई बहुत अलंकृत या दूरगामी या आसमानी अर्थ नहीं है।
इतना तो हर आदमी — धार्मिक हो न हो, आध्यात्मिक हो न हो — मानता है न कि वो पूर्ण नहीं है, परफ़ेक्ट (सर्वोत्तम) नहीं हैं। इतना तो सभी मानते हैं न?
इतना तो सभी स्वीकारते हैं कि उनमें कहीं कुछ कमी है, खोट है। दूसरे बताएँ-न-बताएँ, हमें पता होता है और अधिकांश लोगों का यह इरादा भी होता है कि वो जैसे हैं उससे थोड़ा बेहतर बनें। है न?
बेहतर बनने के संकल्प, अनुशासन, प्रक्रिया का संयुक्त नाम साधना है। हम जैसे हैं, हम उससे बेहतर होना चाहते हैं। ये बात कुछ बहुत गुप्त सी, रहस्यमय सी, गोपनीय सी लग रही है क्या? यह बात कुछ ऐसी लग रही है क्या जो कि अगर किसी गूढ़ शास्त्र में न लिखी हो तो हमें पता ही न चले? यह बात तो हर आम आदमी के अनुभव की है न?
हम सभी कई-कई बार, कई बार तो एक ही दिन में कई बार ऐसा इरादा करते हैं कि 'भाई, अपन जैसे हैं उससे थोड़ा बेहतर होना माँगता।' कहते हैं कि नहीं कहते हैं? 'जैसे हैं ऐसे चलेगा नहीं।' अपने ही ऊपर कई बार खीज उठती है, क्रोध आता है, 'मैं ऐसा क्यों हूँ!' होता है न?
तो अपने ऊपर काम करने को कहते हैं। मैं अंदर से बेहतर हो जाऊँ। अंदर से बेहतर हो जाऊँ माने क्या? वो सब चीज़ें जो अन्दर-अन्दर होती हैं और अधिकांशत: बाहर दिखाई भी नहीं देतीं, उन सब मामलों में मैं बेहतर हो जाऊँ। जैसे अन्दर ही अन्दर निराशा हो सकती है, हो सकता है कि आप चेहरे से, बातचीत से, व्यवहार से, छुपा जाएँ कि आप भीतर-ही-भीतर निराश हैं या उदास हैं। हो सकता है न?
तो इसलिए हम निराशा को कह देते हैं कि अंदरूनी बात है। वास्तव में अंदरूनी ही नहीं है, वो बाहरी भी है। लेकिन उसे हम अंदरूनी कह देते हैं क्योंकि कई बार वो अंदर होती है और बाहर हम उसे छुपा देते हैं। कई बार ऐसा होता है कि वो बाहर होती भी है, तो देखने वाले पकड़ नहीं पाते। है न? तो हम कह देते हैं अंदरूनी बातें। इस तरह की अंदरूनी बातें और कौन सी होती हैं? जैसे अभी हमने कहा निराशा, उदासी और कौन सी अंदरूनी बातें होती हैं जो भीतर-भीतर चलती रहती हैं?
कई बार हम दुनिया को दिखाते नहीं, कई बार दुनिया की पकड़ में नहीं आतीं, कौन सी होती हैं? गुस्सा, खीज, ईर्ष्या, तमाम तरह की कामनाएँ, डर। ख़ासतौर पर अग़र हम डरे हों तो बिलकुल ही नहीं प्रदर्शित करना चाहते कि डरे हैं। दुनिया क्या बोलेगी?
इसी तरीके से अहंकार का भाव — मैं बड़ा हूँ, मैं छोटा हूँ या कुछ भी और, मोह। इनको हम कहते हैं ये अंदरूनी बातें हैं। अंदरूनी बात कह लो या अंदरूनी समस्या कह लो। तो जितने भी लोग हैं, हर एक जो जीवित प्राणी है, सबको ये अंदरूनी चक्कर लगे रहते हैं न? लगे रहते हैं कि नहीं? इन अंदरूनी मसलों पर काम करने को, इन अंदरूनी मसलों को ठीक करने को कहते हैं — साधना।
साधना इतनी सी बात है ─ मैं जैसा इंसान हूँ, मुझे उससे बेहतर इंसान बनना है। और ये बात सिर्फ़ संयोग की है कि जिनको हम आध्यात्मिक ग्रंथ कहते हैं वो बेहतर बनने में उपयोगी होते हैं। कोई ज़रूरी नहीं है कि आपको बेहतर होना है तो उसके लिए आप आध्यात्मिक ग्रंथों का इस्तेमाल करें-ही-करें। हो सकते हैं आप ऐसे कोई विरले जिसको आध्यात्मिक ग्रंथों की ज़रूरत न पड़े। हो सकता है आपको ज़िंदगी सिखा दे, हो सकता है कुछ और हो जाए आपके साथ।
कौन जाने? लेकिन हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे मामलों में ऐसा पाया गया है कि जो लोग भीतर से बेहतर होना चाहते हैं, उनके लिए बड़े उपयोगी साबित होते हैं यह आध्यात्मिक ग्रंथ। इसलिए साधना का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है आध्यात्मिक ग्रंथों से, आध्यात्मिक अनुशासन से, क्रियाओं से। अन्यथा साधना कोई आवश्यक नहीं है कि किसी किताब आदि से जुड़ी चीज़ हो या किसी पंथ से जुड़ी चीज़ हो, ऐसा कुछ नहीं है।
एक आम आदमी भी बेहतर होना चाहता है तो एक आम आदमी भी साधक ही है। एक आम आदमी भी साधक ही है। एक तरह से दुनिया में जितने लोग जी रहे हैं सब साधक हैं, क्योंकि बेहतर होने की तमन्ना तो सभी में है। जो भी व्यक्ति थोड़ा और अच्छा, ऊँचा होने की इच्छा रखता हो, वही साधक हुआ। तो हम सब साधक हैं। हाँ, सब अपनी-अपनी तरह के साधक हैं।
(एक श्रोता को दिखाते हुए) यह भी बेहतर होना चाहते हैं। (दूसरा श्रोता) ये अपने तरीके से बेहतर होना चाहते हैं, वो भी, वो भी (अन्य श्रोताओं को दिखाते हुए)। सबकी अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं व्यक्तिगत बेहतरी की। तो हम सब साधक ही हैं। ठीक है?
अब सवाल ये है, पूछा है कि मैंने अभी-अभी, ताज़ी-ताज़ी साधना शुरू करी है। माने इनका यह है कि इन्होंने अभी-अभी साधना पर और ध्यान देना शुरू करा है या साधना का एक विशिष्ट रास्ता इन्होंने अभी-अभी चुना है। वो रास्ता शायद ये है कि इन्होंने कुछ साहित्य पढ़ना शुरू करा है, कुछ वीडियो देखने शुरू करे हैं, वो भी इनका रास्ता है। ठीक है? कह रहे हैं तो अब इस रास्ते पर मैं लोगों से रिश्ते कैसे रखूँ, घरवालों से, यार-दोस्तों से? ठीक है? रिश्ते कैसे रखूँ?
रिश्ते कैसे रखूँ कि कोई बात नहीं है। रिश्ते तो हैं न पहले से ही? ये ऐसी सी बात है कि साधक पूछे कि मैंने साधना शुरू की है बताओ मैं कैसा आदमी बन जाऊँ? बन क्या जाओगे! तुम तो पहले से ही आदमी हो। तुम्हें बस यह करना है कि तुम पहले से जैसे आदमी हो, उस आदमी को सुधारना है। तुम्हें एक नया आदमी खड़ा नहीं करना है। जो आदमी पहले से है, उस आदमी को रगड़-रगड़ कर साफ़ करना है।
भीतर से तो वो ठीक ही है, ऊपर-ऊपर से उसने न जाने क्या जमा कर लिया है कचरा! तो उसकी सफ़ाई करनी है, धुलाई करनी है, उसके जितने भ्रम हो गए हैं और उसने जितने तरह की धारणाएँ पाल ली हैं, उन सबको हटाना है। ठीक है न?
तो इसी तरीके से रिश्ते भी तुम अब बनाओगे क्या? रिश्ते तो हैं ही। जैसे आदमी पहले से मौजूद है, नया आदमी नहीं खड़ा करना है। उसी तरीके से रिश्ता भी तो पहले से मौजूद है। नया रिश्ता क्या खड़ा करोगे? लेकिन जैसे पुराने आदमी में तमाम तरह के दोष और विकार हैं, वैसे ही पुराने रिश्ते में भी तमाम दोष और विकार हैं। तो ठीक जैसे साधना में पुराने आदमी की घिसाई-सफ़ाई करनी है, वैसे ही साधना में पुराने रिश्ते की घिसाई-सफ़ाई करनी है। तो साफ़ करो न!
इसमें इतना सोचने की क्या बात है कि आज सुबह आठ बजे से मैंने साधना शुरू करी है, तो अब विचारशील हूँ कि माँ के साथ रिश्ता कैसा रखूँ? अरे! रिश्ता तो है ही पहले से। नया रिश्ता क्या बनाओगे? रिश्ता जैसा है उसके दोषों पर ग़ौर करो, उन दोषों को हटाते चलो, सब दोषों को हटा दो। जो बचेगा वो साफ़-सुथरी चीज़ होगी। बात आ रही है समझ में?
तो इस दुविधा में मत पड़ जाया करिए कि रिश्ते कैसे बनाएँ। जानते हैं ये दुविधा ख़तरनाक क्यों है? क्योंकि ये दुविधा आपको ऐसा एहसास दे देती है जैसे कि बड़ी मेहनत करने जा रहे हो। कह रहे हैं, 'अब साधना शुरू कर दी है। छः सौ छप्पन रिश्ते थे पुराने, वो सबके-सब अब पुनर्निर्मित करने पड़ेंगे। हाय-हाय! हाय-हाय! क्योंकि भाई! अब तो हम साधक हो गए है। साधक के तो सब नए रिश्ते नए ही होने चाहिए, साधक के जैसे।'
तो छः सौ छप्पन नए रिश्ते बनाना तो बड़ी मेहनत का काम है। तो कहेंगे इतने रिश्ते बनाने पड़ेंगे अगर साधना करने में तो उससे अच्छा है, साधना ही न की जाए।
कोई नया रिश्ता नहीं बनाना है। आप बेहतर आदमी बनते जाइए, रिश्ते भी बेहतर होते जाएँगे। वास्तव में आप अगर अपनी सफ़ाई कर रहे हैं, तो रिश्ते की सफ़ाई भी आपको अनिवार्यत: करनी ही पड़ेगी। आप अपने सम्बन्ध सुधारे बिना बेहतर आदमी बन ही नहीं पाएँगे। और अगर आप बेहतर आदमी बन रहे हैं तो दूसरे छोर पर आपके सम्बन्ध अपनेआप ही बेहतर हो रहे होंगे। ये दोनों चीज़ें साथ-साथ चलेंगी बिलकुल। ठीक है?
तो इतना इसमें कोई विचार करने की बात नहीं है। आत्म-सुधार की प्रक्रिया, सम्बन्ध सुधार की प्रक्रिया ही है। दोनों में कोई ऐसा भेद नहीं है। दोनों को अलग-अलग सोचना या देखना ठीक नहीं है।
प्र: आचार्य जी और जैसे पुराने रिश्तों की बात तो समझ में आ गई। मैं किसी नए लोगों से मिल रहा हूँ तो अब अट्रैक्शन (आकर्षण) से या भय से मैं रिश्ते बनाने जा रहा हूँ, वो ग़लत ही होगा। पर उस मोमेंट (क्षण) में तो मैं सामने वाले से अट्रैकटेड (आकर्षित) हूँ और फिर उसी फीलिंग (अहसास) के साथ मैं उससे जुड़ने जा रहा हूँ।
आचार्य: तो क्या कर सकते हो? अभी हालत ही तुम्हारी ऐसी है, तुम क्या करोगे? उस वक़्त पर जब तुम पर भय छाया हुआ है या लालच छाया हुआ है तुम और कर क्या लोगे? कुछ नहीं कर सकते।
साधना का मतलब ये है कि जब होश आ जाए, बात समझ में आ जाए, तब तो कम-से-कम कुछ कर लो भईया। जब होश ही नहीं है, उस वक़्त तो तुम एक यंत्र जैसे हो न? बेहोश मशीन एक। उस वक़्त तुम्हारे पास विकल्प क्या है? मैं तुम्हें बता भी दूँ कि 'देखो डरना नहीं है', पर अगर तुम डर ही गए तो मेरी सलाह अब आपके कौन सा काम आएगी तुम्हारे?
ये ऐसी सी बात है कि मैं तुमसे कह दूँ 'सोना नहीं है' और अगर तुम सो ही गए हो तो मेरी सलाह का पालन करने वाला बचा कौन? पालन करने वाला तो अब सो गया, बेहोश हो गया। पालन कैसे करेगा?
हाँ, यह कर सकते हो कि जब नींद टूटे तो कुछ बंदोबस्त कर लो कि आगे नींद ज़रा कम आए या कि कह लो अपनेआप से अनुशासित हो करके कि 'आज ज़्यादा सो लिया हूँ। संकल्प लेता हूँ कि काम थोड़ा ज़्यादा करूँगा क्योंकि नींद तो ले ही ली, अब काम का समय आया।'
ठीक है? आप जैसे होंगे, आपके रिश्ते वैसे ही होंगे। आपको पूरी आज़ादी है। ख़ुद से बहुत प्यार प्रतीत होता हो तो अपनी सफ़ाई करना शुरू कर दो। कई लोग कहते हैं कि 'मुझे तो भई अपनी बेहतरी चाहिए' और कुछ थोड़े दूसरे वक्तव्य के लोग होते हैं, वो कहते हैं 'नहीं, मैं तो निसार हूँ फ़लाने पर।'
कोई समर्पित है, फ़िदा है अपने घर पर, अपने बच्चों पर, पति पर, पत्नी पर। कोई कुछ मिशन रखे हुए है, वो उसके प्रति पूरे तरीके से समर्पित है। कोई कहता है नहीं मैं तो राष्ट्र-भक्त हूँ, मैं राष्ट्र को पूरी तरह से समर्पित हूँ।
तो ऐसे लोगों को फिर दूसरे से अपना सम्बन्ध सुधारना पड़ेगा। वो दूसरे की बेहतरी से ज़्यादा प्रेरित होते हैं। दूसरे की बेहतरी ज़्यादा पसंद हो तो रिश्ता सुधारने से शुरुआत करो। अपनी बेहतरी ज़्यादा पसंद हो तो ख़ुद को सुधारने से शुरुआत करो। लेकिन रिश्ता सुधारने चलोगे तो पाओगे ख़ुद को सुधारना पड़ेगा और ख़ुद को सुधारने चलोगे तो पाओगे रिश्ता सुधारे बिना यह सम्भव नहीं है। तो दोनो चीज़ें चलनी तो साथ-साथ हैं। जैसे कि दो टाँगें हैं, वो चलती तो सदा साथ-साथ ही हैं। अब यह तुम्हारी बहुत बड़ी निजी स्वतंत्रता की बात है कि तुम पहला कदम दाँया बढ़ाओगे या बाँया बढ़ाओगे।
इस पर बहुत विचार मत करते रह जाना। दाँया बढ़ाना हो भाई, दाँया बढ़ा लो। ठीक है? और बाँया बढ़ाना हो पहले, तो बाँया बढ़ा लो। बाँया बढ़ाओगे, पीछे-पीछे दाँया आ जाएगा। दायाँ बढ़ाओगे, पीछे-पीछे बाँया आ जाएगा। चलना दोनों को साथ है। ठीक है?