सच से नफ़रत भी काम आती है || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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सच से नफ़रत भी काम आती है || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं अपने मित्र को आपके पास लाना चाहता हूँ, लेकिन मन में शंका उठती है कि कहीं वो बाद में मुझे गालियाँ न दे।

आचार्य प्रशांत: तो तुम पक्का करो न कि वो गालियाँ दे ही रहा है, ताकि शंका मिट जाए पूरी। शंका का अर्थ है यकीन न होना। तथ्य का सुदृढ़ न होना शंका है। कुछ आश्वस्ति के साथ न पता हो जब, कुछ पक्का न हो जब, तो उसे कहते हैं शंका। कि अभी बात इधर है कि उधर है कुछ पता नहीं चल रहा है। गेंद किसी पाले रुक नहीं रही, तुम रोक ही दो एक पाले। गाली मीठी बात है।

शादियों में, होली पर, कृष्ण के यहाँ तो गाली गायी जाती हैं। गाली में बुराई क्या है, गाली तो आत्मीयता दर्शाती है। बेगानों को गाली देते हैं? मन जिसे अपना मानेगा उसे ही तो गरियेगा। तो दो गाली। भक्त से ज़्यादा भगवान को कोई गरियाता नहीं। बुल्लेशाह साहब की एक काफ़ी है जिसमें कह रहे हैं, “क्यों औले वैह वैह झाकीदा।” गायी है कई लोगों ने यहाँ पर, जानते हैं। अगली पंक्ति याद है?

श्रोतागण: “एह पर्दा किस तों राखी दा?”

आचार्य: ‘वहाँ बैठे-बैठे झाँक रहे हो, ये पर्दा किसके प्रति रखे हो, ये पर्दा किसके खिलाफ़ रखे हो, और वहाँ दूर बैठे-बैठे झाॅंकते क्या हो।’ ये गाली ही तो दी जा रही है और क्या है? मीठी रवायतें रही हैं। भगवान मिलते नहीं तो भक्तों ने ये भी कहा कि जाओ तुमसे बात नहीं करेंगे। इतने यदि प्यारे ही हो तो दूर क्यों बैठे रहते हो। लुका छिपी कैसी। तुमने ही अगर सब रचा है तो अपनी ही रचना से अब अलगाव कैसा।

जिस काफ़ी की मैं बात कर रहा हूँ उसमें आगे पूछते हैं सन्त कि जब तुम ही सारे-के-सारे हो, तो फिर कैसे कहते हो कि न्यारे हो। न्यारा माने जो अलग हो ज़रा, जिसमें ज़रा विशिष्टता हो। “ज्यों आप ही आये सारे हो।” याद है किसी को? तो फिर न्यारे कैसे हो गये तुम। तो ठीक है, अच्छी बात है। ऊपर-ऊपर से देखने में यही लगेगा कि जैसे जब तुम विरोध प्रदर्शित कर रहे हो तो तुम दूरी की आकांक्षा रखते हो। गाली विरोध का प्रतीक लगेगी। लेकिन जो जानते हैं उन्हें अच्छे से पता है कि विरोध करना, पर्दा रखना, अड़ना, हठ करना ये सब तरीके हैं सत्य तक पहुॅंचने के ही। हाँ, जरा आड़े-तिरछे तरीके हैं। तुम कहते हो मुझे चाहिए तो, पर अपने तरीके से चाहिए। मुझे चाहिए तो, पर जरा लम्बे तरीके से चाहिए।

तुमने जो भी कह कर धारण किया, सत्य को धारण तो किया न? सन्त धारण करता है आराधना करके, पूजा करके, स्तुति से, स्तवन से। तुम ऐसे ही धारण कर लो, विरोध कर-करके, निंदा करके। जैसे भी किया धारण तो किया न, जैसे भी किया खयाल तो किया न? और सच्चाई शह कुछ ऐसी है कि उसका खयाल जिस भी वजह से करोगे, जिस भी रूप में करोगे वो अपना कमाल तो दिखा जाएगी।

जो गाली देते हों वो ज़रा भोले लोग हैं, ईमानदार लोग हैं। उनसे ज़्यादा विषम स्थिति उनकी है जो गाली भी नहीं देते। परमात्मा किसी भी रूप में उतरा, तुम्हारे मन में उतरा तो सही। तुम्हें बुरा लगा, कुछ लगा तो सही। तुम्हारे भीतर ज़रा लहर, ज़रा संवेदना उठी तो सही, तुम चले तो सही, भले ही विपरीत दिशा में। यहाँ मामला गोल है। विपरीत दिशा में भी चलोगे तो घूम-फिरकर के वहाँ ही पहुँच जाओगे। तुम चले तो सही।

निन्दा ही करो, भर्त्सना ही करो, आलोचना ही करो, पर आलोचना करने में भी तुमने लोचन तो किया न? देखा तो। और इतना मूर्ख कोई नहीं होता कि लोचन करता रहे फिर भी उसे सच्चाई ज़ाहिर न हो। देखते रहोगे तो हकीकत पता चल जाएगी। निन्दा करने के लिए ही देखो, भर्त्सना करने के लिए ही देखो, पर देखते रहो। देखते रहो, हकीकत जान जाओगे, देखना न छूटे, तुम चाहे जिस वजह से देखो।

तुम तय कर लो कि अब से इनके जितने सन्देश आएँगे मुझे हर सन्देश का उपहास करना है, छिद्रान्वेषण करना है, कुछ-न-कुछ उसमें खोट निकालनी है, और गहराई से पढ़ूँगा, मामले की तह तक जाऊॅंगा और उसमें जो लोचा है, जो खोट है वो निकाल कर लाऊँगा, और जैसे ही मुझे उसमें खोट मिलेगी उसे ज़ाहिर करूँगा और खूब निन्दा करूँगा। तुम करो। मैं कहूँगा स्वागत है।

मरा-मरा बोलते-बोलते तुम जान भी नहीं पाओगे कि कब राम-राम बोलने लग गये।

गलती निकालने की ही खातिर भी तुम अगर पढ़ने लग जाओ जो सन्तों ने कहा है, और निकाल लो जी भरकर गलतियाँ, तो भी सन्तत्व तुम्हें ज़रा छू जाएगा। तुम खोट निकालने की खातिर ही पढ़ो। अभागे वो होते हैं जो इतना भी सरोकार नहीं रखते कि खोट निकालें, उनका बड़ा सघन अहंकार होता है, उनके भीतर बड़ी प्रबल भावना होती है कि हम जैसे भी हैं बिलकुल ठीक हैं, और ये पहले से ही स्वत: सिद्ध है कि दूसरों में तो खोट है ही, तो हम खोट निकालने भी नहीं जाएँगे। साबित थोड़े ही करना है, सिद्ध थोड़े ही करना है। चूँकि हम सही हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि दूसरे गलत ही होंगे। तब खोट निकालेंगे ही नहीं, कहेंगे, काम पूरा हो चुका है, हमें करना थोड़े ही है। आप निकालो खोट।

बहुत सारे नये चेहरे यहाँ पर (सत्र में) दिख रहे हैं, उनका मैं इसी रूप में स्वागत करता हूँ। ये जमाना शक का है, सन्देह का है, संक्रमण काल है, श्रद्धा का समय नहीं है ये। अन्धविश्वास चल सकते हैं, श्रद्धा नहीं चल सकती। तो आप इसी रूप में जुड़िए, निन्दक के रूप में। आप नियमित रूप से निन्दा करने का बीड़ा उठा लीजिए, बस निन्दा में ज़रा तथ्य होना चाहिए, ज़रा गहराई होनी चाहिए।

आप खूब भूल निकालिए, त्रुटियाँ खोजिए, पर खोजिए। कल्पना मत कर लीजिएगा, खोजिएगा। तथ्यों का अनुसन्धान करिएगा, मामले में गहराई से घुसिएगा। वो रास्ता आपको ज़रा सुगम पड़ेगा, क्योंकि श्रद्धा के रास्ते पर तो अहंकार को लगता है बेवकूफ़ तो नहीं बन रहे हैं। इतनी आसानी से मान लिया, सिर झुका दिया।

अहंकार को अच्छा ये लगता है ज़रा जाँच परख लो, ठोक-बजाकर देख लो। तो आप वही रास्ता अख्तियार करिए। तो ज़रा आप ठोक बजा के देखिए। उसके बिना वैसे भी आपको चैन पड़ना है नहीं, ऊपर-ऊपर से आप भले ही बोल दें कि वाह! चीज़ बढ़िया है, लेकिन भीतर शक कुलबुलाता ही रहेगा। और शक सबसे ज़्यादा उनमें कुलबुलाता रहता है जो दूर रहते हैं। जो करीब आ गये, जिन्होंने वास्तविकता देख ली, उनके शक दूर हो जाते हैं। मैं ये नहीं कह रहा कि एक ही दिशा में दूर होते हैं। ये भी हो सकता है कि जिस बात का पहले शक था वो बात अब साबित हो गयी हो लगती हो, पर दूर बैठकर के खयाली पुलाव मत पकाते रहिएगा। जैसे आज आये हैं आते रहिएगा। और आना कोई पैरों से चलकर हो, ये ज़रूरी नहीं होता। इंटरनेट का जमाना है हज़ार तरीके हैं आने के।

प्र: जो लोचन भी नहीं करना चाहते हैं, क्या उन लोगों का कुछ हो सकता है?

आचार्य: उन्हें परेशान करिए, उन्हें छेड़िए, और कोई तरीका नहीं है। सन्तों ने ये क्यों किया कि सड़कों पर निकलते थे ढोल बजाते, मजीरे बज रहे हैं, लोग नाच रहे हैं, क्यों कर रहे हैं। बाज़ारों के बीच से मस्तों की टोली जा रही है, क्यों जा रही है। ये चिढ़ाने का मीठा तरीका है। तुम वहाँ बाज़ार में बैठे सिर फोड़ रहे हो, दुकान बढ़ा रहे हो, और बढ़े हम जा रहे हैं। लेकिन जो भी करिए, उसमें हिंसा न हो जाए कहीं। थोड़ा चिढ़ाना, थोड़ा छेड़ना एक बात है और चोट पहुॅंचाना दूसरी बात है।

भला है कि आज की बातचीत की शुरुआत ही इसी से हुई। निवेदन कर रहा हूँ, चुनौती भी दे रहा हूँ, आमन्त्रण है कि निन्दक के तौर पर ही सही, पर जुड़िए। दिल खोलकर निन्दा करिए, पर करिए। जहाँ-जहाँ दिखाई दे कि बात ढीली है, जहाँ-जहाँ दिखाई दे कि कोई कमज़ोरी है, वहाँ कहिए। और मानकर चलिए होंगी बहुत सारी कमजोरियाँ, तो बस घुसेंगे और मिल जाएँगी, काम आसान है। मेरा काम है आपका काम मुश्किल करना, पर आप वो मानिये मत, आप यही मानिये कि।

अभी जब माह भर राम पर शृंखला चली, तुलसीदास के माध्यम से, तो एक दिन यूँही मेरे मुँह से निकल गया कि पूरी रामकथा राम-सीता की नहीं, राम-रावण की प्रेम कहानी है। सीता भी जैसे माध्यम ही बनीं। रावण को पाना था राम को और उसकी अपनी ठसक, अपने तरीके, अपना ज्ञान, अपना पांडित्य। सीधे-सीधे वो कह नहीं सकता था कि राम तुम्हारी शरण में आना है, तो उसके पास एक ही तरीका था झगड़ा करके पाऊॅंगा तुमको, और तो तुम्हें मैं कैसे भी पा नहीं सकता, तो वो लड़ा।

जो कहानी भी है कि अन्तत: नाभि में बाण लगा तो उसे मुक्ति मिली, वो भी सांकेतिक है। नाभि माने आपका केन्द्रीय स्थल। जब तक राम वहाँ ही प्रवेश नहीं कर गये, तब तक रावण माना नहीं। सीता ने तो क्या ही प्रेम दिया होगा राम को, प्रेम तो राम को रावण ने दिया था। आप सीता हो सकते हों बड़ी मीठी बात है, लेकिन ये राम का युग नहीं, तो आप रावण हो जाइए। आप लड़-झगड़ कर आइए, आप विरोध करने के लिए, आप तीर चलाने के लिए, आप दुख देने के लिए मिलिए, पर मिलिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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