
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। तो आचार्य जी, ये सेवन नंबर चैप्टर है जिसमें लिखा हुआ है: “देयर इज़ ग्रेट फन इन कैचिंग योर ओन इनर मिसचीफ़ रेड हैंडेड।” अक्सर, मेरे साथ जो होता है आचार्य जी, जब बात मतलब निकल जाती है गाड़ी, तब मुझे समझ में आता है कि गलती हो गई।
आचार्य प्रशांत: नहीं, वो समझ में पहले ही आ रहा होता है, पर पहले उम्मीद बाक़ी होती है कि काम बन जाएगा। ठीक है? काम बन जाएगा, और वो काम बनना वास्तव में कभी है नहीं। तो हम फिर जब देख लेते हैं कि काम नहीं बना, तब ये स्वीकार करते हैं कि शुरू में ही गलती हुई थी। गलती शुरू में ही हुई है, ये बात शुरू में ही जानी जा सकती है। और हमें एक धुंधला सा एहसास होता भी है कि मैं शुरुआत में ही गलत कर रहा हूँ, पर उस एहसास को हम दबाकर रखते हैं। क्योंकि जब हम काम शुरू कर रहे होते हैं, तो ये कामना होती है कि इसका हमें कुछ सुखद फल मिल जाएगा। तो उस सुखद फल की आशा में, जो आप जान रहे होते हो कि आप काम कर रहे हो उसमें कुछ गड़बड़ है, आप अपने उस जानकारी को, अपने उस ज्ञान को आप दबा देते हो।
अब सुखद फल तो आया नहीं। जब नहीं आया, तो फिर हम कहते हैं, अब मुझे समझ में आ रहा है कि गलती हो गई। अब कैसे समझ में आएगा? वो पहले से ही समझ में आ रहा था, वो पहले से ही पता था पर पहले ऐसा था कि जानी हुई चीज़ को भी नहीं जानना चाहते थे। जानी हुई चीज़ को भी दबाकर रखना चाहते थे, इस उम्मीद में कि काम बन ही जाएगा।
देखा नहीं है आपको चटपटा परोस दिया गया। ठीक है? जो आपको परोसने आया, आप उससे बोलते हो, नहीं-नहीं मैं ये खाता हूँ तो मेरा पेट ख़राब हो जाता है। पर ये बात आप बहुत आधे मन से बोलते हो। ये बात आप बोलते ही उसी हिसाब से हो, इतने ही जोर से हो। कि आप बोल भी दो तो सामने वाला कहे आग्रह कर के, नहीं-नहीं, आप खा लीजिए, खा लीजिए। तो आप खा लीजिए। अब जान आप शुरुआत में ही रहे हो कि आप जो कर रहे हो, वो गड़बड़ है। जान तो आप रहे हो, पर परोसने वाले ने बड़े आग्रह से परोस दिया और उसमें से खुशबू भी उठ रही है, और ये सब है, तो आपने खा लिया।
अगले दिन जब पेट ख़राब होता है, तो आप कहते हो, मुझे तो पहले से ही पता था कि ये गलत है। अगले दिन आप कहते हो, मुझे तो पहले से ही पता था कि ये सब गलत हो रहा है। पहले दिन, माने पिछले दिन, जब शुरुआत हुई थी, तब में और अब में, जब पेट ख़राब हुआ है, फ़र्क़ क्या पड़ गया? जब शुरुआत हुई थी, तो आशा ये थी कि मज़े भी ले लेंगे और पेट ख़राब नहीं होगा। तब ये आशा थी।
अब ये है कि आशा टूट गई, पेट ख़राब हो गया और जो मज़े लिए थे दो मिनट के, वो पीछे छूट गए और पेट भी ख़राब हो गया। तो अब आप कहते हो कि, मुझे समझ में आ गया कि गलती तो हुई है। वो जो आप अब दावा कर रहे हो कि आपको समझ में आ गया, वो आपको शुरू से पता था। वो आपको बिल्कुल शुरू से पता था, पर तब उम्मीद बहुत थी कि आगे मज़े आएँगे।
तो ये जब हम कहते हैं न बार-बार, कि एवरीबॉडी इज़ वाइज़ इन हाइंड साइट। या कि जब गलती हो जाती है, उसके दो दिन बाद मुझे समझ में आता है कि गलती हो गई, ऐसा कुछ नहीं है। आप जो भी कर रहे होते हो, उसका आपको पता लगना तो उसी समय शुरू हो जाता है जब वो हो रहा होता है। लेकिन जो आपको पता लगना शुरू हो गया है, उसको एकनॉलेज कौन करे? क्योंकि एकनॉलेज करोगे, तो फिर वह काम नहीं कर पाओगे जो आप कर रहे हो।
तो पता लग रहा होता है, पर कहते हैं, देखो, प्रोबेबिलिटी की बात है, क्या पता पेट नहीं ख़राब हो। पिछली बार धोखे से ख़राब हो गया था। इस बार ये सब खा भी लूँगा तो पेट ख़राब नहीं होगा। तो सारी कामनाएँ, उम्मीदों का सहारा लेकर अपना ज़ोर मारती रहती हैं।
कभी भी आपके साथ ऐसा हो रहा हो कि कोई चीज़ बाद में समझ में आ रही हो, तो ये याद रख लीजिए, जो चीज़ आपको बाद में समझ में आ रही है, वो आपको हमेशा से ही समझ में आ रही थी। बाद में कुछ नया नहीं समझ में आया। बाद में आपने बस उसको एकनॉलेज करा है। बाद में आपने उसको बस अभिस्वीकृति दी है। पता पहले से था, पर हम उसको एक्सेप्ट नहीं कर रहे थे। हम में यह क्षमता होती है, नोइंग बट नॉट एक्सेप्टिंग। पता पहले से था पर उसको एक्सेप्ट नहीं कर रहे थे, क्योंकि उम्मीद थी कि क्या पता मज़े आ ही जाएँ आगे। अब जब मज़े नहीं आए, उम्मीद टूट गई, तो हम एकनॉलेज कर लेते हैं कि हाँ, गड़बड़ हो गई। गड़बड़ हो रही है, ये शुरू से ही पता था। ठीक है?
तो इसमें हमारे लिए अच्छी बात है ये, कोई हम ख़तरे की बात नहीं कर रहे। ये हम अपने आप को बस गिल्टी या दोषी नहीं महसूस करा रहे। हम अपने आप से कह रहे हैं, अगर मुझे गलती का एहसास कर्म के कर्मफल के बाद हो सकता है, अगर मैं गलती कर रहा हूँ और इसका एहसास परिणाम आने के बाद हो सकता है, तो फिर उसका एहसास कर्म करने के क्षण में भी हो सकता है। ये कोई नियम नहीं है कि जब अंजाम आ जाएगा तभी कहेंगे, “अच्छा, रिज़ल्ट आने के बाद पता चला कि गड़बड़ हो रही थी।” नहीं-नहीं, जो चीज़ रिज़ल्ट आने के बाद पता चल रही है, वो रिज़ल्ट आने से पहले, माने एक्शन के मोमेंट में भी आपको पता है। बस उसको एकनॉलेज करिए, स्वीकार करिए, भले ही उस एकनॉलेजमेंट से आपकी डिज़ायर्स थोड़ा तड़पती हों, कि “अरे, मुझे पूरा कौन करेगा?” लेकिन जो सही है, वो सही है, उसको स्वीकार करिए।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक्सरसाइज़ करने में भी मैं ये चीज़ महसूस करता हूँ। मुझे शुरुआत से ही पता होता है कि अगर इसे 10–15 मिनट और डिले कर दिया तो ऑफिस का टाइम हो जाएगा और फिर आज का टल जाएगा। वो अक्सर मुझे महसूस होता है कि अब मेरा शुरू हो गया।
आचार्य प्रशांत: हम देने में बहुत-बहुत कुशल होते हैं न ख़ुद को। आपका 9:00 बजे का एक्सरसाइज़ का टाइम होगा और 10:00 बजे आपको कहीं निकलना होगा, तो आप 9:00 को 09:15 बनाओगे। फिर जब 09:25 हो जाएगा तो कहोगे, “अरे, अब क्या जाना, पाँच मिनट चेंज करूँगा, फिर जाऊँगा,” फिर वापस आकर पाँच मिनट फिर चेंज करूँगा। तो ऐसे तो जो दस मिनट वाला काम है वो लेट हो जाएगा। तो एक काम करते हैं: कल 08:45 बजे से करेंगे; आज 09:00 बजे से नहीं कर पाए क्योंकि 09:25 हो गया। 09:25 इसलिए हो गया क्योंकि ख़ुद ही टाला है। तो एक काम करते हैं कि कल 08:45 बजे से करेंगे।
आप वही तो हैं न जो आज 9:00 बजे भी नहीं गए; तो कल आप में कौन सा जादुई परिवर्तन आ जाएगा कि कल आप 08:45 चले जाओगे? इंसान आप वही हो। आप वही इंसान हो जो आज 09:00 क्या, 09:15 भी नहीं गया; 9:30 बजे बहाने मार रहा है। आप वही इंसान हो। और यही इंसान बोल रहा है कि मैं कल 08:45 चला जाऊँगा। आप अगर इस लायक होते, इतने अनुशासित होते कि 08:45 जा सकते, तो आज कम-से-कम 09:15 चले गए होते। आज 09:15 भी नहीं जा रहे, और कल का 08:45 का दावा है। ऐसा कभी होने वाला है क्या? पर ये सब हमारी अंदरूनी साज़िशें होती हैं ख़ुद को ही धोखा देने के लिए। इसलिए
सबसे ज़्यादा सतर्क रहना पड़ता है अपने ही ख़िलाफ़। दुनिया धोखा देने नहीं आती; हम ख़ुद को ही धोखा देते हैं।
प्रश्नकर्ता: यही होता है। एक चीज़ और थी जैसे इसमें तो तब भी पता चल रहा था, लेकिन कहीं तो हमने बच्चों को डाँट दिया। और डाँटते ही आपको पता चल रहा है कि गलत डाँट दिया।
आचार्य प्रशांत: पर मज़ा आ रहा है न अभी डाँटने में। अब आपने डाँट दिया है, अगले दिन उसका ब्रेकडाउन हो जाए या कुछ और हो जाए। तब आप कहोगे, “मुझे तो पहले से ही पता था कि इतना नहीं डाँटना चाहिए था।” जिस क्षण में आप डाँट रहे हो, उस क्षण में भी आपको पता है कि ये वो बच्चा है, उसको समझ में ही नहीं आ रही ये बात, पर डाँटने का प्लेज़र है। अपनी भड़ास निकालने का भी तो एक रस होता है।
किसी और को लेकर के आप परेशान हैं, किसी और से आप खफ़ा हैं। अब वो इतना सा छोटू-सा मिल गया है, वो कुछ कर नहीं सकता, तो उसको जाकर के बिल्कुल दबोच लिया, मरोड़ दिया। उसका भी तो अपना एक मज़ा है न। तुम्हारी बात हो रही है क्या? पता उस वक़्त भी था कि जो कर रहे हैं वो व्यर्थ है, लेकिन उस वक़्त उसमें एक सुख ले रहे थे। अब अगले दिन या एक महीने बाद या दस साल बाद जब उसका अंजाम आएगा, तब हम कहेंगे, “हाँ, गलती हो गई।” गलती हो गई, ये आपको आज नहीं पता चला; गलती हो गई ये आपको तब भी पता था जब आप वो सब कर रहे थे।
पर जानना और जाने हुए के सामने सर झुकाना, ये दो अलग-अलग बातें होती हैं। जानकारी ज्ञान तभी बनती है जब उसके सामने सर झुका दिया जाए; नहीं तो वो बस जानकारी रह जाती है। आपने जो जाना है, अगर आप उसको स्वीकारना ही नहीं चाहते, तो उसको ज्ञान नहीं कह सकते। जो जाना है, उसे कहना पड़ता है कि अच्छा लगे कि बुरा, जिऊँगा अब इसको, सर झुका दिया इसके आगे।
मैं छोटा हूँ, जो जान ली बात वो बड़ी है, तो उस बड़ी बात को मैं हक़ दूँगा कि तू मेरी ज़िंदगी और मेरा कर्म निर्धारित कर। जाने हुए के सामने झुकना भी पड़ता है, बिना झुके बात नहीं बनेगी।