येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१५॥
अनुवाद: जिसने इस विश्व को कभी यथार्थ देखा हो, वह कहा करें कि नहीं है, नहीं है,
जिसे विषय वासना ही नहीं है, वह क्या करें? वह तो देखता हुआ भी नहीं देखता।
~ अष्टावक्र गीता ( अध्याय - १८, श्लोक – १९)
आचार्य प्रशांत: तो यह नेति-नेति की नेति-नेति हो गई। नेति-नेति के साथ ज़रा खतरा यही रहता है कि वो सबकुछ काट देती है, खुद बच जाती है।
अब अष्टावक्र ने काटने वाली तलवार को ही काट डाला। जो सब को जला देता हो, अष्टावक्र ने उसे ही जला डाला। अष्टावक्र कह रहे हैं कि जिसे लगता हो कि सच है, वह बार-बार दोहराए कि सच नहीं है, नहीं है। और जिसे लगता ही ना हो कि सच है, वह दोहरा दोहरा कर क्या सिद्ध करेगा?
जो रात के सपने को सपना समझता हो, वो दिन में जगने के बाद बोले कि रात में सपना था, सपना था, सपना था। जो दिन के जगने को भी सपना जानता हो, वो रात के सपने को सपना क्यों बोलेगा?
रात में एक सपना देख रहे थे, दिन में दूसरा सपना देख रहे हो- दूसरे सपने में पहले सपने को सपना बोलना कोई मज़ेदार बात तो नहीं हुई। जितना भ्रामक एक सपना है, उतना ही भ्रामक दूसरा सपना है। अष्टावक्र आपको वहां ले आएंगे जहां आपकी श्रद्धा पूरी पूरी जांच ली जाएगी, खींच ली जाएगी। अगर उसमें ज़रा भी मिलावट होगी, तो पकड़ में आ जाएगी।
अष्टावक्र कह रहे हैं - विश्वास करना तो झूठ है ही, विश्वास ना करना भी बहुत बड़ा झूठ है। क्योंकि विश्वास करते हो तो भी कहते हो, 'कुछ है जिस पर विश्वास किया।' और विश्वास नहीं भी करते हो तो कहते हो, 'कुछ है जिस पर विश्वास नहीं किया।' घूम फिर करके दोनों ही स्थितियों में एक बात तो साझी हैं - विश्वास करने वाला या ना करने वाला मौजूद है। नेति-नेति करके पूरे संसार को जला दो - निरर्थक और भ्रामक सिद्ध कर दो। इसमें बड़ा सूक्ष्म अहंकार छुप बैठता है।
साहब - सब झूठ है, सब झूठ है, सब झूठ है। अष्टावक्र कह रहे है अगर कहते हो कि सब झूठ है, तो निश्चित रूप से मानते हो कि कहीं ना कहीं सच है। तुम दुनिया को बेवकूफ बना लोगे, हमे ना बना पाओगे। सब झूठ है - किसको बोला, बताओ?
संसार झूठ है - तुमने बोला, अच्छा! किस मुंह से बोला? वो सच है? अगर कह भी रहे हो कि सब झूठ है, तो निश्चित रूप से कुछ छुपा रखा है जिस को सच मानते हो।
हमें नहीं बना पाओगे! बताओ, क्या है जिसको सच मानते हो? क्योंकि अगर कुछ सच न मानते होते तो बाकी सबको झूठ न घोषित कर पाते और अष्टावक्र को मानने से ही कोई लेना-देना नहीं।
समझिएगा! कह रहे है - तुम कुछ झूठ मानते हो, हमेशा तुलनात्मक रूप से। हमेशा किसी पैमाने पर, हमेशा कोई केंद्र बना करके, हमेशा द्वैत पर आधारित हो के। तुम किसी चीज़ को झूठ कहते ही तब हो, जब वह किसी अन्य चीज़ की अपेक्षा झूठ हो।
तो अष्टावक्र तुमको ले जाएंगे उस केंद्र पर जिसको आधार बना कर तुम बाकी दुनिया को झूठ साबित किए दे रहे हो। अष्टावक्र पूछेंगे - अच्छा, सब तो झूठ है, पर जहां खड़े हो करके तुम बात कर रहे हो, उसको तो सच मानते हो ना? तो जब आप पूरे संसार को झूठ बता रहे होंगे, ठीक तब अष्टावक्र आपका झूठ पकड़ लेंगे। झूठ बोला, झूठ बोला - अच्छा क्या दिखा जिसको झूठ बोला? अगर झूठ है तो दिखा कैसे? झूठ बोला, झूठ बोला - किसको झूठ बोला? संसार को! झूठ है संसार? तुम्ही कहते हो! तो दिखा कैसे?
अच्छा! किसको दिखा? किसको दिखा, किसको दिखा? अगर झूठ बोल रहे हो, तो कुछ होगा जिसको झूठ बोल रहे हो - वो दिखा किसको? तुमको दिखा। अच्छा, अच्छा! अगर झूठ है, तो तुमको दिखा कैसे? जो है नहीं, जो झूठ है, यानी कि है नहीं - उसको देखने वाली आंख कैसी होगी फिर?
श्रोता: झूठी।
आचार्य: झूठी। तो जिस संसार को झूठ बोल रहे हो, उसको तुम्हारी ही आंख ने देखा, तभी तो कहते हो झूठ है। यानि कि संसार झूठ है, तो तुम्हारी आंख भी झूठी हुई।
अरे! तो ये आंख ही झूठी है जिस आंख की आंखो देखी को कहते हो कि झूठा है। अच्छा ठीक है भाई। झूठ है, झूठ है - ये बोला कहा से? श्रोता - ज़बान।
आचार्य: ज़बान से। अगर आंख झूठी है, तो ज़बान क्या हुई? क्योंकि वो तो आंख के बोलने पर ही चलती है। आंख ने बताया - झूठ है, झूठ है, तो ज़बान ने कहा कि झूठ है, झूठ है।
तो अगर संसार झूठ है तो तुम्हारा यह कहना भी झूठ हो गया कि संसार झूठ है। क्योंकि संसार अगर नहीं - तो कौन कहने वाला, कौन सुनने वाला! पर हमे ये कहने में बड़ा रस आता है कि सबकुछ झूठ है - मै मात्र सत्य हूं ।
यह पूरा कमरा झूठ है, आप सब लोग झूठ है, पर मेरा कुर्ता झूठ नहीं है। आप जिस चादर पर बैठे है, वो तो झूठ है, पर मेरी कुर्सी झूठ नहीं है। अद्भुत! सुनने वाले सब झूठ है, पर कहने वाला झूठ नहीं है। जो कुछ स्पर्श कर सकता हूं, वो झूठ है, पर स्पर्श करती मेरी उंगलियां झूठ नहीं है।
अष्टावक्र ये बेईमानी नहीं चलने देंगे। कहेंगे - हटाओ ये सब। अगर सब झूठ है तो बस मौन हो जाओ। और अगर सब झूठ है, तो उसको इतना भी महत्व मत दो कि उसे बार बार झूठ घोषित करो - फिर तो उसको होने ही दो।
जो झूठ है - वो दायां है कि बायां, क्या फर्क पड़ता है? जो झूठ है - वो छोटा है कि बड़ा, क्या फर्क पड़ता है? तुम उसमें इतनी रुचि दिखा क्यों रहे हो भाई कि तुम उसे बार बार झूठ बताते हो? कोई जाती हो सामने से स्त्री, और तुम बारबार बोलो - एह! पसंद नहीं है, पसंद नहीं। भद्दी है, बेहूदी है। बार-बार बोलो, बार-बार बोलो। तो हमे तो यही पता चलेगा कि रस बहुत है तुम्हे अभी उसमें।
झूठ है अगर, तो उसे झूठा रहने दो। झूठे का तो अर्थ होता है, है ही नहीं। जो है ही नहीं, उसके बारे में इतनी बातें क्यों? उस पर इतनी ऊर्जा क्यों? उसपर इतने वक्तव्य क्यों?
सच के साथ रहो ना। सच के साथ रहने में तकलीफ यह है कि वहां मुंह नहीं चला सकते। वहां बकवास नहीं कर सकते। संसार के साथ रहने में यह सुविधा है कि खूब बकवास चलेगी। भले ही बकवास की सामग्री यह हो कि बकवास झूठी है। रहना संसार में ही है, भले यह चिल्ला-चिल्ला कर कहे कि संसार घटिया है।
पड़े हुए है - 'संसार घटिया है, संसार घटिया है' - पड़े हुए है। और यह जो तुम्हारी खटिया है, इसके नीचे वही संसार है, जिसको कहते हो कि घटिया है। नहीं तो क्या अंतरिक्ष में आधारित है तुम्हारी खटिया? पर खटिया प्यारी है और संसार घटिया है।
अष्टावक्र तुम्हें झूठ के साथ इतना भी प्रयोजन ना रखने देंगे कि तुम झूठ को बार बार झूठ ठहराओ। इसको कहते है - पूर्ण विरक्ति। इसको कहते है - पूर्ण निर्मलता। अब तुम विरज हुए। अब तुम्हे धूल से इतना सरोकार भी नहीं रहा कि उसे झाड़ो। इसी को कहते है, पूरे तरीके से साफ हो जाना - विशुद्ध हो जाना।
पूरा साफ़ कौन? जिसे अब धूल झाड़ने से भी सरोकार नहीं। वही अवधूत की स्थिति होती है। ऐसी निर्मलता जिसे अब गंदगी छू नहीं सकती, झाड़ना क्यों है! और अगर झाड़ दिया तो झाड़ दिया। और झाड़ना कोई कर्म नहीं है, कोई कर्तव्य नहीं है, कोई दायित्व नहीं है, कोई रस नहीं है उसमे अब। झूठ में क्या रस, वहां तो सूखापन भी नहीं है। जिसका सूखापन भी झूठ हो, उसका रस कैसा होगा? बड़ी अद्भुत चीज़ है झूठ। होना जितना विस्मयकारी, जितना बड़ा रहस्य है, उतना ही बड़ा रहस्य है, न होने में। आप उसका भी विचार नहीं कर सकते, जो सर्वत्र है, सर्वदा है। और आप उसका भी विचार नहीं कर सकते जो किंचित मात्र भी नहीं है। झूठ का भी ख्याल करना, बड़ी पेचीदा बात है, कर नहीं पाएंगे।
झूठ से मुक्ति नहीं चाहिए। झूठ को अगर जान लिया, तो फिर झूठ ही मुक्ति है।
मुक्ति क्या, जहां कुछ ना हो। और झूठ भी क्या! हमे फंसाता है - झूठ और सच का विजातीय सम्मिश्रण, अधकचरापन, अधूरापन। हम न सच में जीते है, न झूठ मे जीते है। जो सच मे जी रहा है, वो तो जी ही रहा है। जो झूठ में जीने लग जाए, वह भी बस पहुंच ही गया सच तक। हम सच और झूठ के मध्य एक ऐसी जगह पर जीते है - जहां कुछ अजीब सा है। उसको विचार कहते है। हम खयालों में जीते है। खयाल न झूठे होते है न सच्चे होते है। वो अपनी ही जाति के होते है। आप जब भी कल्पना करते हो - कभी कहते हो कि यह झूठ है? तो पूरी तरह झूठी तो होती भी नहीं। क्योंकि उसका कुछ ना कुछ ताल्लुक उससे जरूर होता है जिसे आपने सच माना होता है। कल्पना को पूर्णतया झूठ ठहराने के लिए आपको अपने आपको पूर्णतया झूठ कहना पड़ेगा, और पूर्णतया झूठ तो आप हो नहीं। तो कल्पना एक अजीब सी, बीच की चीज़ है जो आपको भी त्रिशंकु बना देती है - न इस पार के हो न उस पार के। तुम किसी पार के हो जाओ - मुक्ति मिल गई।
सच को जान लो, तो भी मुक्त। झूठ को जान लो, तो भी मुक्त। हम कुछ भी नहीं जानते - न सच जानते है, न झूठ जानते है।
अष्टावक्र कह रहे है, "सच तो चलो छोड़ो, झूठ को तो झूठ कहते हो न। तो हम तुम्हे बताए देते है कि तुमने अभी हर झूठ पकड़ा नहीं। झूठो को पकड़ने में बड़ी रुचि है तुम्हारी, तो जो आखिरी झूठा है उसको ही पकड़ लो - आखिरी झूठे तुम हो - जो झूठ पकड़ने निकले हो।"
वो भी तर गए जिन्होंने संसार को पूर्णतया सच कहा। वो भी तर गए जिन्होंने संसार को मात्र भ्रम कहा। अटक वो गए, जो बस बीच के रह गए - जिन्हें लगा कि सबकुछ भ्रम है, पर कुछ सच भी है। और अटक वो भी गए जिन्हें लगा कि सबकुछ सत्य है, पर कुछ जरूर धोखा है, त्याज्य है। आप भगवान के भक्तो को देंखे - वो कहेंगे, कण-कण में नारायण है। और उसके बाद कहेंगे कि अरे अरे, इसमें तो मल रखा है। फिर इसीलिए किसी अघोरी को उठना पड़ता है उन्हें याद दिलाने के लिए कि अगर कण-कण में नारायण है तो इस मल से तुम्हे इतनी दुविधा क्यों है। इसका मतलब यह है कि अभी तुमने सत्य की सर्वव्यापकता को नहीं गह्या। तो तुम नहीं करने वाले - क्योंकि तुमने अभी यह नहीं कहा कि संसार सत्य मात्र है। अगर करदो तुम एक निर्विकल्प उद्दघोषणा के मात्र सत्य है और जो दिख रहा है, जो नहीं दिख रहा है, जो जाना जा सकता है, जो नहीं जाना जा सकता है - सब सत्य है, तो तुम तर गए।
पर वहां भी हम सीमाएं बना देते है। वहां हम भेद कर देते है - हम कहते है कि ये सब तो ठीक है, इतना हिस्सा। ये सत्य के पाले का है और संसार का जो बाकी हिस्सा है, वो सब पाप है, वो शैतान के पाले का है, उसमे दुर्गन्ध है, उसमे मलीनता है - उसको छोड़ो, उसको वर्जित करो। अब नहीं करोगे।
ये उनके लिए है जो इस बात, जो कण-कण में नारायण देखे, जो कहते फिरते है कि; यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे। उनको चेताया जाता है कि - नहीं! अगर सब सत्य है तो सब सत्य होना चाहिए। उसमे कोई भी अपवाद मत रखना। और दूसरे तरह के लोग होते है जो कहते है, सब झूठ है। उन्हें भी चेताया जाता है कि सब झूठ है तो सब झूठ रखना। वहां कोई छूट मत दे देना, कोई अपवाद मत रखना।
इंसान से दोनो ही काम नहीं होते - न तो वह सब कुछ सच बोल पाता है, न वो सबकुछ झूठ बोल पाता है। न उसमे इतनी भक्ति जागृत होती है कि उसकी नज़र जिधर देखे, बस परमसत्ता को ही देखे और न ही उसकी नज़र मे ऐसा विवेक जाग्रत हो पाता है कि वो जिधर देखे, उधर बस भ्रम देखे, माया देखे। वो दोनो मे से कुछ भी नहीं कर पाता। वो बांट देता है। और ये जो बंटवारा है, यही नर्क है।
स्वर्ग क्या है? स्वर्ग वो जहां बंटवारे नहीं होते। स्वर्ग वो जगह है जहां नर्क को भी स्वर्ग माना जाता है क्योंकि वहां बंटवारे तो होते नहीं। क्योंकि बंटवारा नहीं है तो नर्क भी क्या हुआ - स्वर्ग। और नर्क कौन सी जगह है - जहां बंटवारे बहुत है। वहां पर बांट दिया गया है कि ये नर्क है, ये स्वर्ग है। और जहां बांट दिया गया है, नर्क और स्वर्ग को, वहां का स्वर्ग भी नर्क हो गया।
जहां बांटा नहीं गया है स्वर्ग और नर्क को, वहां पर अगर नर्क भी है तो स्वर्ग ही है, क्योंकि बांटा ही नहीं हमने। पक्ष्मपात मत करना। ये जो पक्षपात होता है ना, यहीं अहम्ता, यही माया है - चुनाव। दिखता तुमको भी है कि सब भ्रम है, पर तुम अपने दिखने पर बंदिश लगा देते हो। और दिखता तुमको भी है कि सब सत्य है, पर तुम अपने दिखने पर बंदिश लगा देती हो।
हमारी हालत उस बिगड़ैल नौजवान जैसी है जो खड़ा हो चौराहे पर और सब आते जाते को गालियां देता हो कि सब झूठे है, सब झूठे है। और वो जान रहा कि सब झूठे है। उसे दिख रहा है कि सब झूठे है। ऐसा नहीं कि व्यर्थ प्रलाप है। उसको पता है कि सब झूठे है। और जितने आ जा रहे है, सबको घोषित कर रहा है - अरे झूठा, अरे ये कमीना, अरे वो चोर, ये अपराधी, ये पापी। और तभी अचानक उसकी ज़बान ठिठक जाती है, तालू से चिपक जाती है, क्यों? क्योंकि उसके मां बाप निकल पड़ते है - ये मत करना। जब जानो कि सब झूठे है, तो उसमे ईमानदारी से, बिना भेद भाव के, बिना पक्षपात के उनको भी शामिल करना जिनसे तुम्हारी अंतः जुड़ गई है।
अष्टावक्र यही बता रहे कि जब सबको झूठा जाना तो दो चार को क्यों बचाएं हुए हो? वहीं पर तुम्हारा बंधन है। तो सबको झूठा जान रहे हो तो दो चार को रियायत मत दे दो। ठीक उसी तरह से, अगर खड़ी हो मंदिर के सामने और भक्ति जागृत है और कह रही हो कि इसमें भी कृष्ण, उसमे भी कृष्ण, पत्ते में भी कृष्ण, पत्थर में भी कृष्ण। तो कभी सामने से तुम्हारा घोर दुश्मन निकल पड़े, रुक मत जाना, ठिठक मत जाना, पक्षपात मत कर देना; निर्विकल्प रहना। अगर कृष्ण है, तो फिर है; फिर तुम्हारे दुश्मन में भी है, सोने में है तो लोहे में भी है, स्वच्छता में है तो दुर्गन्ध में भी है।
दोनो ही स्थितियों में तरोगे - सर्वत्र कृष्ण को देख लो तो भी तरोगे पर सर्वत्र देखो, तब! टुकड़ा टुकड़ा देखा तो नहीं! और सर्वत्र शैतान को देख लो तो भी तर जाओगे, पर सर्वत्र देखोगे, तब! अपने घर को बचा दिया तो नहीं।