प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैंने देखा पिछले कुछ सालों में, तो मैं थोड़ा सा रिलेशनशिप को लेकर थोड़ा ब्लंटली (दो टूक) अपनी चीज़ें शेयर करना किसी भी टॉपिक को लेकर डिस्कशन हो रहा है। तो रिलेटिव्स भी मुझसे कतराने लगे फिर बात करने से।
आचार्य प्रशांत: नहीं, तो उनसे आप क्यों ये सब शेयर कर रहे हैं?
प्र: मैंने खुद ही सुधार किया कि ठीक है जो बात गलत लग रही है उसको एक दूसरे तरीके से भी कहा जा सकता है।
आचार्य: नहीं, मैं नहीं समझ पा रहा हूँ। ये सब मेरे सामने बैठे हैं, इनसे बात मैं बिलकुल दिल की बात कर रहा हूँ, ये सब मेरे रिलेटिव्ज हैं क्या? दिल की बात उनसे की जाए न जिनसे दिल का रिश्ता हो, रिलेटिव्ज से तो तन का रिश्ता होता है, तो उनसे आप तन की बातें कर लीजिए।
प्र: मेरा ये प्रश्न है, जो अज्ञानी आदमी होता है वो बड़ा कॉन्फिडेंट (आत्मविश्वासी) होता है, उसको कोई डाउट (सन्देह) नहीं होता। तो मैं पिछले चार-पाँच साल से जब से थोड़ा सा सेल्फ-एनक्वायरी आत्म-जिज्ञासा कर रहा हूँ, तो मैं पाता हूँ कि मैं रोज भ्रमित होता हूँ। रोज कोशिश करता हूँ सुलझाने की लेकिन फिर से अगले दिन और चुनौती होती है। तो मुझे कहीं स्वयं पर सन्देह भी होता है कि मैं कहीं उलझ तो नहीं रहा हूँ और एम आई वॉकिंग द राइट पाथ (क्या मैं सही रास्ते पर चल रहा हूँ)?
आचार्य: नहीं आपको अगर कंफ्यूजन हो रहा है, डाउट (भ्रम) हो रहा है तो उसके साथ धीरज से रहें। और राइट पाथ जैसा कुछ नहीं होता, रॉंग (गलत) पाथ को रॉंग जानना है बस। और रॉंग की परिभाषा है, “अपना नहीं।” राइट पाथ कहीं नहीं मिलेगा। जितने आपके पास आज रॉंग पाथ हैं ना, वो आपको सौंपे गए थे राइट बताकर ही। लेकिन जो पाथ आपको सौंपा गया है, वो सौंपे जाने के कारण ही रॉंग हो जाता है। तो राइट पाथ जैसा कुछ नहीं है।
आप अगर तुलना करोगे मेरा पाथ राइट है या नहीं तो उसे तुलना में कुछ मिलेगा नहीं। जो भी अपना अभी पाथ है उसको देखते चलिए, ये आया कहाँ से? अभ्यास करिए अपनेआप को बिलकुल अपने तौर-तरीकों से अलग करने का। कहिए ‘ये व्यक्ति है, इसके ये तौर-तरीके हैं। उस व्यक्ति के हैं, उसके पास कहाँ से आ गए? फिर उसमें कुछ बहुत मौलिक खोज होती है। ऐसी चीज़ें होती हैं जो बिलकुल सामने होती हैं पर छुपी होती हैं ब्लाइंड स्पॉट (अस्पष्ट जगह) की तरह, वो फिर दिखाई पड़ती हैं।
प्र: सर जैसे भक्ति योग, कर्मयोग, ज्ञानयोग के बारे में चर्चा होती है, जैसे श्रीमद्भगवद्गीता में भी बताया गया है तो जैसे आपने बोला था कि सत्य के प्रति प्रेम ही सच्चा प्रेम है और वही असली भक्ति है। तो मैं इसको समझाता हूँ कि फिर कर्मयोग भी यही होना चाहिए सर?
आचार्य: सारे योग एक ही हैं। कर्मयोग का मतलब ही यही है कि जो कर्म है वो आ ही रहा है आत्मज्ञान से। और आत्मज्ञान कैसे होगा, आत्मज्ञान के लिए क्या चाहिए? आत्मा के लिए प्रेम चाहिए सबसे पहले। आत्मा के लिए प्रेम चाहिए तो प्रेम से आया ज्ञान, ज्ञान से आया कर्म। (दोहराते हुए) प्रेम से आया ज्ञान और ज्ञान से आया कर्म तो बताओ ये तीनों योग अलग-अलग कैसे हो गये?
और आज के समय में जब अहम् जिस हालत में है उसे उसी हालत में रोके रहने के लिए बहुत लालच उपलब्ध हैं, बहुत लालच उपलब्ध हैं कि क्या करना है, ऐसे... मुक्ति से प्रेम करके, बन्धनों में भी बहुत सहूलियतें हैं न? आज के समय में जितनी सहूलियतें उपलब्ध हैं इंसान को इतनी नहीं होती थी पहले। कुछ लोगों को होती होंगी पहले, आम आदमी को बहुत ज़िन्दगी से सुख नहीं मिल रहा होता था।
साधारण ज़िन्दगियाँ होती थीं, बीमारियाँ बहुत होती थी, सूखा पड़ जाता था, आदमी के नियंत्रण में ज़िन्दगी उतनी नहीं थी पहले जितने आज है। तो फिर ज़िन्दगी से वैराग्य होना या ज़िन्दगी से अनासक्ति होना थोड़ा आसान होता था। आपका बच्चा है छोटा, पता ही नहीं चला कौन सी बीमारी लगी, वो मर गया तो भीतर वैराग्य आ जाता था। अब आज सौ तरीके के वैक्सीनेशन हैं। आप कोई यात्रा करने निकले थे, यात्रा वो साठ दिन की यात्रा। आपको उत्तर से दक्षिण जाना था, साठ दिन पैदल चलना है तब जाकर के कुछ होगा। यात्रा में ही आप खो गये, यात्रा में ही आपको अलग तरह के अनुभव हो गये तो अनासक्ति आ जाती थी। ये सब पहले ज़्यादा आसानी से हो जाता था। अब आप वहाँ से फ्लाइट लेते हो खट से गोवा उतर आते हो, कौन सी अनासक्ति? और बीच में वहाँ प्लेन है बढ़िया वाला, उसमें एयर-होस्टेस है, आसक्ति और हो जाएगी!
तो आज के समय में मुक्ति से प्रेम ज़रूरी नहीं है कि उतना सहज हो, तो जितना मैं देख पा रहा हूँ वो ये है कि आज प्रेम से भी पहले विद्रोह चाहिए। तो हम कहते हैं; प्रेम से ज्ञान, ज्ञान से कर्म। आज के समय में प्रेम सहज, साधारण, सरल थोड़ा मुश्किल हो गया है क्योंकि बहुत सारी चीज़ें आ गयी हैं जिनसे आप प्रेम कर सकते हो, झूठी चीज़ें। तो मुक्ति से प्रेम कैसे हो पाएगा? इसकी सम्भावना बहुत ही कम हो गयी है न।
बच्चा आँख खोलता है, उसको लुभाने के लिए कितनी सारी चीज़ें आ गयी हैं? वो मुक्ति से काहे को प्रेम करेगा, इतने तो खिलौने भी नहीं थे पहले। स्कूलों में क्या-क्या सुविधाएँ हैं? फिर बाज़ार भरे पड़े हैं संसार के तमाम तरह की चीज़ों से, मुक्ति से क्यों प्रेम होगा? तो आज प्रेम हो पाए उससे पहले विद्रोह चाहिए। ठीक है। वो पहले भी चाहिए था पर आज और ज़्यादा चाहिए।
तो जो शृंखला है कि प्रेम से ज्ञान, ज्ञान से कर्म; उससे पहले जोड़िए कि प्रेम से भी पहले? ‘विद्रोह’। तो आज योग के मार्ग पर वही आगे बढ़ पाएगा जो सबसे पहले विद्रोही हो। जो विद्रोही नहीं है वो प्रेम ही नहीं कर सकता और अगर कोई मिले आपको जिसमें विद्रोह ज़रा भी नहीं है पर प्रेम छलक रहा है तो ये बड़ा ही नकली आदमी है। प्रेमी सिर्फ़ वही हो सकता है जो विद्रोही है। “पुर्ज़ा-पुर्ज़ा कट मरे, तबहूँ न (छाड़े खेत)” तो ऐसा विद्रोही चाहिए, सिर्फ़ वही प्रेम का अधिकारी है। जिसके पास विद्रोह की ताकत नहीं है, वो मीठा सा मुँह बना के आए और शीतल सी वाणी में बोले कि प्रेम और ये और वो प्यारी बातें, भगा दीजिए; नौटंकी! विद्रोह करने की हैसियत नहीं और प्रेम जताने चले आये। ये नकली प्रेम, सस्ता प्रेम।
तो आज के समय पर प्रेम से भी पहले, ज्ञान से भी पहले और कर्म से भी पहले चाहिए विद्रोह योग, क्रांति योग; वो आज के समय की आवश्यकता है। जो विद्रोह नहीं कर सकता वो प्रेम नहीं कर सकता और प्रेम नहीं है तो ज्ञान नहीं आएगा और ज्ञान नहीं है तो कौन सा कर्म कर लोगे? अन्धा कर्म करोगे कोई। विद्रोह, ललकार योग!
प्र: बहुत-बहुत धन्यवाद सर और ये तीनों योगों के बारे में मेरी समझ आपसे जुड़कर, वीडियो देखकर थोड़ी बड़ी है। वरना मैं इनको अलग-अलग तरीके से लेता था जब मैंने पढ़ना शुरू किया था। बिलकुल अलग कि भक्ति मार्ग वाले लोग बिलकुल अलग हैं, ज्ञान मार्ग वाले लोग बिलकुल अलग हैं, कर्म योग वाले बिलकुल अलग हैं।
आचार्य: देखिए इसीलिए ‘अद्वैत’। अद्वैत का मतलब ही ये है कि एक ही तुम्हारा यथार्थ है, एक ही तुम्हारी मंजिल है, इसमें तुम पचास तरीके की इधर-उधर की विभाजित बातें कर क्यों रहे हो? पचास योग कैसे हो सकते हैं, जब एक तुम हो और एक तुम्हारी जो मंज़िल है। जो एक तुम हो उसका क्या नाम है?
श्रोतागण: अहम्।
आचार्य: और जो तुम्हारी मंजिल है उसका क्या नाम है?
श्रोतागण: आत्मा।
आचार्य: तो इतने सारे योग क्यों खड़े कर दिए? एक ही योग होगा न, ‘अहम् का आत्मा से मिलन।’ बस एक ही योग है, और क्या इतने बाकी सब नाम हैं, नाम।
वो ऐसे ही है जैसे होता है न कि ‘मामा दा ढाबा’, ‘असली मामा दा ढाबा’, ‘सबसे पुराना मामा दा ढाबा’ उसके नीचे लिखते हैं ‘हमारी कोई ब्रांच नहीं है।’ तो वैसे ही ये सौ-ठो योग खड़े कर दिए हैं।
ऐसा कैसे हो जाएगा कि ज्ञानी, प्रेमी नहीं होगा, ये बताओ तो? तो प्रेम योग और ज्ञान योग अलग कैसे हुए, ये बताइए मुझे? ऐसा कैसे हो जाएगा कि जो प्रेम करेगा वो सही कर्म के बिना जी लेगा? हो सकता है ऐसा? प्रेमी निष्काम कर्मयोगी न हो, संभव है? तो सब एक ही तो है, काहे के लिए रेखाएँ खींचनी हैं?
प्र१: नमस्ते आचार्य जी। जैसा आपने कहा था कि जानना और होना साथ-साथ होता है और आपने कहीं और भी कहा था कि देट नोइंग हैज़ टू बी ऑथेंटिकेटेड बाय बीइंग (जानने को होने के द्वारा प्रमाणित करना होगा)। सो कभी-कभी मेरे साथ ऐसा होता है कि मैं किसी चीज़ को इतनी स्पष्टता से देख लेती हूँ कि उस समय मेरे पास कोई और विकल्प नहीं होते। जैसे- मैं जो सही है उसे करने के लिए मजबूर हूँ और मुझे लगता है कि मैंने इसे स्पष्ट रूप से देखा है और अब मुझे यही करना पड़ेगा। लेकिन उसके बाद किसी और परिस्थिति में मैं देखती हूँ कि मैं उसके बिलकुल विपरीत व्यवहार करती हूँ। जैसे वो व्यवहार नहीं बल्कि जो भाव पनपता है वो ठीक उसके विपरीत होता है। तो मेरा प्रश्न ये है, क्या इसका मतलब ये है कि मैं पहले ठीक से नहीं जानती था या इसका मतलब वही है कि आपको हर समय जानते रहना होगा?
आचार्य प्रशांत: दूसरा, देयर इस नो फाइनल विक्ट्री (कोई अंतिम जीत नहीं है), लगातार लगे रहो।
हम ऐसे हैं एक (हाथों से हवा में गोला बनाते हुए), एक पाउडरी मास हैं हम। ए बॉल ऑफ़ गैस , एन एमोरफस स्फीयर (एक आकारहीन गोला)। अहम् उसके किसी भी बिन्दु पर हो सकता है और अलग-अलग समय पर, प्रकृति के संयोग के चलते वो अलग-अलग जगहों पर होता है।
ये रहा आई (मैं), (हाथों से हवा में गोला बनाते हुए) ठीक है। (हाथों से टेबल के दो अलग-अलग कोनों को दर्शाते हुए) ये आत्मा, प्रकृति और हम ऐसे आमतौर पर दिखा देते थे, ये रहा अहम् (दोनों के बीच में उँगली रखकर दर्शाते हुए), ऐसे ही कर देते थे न? वो ऐसा होता है, ऐसा (हाथों से बड़ा गोला बनाते हुए), इतना बड़ा। अब अगर वो इस एज (किनारे) पर बैठा हुआ है, तो किसके ज़्यादा पास है?
श्रोतागण: आत्मा।
आचार्य: अब इधर आकर बैठ गया तो (टेबल के दूसरे छोर की तरफ इशारा करते हुए)?
श्रोतागण: प्रकृति।
आचार्य: और वो इस पूरे में (बड़े गोले में) कहाँ पर होगा, वो प्रकृति के संयोगों पर निर्भर करता है जो कि बिलकुल रेंडम (यादृच्छिक) है। हाँ, संयोगों से प्रभावित होना है कि नहीं ये अहम् की? (श्रोतागण उत्तर देते हैं) तो बिलकुल हो सकता है कि एक क्षण ऐसा आया हो जब वो एकदम यहाँ (टेबल के एक सिरे की ओर इशारा करते हुए) मुहाने पर, सिरे पर, एज पर आकर बैठ गया हो और यहाँ बिलकुल प्रेम-प्रसंग शुरू हो गया हो। जैसे होता है न यहाँ वो खिड़की से झाँक रहा है और यहाँ से वो पुकार रहा है और बिलकुल हो गया। लेकिन घर तो इतना बड़ा है न (बड़े गोले का इशारा)। ये इधर वाली खिड़की पर आकर झाँककर के सब कुछ हो गया था ‘इलू-इलू’ और तभी पीछे से फूफी ने बुला लिया। और फूफी रहती है यहाँ बिलकुल (टेबल के एक दूसरे सिरे पर), कहाँ पर? और ये भागा गया, भागा गया, भागा गया, वहाँ जाकर बैठ गया है। अब उधर से (टेबल के दूसरे कोने से) जो पुकार आ रही है, वो सुनाई नहीं देती। कुछ नहीं सुनाई देता।
‘मुक्तिबोध’ का था, कितनी... एकदम ऐसा लगा था इसमें कुछ तो रहस्य है, “मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं।” अब आध्यात्मिक कोई कवि नहीं थे वो, न उन्होंने कुछ वैसा लिखा था। लेकिन वो पंक्ति ऐसी थी कि उसने मुझे पकड़ा था उस समय भी कि ये कुछ बात कही जा रही है यहाँ, कोई ज़रूरी बात, वो यही है; “मुझे पुकारती हुई पुकार खो गयी कहीं।” क्योंकि जो पुकारा जा रहा है उधर से पुकारा जा रहा है और आप कूद के इधर आ गए और इधर जो बीच में मामला है सारा, उसमें ऑडियो इंसुलेशन (ध्वनि अवरोधक) है, आवाज इधर की आने नहीं पाती इधर (आत्मा की प्रकृति में)। उसकी आवाज भी सुन पाओ इसके लिए पहले तुम्हें अपने पूरे घर में इधर की ओर आना पड़ेगा (आत्मा की ओर), वो उधर वाली खिड़की पर पुकार रहा है न।
प्र१: लेकिन फिर इसमें कभी-कभी सन्देह होता है कि प्रोग्रेस (प्रगति) हो भी रही है या नहीं?
आचार्य: वो जो ये पूरी गेंद है, इसी को ढुलककर के धीरे-धीरे इधर आना पड़ेगा, यही प्रोग्रेस है। तो एक तो प्रोग्रेस होती है कि गेंद के अन्दर-अन्दर; कि ये गेंद रखी हुई थी इसमें आप यहाँ से यहाँ आ गए और एक होती है कि समूची गेंद ही रोल कर गयी है और इधर आ गयी है। जो दूसरी वाली है ये बेहतर होती है पर शुरुआत पहली वाली से करते हैं। या ऐसे कहिए ‘पहली वाली से शुरुआत करके दूसरी वाली तरक्की होती है।’
ऐसे समझ लीजिए कि अहम् जो है इस पूरी गेंद का सेंटर ऑफ़ मास (द्रव्यमान केंद्र) है। अहम् ही है जो इस पूरी चीज़ को वज़न देकर रखता है, ठीक है। ये है (गोला बनाते हुए), ये गेंद यहीं पड़ी रहेगी अगर इसका सेंटर ऑफ़ मास कहाँ पर हो? सेंटर में। पर अहम् यहाँ कोने में आ जाए, तो ये गेंद क्या करेगी? पुड़ुक (गेंद के लुढ़ने का इशारा)।
तो आप अपनी हस्ती के उस कोने पर आ जाइए जहाँ आत्मा से प्रेम है, आपकी गेंद खुद ही चल पड़ेगी।
प्र२: आचार्य जी प्रणाम। फेलियर (असफलता) से तो मतलब एक आम संसारी भी डील करता ही है लेकिन अगर आपको वर्ल्डली अफेयर्स (सांसारिक मामलों) में छोटी सक्सेस (सफलता) भी मिलती है, तो वो सेंटर से बहुत ज़ोर से हिला देती है, मतलब फिर आप सेंटर्ड (केंद्रित) नहीं रह पाते। तो उसको कैसे डील किया जाए?
आचार्य: कोई, कोई चारा नहीं है न!
प्र२: मतलब वो छितराये हुए भी चलते रहना पड़ेगा?
आचार्य: क्या करोगे, बताओ? क्या करोगे? कहाँ से हो आप?
प्र२: मैं, आचार्य जी एक छोटा शहर है, भोपाल के पास में, वहाँ से।
आचार्य: वहाँ से यहाँ कैसे आये?
प्र२: ट्रेन से आया हूँ।
आचार्य: ट्रेन क्या कर रही थी रात में? (हाथों से हिलने का इशारा करते हुए) क्या करोगे? चलो, ऐसे ही चलो तुम्हें ऐसे चलना है तो। और ऐसी भी ट्रेंस होती हैं जो एकदम स्मूथ (शांत) हिलती ही नहीं। ये ही इन्होंने बोला होता, प्लेन से आये हैं तो उदाहरण और बढ़िया हो जाता। मैं तो इंतज़ार कर रहा था प्लेन बोलें, चलो कोई बात नहीं।
अब वो ऐसे-ऐसे करता है बारिश में आओ तो (हाथों से हिलने का इशारा करते हुए), अभी आप जाओगे तो भी ऐसे-ऐसे करेगा (हिलेगा)। तो क्या करोगे, कूद जाओगे? भाई जैसा भी है, जब तक मंज़िल की ओर जा रहा है तब तक ठीक है। किसी-किसी दिन तो बहुत ज़ोर से करता है, सीधे पाँच फ़ीट नीचे आ जाता है। क्या करोगे? कुछ नहीं, सीट बेल्ट बाँध लो, और क्या करोगे। क्या करें?
नाम नहीं याद आ रहा, अभी गूगल करिएगा तो आ जाएगा, ग्रीक फ़िलोसॉफर था बहुत पुराना वाला, सुकरात से भी पहले का। तो उससे किसी ने एक बार पूछा, “मानव जन्म का सबसे बड़ा सौभाग्य क्या होता है?” तो उसने बहुत ज़ोर से डाँटा। तो बोलता है “होल्ड नो इल्यूजंस” (कोई भ्रम न रखें)। और बड़ी अजीब बात है उसमें मतलब, समझिएगा। शब्दों पर मत जाइएगा, भाव समझिएगा। बोलता है “होल्ड नो इल्यूजंस” , सबसे अच्छी बात ये होती कि तुम पैदा नहीं हुए होते और दूसरी अच्छी बात ये हो सकती है कि किसी तरह विदा हो जाओ, बस।
तुम कहाँ इन चक्करों में पड़े हो कि मानव जीवन का सौभाग्य क्या होता है। कह रहे हैं, “दो ही अच्छी बातें हो सकती हैं मानव जीवन के बारे में, पहली ये कि पैदा ही ना हों और दूसरा ये कि किसी तरीके से दामन बचा के कोरे-कोरे साफ़-सुथरे विदा हो जाओ।”
तो बहुत ज़्यादा उम्मीदें ज़िन्दगी से रखनी नहीं चाहिए। हम क्यों मानते हैं कि ये कोई बहुत अच्छी जगह आ गए हैं या बड़ा सौभाग्य हो गया है।
“देह धरे का दंड है।” जीवन को उन्होंने कहा क्या है ये?
देह धरे का दंड है, जो जन्मे सो रोये। ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोये।
(कहीं-कहीं पर ‘जो जन्मे सो रोये’ की जगह ‘सब काहू को होय’ का प्रयोग भी दिखता है)
देह धारण करना ही अपनेआप में एक दंड है, इसीलिए ज्ञानियों ने फिर जीवनमुक्ति की बात की।
सबसे बड़ा आदर्श भारत में इसलिए कोई सुख नहीं है। और सुख को आदर्श बहुत आसानी से बनाया जा सकता है न? ये तो प्राकृतिक वृत्ति होती है कि कह दो कि सबसे बड़ा आदर्श क्या है? सुख।
उन्होंने कुछ समझा होगा, कुछ ध्यान लगाया होगा तभी उनको समझ में आया कि सुख नहीं भाई, सुख नहीं, यहाँ सुख जैसा तो कुछ होता ही नहीं तुम किस चक्कर में हो? यहाँ सबसे बड़ी चीज़ ये है कि मुक्ति मिल जाए। तो सबसे बड़ा आदर्श सुख नहीं है, मुक्ति है। आवागमन से मुक्ति मिले, ये झंझट खत्म हो, कहाँ फँस गए?
तो ये सब चलता रहेगा, आप उम्मीद रखो मत कि अच्छे-अच्छे से हो जाए। ठीक है, जैसा चल रहा है उसके मध्य भी आप अपनी सही दिशा चलते रहो, बस। सुख माँगोगे, दुख और पाओगे। कुछ मत माँगो!
प्र३: प्रणाम आचार्य जी। आपसे मुझे ये जानना था आपसे कि आपने कई बार बोला है कि दृश्य और दृष्टा को एक साथ देख लेना यही साक्षी भाव होता है। तो दृश्य और दृष्टा को हम एक साथ कैसे देख सकते हैं?
आचार्य: कुछ हो रहा है उसका मुझ पर असर क्या हो रहा है, इसके लिए भी जागरूक हो जाइए। और ये जागरूक होना सबसे आसान तब होता है जब सामने कुछ बहुत प्रभावशाली हो रहा हो। सामने कुछ ऐसा हो रहा हो जो आप पर बहुत असर डालता हो। उस समय देखना आसान हो जाता है कि देखो वो हुआ और मुझ पर क्या असर पड़ गया।
मान लीजिए अचानक से अभी कहीं बहुत ज़ोर की आवाज़ आ जाए; कुछ गिर गया, बम फट गया। या आप बाज़ार में निकल रहे हैं और किसी खाने-पीने की चीज़ की आपको सुगन्ध आ जाए। कुछ भी, ऐसी चीज़ें जो आपके ऊपर असर डालती हों। उस वक़्त देखना आसान हो जाता है कि देखो अभी-अभी क्या हो गया? अचानक।
दिल की धड़कन तेज़ हो गयी, मन में कौन-सा विचार आ गया? लेकिन होता उल्टा है न, क्योंकि बाहर कोई चीज़ प्रभावित करने वाली आयी है तो इन्द्रियाँ और उसी चीज़ की ओर भागती हैं। जिस समय स्वयं को देखना सब से आसान होना चाहिए, ठीक उसी समय हम स्वयं से चूक जाते हैं।
प्र3: धन्यवाद आचार्य जी।