प्रश्नकर्ता: देखिए, ये सब एक ही तो हैं। अध्यात्म में ही ऐसा ही बताया है और विज्ञान भी यही कह रहा है कि सब एक है। तो क्या पौधा, क्या जानवर, क्यों हम भेद कर रहे हैं? हमें बिलकुल पक्षपात नहीं करना चाहिए जैसे हम पौधों को खाते हैं ठीक वैसे ही हमें जानवरों को खा लेना चाहिए किसी तरीके का हमें पक्षपाती रवैया नहीं रखना चाहिए क्योंकि ले-देकर सब कुछ एक ही है, मिथ्या ही है।
आचार्य प्रशांत: इसे कहते हैं अध्यात्म का भरपूर दुरुपयोग। तो आप कह रहे हैं कि जितना दुनिया में भेद है, जितनी अलग-अलग चीज़ें हैं, वो सब एक ही हैं। वो सब जब दुनिया की चीज़ें एक ही हैं, तो क्यों अपने घर को अपना घर बोलते हो? अरे भाई, एक नूर से सब उपजा। सड़क और बिस्तर में कोई अंतर ही नहीं होना चाहिए। आज की रात सड़क पर सोना!
क्यों अपने परिवार को अपना परिवार बोलते हो? जब सब कुछ एक ही है, किन्हीं भी दो चीज़ों में कोई अंतर ही नहीं है, तो जो सड़क चलता बच्चा है वो भी तुम्हारा बेटा हुआ, और सड़क चलती जो स्त्री है वो तुम्हारी पत्नी जैसी हुई। और किसी व्यक्ति की पत्नी या पति उसके अपने विशिष्ट, खास, व्यक्तिगत पति या पत्नी नहीं हुए क्योंकि सब एक ही है तुम्हारे अनुसार। जब सब एक ही है, तो कुछ चीज़ों को अपना क्यों बोलते हो? और जिन चीज़ों को अपना बोलते हो वहाँ तो बड़ा ममत्व उमड़ आता है। अपने शरीर को भी अपना शरीर क्यों बोलते हो? बताओ न।
जब सब एक है। तुम कह रहे हो, "जो जानवर है, वही पौधा है। तो जैसे पौधे को खाते हैं वैसे ही जानवर को खा लेंगे।" तो जैसे पौधा है, वैसे ही जानवर है, और वैसे ही तुम्हारा भी शरीर है। अपने शरीर को ही क्यों नहीं खा जाते? जब सब एक ही है, तो भूख लगने पर अपना ही माँस क्यों नहीं चबा लेते? तब तो सारा ज्ञान धरा रह जाता है। हाँ, जानवर की हत्या करने के लिए आध्यात्मिक पुरुषों और ग्रंथों से भी उद्धरण उठा लाते हो। कहते हो, "देखो, उन्होंने ऐसा कहा था। कृष्ण ने बोला है न कि बाकी सारी बातें छोड़ो, बस एक ही सत्य है।"
तुम और कितनी बातें समझते हो कृष्ण की, भाई? तुम और कितनी बातें समझते हो नानक साहब की, भाई? या बस तुमको जानवर का खून बहाने के लिए और माँस चबाने के लिए ही मुक्त पुरुषों की याद आती है?
और जो तुम तर्क भी दे रहे हो वो तर्क तुम्हें ही भारी पड़ेगा—सब कुछ एक ही है। जब सब कुछ एक ही है तो तुम्हारा सारा पैसा पड़ोसी का हो गया। जाओ, दे आओ। सब कुछ एक ही है।
"सब कुछ एक ही है" कहने का हक़ सिर्फ उनको है जिनके भीतर से वो मिट गया जो जगत में विविधता देखता और पैदा करता है। उसको अहंकार कहते हैं। कोई पूर्णतया अहंकार मुक्त हो गया हो, उसके लिए निःसंदेह सब कुछ एक ही है, तुम्हारे लिए नहीं। और तुम अहंकार मुक्त हो पाओ, इसके लिए आवश्यक है कि पहले तो तुम हिंसा से ज़रा तौबा करो। अपने भीतर ज़रा करुणा पैदा करो। ये वो तरीके हैं, उपाय हैं जिनसे तुम उस जगह के निकट पहुँच पाओगे जहाँ पर होकर कोई कृष्ण कहते हैं कि सारे धर्मों को छोड़ो और मामेकं शरणं व्रज। अभी बहुत छोटे मुँह बड़ी बात है कि तुम कृष्ण की कही बात को उठाकर अपनी ज़बान के स्वाद के लिए इस्तेमाल कर रहे हो।
ये कायदा फिर सिखाओ न पूरी दुनिया को - सब कुछ एक ही है। तो जो दूसरे का शरीर है वही मेरा शरीर है। जब दूसरे का शरीर ही तुम्हारा शरीर है, तो खुद खाना क्यों खाते हो? दूसरे के मुँह में डाल दिया करो। और सड़क पर निकलना, लोगों को यही अपना दर्शन समझाते हुए—सब कुछ एक ही है—और किसी के जेब में हाथ डालकर पैसा निकाल लेना। कहना, "तेरी जेब बराबर मेरी जेब।" और फिर देखना कि कौन-सा न्यायालय या कौन-सा दर्शनशास्त्री तुम्हारी वकालत करता है।
तुम खुद भी इस बात को नहीं मानते। मेरे तर्कों की कोई ज़रूरत ही नहीं है। सच तो ये है कि ये जो दलील तुम यहाँ दे रहे हो, तुम्हारा खुद भी इसमें कोई विश्वास नहीं है। ये बड़ी बेईमानी की दलील है। ये दलील सिर्फ इसलिए है क्योंकि है कोई मुर्गा, बकरा है, कोई और जानवर जिसको देखकर तुम्हारी लार बह रही है। बात इतनी छोटी और घटिया स्तर की है कि किसी की हत्या करनी है, और उसके लिए देखो तुमने दलील कितनी ऊँची दे दी कि धर्म ग्रंथों से उठा लाए।
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