इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:। तैत्तानप्रदायैभ्यो यो भुड्क्ते स्तेन एव स: ॥
यज्ञ द्वारा देवता तुम लोगों को बिना मांँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगे, वह चोर ही है।
~ भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक १२
यज्ञशिष्टाशि: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषै: । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी अपने शरीर का पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो अन्न को नहीं पाप को ही खाते हैं।
~भागवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक १३
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमन, कृपया इन श्लोकों का अर्थ समझाने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: अपनी जीवन ऊर्जा को आहुति बना देना परम लक्ष्य को पाने के यज्ञ में, यही है देवताओं की आराधना। अपनी नियति को पाना ही यज्ञ का कर्म है। जब कर्मसन्यास की भी बात आती है गीता में तो कहते हैं कृष्ण कि यज्ञ, दान, तप, इन तीन कर्मों को मत छोड़ देना, बाक़ी सब कर्मों से तुम सन्यास ले-लो तो ले-लो पर यज्ञ आदि को मत छोड़ देना।
यज्ञ बहुत आवश्यक है। यज्ञ का क्या अर्थ है? वो काम करते रहना, बाक़ी सब काम छोड़ देना पर वो काम करते रहना जो तुम्हें देवताओं से जोड़ता है। यज्ञ का अर्थ है वह काम जो तुम्हें देवताओं से जोड़ता है, देवता माने जो बिलकुल ऊँचाई पर बैठा है। देवताओं से जुड़ने का अर्थ हुआ—अपनी नियति से जुड़ना, अपनी मुक्ति से, अपने बोध से जुड़ना।
तो जीवन क्या है? गीता की भाषा में जीवन यज्ञ है जिसमें तुम्हें लगातार अपनी पूरी ऊर्जा की, अपने समय की, अपने सब संसाधनों की आहुति देनी है। समझ रहे हो? वो यज्ञ किसलिए किया जा रहा है? देवताओं तक पहुंँचने के लिए या ऐसे कह दो आन्तरिक देवत्व तक पहुंँचने के लिए जो कर्म करा जा रहा है उसका नाम है यज्ञ।
तुम्हारे भीतर जो देवता बैठा है तुम वह देवता बन ही जाओ, तुम्हारा छुपा हुआ, प्रच्छन्न देवत्व प्रकट, अभिव्यक्त हो जाए तुम्हारे जीवन में इसी का नाम है यज्ञ। लेकिन वो यज्ञ सस्ता नहीं होता, उसमें क्या डालना पड़ता है? सबकुछ जो तुम्हारे पास है वो सब डाल दो, सब भेंट कर दो यज्ञ को।
और वो भेंट क्या कहा जाता है यज्ञ में कि किसकी ओर जा रही हैं? देवताओं की ओर जा रही हैं। मेरे पास जो कुछ था मैंने उस अन्तिम लक्ष्य को, अपने नियत लक्ष्य को समर्पित कर दिया, यही यज्ञ है। मेरे पास जो कुछ है उसे मैं समिधा बना कर, आहुति बना कर यज्ञ को दिये दे रहा हूंँ और कहते हैं कि यज्ञ की अग्नि को आप जो कुछ समर्पित करते हैं वो सीधे पहुंँचता है देवताओं तक। तुम अपना जीवन यज्ञ को समर्पित कर रहे हो ताकि तुम्हारे सब संसाधन तुम्हें उस नियति तक पहुंँचा दें यह यज्ञ कहलाता है। बात समझ में आ रही है?
अब इस प्रक्रिया में जिसमें तुम तो चलते जा रहे हो बिना अपने शरीर की, बिना अपने भौतिक अस्तित्व की परवाह किये बस एक लक्ष्य की ओर, इस प्रक्रिया में थोड़ा-बहुत कुछ तुम्हें भी मिल जाएगा, लो खा लो। वो कहलाता है कि जो कुछ यज्ञ में देवताओं को अर्पित करने के बाद बचा उसको तुम अपने शारीरिक अस्तित्व के लिए ग्रहण कर लेना, वो पाप नहीं होगा। लेकिन अगर तुमने अपने संसाधनों को अपने शारीरिक पोषण के लिए इस्तेमाल किया —जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं वो तो पाप को ही खाते हैं— अपनी ऊर्जा को, अपने धन को, अपने समय को, अपनी बुद्धि को, तुमने यज्ञ में लगाने की जगह अपने शरीर में लगा दिया तो तुम अन्न नहीं खा रहे, पाप को ही खा रहे हो। बात समझ में आ रही है?
तुम ऊंँचे-से-ऊंँचा काम करो, सबकुछ अपना दे डालो और उस प्रक्रिया में तुम्हें थोड़ा-बहुत कुछ अपने लिए मिल जाए उसको तुम ग्रहण करो, यह हुआ यज्ञ के बाद भोजन करना।
मैंने यज्ञ कर दिया, थोड़ा-बहुत जो बचा था वो मुझे मिल गया अब उसको मैंने अपने लिए प्रयोग कर लिया, ऐसे जीना होता है। मेरे पास जो कुछ था मैंने कहाँ डाल दिया? यज्ञवेदी में अर्पित कर दिया। और जो अब बचा कुछ थोड़ा-बहुत शारीरिक निर्वाह के लिए उसका इस्तेमाल हो जाएगा। और अगर यह नहीं किया तो कृष्ण कह रहे हैं, “जो पुरुष देवताओं को दिए बिना खुद भोगता है वह तो चोर ही है।” यही चोरी है, जो चीज़ यज्ञ में जानी चाहिए थी वो यज्ञ में जाने की जगह तुम्हारे पेट में चली गयी इसी का नाम है, चोरी। ये मत कर देना।
ये सब प्रतीक हैं, समझ रहे हो न? यहांँ बात किसी भौतिक अग्नि की या भौतिक यज्ञवेदी की नहीं हो रही है। यहांँ यह नहीं है कि पाँच-सात ब्राह्मण बैठे हुए हैं और वो वैदिक ऋचाओं के साथ यज्ञ की क्रिया संपन्न कर रहे हैं। यह जीवन भर की बात हो रही है भाई! जब कृष्ण कहते हैं यज्ञ तो उनका आशय किसी सीमित गतिविधि से नहीं है, जीवन ही यज्ञ बन जाना चाहिए। यह है कृष्ण का संदेश, ‘जीवन ही यज्ञ बन जाए’।
और उस यज्ञ में तुम्हारा जो कुछ है, वह किसके काम आए? देवत्व के। देवत्व क्या है? तुम्हारी नियति, तुम्हारी ऊंँची-से-ऊंँची सम्भावना का नाम ही देवत्व है। तो तुम्हारी सारी ऊर्जा तुम्हें ऊंँचाई पर ले जाने के काम आए इसको कहते हैं यज्ञ।
तुम्हारी सारी ऊर्जा इस काम आए कि तुम्हारी चेतना को देवताओं सी ऊंँचाई दे सके यह यज्ञ है। और तुम उल्टी ज़िन्दगी बिता सकते हो जिसमें तुम अपनी जीवन ऊर्जा का, समय का, संसाधनों का इस्तेमाल कर सकते हो अपनेआप को शारीरिक आदि सुख देने के लिए, उसको कृष्ण कह रहे हैं कि यह चोर की निशानी है, यही पाप है।