सभ्यता किसलिए है? || संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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सभ्यता किसलिए है? || संत कबीर पर (2014)

अपनी कहे मेरी सुने, सुनी मिली एकै होय | हमरे खेवे जग जात है, ऐसा मिला न कोय ||

~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: कबीर हमसे कह रहे हैं कि ये कहना और ये सुनना, एक है; एक ही इसमें घटना चल रही है, अपने छिटकेपन को बचाने की। मैं अपनी कहानी सुना रहा हूँ, मैं तुम्हारी कहानी सुन रहा हूँ। ध्यान दीजिए, मैं अपनी कहानी सुना रहा हूँ, मैं तुम्हारी कहानी सुन रहा हूँ और दूसरे पक्ष पर भी वही हो रहा है कि मैं तुम्हारी कहानी सुन रहा हूँ, मैं अपनी कहानी सुना रहा हूँ।

संसार क्या है? संसार की सारी व्यवस्था क्या है? जिसको हम सभ्यता और संस्कृति कहते हैं, वो क्या हैं? समझिएगा वो ‘मैं’-पन को व्यवस्थित रूप से कायम रखने का उपाय है। शालीन तरीके से तुम्हारा अहंकार कायम रह सके, इसका उपाय है। सभ्यता कुछ नहीं है; सभ्यता अहंकार को बचाने की मन की व्यवस्था है।

‘*सिविलाइज़ेशन*’ कुछ भी और नहीं है; सिर्फ़ इंतजाम है ‘*ईगो*’ की रक्षा करने का; कि ऊपर-ऊपर हिंसा भी ना दिखाई दे। अहंकार क्या करता है? देखो, अहंकार हमेशा लड़ना चाहता है। अहंकार हमेशा ‘*कनफ्लिक्ट*’ में जीना चाहता है। सभ्यता ऐसी व्यवस्था है जिसमें अहंकार कायम भी रहे और ऊपर-ऊपर वो ‘*कनफ्लिक्ट*’ दिखाई भी ना दे।

तुम अपना अहंकार कायम रख सकते हो लेकिन ज़रा कुछ नियम-कायदों पर चलो ताकि सतह पर ये दिखाई ही ना दे कि हम सब आपस में लड़ ही रहे हैं। सतह पर ना दिखाई दे; हाँ, भीतर-भीतर लड़ रहे हैं। भीतर-भीतर वाली चलेगी, उसकी अनुमति है, लड़ो! लेकिन सतह पर मत लड़ लेना।

दो व्यापारी हैं अगल-बगल, दुकानें हैं उनकी अगल-बगल। वो खूब प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं आपस में – और प्रतिस्पर्धा क्या है? हिंसा है, लड़ाई है – लेकिन उन्हें ये अनुमति नहीं है कि वो एक-दूसरे की गर्दन पकड़ लें। ये सभ्यता का नाम है। हिंसा की पूरी छूट है, लेकिन छुपी हुई हिंसा की। छुप-छुप कर जितनी हिंसा करनी है करो। हम बल्कि उस हिंसा को बड़े गौरवपूर्ण नाम दे देंगे, खूब गौरवपूर्ण नाम दे देंगे। हम कह देंगे, एक देश दूसरे देश से लड़ रहा है और फिर जो लोग उसमें मरेंगे उनको हम शहीद का दर्जा भी दे देंगे। हिंसा को हम खूब गहरे नाम दे देंगे। अहंकार की पूरी सुरक्षा की जाएगी, इसी का नाम सभ्यता है।

आदमी से आदमी का सारा आदान-प्रदान कुछ और नहीं है, सिर्फ़ अहंकार को बचाने और बढ़ाने की बात है। यदि एक बुद्ध जंगल चला जाता है, यदि एक महावीर मौन हो जाता है, तो समझिए वो क्या कर रहा है। वो कह रहा है “जितना मैं तुमसे उलझूँगा, जितना मैं तुमसे लेन-देन करूँगा - चाहे शब्दों का, चाहे वस्तुओं का और चाहे विचारों का - उतना ज़्यादा मैं अपने और तुम्हारे अहंकार को बढ़ावा ही दूँगा। एक ही तरीका है हल्के होने का, शांत होने का कि मैं तुमसे सम्बंधित ही ना रहूँ।”

व्यक्ति से व्यक्ति का कोई सम्बन्ध ही ना रहे क्योंकि व्यक्ति से व्यक्ति का जो भी सम्बन्ध बनेगा उसका आधार तो एक ही है, हमारा अहंकार। हम जिसे प्रेम भी कहते हैं वो कुछ नहीं है, वो एक अहंकार का दूसरे अहंकार से मिलना है। बड़े अहंकार का छोटे अहंकार से, माँ अहंकार का बच्चे अहंकार से, पुरुष अहंकार का स्त्री अहंकार से और इस तरह से मिलना है कि दोनों का ही अहंकार बल पाता है।

पुरुष जितना ‘पुरुष’ स्त्री के सामने होता है, उतना कभी नहीं होता। यदि आप पुरुष हैं तो सामान्यता आप ये भूले रहेंगे कि आप पुरुष हैं लेकिन जैसे ही कोई स्त्री सामने आएगी, आपका पुरुष जग जाएगा। यदि आप स्त्री हैं तो शायद आपको याद भी ना हो कि आप स्त्री हैं पर आप पुरुषों के बीच में बैठेंगी और आपको तुरंत याद आ जाएगा। आप पल्लू ठीक करने लगेंगी।

सामान्य आदान-प्रदान, सामान्य इंटरैक्शन , सामान्य व्यापार कुछ और नहीं है बल्कि आपको आपके अहंकार में और ज़्यादा स्थापित कर देता है। हममें से यहाँ बहुत लोग बैठे हुए हैं जो टीचर्स (शिक्षक) हैं। आप भूल जाएँगे अपनी ‘आइडेंटिटी * ’ को कि 'मैं * टीचर हूँ'। आप बाज़ार में घूम रहे हैं, आप मज़े में घूम रहे हैं, पर यदि आपके सामने कोई स्टूडेंट (विद्यार्थी) पड़ जाए, तुरंत आपके भीतर का शिक्षक जाग जाएगा। आपकी भाव-भंगिमा पूरी बदल जाएगी, आपके बात करने का, चलने का सारा अंदाज़ बदल जाएगा।

आपने कुछ अनुचित चीज़ें खरीद रखी हैं, वो हाथ में लेकर घूम रहे हो तो उन्हें आप छुपा लोगे। “कहीं देख लेगा!” कल रात हमलोग कुछ पुराने वीडियोस देख रहे थे और उसमें मैं नाच रहा था। किसी ने कहा, “छुपा दो सर, कहीं किसी के हाथ में पड़ गया तो?”

(सभी हँसते हैं)

स्टूडेंट सामने पड़ा नहीं कि टीचर जग जाता है, और कबीर कह रहे हैं, 'सुनी मिली एकै होय'।

ये जो पूरा व्यापार है, ये और कुछ नहीं है। ये सिर्फ़ तुम्हारी भूलों का, तुम्हारे छिटकेपन का लेना-देना है और इस व्यापार से ये सिर्फ़ बढ़ता है। सम्बन्ध बना सकते हो तो ऐसा बनाओ जो मौन का हो। ‘*लव इज़ नॉट शेयरिंग ऑफ़ फीलिंग्स, लव इज़ शेयरिंग ऑफ़ साइलेंस। इफ द टू ओशनिक साईलेंसज कम टूगेदर एंड मर्ज इनटू वन, दैट इज़ लव। लव इज़ नॉट एक्सचेंज ऑफ़ वर्ड्स, “आई लव यू वन, आई लव यू टू; यू गेव मी थ्री, आई गेव यू फोर!*” (प्रेम भावनाओं का आदान-प्रदान नहीं है, प्रेम मौन का आदान-प्रदान है। अगर दो विराट मौन एक साथ आकर एक दूजे में समा जाएँ, वो प्रेम है। शब्दों का आदान-प्रदान प्रेम नहीं है, "मुझे तुमसे एक प्रेम है, मुझे तुमसे दो प्रेम है; तुमने मुझे तीन दिया, मैंने तुम्हें चार दिया!")।

(सभी हँसते हैं)

बट यू नो, इन्सपाईट ऑफ़ ऑल दिस लाफ्टर दैट वी हर्ड, इट विल फ़ील रियली बैड इफ़ यू से, “आई लव यू” एंड द अदर डज़न्ट रेसिप्रोकेट| वन्स वी हैव सेड आई लव यू, देन वी देस्पिरेटिली क्रेव टू हीअर समबडी से, “आई लव यू टू” | अदरवाइज़ इट इज़ सच एन इन्सल्ट, “यू डोंट लव मी?” (परन्तु इतनी हँसी के बाद भी, बड़ा बुरा लगेगा अगर आप कहें, "मुझे तुमसे प्रेम है" और सामने से कोई जवाब ना आए। एक बार हमने बोल दिया "तुमसे प्रेम है" तो हम उग्र होकर तरसते हैं किसी से सुनने के लिए, "मुझे भी तुमसे प्रेम है"। अन्यथा ये बड़े ही अपमान की बात है, "तुम मुझे प्रेम नहीं करते?")

‘हमरे खेवे जग जात है, ऐसा मिला न कोय’।

मैं तो जो भी करूँगा, जब भी मैंने नाँव ख़ुद खेई, कुछ कहा, कुछ करा, कुछ सोचा, कुछ चाहा, तो बस डुबोया, बस डुबोया। कबीर कहते हैं ऐसा कोई मिलता ही नहीं जो ये जान जाए। कोई मिलता ही नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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