प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, करीब-करीब हर कोई बंधन में है और मुक्ति चाह रहा है, ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: करीब-करीब हर कोई बंधन में है और मुक्ति चाह रहा है; बंधनों से मुक्ति चाह रहा है न और कई बार कुछ बंधनों से मुक्ति मिल भी जाएगी, इसीलिए तो आपका अपने पुरुषार्थ पर इतना भरोसा है। इंसान ने अपने ऊपर के कई बंधनों पर फ़तह हासिल की भी है, तो उसका भरोसा कायम रहता है उसे लगता है कि कुछ बंधन तो पीछे छोड़ ही दिये, तोड़ ही दिये और भी छोड़े जा सकते हैं।
वो ये नहीं देख पाता कि पुराने को छोड़कर जो नये बंधन वो धारण कर लेता है वो और कुछ नहीं है पुरानों का ही एक नया रूप है और वो होना ही था क्योंकि बंधन बने रहें इसकी प्यास हममें है। हम वो हैं जो बद्ध ही हैं जिनका बंधनों से तादात्म्य है। बंधन नहीं रहते तो हमें घुटन होने लग जाती है। ये तो साधारण-सी बात है, आप किसी को बीमार करें तो वो आपका प्रतिरोध करे। ये तो साधारण-सी बात है कि आप किसी को बेड़ियाँ पहनायें तो वो आपका विरोध करे।
अब मैं आपको इस दुनिया का चमत्कार बताता हूँ, बड़े-से-बड़ा प्रतिरोध कोई आपका तब करेगा जब आप उसकी बीमारी छीनेंगे और जानलेवा विरोध कोई आपका तब करेगा जब आप उसके बंधन तोड़ेंगे। जब आप किसी को बंधन पहनाते हैं तो भी वो आपका विरोध करता है पर वो बड़ा हल्का-फुल्का होता है करीब-करीब औपचारिक। कभी कोशिश करिएगा किसी के भी चाहे, अपने ही बंधनों को तोड़ने की, फिर देखिएगा विरोध की कैसी प्रचंड ज्वाला उठती है।
किसी को गुलामी दे देना साधारण, आसान और कम खतरे की बात है, किसी को आज़ादी दे देना विरल, दुष्कर और प्राणघातक बात है। आप जिसे आज़ादी दे रहें हैं वो कभी माफ़ नहीं कर सकता आपको इस बात के लिए कि आपने उसे आज़ादी दे दी। भूल जाइए वो सारी परीकथाएँ, वो सारे इन्द्रधनुष जो आपने देखे-सुने हैं। आज़ादी देने वाले का और गुलाम बने रहने वाले का पानी का और आग का रिश्ता होता है, दोनों में से एक ही बचता है।
वो सब कृतज्ञता के ज्ञापन और मीठे अफ़साने किताबी बातें हैं जहाँ पर शिष्य गुरु के सामने नमित होकर के कहता है कि “बलिहारी गुरु आपने”, आपने नया जीवन दे दिया इत्यादि वो सब झाँसे हैं। असली बात तो ये है कि मामला आर-पार की लड़ाई का है, खूनी लड़ाई है। और कोई क्यों आपसे कृतज्ञता ज्ञापित करे, क्यों कहे कोई कि एहसान किया आपने? सच तो यही है कि अन्दरूनी परिवर्तन किसी की मौत जैसा ही होता है, कोई चला जाता है। उसमें किसी की विदाई होती है, कोई नहीं रहता। कौन नहीं रहता? जो गुलाम था। जो गुलाम था उसकी मौत हो गयी है। अब वो मर जाने के बाद क्या आपको फूल चढ़ाने आएगा?
आपने वास्तव में किसी को मार ही दिया है, कुछ उसका बचा नहीं; न मन, न सोच, न वृत्ति, न व्यक्तित्व, सब बदल गया। जब सब बदल गया तो वो बचा ही नहीं जिसका आप रूपान्तरण, कायाकल्प कर रहे थे। जब वो बचा ही नहीं तो कौन आएगा धन्यवाद देने? जो बचा है वो तो कभी गुलाम था ही नहीं, वो किस बात के लिए धन्यवाद दे?
तो धन्यवाद नहीं मिलेगा, जब तक मिलेगा, प्रतिरोध ही मिलेगा, वार ही मिलेगा। जब प्रतिरोध मिलना बन्द हो जाए तो उसको धन्यवाद मान लेना। मैं फिर कह रहा हूँ, वो सारी कहानियाँ झूठी हैं जिसमें जो मुक्त हुआ होता है वो आकर के मुक्ति प्रदान करने वाले के सामने नमित हो जाता है। ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि कोई लाश कभी किसी को धन्यवाद देती पायी नहीं गयी। मर गया वो, अब कौन आएगा धन्यवाद देने? हाँ! इतना ज़रूर है कि जो वो शोर मचाता था, बिलबिलाता था, चीखता-चिल्लाता था वो शोर अब बन्द हो जाएगा। जो मौन बचेगा उस मौन को तुम धन्यवाद मान लेना अन्यथा धन्यवाद का कोई सवाल नहीं।
कोई नाहक ही घुसा हुआ था जहाँ उसे होना नहीं चाहिए और वो उपद्रव करता था, शोर मचाता था, अशांति फैलाता था, आप उसे मार-पीटकर भगा देते हो। अब बचा कौन आभार व्यक्त करने के लिए? कौन? वो गया। हाँ, अब जो शांति है उस शांति की गूँज को मान लेना कि अस्तित्व आभार दे रहा है और अगर पाओ कि अभी कोई बैठा है जो ज़ोर-ज़ोर से और दिखा-दिखाकर और प्रचारित कर-करके और जता-जताकर कहता हो, ‘अरे! आपसे खूब मिला। आपने बचा लिया, हम तो गुलाम ही थे, आपने आज़ादी दे दी।’ तो जान लेना कि अभी पलटवार होने ही वाला है। दुश्मन खाई खोद रहा है छुपने के लिए। अब ज़्यादा खतरनाक वार होगा। हो ही रहा है।
बस इतना ही है कि अभी स्थितियाँ ज़रा प्रतिकूल हो गयीं हैं तो पानी में रहकर मगर से बैर कौन करे तो अभी कह दो कि क्या अनुदान है! आपसे क्या-क्या मिल रहा है! दिल-ही-दिल तुम जानते हो ज़रा ये स्थिति पलटे, ज़रा समय बदले फिर हम बताएँगे कि वास्तव में हमें कैसा लगता था आपकी संगति में। ये मैं जिस दूसरे की बात कर रहा हूँ वो दूसरा नहीं है, वो आप हैं। आप भी जब भी अपने बंधनों से मुक्त होने चलेंगे यात्रा रक्तरंजित ही रहेगी।
जिन्हें कोमल स्पर्शों और सुहाने पलों की तलाश हो वो इस यात्रा पर निकलें ही नहीं हैं, ये खेल मुलायम लोगों के लिए नहीं है। जो थक ज़रा जल्दी जाते हों, खेल उनके लिए नहीं है। उनका खेल तो चल ही रहा है दूसरा, वो चले और उसमें कोई बुराई नहीं वो खेल भी समय की शुरुआत से चल रहा है।
हमारी तरफ़ एक कहावत है कि “सब कुत्ते बनारस चले जाएँगे तो दोना कौन चाटेगा?” (दोहराते हुए) “सब कुत्ते बनारस चले जाएँगे तो दोना कौन चाटेगा?” बहुत सारे कुत्ते चाहिए दोना चाटने के लिए भी। वो खेल भी चलता रहना चाहिए, बनाने वाले ने इन्तज़ाम ही कुछ ऐसा किया है। हाँ! आपमें से कोई अगर ऐसा हो जो किसी दूसरी यात्रा पर निकालना चाहता हो तो मैं उससे बात कर रहा हूँ। बाकियों का तो जीवन जैसा चलना था चल रहा है और उन्हें कोई अड़चन नहीं है, उनका प्रवाह निर्बाध है। उनको तो अड़चन तब हो जाती है जब वो यहाँ आ जाते हैं। कहते हैं, ‘सब कुछ ठीक चल रहा था। ये सुबह-सवेरे झकझोर क्यों दिया? क्या न मीठा सपना था! हूर थी। क्या भरपूर थी!’
चल ही रहा है जीवन। इतना काट लिया थोड़ा-सा बचा है और कट जाएगा। क्या सत्य, क्या नित्य! ‘अरे, ज़रा सोने दो न।’
तो प्रदीप जी बात स्पष्ट है न? सब गुलाम हैं क्योंकि सबको आज़ादी चाहिए, उल्टी बात नहीं है कि सबको आज़ादी चाहिए क्योंकि सब गुलाम हैं। सब गुलाम हैं क्योंकि सबको आज़ादी चाहिए और सबको आज़ादी चाहिए, कैसे? जो आपको चाहिए उसी को आज़ादी कहते हैं। आपको कुछ तो चाहिए न? जो कुछ भी आपको चाहिए उसे आज़ादी कहते हैं, जो भी आप तलाश रहे हैं वो आप इसलिए नहीं तलाश रहे है कि तलाशी गयी वस्तु में कुछ है, उसको आप इसलिए तलाश रहें हैं क्योंकि आपको लगता है उसको पाकर के आपको कुछ और मिल जाएगा।
वस्तु तो छाया है, प्रतीक है, प्रतिनिधि है, आप जो भी कुछ भी माँग रहे हैं इसलिए माँग रहे हैं कि वो आपको कुछ और दे देगा। नौकरी चाहिए, पैसा चाहिए, इज़्ज़त चाहिए, साथी चाहिए, वासना की पूर्ति चाहिए, जो कुछ भी तुम्हें चाहिए गौर से देखना उसमें तुम्हें चाही हुई चीज़ के माध्यम से कुछ और चाहिए, चाही हुई चीज़ मात्र माध्यम है।
आज़ादी देने वाले ने कहा, ‘आज़ादी तुम्हारी है, बस तुम कह देना मैं आज़ाद हूँ!’ और उसने कहा कि तुम इतने आज़ाद हो कि अगर तुम कह दोगे कि मैं आज़ाद नहीं हूँ तो तुम आज़ाद नहीं रह जाओगे! आज़ादी उसने कहा कि तुम्हारी इतनी परिपूर्ण होगी कि तुम कह दो मैं आज़ाद हूँ तो तुम आज़ाद हो और उसने कहा कि तुम्हारी आज़ादी इतनी परिपूर्ण है कि तुम कह दो कि मैं आज़ाद नहीं हूँ तो तत्क्षण तुम आज़ाद नहीं रह गये।
अब जब तुम कुछ तलाशते हो तो तुम क्या कह रहे होते हो? ‘मैं आज़ाद नहीं हूँ!’ तो बस ठीक है तुम इतने आज़ाद हो कि जैसे ही तुम कहते हो कि तुम आज़ाद नहीं हो तुम्हारी आज़ादी खत्म हो जाती है। तुम्हारी आज़ादी का खत्म होना भी प्रमाण है तुम्हारी आत्यन्तिक आज़ादी का, आखिरी आज़ादी का लेकिन वो होगी आखिरी, जब तुमने कहा, मैं आज़ाद नहीं हूँ तो तुम तो गुलाम हो ही गये। आत्मा होगी आज़ाद, तुम्हें वो आत्मिक आज़ादी कभी अनुभव नहीं होगी। तुम जहाँ रह रहे हो तुमने जिस बिन्दु स्थापित कर लिया है वो बिन्दु तो गुलामी का ही है। तो अजीब तुम्हारी हालत होगी, वास्तव में आज़ाद हो, आत्मा आज़ाद है और तुम गुलाम हो।
अब ये तुम जानो कि आज़ाद हो कि गुलाम हो वो इसपर निर्भर करता है कि तुमने नाता किससे जोड़ा। तुम आज़ाद भी हो, गुलाम भी। निर्णय चुनाव तुम्हारा है तुमने नाता किससे जोड़ा। और आज़ाद पूरी तरीके से हो, जिससे चाहो उसे नाता जोड़ लो। पूरी आज़ादी है, कोई रोक नहीं सकता तुम्हें। तुम बाप हो, महाबाप। तुम गुलाम होना चाहो तो परमात्मा भी तुम्हें आकर तुम्हें तुम्हारी गुलामी से वंचित नहीं कर सकता।
इसीलिए तो इतने आते हैं, चले जाते हैं, तुम्हें कौन हिला पाता है। ये कतार देख रहे हैं आप यहाँ पर श्रृंखला है पूरी बेचारे आये और चले गये, संसार का कुछ बिगड़ा? कोई हिला? बड़े-बड़े आक्रमण हुए, आघात हुए, ऐसे-ऐसे खतरे आये लेकिन हमारे ऊपर खरोंच भी नहीं लगी, दम तो है हममें। दम है वही बताता है कि हम कितने आज़ाद हैं, कोई कुछ बोल ले, ये और सैंकड़ों और कुछ समझा ले, कुछ बता ले, आपके साथ होगा वही जो आप चाहते हो।
वास्तव में ये आपके लिए हैं ही नहीं, अगर आप चाहते नहीं वो जो ये आप तक लाना चाहते हैं। अभी भी मैं आपसे बोल रहा हूँ, आपमें से कुछ के लिए मैं हूँ, कुछ के लिए मैं हूँ ही नहीं। मैं सिर्फ़ उनके लिए हूँ जिनके मन में उसके लिए चाहत है जिसको मैं लाता हूँ। आपके मन में प्रेम ही नहीं आपका अलग घर-द्वार अलग दुनिया है आपको अपनी छाया में, अपने सपने में, अपने छल में ही जीना है तो मैं हूँ कहाँ? ये शब्द आपके ऊपर ऐसे पड़ेंगे जैसे सोते हुए आदमी के ऊपर पड़ते हैं, कोई आदमी सो रहा हो, आप सुना दें उसे सारे उपनिषद् और गीता और भजन, क्या मिल गया उसको? वो कहीं और है और वो जहाँ है वहाँ मस्त है।
क्या सपने चल रहे होंगे! ‘घर में एक मंज़िल और जोड़नी है, बेटे का ब्याह करना है, पत्नी को कुछ और गहने दिला दूँ।’ वो कहीं और है, चल रहा है कुछ। बहुत कुछ चल रहा है, आप उसको खाली मत मानिएगा, ये मत कह दीजिएगा कि हम इतनी बड़ी बात कर रहे हैं तुम…। आप कर रहे होंगे बड़ी बात, वो आपसे ज़्यादा बड़ी बात कर रहा है।
जिसे तुम खोजने जाते हो उसे खोज-खोजकर के ही तुम गँवाते हो। और तुम्हारी हर खोज जितनी सच्ची है उतनी ही झूठी भी क्योंकि खोज तो तुम सत्य को ही रहे हो, खोज तो तुम परमात्मा को ही रहे हो। तो ये वजह है कि मैं कहता हूँ कि तुम्हारी खोज सच्ची है लेकिन जितनी सच्ची है उतनी ही झूठी भी है क्योंकि वो खोजने की चीज़ ही नहीं है, खोज-खोजकर तुम उसे दूर किये देते हो। कह रहे थे...
प्रश्नकर्ता: स्वतन्त्रता में सर, स्वतन्त्रता का खयाल आएगा?
आचार्य प्रशांत: कोई खयाल नहीं आता। तमाम तरीके के खयाल आएँगे, दुनियाभर की बातें उठेंगी, पूरा खेल चलेगा, बस एक सवाल नहीं उठेगा, ‘मैं मुक्त कैसे हो जाऊँ, मैं स्वतन्त्र कैसे हो जाऊँ?’ वैसे ही जैसे कि जो आदमी ट्रेन पर चढ़ ही गया है, वो ट्रेन पर बैठे-बैठे हज़ारों बातें सोच सकता है, बस एक बात नहीं सोचेगा, क्या? कि ट्रेन पर कैसे चढ़ूँ? हाँ! आप ट्रेन पर चढ़े-चढ़े बाकि सब कुछ सोचो और जो ट्रेन पर नहीं चढ़ा है वो जो कुछ भी सोचेगा, उसकी सोच एक ही जगह जाकर के अटकेगी — ’ट्रेन पर कैसे चढ़ूँ?’
सोच वो ये रहा है कि रिक्शा करूँ कि ऑटो कि गाड़ी लेकिन इस पूरी सोच का मन्तव्य क्या है? कि इनके माध्यम से? इनके माध्यम से? ट्रेन पकड़नी है।
समझ में आ रही है बात?
सबकुछ सोचो। गाड़ी में बैठ जाओ फिर सब सोचो। जो करना है करो। पूरी आज़ादी है।