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सब शाकाहारी हो गए तो पेड़ और जंगल काटने पड़ेंगे || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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सब शाकाहारी हो गए तो पेड़ और जंगल काटने पड़ेंगे || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: अगले प्रश्नकर्ता हैं, कह रहे हैं कि "दुनिया के आठ-सौ-करोड़ लोगों को खिलाने के लिए सब्जी, घास-पात और वीगन सामग्री है कहाँ? इतने लोगों को अगर हम खिलाने लग गए शाकाहारी भोजन, तो जंगलों का क्या होगा? इसलिए माँस खाना तो ज़रूरी है।"

अनुभव (प्रश्नकर्ता), इन वीडियोज की श्रंखला में जो पहला ही वीडियो है उसको देखना। तुम समझ ही नहीं रहे हो शायद कि जो जानवर हम मारकर खाते हैं वो जानवर तुम्हारी प्लेट में आने के लिए तैयार हो सके, उसका माँस तुम खा सको, इस खातिर पहले उसे बहुत सारा भोजन कराया जाता है और वो भोजन सब शाकाहारी होता है। मैंने शुरू में ही बताया था कि दुनिया में जितने क्षेत्र पर खेती होती है उसमें से तीन-चौथाई से भी ज्यादा क्षेत्र पर खेती आदमियों को खिलाने के लिए नहीं जानवरों को खिलाने के लिए होती है। और जानवरों को इसलिए खिलाया जा रहा है ताकि उन जानवरों को तुम खा सको। ये जंगल के जानवरों को खिलाने के लिए तो खेती की नहीं जा रही है। बन्दरों को खिलाने के लिए तो खेती कर नहीं रहे। हाथियों को और ऊँटों को खिलाने के लिए भी खेती नहीं कर रहे। वो तो जो पशु जंगल में रहते हैं अपना हिसाब खुद ही देख लेते हैं। तो दुनिया के इतने बड़े भूभाग पर जो खेती की जा रही है वो किन जानवरों को खिलाने के लिए की जा रही है? ये वध्य जानवरों को खिलाने के लिए की जा रही है। भक्ष्य जानवरों को जिनको तुम मारकर खाना चाहते हो, जिनको कृत्रिम रूप से तुम स्लॉटरहाउसिज (कत्लखाना) में रखते हो, बड़े-बड़े एनिमल-फार्म्स में रखते हो। और फिर वहाँ उनको खिलाते हो खिलाते हो ताकि उनका माँस बढ़े और फिर वो माँस फिर तुम्हारी प्लेट में आ सके। समझ में आ रही है बात?

तो, ये कहना कि साहब इतनी जगह कहाँ है खेती की कि सब लोगों को दाना, अन्न, सब्जी, फल खिलाए जा सकें, बड़ी नासमझी की बात हो गई न। जगह तो बहुत है। खेती के लिए जगह तो बहुत है पर उस जगह का इस्तेमाल आदमियों को अन्न खिलाने के लिए किया ही नहीं जा रहा। तीन-चौथाई से ज़्यादा खेती दुनिया में की जा रही है जानवरों को खिलाने के लिए ताकि उन जानवरों का माँस तुम खा सको। एक बार इंसान ने उन जानवरों का माँस खाना बंद कर दिया तो बताओ क्या होगा? ये होगा कि वो सारी ज़मीन जिसका इस्तेमाल हो रहा था जानवरों के लिए चारा और अन्न उपजाने के लिए उस ज़मीन का अब तुम इस्तेमाल कर सकते हो इंसान के लिए भोजन पैदा करने हेतु। मानलो उस सारी ज़मीन का नहीं भी इस्तेमाल कर पाए। उसकी आधी ज़मीन का भी इस्तेमाल कर लिया तो अभी तो अगर मानलो दुनियाभर में खेती के लिए सौ वर्ग-मीटर ज़मीन उपलब्ध है तो उसमें से आदमियों के खाने के लिए कितनी ज़मीन इस्तेमाल हो रही है खेती में? अधिक-से-अधिक तेईस-पच्चीस वर्ग-मीटर। सत्तर-सतहत्तर वर्ग-मीटर किसके लिए इस्तेमाल हो रही है?—माँस के लिए। कि ये जो इसमें से पैदा होगा वो जानवर को खिलाओ फिर उसका माँस आदमी को खिलाओ।

अगर माँस खाना तुम बंद कर दो तो ये सतहत्तर वर्ग-मीटर, सतहत्तर प्रतिशत ज़मीन मुक्त हो जाएगी, उपलब्ध हो जाएगी। उसमें से आधी भी अगर तुमने इस्तेमाल करली आदमियों के लिए खेती करने के लिए तो सोचो कितनी सारी ज़मीन मिल जाएगी। अब बताओ कि आदमियों को खिलाने के लिए अन्न की कोई कमी पड़ने वाली है?

तो, ये बात बहुत भ्रांतिपूर्ण है कि अगर दुनिया में सबलोग शाक-पत्ते ही खाने लग गए तो कहाँ से आएँगे शाक-पत्ते। पागल, दुनिया में ज़मीन की कमी इसलिए हो रही है क्योंकि लोग माँस खा रहे हैं। और, जो माँस खा रहे हैं वो इतनी भी बुद्धि नहीं चला रहे कि सोचें कि माँस आता कहाँ से है, उन्हें पता ही नहीं है। वो तो सोचते हैं हमने खरीद लिया, वो ऐसे ही आसमान से टपका था माँस, या किसी पेड़ पर लगा होगा माँस!

उन्हें पूरी प्रक्रिया कुछ पता भी नहीं है और जानबूझकर के ये जो बड़ी-बड़ी मीट कंपनियाँ हैं, ये जो पूरी लाइवस्टॉक इंडस्ट्री है ये इस सूचना को छिपाकर रखती है कि आपकी प्लेट तक जो मीट (माँस) आता है उसके पीछे की पूरी प्रक्रिया क्या है। क्योंकि वो बात आपको पता चल गई तो आप माँस खाना तुरंत बंद कर देंगे।

अभी पिछले प्रश्न में ही मैंने कहा था कि एक माँसाहारी एक शाकाहारी की अपेक्षा सत्रह गुना ज़्यादा ज़मीन का उपभोग करता है। अगर माँसाहारी को खिलाना है तो आपको सत्रह गुना ज़्यादा ज़मीन चाहिए, क्योंकि वो एक जानवर को मारेगा न, और वो जानवर पहले बहुत सारा खाएगा। आपके सामने एक किलो अन्न आया और एक किलो माँस आया। उस एक किलो माँस को आपकी प्लेट तक लाने में पहले दस-से-बीस किलो अन्न खिलाया गया था उस जानवर को। तो बहुत सारी ज़मीन चाहिए न दस-बीस किलो अन्न पैदा करने के लिए ताकि उस जानवर को खिलाया जा सके? शाकाहारी को तो एक किलो ही खाना है। तो, सत्रह गुना ज़्यादा ज़मीन लगती है।

इसी तरीके से दुनिया में पानी की इतनी कमी है लेकिन चौदह गुना ज़्यादा पानी का उपभोग करता है एक माँसाहारी शाकाहारी की अपेक्षा और दस गुना ज़्यादा ऊर्जा का उपभोग करता है वो। तो, अब मुझे बताओ कि ये समस्या है कि अगर सबलोग शाकाहारी या वीगन हो गए तो ज़मीन और संसाधन कहाँ से आएँगे; या हकीकत ये है कि अगर इस आठ-सौ-करोड़ की आबादी को पालना है, सस्टेनेबल तरीके से पालना है, तो उपाय ही सिर्फ एक है कि सब शाकाहारी हो जाएँ। समझ में आ रही है बात?

जानते हो दुनिया में कुल खाने की जो कमी है जिसकी वजह से मैलनरिष्मेंट हो जाता है, कुपोषण हो जाता है, लोगों को खाने को नहीं मिल रहा है - अभी भी दुनिया के कुछ हिस्से हैं जहाँ पर कुपोषण से मृत्यु भी हो जाती है। दुनियाभर में अन्न की, भोजन की कुल कमी सिर्फ चालीस मिलियन टन की है, कितने की? सिर्फ चालीस मिलियन टन की। और जानते हो माँस के लिए जिन जानवरों को पैदा और बड़ा किया जाता है उनको हम सात-सौ-साठ मिलियन टन खाना खिला देते हैं। सात-सौ-साठ मिलियन टन भोजन जानवरों को खिलाया जा रहा है! जबकि दुनिया में कुपोषण की कुल जितनी समस्या है वो मिट जाए अगर सिर्फ चालीस मिलियन टन खाना इंसानों के पास पहुँच जाए।

तो, दुनिया में ये जो भूख से मौतें हो रही हैं और कुपोषण से लोग अविकसित या अर्ध-विकसित रह जा रहे हैं उसका भी सबसे बड़ा कारण माँसाहारी लोग हैं। तुम्हारे माँसाहार के लिए जो अन्न किसी गरीब के पास पहुँचना था वो अन्न पहुँच गया बकरे और गाय और भैंस के पास ताकि तुम उसको मारकर खा सको। समझ में आ रही है बात?

तो, ये बात कहना कि "अरे सब वेजिटेरियन या वीगन हो गए तो दुनिया कैसे चलेगी", बड़ी अजीब बात है! दुनिया चलानी है तो इसके अलावा कोई चारा ही नहीं है। बल्कि सवाल ये होना चाहिए कि "जितना माँसाहार फैला हुआ है और जिस गति से बढ़ रहा है और ऐसे ही चलता रहा, बढ़ता रहा; तो दुनिया कैसे चलेगी?" तुमने तो सवाल ही उल्टा पूछ लिया, गंगा ही उल्टी बहा रहे हो तुम। सवाल ये होना चाहिए कि जिस तरीके से लोग माँस खा रहे हैं ये तो अनसस्टेनेबल् है, दुनिया चल ही नहीं सकती! दुनिया को बचाने का तरीका ही एक है – माँस छोड़ो। बात आ रही है समझ में?

इसके अलावा एक इसमें मुद्दा और है जो समझना होगा। तुम पूछ रहे हो "क्या होगा दुनिया का अगर सब शाकाहारी हो गए या वीगन हो गए?" इक्यासी लाख मौतें कम होंगी—हृदय रोग से, कैंसर से, मधुमेह से, स्ट्रोक से। ये होगा। बताओ, ये बहुत बुरा होगा?

ये बात अब साबित हो चुकी है कि माँसाहार का बहुत सीधा संबंध इन घातक बीमारियों से है – हृदय-रोग (हार्ट-डिसीज), मधुमेह (डायबिटीज़), स्ट्रोक्स और सबसे बड़ी बात कैंसर। ये होगा कि इनसे जो मौतें होती हैं उनमें इक्यासी लाख की कमी आ जाएगी। और हेल्थ केयर में इन बीमारियों से जूझने में जो बिलियन्स-ऑफ-डॉलर खर्च होते हैं उनका बेहतर कुछ सदुपयोग हो सकेगा। ये बहुत बुरा होगा अगर दुनिया शाकाहारी हो जाए तो, कहो?

और एक चीज़। अगर सब शाकाहारी हो जाएँ और बेहतर है कि वीगन हो जाएँ तो दुनिया में कार्बन-एमिशन्स का जो सबसे बड़ा स्रोत है – फूड-रिलेटेड-एमिशन्स – उसमें सत्तर प्रतिशत की कमी आ जाएगी। बड़ी बुरी बात हो जाएगी ये?

क्लाइमेट चेंज के लिए जो कारण सबसे ज़्यादा उत्तरदायी है वो यही है – डेरी इंडस्ट्री, मीट इंडस्ट्री; दुग्ध पदार्थों का सेवन और माँस का सेवन। इसीसे सबसे ज़्यादा ग्लोबल वार्मिंग है। ये बात आपको पता नहीं लगने दी जाती। ये बात आपसे छुपाकर रखी जाती है। ना तो टीवी चैनल इस विषय में कोई सूचना देते, कोई डाक्यूमेंट्री दिखाते; ना अखबार इन चीज़ों पर कुछ छापते हैं; ना ये जो इतनी सारी न्यूज वेबसाइट्स वगैरह हैं इस मुद्दे पर कुछ बोलती हैं। क्योंकि बड़े निहित स्वार्थ छुपे हुए हैं माँसाहार के पीछे। तो ये बात आपको शायद पता नहीं है लेकिन क्लाइमेट चेंज, एंथ्रोपोजैनिक वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण माँसाहार ही है। दूसरे वैज्ञानिकों ने कहा है कि नहीं, सबसे बड़ा नहीं है नंबर दो का है। तो, या तो सबसे बड़ा है या सबसे बड़े दो कारणों में से एक है ये फूड – आप किस तरह का खाना खा रहे हैं।

सिर्फ अपना भोजन बदलकर के आप क्लाइमेट चेंज मिटिगेशन में सहयोगी हो सकते हैं। कुछ नहीं करना, भोजन बदल दीजिए। क्या खा रहे हो वो बदल दो, आपका जो कार्बन-फुटप्रिंट है वो कम हो जाएगा। तो अगर सब शाकाहारी हो गए तो सत्तर प्रतिशत कमी आएगी जो फूड-रिलेटेड-एमिशन्स हैं उनमें। कहो, बहुत बुरा हो जाएगा ये? पर तुमने तो बड़े खौफ से पूछा है, "क्या होगा सर अगर सबलोग वीगन हो गए?" बहुत अच्छा होगा भाई! और बहुत अच्छा ही भर नहीं होगा, उसके अलावा कोई चारा भी नहीं है इस पृथ्वी के पास। अगर उस मार्ग को हम स्वीकार नहीं कर रहे, तो फिर हम महाविनाश के मार्ग को स्वीकार कर रहे हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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