माँसाहार का समर्थन - मूर्खता या बेईमानी? (भाग-4) || (2020)

Acharya Prashant

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माँसाहार का समर्थन - मूर्खता या बेईमानी? (भाग-4) || (2020)

आचार्य प्रशांत: प्रश्नकर्ता ने तर्क भेजा है, कह रहे हैं, "विटामिन बी12 सिर्फ जानवरों के माँस से ही मिल सकता है और अगर उसको कृत्रिम रूप से लेंगे तो शरीर फिर उसको सोख नहीं पाता।"

बी12 को थोड़ा समझते हैं। देखिए, कोई जानवर अपने शरीर में विशेषतया विटामिन बी12 नहीं पैदा करता। विटामिन बी12 एक बैक्टीरिया पैदा करता है। वो बैक्टीरिया बहुत सारे जानवरों की आँत में पाया जाता है और उन जानवरों में इंसान भी शामिल है। जो बैक्टीरिया विटामिन बी12 पैदा करता है वो इंसान की आँत में भी पाया जाता है, और बहुत सारे अन्य जानवरों की आँत में पाया जाता है, और वही बैक्टीरिया मिट्टी में भी पाया जाता है। तो वहाँ से आता है विटामिन बी12।

अब सवाल ये है कि इंसान को फिर क्यों नहीं मिलता है विटामिन बी12, जब उसके अपने ही शरीर में बैक्टीरिया है जो उसका उत्पादन कर रहा है, बी12 का? इसलिए नहीं मिलता है क्योंकि वो जो बी12 है, जो हमारे शरीर में पैदा होता है बैक्टीरिया के द्वारा, वो शरीर में आँत में इतना नीचे पैदा होता है कि उसका एब्जॉर्बशन , उसको सोखना, उसका संश्लेषण भी सम्भव नहीं हो पाता है, तो वो मल के साथ-साथ शरीर से बाहर चला जाता है। शरीर से बाहर चला जाता है लेकिन मिट्टी में वो मौजूद रहता है।

अब, प्रकृति में जितने भी जानवर हैं वो जब घास खाते हैं या फल-वगैरह खाते हैं तो, पहली बात तो, वो फलों पर कोई रसायन लगाकर के उनको साफ नहीं करते। दूसरी बात, वो जिस मिट्टी से खा रहे होते हैं वो बहुधा फर्टिलाइजर्स-वगैरह के अत्याधिक इस्तेमाल के कारण बिलकुल मार नहीं दी गई होती है। जब आप मिट्टी पर रसायनों का बहुत इस्तेमाल करते हो ताकि उसमें से फसल पैदा हो सके तो मिट्टी में जो तमाम तरह के बैक्टीरिया होते हैं वो मर जाते हैं। वो बैक्टीरिया भी मर जाता है जो विटामिन बी12 पैदा करता है।

लेकिन जानवरों को फिर भी मिल जाता है, कैसे मिल जाता है? कि जानवर ने घास खाई, पत्ती खाई, फल खाया तो उसने धो-पौंछ के नहीं खाया। धो-पौंछ के नहीं खाया तो अगर वो फल खा रहा है या पत्ती खा रहा है तो उस पर मिट्टी के बारीक कण पड़े हुए हैं, मिट्टी के उन बारीक कणों में विटामिन बी12 भी मौजूद है क्योंकि मिट्टी में ही वो बैक्टीरिया है जो विटामिन बी12 बना रहा है।

इंसान जंगल से बाहर आ गया है। और हम अपने-आपको बहुत ज़बरदस्त रूप से सभ्य-वगैरह बोलते हैं और सभ्यता के नाते हमने दो काम करे हैं। पहला ये कि हमने अपनी मिट्टी को निष्प्राण कर दिया है। हमने अपनी मिट्टी में वो सब रसायन भर दिए हैं जो फसल के लिए उपयोगी हैं, ठीक है। "पोटैशियम उसमें डाल दो! नाइट्रोजन उसमें डाल दो!" तो ये सब हम उसमें अपना भरते रहते हैं। लेकिन जो चीजें फसल के लिए उपयोगी नहीं हैं उनको हम मिट्टी से बिलकुल मार ही देते हैं। तो इंसान ने मिट्टी से बी12 को मार दिया।

तो, उसमें से जो फिर फसल भी उग रही है उसपर अगर थोड़ी-बहुत मिट्टी मौजूद भी है—और याद रखिए आप कितना भी साफ कर लें, उसपर ज़रा-ज़रा से जो कण हैं मिट्टी के, वो तो मौजूद रहते ही हैं, लेकिन उनमें बी12 नहीं होता क्योंकि आपने मिट्टी की दुर्गति कर डाली है—और अगर उसपर थोड़ी-बहुत मिट्टी मौजूद भी रह गई, उसपर थोड़ा-बहुत बी12 मौजूद भी रह गया तो पहले तो आपके हाथ में आने से पहले; चाहे चावल हो, चाहे गेहूँ हो, चाहे सब्जी हो, चाहे फल हो; उसको तमाम तरीके की यांत्रिक और रासायनिक प्रक्रियाओं से गुज़ारा जाता है। कभी उसका छिलका उतारा जा रहा है! कभी उसपर कोई स्प्रे करा जा रहा है! और, उसके बाद जब वो आपके घर पहुँचता है तो आप भी उसकी ज़बरदस्त रूप से सफाई करते हो।

तो, दोतरफा मार पड़ी। अब उसपर बी12 बचा ही नहीं। जब उसपर बी12 बचा ही नहीं तो फिर आप चिल्लाते हैं "हाय-हाय! बी12 नहीं मिल रहा। और बी12 मुझे मिलेगा मेमना मारकर, भेड़ मारकर, बकरा मारकर, मुर्गा मारकर।" आपने कभी ये सोचना ही नहीं चाहा कि उस बकरे को या मुर्गे को बी12 कहाँ से मिल गया? उस बकरे को, मुर्गे को भी बी12 उसी मिट्टी से मिला है जिस मिट्टी से आपके लिए फसलें आती हैं। बात समझ में आ रही है?

लेकिन अब हमने ये अपनी दुर्गति तो कर ही ली है। फिर भी ये तर्क कतई ना दिया जाए कि "विटामिन बी12 मिलता नहीं है सब्जियों में, इसीसे ये सिद्ध होता है कि प्रकृति चाहती है कि हम जानवरों को मारें।" नहीं साहब, प्रकृति ने तो ऐसी व्यवस्था बिलकुल कर रखी थी कि विटामिन बी12 के लिए आपको किसी जानवर को मारना ना पड़े। प्रकृति ने कह रखा था कि तुम पत्तियाँ खाओ, फल खाओ, सब्जियाँ खाओ, अन्न के दाने खाओ; उसमें तुमको बी12 मिल जाएगा, ठीक वैसे, जैसे जंगल के तमाम जानवरों को मिल जाता है बी12।

उन्हें कैसे मिल जाता है बी12, थोड़ा सोचिए। जैसे उनको मिल जाता है वैसे ही आपको भी मिल जाता है। लेकिन पहली बात हमने अपनी मिट्टी को बेजान करा और दूसरी बात हमारे पास जो उस मिट्टी से पैदावार आ रही है वो तमाम तरीके के रसायनों में डूबकर आ रही है, इसीलिए हमें बी12 नहीं मिल रहा है। इसमें प्रकृति का कोई दोष नहीं है। और बी12 की दुहाई देकर ये मत सिद्ध करिएगा कि साबित हो जा रहा है कि प्रकृति ही चाहती है हम माँसाहार करें। नहीं, प्रकृति ऐसा नहीं चाहती है।

खैर! बी12 अब आए कहाँ से? तो उसके लिए आपको सप्लिमेंट्स लेने होंगे या उसके लिए आपको बी12 फोर्टिफाइड फूड लेना होगा। और जैसे ही मैं ये बोलूँगा बहुत लोग बिलकुल चिल्ला पड़ते हैं कि, "अरे-अरे! ये तो कृत्रिम हो जाएगा, हम शरीर में बी12 क्या सप्लिमेंट्स के माध्यम से पहुँचाएँ।" अच्छा! तो अभी ये जो कोविड महामारी फैली हुई है इसकी जो वैक्सीन बनेगी वो भी तो कृत्रिम है न, उसको क्यों पहुँचा रहे हो शरीर में? और पोलियो की दवाई और टिटनैस का टीका और डी.पी.टी. और चेचक और तमाम तरीके के जो तुम वैक्सीनेशन्स लेते हो वो क्या जंगल में पाए जाते हैं, पेड़ों पर लगते हैं, प्राकृतिक हैं? वो भी तो फैक्ट्रियों में ही निर्मित होते हैं न?

जब तुम बुद्धि लगाकर के फैक्ट्रियों में निर्मित वैक्सीन अपने शरीर में ले लेते हो—अभी कोरोना की वैक्सीन आएगी, कितने लोग हैं जो कहेंगे 'नहीं चाहिए'—तो फिर फैक्ट्री में निर्मित विटामिन बी12 लेने से इंकार क्यों? मैं बताता हूँ इंकार क्यों। क्योंकि जब तुम टिटनैस की वैक्सीन लेते हो तो उसमें तुम्हारा स्वार्थ है कि तुम्हारी जान बचेगी। लेकिन जब तुम बी12 का सप्लिमेंट्स लेते हो तो उसमें तुम्हारा कोई निजी स्वार्थ नहीं है, बी12 का सप्लिमेंट्स लेने से तुम्हारी जान नहीं बच रही, बकरे की जान बच रही है।

अपनी जान बचाने के लिए तुम शरीर के भीतर दवाई प्रविष्ट कराने को तैयार हो जाते हो, लेकिन बकरे की जान बचाने के लिए तुम सप्लिमेंट की एक गोली भी खाने को तैयार नहीं हो जाते। तुम कहते हो "अरे ये तो अर्टिफिशियल बात हो गई न!" जैसेकि बाकि तुम्हारा रहन-सहन, जीवन-शैली पूर्णतया प्राकृतिक हो।

सिर्फ बी12 सप्लिमेंट ही अर्टिफिशियल है! और तुमने जो कपड़े पहन रखे हैं ये क्या पेड़ों पर उगते हैं? ये जो चश्मा लगा रखा है ये तुमने किस पेड़ से उतारा है, बताओ? जब हमारी जीवन-चर्या में सबकुछ ही या बहुत-कुछ कम-से-कम हमारे द्वारा ही निर्मित है तो निरीह प्राणियों की जान बचाने के लिए अगर तुमको बी12 भी फैक्ट्री में निर्मित करके खाना पड़ रहा है तो क्यों शोर मचा रहे हो, कौनसी बड़ी बात हो गई, बिलकुल ठीक कर रहे हो।

अभी डॉक्टर लिख देगा कैल्शियम की कमी है तुम्हारे शरीर में तो कैल्शियम के लिए क्या तुम जाते हो कि, "मैं और अब सब्जियाँ खाऊँगा, और फल खाऊँगा जिनमें कैल्शियम मिलेंगे"? जैसे ही तुम्हें बताया जाता है शरीर में कैल्शियम की कमी हो गई है तुरंत क्या करते हो? जाकर कैल्शियम की गोलियाँ फाँकनी शुरू कर देते हो, हाँ या ना? हो सकता है कि तुम उसके साथ-साथ ऐसे भोजन की मात्रा भी बढ़ा दो जो कैल्शियम से परिपूर्ण है लेकिन साथ-ही-साथ गोलियाँ लेने में तुम्हें कोई परहेज तो होता नहीं न। स्त्रियों को बता दिया जाता है कि आपके शरीर में आयरन की कमी है, तो ठीक है भई! वो भाजी इत्यादि खाना शुरू कर देंगी, पालक खाना शुरू कर देंगी, लेकिन साथ-ही-साथ आयरन की गोलियाँ लेना भी शुरू कर देंगी।

अपने शरीर की बात आई तो तुम्हें गोली लेने में कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन पशु के शरीर को बचाने के लिए बी12 लेने में तुम ऐसे हो जाते हो कि "अरे! देखो, मैं वीगन हो गया तो मुझे बी12 लेना पड़ रहा है, मेरे साथ बड़ा अत्याचार हो गया, ये वीगन होना बड़े झंझट की बात है, बी12 खाना पड़ता है।" ठीक है, बी12 छोड़ दो, कोविड का टीका भी मत लगवाना! ये जो विटामिन 'सी' और 'ए' और 'बी' और दस गोलियाँ तुम झटसे फाँक लेते हो इनको भी कभी मत फाँकना क्योंकि ये सब भी तो कृत्रिम हैं, अर्टिफिशियल हैं, इनको क्यों ले रहे हो?

चुपचाप बी12 का सप्लिमेंट्स लो और पशुओं से प्रेम करना सीखो। और, इसमें एक चीज़ और आगाह किए देता हूँ। जब बी12 का सप्लिमेंट्स ले रहे तो पहले जाँच लेना कि कहीं वो सप्लिमेंट्स भी तो जानवर को मारकर नहीं बनाया गया। डब्बे पर लिखा होगा पढ़ लेना पहले। वीगन सप्लिमेंट्स आते हैं, उनका ही इस्तेमाल करो।

इस विषय में अगला सवाल दूसरे प्रश्नकर्ता से है। कह रहे हैं कि "सर आपका वीडियो देखने के बाद मैंने डॉक्टर ज़ाकिर नायक के वीडियो देखे और वो कह रहे थे कि हमें जो अमीनो-एसिड्स चाहिए वो सिर्फ माँस से ही मिल सकते हैं। मैं अब भ्रम में पड़ गया हूँ।"

बात बहुत सीधी है। भ्रम में पड़ नहीं गए हो, भ्रम फैलाया जा रहा है। बीस होते हैं अमीनो-एसिड्स जिसमें से ग्यारह तो अपने ही शरीर में पैदा हो जाते हैं उसके लिए कहीं बाहर से कुछ लेने की ज़रूरत ही नहीं है। अब नौ बचे। ये जो नौ अमीनो-एसिड्स हैं ये जानवरों के शरीर में भी पाए जाते हैं यानि माँस में मिलेंगे और पेड़-पौधों में भी पाए जाते हैं। सवाल ये है कि जानवरों के शरीर में कहाँ से आ गए? भाई, जानवरों के शरीर में भी वो पेड़-पौधों से ही आए हैं, वो खुद नहीं पैदा कर रहे जानवर। जैसे इंसान सारे अमीनो-एसिड्स अपने शरीर में पैदा नहीं कर पाता न—इसीलिए हम बात कर रहे हैं अमीनो-एसिड्स कहाँ से लाएँ—वैसे ही कोई भी जानवर अपने शरीर में सब अमीनो-एसिड्स नहीं पैदा कर पाता। जानवरों को भी ये जो शेष अमीनो-एसिड्स हैं वो पेड़ों से और पौधों से ही लेने पड़ते हैं। तो तुम चाहो तो जानवर के माँस से ले लो या चाहो तो शाकाहारी भोजन से ले लो। ये तुम्हारा चुनाव है किससे लेना है। हाँ, जब चुनाव कर रहे हो तो एक बात का ख्याल रख लेना कि एक माँसाहारी व्यक्ति एक शाकाहारी व्यक्ति की अपेक्षा सत्रह गुने ज़्यादा क्षेत्रफल का, ज़मीन का इस्तेमाल करता है अपने भोजन, अपनी डाइट के लिए, चौदह गुने पानी का इस्तेमाल करता है और दस गुनी ज़्यादा ऊर्जा की खपत होती है उसके लिए भोजन तैयार कराने में। समझ में आ रही है बात?

तुम जो माँस खा रहे हो वो माँस बहुत महँगा है। वास्तव में बाज़ार में तुम्हें जिस कीमत में वो माँस मिल रहा है उसमें अभी ये बात शामिल ही नहीं की गई है कि वो माँस पर्यावरण को और प्रकृति को कितना भारी और कितना महँगा पड़ रहा है। जिस दिन नियम-कानून इस तरह से हो गए कि उस माँस को बनाने में जो कुल संसाधन लगते हैं उन सबको शामिल करके उसका दाम तय किया जाए जितने भी उसमें फैक्टर-कॉस्ट्स लगते हैं उन सबको फैक्टर-इन किया जाए तो माँस बहुत महँगा है। हो सकता है तुम्हारी जेब में बहुत पैसा है तुम पैसा दे भी दोगे कि, "महँगा है तो साहब खरीद ही लेते हैं!" लेकिन किसी के प्राण पहली बात तुम पैसे से खरीद रहे हो, दूसरी बात वो जो तुम पैसा दे रहे हो उससे प्रकृति की जो क्षति हुई है उसकी भरपाई कैसे कर लोगे?

अभी, कल ही तो था कि ग्रीनलैंड के ऊपर जो ग्लेशियर पिघल रहे थे अब वो पॉइंट-ऑफ-नो-रिटर्न पर पहुँच चुके हैं। इसका मतलब समझते हो क्या है? इसका मतलब ये है कि ग्लोबल वार्मिंग सारी आज रुक जाए, जितना पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ गया है अगर उसे लौटा भी दिया जाए, वापस (रिवर्स) भी कर दिया जाए तो भी ग्रीनलैंड पर जो बर्फ पिघल रही है वो पिघलनी जारी ही रहेगी और अब उसको रोका नहीं जा सकता, वो चीज़ गई अब हाथ से, तुम कुछ भी करलो अब उसे बचा नहीं सकते। इसका मतलब समझते हो क्या है? इसका मतलब ये है कि वो सारी बर्फ समुद्र में जाएगी, समुद्र का स्तर बढ़ेगा और दुनिया के दर्जनों शहर डूबने वाले हैं, दर्जनों देश डूबने वाले हैं और ये सबकुछ प्राथमिक तौर पर हो रहा है माँसाहारियों की कृपा से। क्योंकि उनको या तो ये पता नहीं है या पता होने पर भी नादान, अन्जान बने रहते हैं कि वो जो खा रहे हैं वो प्रकृति को कितना भारी पड़ रहा है। अमीनो-एसिड्स तुम्हें लेने ही हैं तो पौधों से ले लो भई। माँस से भी मिल सकते हैं, पौधों से भी मिल सकते हैं; पौधों से क्यों नहीं ले रहे, किसने कह दिया पौधों में नहीं मिल रहे? जिन सज्जन का तुमने नाम का उल्लेख किया है उन सज्जन के बारे में भी मैं यही कहूँगा। या तो उन्हें कोई तथ्यों की जानकारी नहीं है या जानकारी होते हुए भी वो तथ्यों को दबा-छिपा रहे हैं, विकृत कर रहे हैं। होगा कोई उद्देश्य।

अगले प्रश्नकर्ता हैं, कह रहे हैं कि "दुनिया के आठ-सौ-करोड़ लोगों को खिलाने के लिए सब्जी, घास-पात और वीगन सामग्री है कहाँ? इतने लोगों को अगर हम खिलाने लग गए शाकाहारी भोजन, तो जंगलों का क्या होगा? इसलिए माँस खाना तो ज़रूरी है।"

अनुभव (प्रश्नकर्ता), इन वीडियोज की श्रंखला में जो पहला ही वीडियो है उसको देखना। तुम समझ ही नहीं रहे हो शायद कि जो जानवर हम मारकर खाते हैं वो जानवर तुम्हारी प्लेट में आने के लिए तैयार हो सके, उसका माँस तुम खा सको, इस खातिर पहले उसे बहुत सारा भोजन कराया जाता है और वो भोजन सब शाकाहारी होता है। मैंने शुरू में ही बताया था कि दुनिया में जितने क्षेत्र पर खेती होती है उसमें से तीन-चौथाई से भी ज्यादा क्षेत्र पर खेती आदमियों को खिलाने के लिए नहीं जानवरों को खिलाने के लिए होती है। और जानवरों को इसलिए खिलाया जा रहा है ताकि उन जानवरों को तुम खा सको। ये जंगल के जानवरों को खिलाने के लिए तो खेती की नहीं जा रही है। बन्दरों को खिलाने के लिए तो खेती कर नहीं रहे। हाथियों को और ऊँटों को खिलाने के लिए भी खेती नहीं कर रहे। वो तो जो पशु जंगल में रहते हैं अपना हिसाब खुद ही देख लेते हैं। तो दुनिया के इतने बड़े भूभाग पर जो खेती की जा रही है वो किन जानवरों को खिलाने के लिए की जा रही है? ये वध्य जानवरों को खिलाने के लिए की जा रही है। भक्ष्य जानवरों को जिनको तुम मारकर खाना चाहते हो, जिनको कृत्रिम रूप से तुम स्लॉटरहाउसिज (कत्लखाना) में रखते हो, बड़े-बड़े एनिमल-फार्म्स में रखते हो। और फिर वहाँ उनको खिलाते हो खिलाते हो ताकि उनका माँस बढ़े और फिर वो माँस फिर तुम्हारी प्लेट में आ सके। समझ में आ रही है बात?

तो, ये कहना कि साहब इतनी जगह कहाँ है खेती की कि सब लोगों को दाना, अन्न, सब्जी, फल खिलाए जा सकें, बड़ी नासमझी की बात हो गई न। जगह तो बहुत है। खेती के लिए जगह तो बहुत है पर उस जगह का इस्तेमाल आदमियों को अन्न खिलाने के लिए किया ही नहीं जा रहा। तीन-चौथाई से ज़्यादा खेती दुनिया में की जा रही है जानवरों को खिलाने के लिए ताकि उन जानवरों का माँस तुम खा सको। एक बार इंसान ने उन जानवरों का माँस खाना बंद कर दिया तो बताओ क्या होगा? ये होगा कि वो सारी ज़मीन जिसका इस्तेमाल हो रहा था जानवरों के लिए चारा और अन्न उपजाने के लिए उस ज़मीन का अब तुम इस्तेमाल कर सकते हो इंसान के लिए भोजन पैदा करने हेतु। मानलो उस सारी ज़मीन का नहीं भी इस्तेमाल कर पाए। उसकी आधी ज़मीन का भी इस्तेमाल कर लिया तो अभी तो अगर मानलो दुनियाभर में खेती के लिए सौ वर्ग-मीटर ज़मीन उपलब्ध है तो उसमें से आदमियों के खाने के लिए कितनी ज़मीन इस्तेमाल हो रही है खेती में? अधिक-से-अधिक तेईस-पच्चीस वर्ग-मीटर। सत्तर-सतहत्तर वर्ग-मीटर किसके लिए इस्तेमाल हो रही है?—माँस के लिए। कि ये जो इसमें से पैदा होगा वो जानवर को खिलाओ फिर उसका माँस आदमी को खिलाओ।

अगर माँस खाना तुम बंद कर दो तो ये सतहत्तर वर्ग-मीटर, सतहत्तर प्रतिशत ज़मीन मुक्त हो जाएगी, उपलब्ध हो जाएगी। उसमें से आधी भी अगर तुमने इस्तेमाल करली आदमियों के लिए खेती करने के लिए तो सोचो कितनी सारी ज़मीन मिल जाएगी। अब बताओ कि आदमियों को खिलाने के लिए अन्न की कोई कमी पड़ने वाली है?

तो, ये बात बहुत भ्रांतिपूर्ण है कि अगर दुनिया में सबलोग शाक-पत्ते ही खाने लग गए तो कहाँ से आएँगे शाक-पत्ते। पागल, दुनिया में ज़मीन की कमी इसलिए हो रही है क्योंकि लोग माँस खा रहे हैं। और, जो माँस खा रहे हैं वो इतनी भी बुद्धि नहीं चला रहे कि सोचें कि माँस आता कहाँ से है, उन्हें पता ही नहीं है। वो तो सोचते हैं हमने खरीद लिया, वो ऐसे ही आसमान से टपका था माँस, या किसी पेड़ पर लगा होगा माँस!

उन्हें पूरी प्रक्रिया कुछ पता भी नहीं है और जानबूझकर के ये जो बड़ी-बड़ी मीट कंपनियाँ हैं, ये जो पूरी लाइवस्टॉक इंडस्ट्री है ये इस सूचना को छिपाकर रखती है कि आपकी प्लेट तक जो मीट (माँस) आता है उसके पीछे की पूरी प्रक्रिया क्या है। क्योंकि वो बात आपको पता चल गई तो आप माँस खाना तुरंत बंद कर देंगे।

अभी पिछले प्रश्न में ही मैंने कहा था कि एक माँसाहारी एक शाकाहारी की अपेक्षा सत्रह गुना ज़्यादा ज़मीन का उपभोग करता है। अगर माँसाहारी को खिलाना है तो आपको सत्रह गुना ज़्यादा ज़मीन चाहिए, क्योंकि वो एक जानवर को मारेगा न, और वो जानवर पहले बहुत सारा खाएगा। आपके सामने एक किलो अन्न आया और एक किलो माँस आया। उस एक किलो माँस को आपकी प्लेट तक लाने में पहले दस-से-बीस किलो अन्न खिलाया गया था उस जानवर को। तो बहुत सारी ज़मीन चाहिए न दस-बीस किलो अन्न पैदा करने के लिए ताकि उस जानवर को खिलाया जा सके? शाकाहारी को तो एक किलो ही खाना है। तो, सत्रह गुना ज़्यादा ज़मीन लगती है।

इसी तरीके से दुनिया में पानी की इतनी कमी है लेकिन चौदह गुना ज़्यादा पानी का उपभोग करता है एक माँसाहारी शाकाहारी की अपेक्षा और दस गुना ज़्यादा ऊर्जा का उपभोग करता है वो। तो, अब मुझे बताओ कि ये समस्या है कि अगर सबलोग शाकाहारी या वीगन हो गए तो ज़मीन और संसाधन कहाँ से आएँगे; या हकीकत ये है कि अगर इस आठ-सौ-करोड़ की आबादी को पालना है, सस्टेनेबल तरीके से पालना है, तो उपाय ही सिर्फ एक है कि सब शाकाहारी हो जाएँ। समझ में आ रही है बात?

जानते हो दुनिया में कुल खाने की जो कमी है जिसकी वजह से मैलनरिष्मेंट हो जाता है, कुपोषण हो जाता है, लोगों को खाने को नहीं मिल रहा है - अभी भी दुनिया के कुछ हिस्से हैं जहाँ पर कुपोषण से मृत्यु भी हो जाती है। दुनियाभर में अन्न की, भोजन की कुल कमी सिर्फ चालीस मिलियन टन की है, कितने की? सिर्फ चालीस मिलियन टन की। और जानते हो माँस के लिए जिन जानवरों को पैदा और बड़ा किया जाता है उनको हम सात-सौ-साठ मिलियन टन खाना खिला देते हैं। सात-सौ-साठ मिलियन टन भोजन जानवरों को खिलाया जा रहा है! जबकि दुनिया में कुपोषण की कुल जितनी समस्या है वो मिट जाए अगर सिर्फ चालीस मिलियन टन खाना इंसानों के पास पहुँच जाए।

तो, दुनिया में ये जो भूख से मौतें हो रही हैं और कुपोषण से लोग अविकसित या अर्ध-विकसित रह जा रहे हैं उसका भी सबसे बड़ा कारण माँसाहारी लोग हैं। तुम्हारे माँसाहार के लिए जो अन्न किसी गरीब के पास पहुँचना था वो अन्न पहुँच गया बकरे और गाय और भैंस के पास ताकि तुम उसको मारकर खा सको। समझ में आ रही है बात?

तो, ये बात कहना कि "अरे सब वेजिटेरियन या वीगन हो गए तो दुनिया कैसे चलेगी", बड़ी अजीब बात है! दुनिया चलानी है तो इसके अलावा कोई चारा ही नहीं है। बल्कि सवाल ये होना चाहिए कि "जितना माँसाहार फैला हुआ है और जिस गति से बढ़ रहा है और ऐसे ही चलता रहा, बढ़ता रहा; तो दुनिया कैसे चलेगी?" तुमने तो सवाल ही उल्टा पूछ लिया, गंगा ही उल्टी बहा रहे हो तुम। सवाल ये होना चाहिए कि जिस तरीके से लोग माँस खा रहे हैं ये तो अनसस्टेनेबल् है, दुनिया चल ही नहीं सकती! दुनिया को बचाने का तरीका ही एक है – माँस छोड़ो। बात आ रही है समझ में?

इसके अलावा एक इसमें मुद्दा और है जो समझना होगा। तुम पूछ रहे हो "क्या होगा दुनिया का अगर सब शाकाहारी हो गए या वीगन हो गए?" इक्यासी लाख मौतें कम होंगी—हृदय रोग से, कैंसर से, मधुमेह से, स्ट्रोक से। ये होगा। बताओ, ये बहुत बुरा होगा?

ये बात अब साबित हो चुकी है कि माँसाहार का बहुत सीधा संबंध इन घातक बीमारियों से है – हृदय-रोग (हार्ट-डिसीज), मधुमेह (डायबिटीज़), स्ट्रोक्स और सबसे बड़ी बात कैंसर। ये होगा कि इनसे जो मौतें होती हैं उनमें इक्यासी लाख की कमी आ जाएगी। और हेल्थ केयर में इन बीमारियों से जूझने में जो बिलियन्स-ऑफ-डॉलर खर्च होते हैं उनका बेहतर कुछ सदुपयोग हो सकेगा। ये बहुत बुरा होगा अगर दुनिया शाकाहारी हो जाए तो, कहो?

और एक चीज़। अगर सब शाकाहारी हो जाएँ और बेहतर है कि वीगन हो जाएँ तो दुनिया में कार्बन-एमिशन्स का जो सबसे बड़ा स्रोत है – फूड-रिलेटेड-एमिशन्स – उसमें सत्तर प्रतिशत की कमी आ जाएगी। बड़ी बुरी बात हो जाएगी ये?

क्लाइमेट चेंज के लिए जो कारण सबसे ज़्यादा उत्तरदायी है वो यही है – डेरी इंडस्ट्री, मीट इंडस्ट्री; दुग्ध पदार्थों का सेवन और माँस का सेवन। इसीसे सबसे ज़्यादा ग्लोबल वार्मिंग है। ये बात आपको पता नहीं लगने दी जाती। ये बात आपसे छुपाकर रखी जाती है। ना तो टीवी चैनल इस विषय में कोई सूचना देते, कोई डाक्यूमेंट्री दिखाते; ना अखबार इन चीज़ों पर कुछ छापते हैं; ना ये जो इतनी सारी न्यूज वेबसाइट्स वगैरह हैं इस मुद्दे पर कुछ बोलती हैं। क्योंकि बड़े निहित स्वार्थ छुपे हुए हैं माँसाहार के पीछे। तो ये बात आपको शायद पता नहीं है लेकिन क्लाइमेट चेंज, एंथ्रोपोजैनिक वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण माँसाहार ही है। दूसरे वैज्ञानिकों ने कहा है कि नहीं, सबसे बड़ा नहीं है नंबर दो का है। तो, या तो सबसे बड़ा है या सबसे बड़े दो कारणों में से एक है ये फूड – आप किस तरह का खाना खा रहे हैं।

सिर्फ अपना भोजन बदलकर के आप क्लाइमेट चेंज मिटिगेशन में सहयोगी हो सकते हैं। कुछ नहीं करना, भोजन बदल दीजिए। क्या खा रहे हो वो बदल दो, आपका जो कार्बन-फुटप्रिंट है वो कम हो जाएगा। तो अगर सब शाकाहारी हो गए तो सत्तर प्रतिशत कमी आएगी जो फूड-रिलेटेड-एमिशन्स हैं उनमें। कहो, बहुत बुरा हो जाएगा ये? पर तुमने तो बड़े खौफ से पूछा है, "क्या होगा सर अगर सबलोग वीगन हो गए?" बहुत अच्छा होगा भाई! और बहुत अच्छा ही भर नहीं होगा, उसके अलावा कोई चारा भी नहीं है इस पृथ्वी के पास। अगर उस मार्ग को हम स्वीकार नहीं कर रहे, तो फिर हम महाविनाश के मार्ग को स्वीकार कर रहे हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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