सब आध्यात्मिक संस्थाएँ विधियाँ बताती हैं, आचार्य जी क्यों नहीं? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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सब आध्यात्मिक संस्थाएँ विधियाँ बताती हैं, आचार्य जी क्यों नहीं? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: 2012 से विभिन्न आध्यात्मिक संस्थाओं से जुड़ा हूँ, जहाॅं पर विधियों के मार्ग पर चलना सिखाया जाता है। अब पिछले एक साल से आपको सुनना शुरू किया है, और सबकुछ व्यर्थ लगने लगा है, संसार का कोई भी काम रास नहीं आता, पर फिर भी विधियों के प्रति आकर्षण बना ही रहता है। कृपया इस पर प्रकाश डालेंΙ

आचार्य प्रशांत: विधियों के प्रति आकर्षण है तो विधियाँ आज़माते रहिए। अध्यात्म न विधि के ख़िलाफ़ होता है न अवधि के ख़िलाफ़ होता है, उसे तो बस दुख की ख़िलाफ़त करनी है। विधियों से अगर आपको मुक्ति और आनन्द मिलते हों तो विधियों का प्रयोग जारी रखिए। हाँ, विधियों के साथ अगर समय व्यर्थ होता हो तो विधियाँ फिर व्यर्थ हैं।

जो कुछ भी कर रहे हों उसमें ये देखना तो बहुत ज़रूरी है न कि कितना डाल रहे हो और कितना निकाल रहे हो। व्यापार भी करते हो तो आरओआइ नामक चीज़ होती है — रिटर्न ऑन इनवेेस्टमेंट (निवेश पर प्रतिफल)। कोई भी विधि करते हो तो उसमें समय तो लगता होगा? समय भी लगता है, ध्यान भी लगता है, एक निष्ठा भी चाहिए होती है। निवेश है ये सब, इंवेस्टमेंट्स। उनसे मिल क्या रहा है? कुछ मिल रहा हो तो किसी से पूछने की कोई ज़रूरत नहीं, लगे रहो। और वहाँ से कुछ नहीं मिल रहा तो भी किसी से कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं। काहे को लगे हुए हो? बस, पुरानी आदत, पुराना ढर्रा, सामाजिक देखा-देखी, अड़ोसी-पड़ोसी सब फलानी विधि करते हैं, फलानी क्रिया करते हैं तो मैं भी लगा रहूँगा।

कुछ लोगों ने वेबसाइट पर बोल दिया है, टीवी पर बोल दिया है कि हम ऐसी विधि करते थे तो हमें बड़ा फ़ायदा हुआ, तो मैं भी लगा रहूँगा। अरे, हो सकता है जिन्होंने बोला उन्हें सच में फ़ायदा हुआ भी हो, मैं नहीं इनकार करता, पर आपको हो रहा है कि नहीं हो रहा है? यही प्रश्न प्रमुख है न? आपको कुछ मिल रहा है या नहीं?

जब मैं बोलता हूँ तो ये बात ऐसी लगती है जैसे कितनी स्पष्ट हो, कहेंगे हाँ, ये तो बहुत कॉमन सेंस (व्यावहारिक बुद्धि) की बात है, पर अगर बात इतनी ही ज़्यादा स्पष्ट है, जाहिर है, प्रत्यक्ष है, कॉमन सेंसीकल (संवेदनात्मक) है, तो आप इस बात के ख़िलाफ़ व्यवहार क्यों करने लगते हैं भाई? जिन चीज़ों में कुछ नहीं मिल रहा होता है उनके साथ भी अटके क्यों रह जाते हैं? कि जैसे कोई बिलकुल चूसी हुई गुठली को और चूसे। शायद कभी उसमें रस रहा होगा। अभी है क्या? और ये तो फिर भी मैं असली आम की बात कर रहा हूँ, कोई प्लास्टिक का आम चूसे। कुछ मिल भी रहा है भाई? या बस फोटो खिंचाने के लिए सारा काम चल रहा है। कि सब लोग आसन मारकर बैठते हैं, सब लोग इस-इस तरीक़े से फलानी विधि करते हैं, तो हम भी कर रहे हैं। क्यों? ताकि एक समूह के सदस्य कहलाओ? ताकि सोशल बिलॉन्गिंगनेस (सामाजिक अपनापन) बनी रहे? किसलिए? जीवन में लगातार ये प्रश्न अपनेआप से पूछते रहिए, ‘इस पूरी चीज़ में मेरे लिए क्या है?’

बार-बार समझाता हूँ, ‘अध्यात्म महा स्वार्थ की बात है।’ क्योंकि अध्यात्म होता ही है अहम् को शान्ति देने के लिए। अहम् माने ‘मैं’। भाई, ‘मैं’। तो अध्यात्म का पूरा विज्ञान और पूरी प्रक्रिया, किसके लिए है? मेरे लिए है। तो मुझे क़दम-क़दम पर पूछना पड़ेगा कि मुझे क्या मिल रहा है। यूँही औपचारिकता निभाने के लिए या कर्मकाण्ड के लिए कुछ नहीं कर देना है। जब अध्यात्म है ही अहम् को शान्ति देने के लिए, तो पूछना पड़ेगा न? कि अहम् को शान्ति मिली क्या? मुझे कोई लाभ हुआ क्या? लाभ हुआ, तो आगे कोई सवाल पूछना नहीं है। और लाभ नहीं हुआ, तो आगे कोई सवाल पूछना नहीं है। यही एकमात्र सवाल है।

ये ब्राउनी पॉइंट्स थोड़े अर्जित करने हैं, कि लेवल वन (प्रथम स्तर) की क्रिया कर ली, सिक्सटी पॉइंट्स (साठ अंक); लेवल टू (द्वितीय स्तर) की क्रिया कर ली, वन सिक्सटी पॉइंट्स (एक-सौ-साठ)। अरे, करोगे क्या इन पॉइंट्स का? क्या करोगे? डिस्काउंट कूपन मिलेगा? ये नक़ली करेंसी है, इसका कोई इस्तेमाल कहीं नहीं हो सकता। रखे रहो अपनी जेब में। ख़ुद को ही सान्त्वना दे रहे हो कि मैंने ये कर लिया मैंने वो कर लिया, फलानी जगह हो आया, फलाने आश्रम हो आया।

अपनी नज़रों में तुमने बड़े पॉइंट्स इकट्ठे कर रखे हैं। उन पॉइंट्स को तुम कहीं रिडीम (भुनाना) नहीं कर सकते, भाई। कर सकते हो तो कर लो। (हॅंसत हुए) मैं थोड़ी रोकने आऊॅंगा। वक्त कट जाता है।

मेरा पुराना मोबाइल फोन था, अब पता नहीं आजकल के फोनस में ऐसा होता है कि नहीं, जब उसमें मामला ऑफलाइन हो जाता था तो उसमें एक डायनासोर आता था। आजकल आता है? और वो जो डायनासोर था वो पॉइंट्स बटोरता था कुद-कुदकर, दनादन-दनादन। ऑनलाइन होते-होते तक तुम हज़ारों-लाखों पॉइंट्स इकट्ठा कर सकते थे। कर लिये? (हॅंसते हुए) हम ज़िन्दगी भर यही तो करते हैं न, पॉइंट्स इकट्ठा करते हैं जिनका कोई इस्तेमाल नहीं है। ज़िन्दगी और क्या है, जैसे बहुत सारे टिक बॉक्सेस की एक शृंखला है। चेक चेक चेक चेक चेक टिक टिक टिक टिक टिक, डायनासोर पॉइंट्स इकट्ठा करता चला जा रहा है। मैं पूछा करता हूॅं, रिडीम (भूनाना) कब होंगे भाई? (हॅंसते हुए) उसकी तो कोई फैसिलिटी (सुविधा) है नहीं। (हॅंसते हुए) आप बस इकट्ठा कर लो पॉइंट्स, तो उससे होगा क्या? समय कट जाएगा और क्या होगा।

ज़िन्दगी इतनी बड़ी समस्या है, पता नहीं किस नामुराद ने अस्सी साल जीने की सज़ा देकर भेज दिया है। टाइम (समय) काटने को कुछ तो करना पड़ेगा, तो क्या करें? पॉइंट्स इकट्ठा करो। कैसे इकट्ठा करें? पहले ये डिग्री ले लो, फिर पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री ले लो। हर चीज़ के पॉइंटस हैं। ग्रेजुएशन के सौ पॉइंट्, पोस्ट ग्रेजुएशन के डेढ़-सौ पॉइंट्, पीएचडी के ढाई-सौ, पीएचडी शुरू करके पूरी न करने पर भी दो सौ।(हॅंसते हुए) शादी करने के दो हज़ार। (हॅंसते हुए) और चीज़, आगे बढ़ते जाओ हर चीज़ के पॉइंट्स हैं। इस तरीक़े से बीस-चालीस हज़ार पॉइंट आदमी इकट्ठा कर लेता है। बहुत सारे वाउचर मिल जाते हैं हाथ में, लेकर खड़ा हुआ है। फिर आया वो मेरा दोस्त। कौन? भैंसे वाला। उसका हज़ार भैंसें पावर का भैंसा है। (बाइक चलाने का अभिनय करते हुए) नॉन पॉल्यूटिंग (गैर-प्रदूषणकारी) भैंसा है, मज़ाक नहीं करेगा कोई। और उसको हम क्या दिखा रहे हैं? वाउचर्स। ये देखो, ये देखो, मेरे पास इतने पॉइंट हैं, इतने पॉइंट हैं। चल बैठ बैठ जा पीछे। बिना हेलमेट के। (हॅंसते हुए)

ज़िन्दगी भर की अपनी तुम ये जो थोथी, झूठी कमाई है, ये नक़ली पॉइंट्स हैं ये रखे रहो। उन्हीं नक़ली पॉइंट्स को अर्जित करने का एक तरीक़ा झूठा अध्यात्म भी होता है। फलानी क्रिया कर ली, तीर्थ कर आये, ये व्रत कर लिया, ये उपवास कर लिया। कुछ नहीं मिलेगा। कुछ नहीं मिलेगा। (दोनों हाथों को हिलाते हुए)

‘गंगा गयों ते, मुक्ति नाईं। सौ सौ गोते खाइये।’ और ‘मक्के गयों ते मुक्ति नाईं सौ सौ हज कर आइए।’

जो असली चीज़ है वो करने की तो कोई नियत ही नहीं। असली चीज़ क्या है?

‘मैं नु दिलों गॅंवाइये।’

सही बोला? पंजाबी कमज़ोर है मेरी। सही है?

दिल से ‘मैं’ को हटाने की कोई नियत ही नहीं है, बाक़ी तो जितने ब्राउनी पॉइंट्स कमाने हों कमाते रहो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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