साथ हैं, क्योंकि प्रेम है, या आदत है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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साथ हैं, क्योंकि प्रेम है, या आदत है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्न: क्या अकेले रहने से हमारा विकास हो सकता है?

वक्ता: बेशक! समझो इस बात को। बाहर से जो तुम्हें मिलता है, वो हमेशा बाहरी ही होगा। याद रखना, बाहर से अलग मिलता है तो किसी को मिलता होगा, जिसको मिलता है वो बाहरी नहीं हो सकता, तुम खुद बाहरी नहीं हो सकते। इस कारण बाहर से जो भी मिलेगा उसका महत्व हमेशा तुमसे कम है। बाहर से सब कुछ आ सकता है तुम्हारे पास, पर तुम खुद बाहर से थोड़े ही आओगे अपने पास। बिल्कुल तार्किक बात कर रहा हूँ, समझना। बहुत सारी चीज़ें आएँगी तुम्हारे पास, पर क्या तुम कहोगे कि तुम खुद आये हो बाहर से अपने पास? बाहर से जो भी कुछ आ रहा है, यदि तुम्हारे पास आ रहा है तो तुम स्वयं तो बाहर से नहीं आ रहे ना? कि बाहर से जो भी आ रहा है वह हम नहीं हैं और इस कारण बाहर से आने वाली चीज़ों का महत्व हमसे ज्यादा नहीं है।

जो भी कुछ बाहर से आ रहा है वह महत्वपूर्ण हो सकता है पर हमसे ज्यादा तो नहीं हो सकता ना? जो बाहर से आता है वह हमारे साथ दो काम कर सकता है। पहला ये, कि शरीर है इसको चलने में मदद करे। जीवन है उसमें कुछ ज्ञान की ज़रुरत है और यह ज्ञान हमें बाहर से मिल रहा है, और ये सब अच्छा है। बाहर से जो भी हमें कुछ मिल रहा है उसकी हम इतनी भी उपयोगिता हम रखें कि उस से जीवन-यापन होता है, उस से शरीर चलता है तो बहुत अच्छा है। बाहर जो कुछ है अगर उस से हम यह सम्बन्ध भी रखें कि प्रेम का सम्बन्ध है, तो भी बहुत अच्छा है, लेकिन अगर जो बाहरी है वो हम पर हावी ही हो जाए, पूरा का पूरा हमको ढक ले, घेर ले, जैसा की एक झुण्ड में होता है, तो अब जो ये बाहरी है ये तुमसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। ऐसा ढक लिया इसने तुमको, ऐसा बाँध लिया इसने तुमको, इतना हावी हो गया ये तुम पर कि तुम अब कहीं नज़र ही नहीं आते, जैसा गुड़ का एक छोटा सा ढेला हो और उसके चारों तरफ मक्खियाँ लिपटी हों। गुड़ कहीं चला नहीं गया, उसकी मिठास भी कहीं चली नहीं गयी, पर वह घिर गया है चारों तरफ से मक्खियों से। मक्खियों का और गुड़ का कोई प्रेम का सम्बन्ध नहीं है, मक्खियों के होने से गुड़ की मिठास में कोई इज़ाफा भी नहीं हो रहा है, पर गुड़ घिर गया है मक्खियों से, वो स्थिति नहीं आनी चाहिए।

हम सब वयस्क लोग हैं, हम सबको यह समझना होगा कि दुनिया से हमें सम्बन्ध कैसा रखना है। तुम्हारा जो सवाल है वह मूलतःसवाल यही है। जब तुम अकेलेपन की बात करते हो तो तुम पूछ यही रहे हो, ‘ये जो पूरी दुनिया है इस से हमारा सम्बन्ध कैसा हो?’ और मैं तुमसे कह रहा हूँ कि यदि सम्बन्ध इन दो प्रकार का है तो ठीक है। यदि यह सम्बन्ध है दुनिया से कि दुनिया से ही शरीर चलता है, तो बात ठीक है। यदि ये सम्बन्ध है दुनिया से कि यदि दुनिया है तभी तो प्रेम की सम्भावना है, तो बहुत ठीक है। पर जो तीसरे प्रकार का सम्बन्ध है कि भीड़ आ कर के हावी हो गयी है तुम पर, मक्खियाँ ही मक्खियाँ हैं, और तुम कहीं नज़र ही नहीं आते, वो ठीक नहीं है।

तो अकेलेपन से मेरा आशय क्या है समझ रहे हो ना? अपनी मर्ज़ी से, अपनी निजता में तुम अपनी मिठास किसी को बाँट दो वो अलग बात है, वो प्रेम का सम्बन्ध है। पर इतने भी जड़ न जो जाओ कि तुम्हारा बस ही नहीं चल रहा, कोई भी आकार तुम पर बैठ गया है और तुमको गन्दा कर रहा है और तुम्हारा बस ही नहीं चल रहा। वो नहीं होना चाहिए। अपनी इच्छा से तुम बाँटते फिरो, बहुत अच्छी बात है। जब मैं कहता हूँ कि झुण्ड में तुम्हारा विकास नहीं हो सकता, ईमानदारी से बताओ, तुम क्यों हो उस झुण्ड में? क्या प्रेम के कारण? पांच लोग चिपके हुए हैं एक दूसरे से, क्या इसलिए क्योंकि उनमें आपस में बड़ा प्रेम है? ऐसा तो नहीं है, बिल्कुल नहीं है। अगर ऐसा होता तो कोई दिक्कत नहीं थी, बिल्कुल कोई दिक्कत नहीं थी। आनंद जीवनभर बुद्ध के साथ रहा पर वहाँ गुड़ और मक्खीवाला सम्बन्ध नहीं था। हमेशा साथ रहा, जीवनभर, और अनगिनत किससे ऐसे होते हैं जिसमें कुछ लोग जीवन भर साथ रह जाते हैं। वो जीवनभर साथ रहना बहुत सुन्दर हो सकता है अगर उन दोनों की शुद्ध स्वेच्छा से निकल रहा है। पर अगर आदत से निकल रहा है, क्योंकि बचपन से ही हम झुण्ड में रहते आये हैं, तो फिर उसमें कुछ नहीं है। क्योंकि आदतों पर चलते रहकर के सिर्फ आदत ही बची रहती है।

जब मैं कहता हूँ झुण्ड में विकास नहीं हो सकता, विकास का अर्थ समझते हो? आदत का हटना ही विकास है। यूँ समझ लो कि विकारों का हटना ही विकास है। विकास का यह अर्थ नहीं होता कि तुमने कुछ और है जो पा लिया। विकास का इतना ही अर्थ होता है कि जो गन्दगी जमा है, जो आदतें इकट्ठा हैं, जिन ढर्रों पर चले आ रहे हो, उनसे मुक्त हो गए, उनको हटा दिया। झुण्ड हमारी आदत है। अकेलापन, और जब मैं ‘अकेलेपन’ शब्द का प्रयोग करता हूँ तो उस से डर मत जाना। ‘अकेलेपन’ का अर्थ सूनापन नहीं है, ‘अकेलेपन’ का अर्थ बंजर हो जाना नहीं है, ‘अकेलेपन’ का अर्थ है जगा हुआ होना है और जो आदमी जगा हुआ होता है सिर्फ वही दूसरों से भी उचित प्रकार से सम्बंधित होसकता है। झुण्ड में थोड़े ही सम्बन्ध होते हैं, झुण्ड का आपस में क्या सम्बन्ध है, कुछ भी नहीं।

जो व्यक्ति अकेला होना जानता है, वही दूसरों के साथ भी होना जानेगा, पर दूसरों के साथ होने में और दूसरों से बंधे होने में अंतर है। साथ होना सीखो! सिर्फ दो मुक्त व्यक्ति ही एक दूसरे के साथ हो सकते हैं। जेल में बंद दो कैदी यह दावा नहीं कर पाएँगे कि देखो हम दोनों एक ही कोठरी में बंद हैं तो इस कारण हम साथ हैं। क्या वो साथ हैं? ये मजबूरी है उनकी, वो बंधे हुए हैं। सिर्फ दो लोग जो पूर्णतया मुक्त हैं अपने आप में वही ये दावाकर सकते हैं कि हम साथ हैं। ‘ये विशुद्ध हमारी निजता है कि हम साथ हैं, हम चाहें तो अलग भी हो सकते हैं पर हमें साथ ही होना है, यह हमारी आदत नहीं है, यह हमारा प्रेम है’। अब तुम देखो कि तुम जब किसी भी किसी व्यक्ति के साथ होते हो या किसी विचार के साथ होते हो, तो उसमें समझ कितनी है और आदत कितनी है? जैसे हमें और प्रकार के नशे की लत लगती है ना, किसी को चार बार चाय पीने की लत है, तो क्या उसका अर्थ ये है कि उसे चाय से प्रेम हो गया है? वैसे ही ये एक आदत है कि तीन-चार लोगों से घिरे रहना है, लत लग गयी है। मैं इस लत से मुक्त होने की बात कर रहा हूँ। अकेलेपन से घबराने की ज़रूरत नहीं है, अकेलेपन का यह अर्थ नहीं है कि सब मुझे छोड़-छाड़ कर चले गए और मैं तनहा हो गया, और रो रहे हो माथा पकड़कर, कि अब जीवन में कुछ बचा नहीं। अकेलेपन का अर्थ है, *‘मैं हूँ! ‘*और ‘मैं’ माने एक होता है ना, मैं हूँ, तभी सम्भावना है कि दूसरों से भी बातचीत हो सकती है, कोई संवाद होसकता है, कोई समझदारी के दो-चार शब्द बोले जा सकते हैं, तुम हो ही नहीं। झुण्ड के कोई अक्ल नहीं होती ना, झुण्ड के कोई चेतना नहीं होती, तो वहाँ क्या बातचीत, क्या सम्बन्ध, क्या संवाद। अगर तुम झुण्ड हो तो मैं तुमसे बात कैसे करूँगा। बात भी मैं तब कर सकता हूँ यदि तुम, अकेले हो, झुण्ड की तोकोई चेतना नहीं होती।

तुम में से वही लोग मेरी बात समझ पा रहे होंगे जो मानसिक तौर पर अकेले हो पाए हैं। बहुत सारे अभी भी यहाँ ऐसे होंगे जिनके मन पर भीड़ बैठी हुई है। जिनके भी मन पर भीड़ बैठी हुई है, तो उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा है क्योंकि भीड़ कुछ नहीं समझ सकती। तुमको एक तरीका देता हूँ यह जांचने का कि *‘*तुम हो’ याभीड़ है। तुम जो भी कुछ अभी कर रहे हो, चाहे सोच रहे हो या कह रहे हो, तुम्हारी एक-एक गतिविधि बस अपने आप से यह पूछो कि क्या यह ऐसी ही रहती यदि यहाँ पर दूसरे मौजूद ना होते। यदि वो वैसी ही रहती तब तो समझना कि तुम हो अन्यथा भीड़ भर है। पक्का समझ लो। हम में से अधिकांश लोग, यदि यहाँ दूसरे न हों तो बदल जाएँगे। कुछ जो बोल रहे हैं, यदि वो अकेले हों तो उनकी बोलती बंद हो जाएगी, और कुछ जो अभी नहीं बोल रहे हैं, सवाल पूछना चाहते हैं पर पूछ नहीं रहे हैं, यदि वो यहाँ अकेले हों तो सवाल पूछ लेंगे। क्या ऐसा हमारी हर मुलाकात के बाद नहीं हुआ है कि बहुत सारे लोग इंतज़ार करते हैं कि जब भीड़ छंट जाए तो वह एकांत में आकार सवाल पूछेंगे। यदि भीड़ न होती तो वह पूछ लेते, वो अकेले नहीं हो पाए, भीड़ उन पर हावी रही, उनके मन में भीड़ समाई थी। इसी प्रकार कुछ लोग बोलते ही सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि यहाँ भीड़ मौजूद है, तो वो मुझसे नहीं बात कर रहे होते, वो भीड़ से बात कर रहे होते हैं। लगता ऐसा है कि बात उन्होंने मुझसे की है, पर उन्होंने मुझसे नहीं की है, वो तो उनके भीतर की भीड़ बाहर की भीड़ से बात कर रही है। वो हैं ही नहीं, वो मौजूद ही नहीं हैं। भीतर की भीड़, बाहर की भीड़ से बात कर रही है।

तो ईमानदारी से परखोअपने आपको, कि तुम बैठे हो या भीतर से एक झुण्ड बात कर रहा है। और उसका तरीका यही है कि पूछो अपने आप से कि क्या मैं ये अकेले होकर भी कर पाता, या अभी इसलिए कर पा रहा हूँ क्योंकि आसपास भीड़ है और मैं भीड़ में छुप सकता हूँ। जो ध्यान में है, वह निश्चित रूप से भीड़ में नहीं है, क्योंकि ध्यान भीड़ का नहीं होता, अपना होता है। उनको अंतर ही नहीं पड़ेगा कि यहाँ कितने बैठे हैं और कितने नहीं। और ये बड़ी खौफ़नाक बात है कि हम जिसको बोलते हैं कि हम कर रहे हैं वो पूरा का पूरा एक भीड़ का कृत्य होता है। कितना हावी हो जाती है ना भीड़, हमें पता भी नहीं चलता, हमसे क्या-क्या नहीं करवा ले जाती। बहुत सारे रियलिटी शो देखना, उसमें दो मिनट की प्रसिद्धि के लिए, कि भीड़ से तालियाँ मिल जाएँ , लोग आकर अपना बेवकूफ बनवा कर चले जाते हैं सिर्फ इसलिए ताकि भीड़ से थोड़ी मान्यता मिल जाए, भीड़ का अनुमोदन मिल जाए। उसके लिए वह कुछ भी करने को तयार हैं। आज तुम्हें बता दिया जाए कि नग्न होकर चौराहे पर नाचो तो दुनिया भर में हम उसे प्रचारित कर देंगे कि ये बड़े बहादुर आदमी हैं, तो बहुत सारे लोग हैं जो ऐसा कर जाएँगे। वो अन्यथा ये नहीं करते, पर क्योंकि भीड़ उनको वाहवाही देगी, भीड़ की नज़रों में उनको स्वीकृति मिलेगी, इसकारण वह कुछ भी ऊटपटांग करने को राज़ी हो जाएँगे, ऐसा जो वो अपने अकेलेपनमें कभी कर नहीं पाते, भीड़ की अनुपस्थिति में कभी कर नहीं पाते।

किसी ने कहा है कि व्यक्ति कभी पागल नहीं होता, व्यक्ति कभी हिंसक नहीं होता, भीड़ ही हिंसक होती है जब भी कभी किसी व्यक्ति को हिंसक देखना तो स्पष्ट समझ लेना कि उसके भीतर भीड़ घुस चुकी है। अकेला आदमी कभी आजतक पागल नहीं हुआ, पागलपन का अर्थ ही है कि तुम अकेले अब रहे नहीं, तुम्हारे भीतर भीड़ ने कब्ज़ा कर लिया है, यही पागलपन है। पागलपनके लिए जो शब्द है ‘विक्षिप्तता’, वह भी भीड़ की तरफ ही इशारा करता है। ‘विक्षेप’ मतलब ख़लल, तुम्हारी निजता में ख़लल पड़ा है, बाधा आई है, यही विक्षिप्तता है, यही पागलपन है।

अब उसमें गड़बड़ ये हो जाती है कि इतनी आदत लग गयी है बीमार रहने की, घिरे-घिरे रहने की, कि जब अकेलापन मिलता है तो वो बड़ा असहज सा लगता है। जैसे एक आदमीहमेशा बैसाखियों पर चलता रहा हो क्योंकि कभी लगी थी चोट, कभी दी गयी थीं बैसाखियाँ, और फिर बैसाखियाँ हटा दो तो उसे बड़ा अजीब सा लगे। वो कहे, ‘*नहीं नहीं,* *दोबारा चाहिए ,* *वापस चाहिए ।* वैसे ही हमें जब थोड़ा अकेलापन मिल जाता है तो हमें अजीब सा लगने लगता है, मन तुरंत कहता है कि मोबाइल फ़ोन लाओ, बात कर लें, या कोई पड़ोस में बैठा हैउसे देख लें, सिर्फ दूसरे को देखकर मन को आश्वासन मिलता है कि दूसरे हैं यहाँ पर। कहीं मैं अकेला तो नहीं हो गया? जो चीज़ उत्सव हो सकती है वो डरावनी लगने लगती है, कहीं मैं अकेला तो नहीं हो गया। उस से घबराओ मत, उससे डरो मत, पुरानी आदत है जिसके कारण डर लगता है और कोई बात नहीं है।

अभी मैं एक छोटा सा प्रयोग करूँ तुम्हें बात बड़ी साफ़ देखने को मिलेगी। जैसे बैठे हो, अगर एक-एक कुर्सी छोड़कर बैठो, तो तुम्हारा व्यवहार बदल जाएगा और यही थोड़ा और सटकर बैठो तो व्यवहार बदल जाएगा। अभी एक कॉन्फ़िगरेशन में बैठे हो और मैं कह दूँ कि दो लोगों के बीच में एक कुर्सी खाली होनी चाहिए, तो तुम पाओगे कि माहौल बदल गया, एकदम बदल गया, इतना असर होता है। मन माने भीड़, भीड़ कम हुई, मन साफ़ हुआ। और अभी यहाँ पर दो सौ, ढाई सौ लोग और आ जाएँ तो माहौल अचानक बदल जाएगा। इतना खतरनाक मामला है।

अच्छा चलो, अब तुम लोगों के सामने एक बात रख रहा हूँ। तुम जितना भी मूवमेंट करते हो ना, वो पूरा मूवमेंट दूसरों के लिए भी एक बाधा बनता है। तो ये मुड़-मुड़ कर इधर-उधर देखना, क्योंकि जब भी तुम ये करते हो, यह एक प्रकार का आक्रमण है दूसरे पर। वो चुप बैठा है, वो ध्यान में है, वो सुन रहा है और तुम हिल रहे हो तो तुम इस पूरे माहौल के लिए ठीक नहीं हो। क्या तुमने यह नहीं देखा है कि तुम यहाँ बैठे हो और दूर से भी अगर कोई तुमको देख रहा हो, तो पता चल जाता है कि कोई देख रहा है। क्या ऐसा होता है या नहीं? कई बार तो यहाँ तक भी होता है कि पीछे कोई है और वो तुमको वहाँ से लगातार घूर रहा है तो तुमको पता चल जाता है, तुम पलटकर देखते हो और पता चल जाता है कि वह तुम्हें ही देख रहा था। ये आक्रमण मत करो। ‘लुच्चा’ शब्द सुना है? ‘लुच्चा’ शब्द का अर्थ जानते हो क्या होता है? आँख के पर्यायवाची क्या हैं? नयन, लोचन। जो आँखों से अकर्मण करे, जो लोचन से आक्रमण करे वही लुच्चा कहलाता है। घूरने की प्रवृति को ही लुच्चई कहते हैं।

भीड़ एक आक्रमण है। साथ एक आक्रमण है, अगर उसमें प्रेम नहीं है।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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