प्रश्नकर्ता: मैं अपने परिवार की एक स्थिति में असमंजस में पड़ा हुआ हूँ। मेरे भाई एक लड़की से प्रेम करते हैं जो दूसरी जाति की है। इसी कारण मेरे घरवाले इस रिश्ते से काफी अप्रसन्न हैं। भाई बोलता है कि माँ-पापा को समझाओं और मेरी मदद करो और माँ-पापा कहते हैं कि भाई को समझाओ। इसी ओर मेरा नया व्यवसाय है जिसे बढ़ाने के लिए मुझे काफ़ी समय लग जाता है। इन्हीं तीनों के बीच मैं अपने-आपको फँसा पाता हूँ। आचार्य जी, दोनों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मैं अपने व्यवसाय को कैसे आगे बढाऊँ?
आचार्य प्रशांत: देखो भई! तुम्हारी बातों से तो लग रहा है कि मेट्रिमोनि (विवाह-संस्कार) का व्यवसाय है। अगर सही धंधा चुना है करने के लिए, तो तुम्हारे पास ये भाभीजी वाले खेलों के लिए समय कहाँ से बचता है? फिर तो तुमने जो व्यवसाय उठाया है वो भी कुछ औना-पौना ही होगा। आंत्रप्रेन्योर (उद्यमी) शब्द का इस्तेमाल हुआ अभी तुम्हारे लिए। निर्माता होता है, रचयिता होता है, उसकी तो सारी ऊर्जा अपने सृजन में, अपने निर्माण में जाती है। वो जीवन की बिलकुल नई प्रतिमा का शिल्पकार होता है।
आदमी का काम ही आदमी का जीवन है। पशु और मनुष्य में अंतर बस इतना ही है कि पशु के पास करने के लिए कोई सार्थक काम हो ही नहीं सकता, और मनुष्य मनुष्य नहीं है जब तक उसके पास करने के लिए कोई सार्थक काम नहीं। मनुष्यत्व की पहचान ही है कि तुम अपनी ज़िंदगी का सारा समय एक अति-सार्थक काम में दे रहे होओगे, जो तुम्हें मुक्ति और दुनिया को कल्याण देता होगा। अब अगर ऐसा कोई काम मिल गया है तुम्हें तो तुम कहाँ ये सब पचड़ों में उलझे हुए हो — माँ-पापा, भईया की दुल्हनिया, सगाई-विदाई।
टीवी ज़्यादा देखते हो? क्यों ज़िंदगी ख़राब कर रहे हो? भाई की आशिक़ी में दम होगा तो संभाल लेगा। या तुम्हारे भरोसे चलेगी उसकी गृहस्थी? रोमियो का नाम सुना है, रोमियो के भईये का नाम किसको पता है? कि रोमियो बेचारा बड़ा परेशान हो रहा था, तो भईये के पास गया — तू जुगाड़ लगा दे। हीर को जानते हैं, हीर की बहनिया भी होती है कि वो साथ-साथ लगी है? हीर की तो बहनिया नहीं होती, लेकिन दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे में ज़रूर बहनिया थी। वहीं से इंस्पायर्ड (प्रेरित) लगते हो।
ये नितांत निजी मसले होते हैं। इसमें तुम कहाँ बीच में घुस गए। घुसना तो माता-पिता को भी नहीं चाहिए, पर अगर वो घुस रहे हैं तो भई उनकी बात। वो मेरे सामने नहीं बैठे हैं। वो यहाँ बैठे होते तो दो बातें उनसे भी कह देता। पर तुम बैठे हो तो तुमसे कहे दे रहा हूँ — 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।'
दुनिया का हाल देख रहे हो, अर्थव्यवस्था का हाल देख रहे हो, इस माहौल में तुमने कोई नया कारोबार शुरू किया है। उसकी ओर से ध्यान हटा कर के तुम इस तरीके के सवाल पूछ रहे हो, क्या चाहते हो?
दुनियाभर की, और ख़ासतौर में भारत देश की दो-तिहाई ऊर्जा तो इसी में बीतती है — शहनाई-रूलाई-विदाई, जीवन में और कोई काम ही नहीं है। यही लड़की-लड़के का खेल, आदमी-औरत का चक्कर, दिनभर दिमाग में यही चल रहा है। काम-धंधा छोड़ कर इसी में मशरूफ हैं, परेशान हैं। अब कहाँ से आध्यात्मिक तरक्की हो, कहाँ से आर्थिक तरक्की हो!
(श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) यहाँ बहुत लोग बैठे हैं जो पहले से मिले हुए हैं मुझसे, वो बिलकुल समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूँ। ये सब चक्कर ऐसे होते हैं जैसे किसी मैराथन धावक ने अपनी कलाई की नस काट रखी हो और सोच रहा हो कि मैराथन पूरी कर लेगा। तुम्हारा खून तो सारा बहा जा रहा है तुम जीवन की मैराथन पूरी कैसे करोगे? यही सब चिविल्लापन — कोई रूठ गया, कोई मान नहीं रहा है, रिश्ते में एक को मनाते हैं तो दूसरा ख़फा हो जाता है। पहले ये कि लड़की, माँ-पापा और फिर कुछ-न-कुछ करके एक लड़की से ना सही तो दूसरी लड़की से हो जाएगी। लड़की है तो उसे भी कोई लड़का मिल ही जाना है। वो अध्याय खत्म हुआ किसी तरह तो फिर बच्चों का चिविल्लापन।
इन सब चक्करों में तुम्हें पता भी चलता है कि तुम्हारी उम्र कब बीत जाती है? या इरादा ही यही है कि किसी तरह उम्र बीत जाए बस, ज़िंदगी रूपी बला टले?
और किसी क्षेत्र में हम आम लोग प्रवीण हों या ना हों, ये रिश्तेदारी के पचड़ों के बड़े विशेषज्ञ होते हैं। घण्टो-घण्टो इस तरह के मुद्दों पर विवेचना बघार सकते हैं। उसके घर में ऐसा चल रहा है, फिर उसने ये किया, फिर उसने वो किया, फिर उसकी जो सिस्टर (बहन) है न वो मेरे चचिया- कजिन (चचेरी बहन) की बैचमैट (सहकक्षी) की फ्रेंड (दोस्त) है। और फिर ये और फिर वो और फिर दुनियाभर की दलदल।
बच्चे होते हो, तब ना ऊर्जा होती है ना अक्ल होती है और बड़े होते हो, जैसे ही थोड़ी समझ बढ़ती है, ताक़त बढ़ती है, अक्ल बढ़ती है तब तक इन मुद्दों में उलझ जाते हो, ज़िंदगी यही करते बीत जाती है।
जो भी लोग यहाँ बैठे हों जिन्हें जीवन में कोई ढंग का काम करना हो उनको मेरी सलाह है कि कई मोर्चे एकसाथ मत खोलिएगा। जीवन के पौधे को जिस पाइप से सींचना हो उसमें अगर पचास छेद हों तो पौधा मर जाएगा। हमारी ऊर्जा, हमारा समय ये सब पचास जगहों से रिसते हैं। हमें नहीं पता चल पाता भई। पंद्रह-पंद्रह, बीस-बीस मिनट करके रिसते हैं। और जब ये रिस रहे होते हैं उस वक़्त यही लग रहा होता है कि, "ये अभी जो बातचीत चल रही है यही बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ है।" और आपको नहीं पता चलेगा कि उस बातचीत को निपटाने में कब दोपहर के एक से ढाई बज गए। वो डेढ़ घण्टा लौट कर आएगा? (ज़ोर देते हुए) वो डेढ़ घण्टा लौट कर आएगा?
कई मोर्चे मत खोलिए। जो जंग जीतने के इच्छुक हों उन्हें अपनी सारी ताक़त एक मोर्चे पर झोंक देनी चाहिए। जंग हारने का इससे ज़्यादा कारगर दूसरा तरीका नहीं है कि सत्तर मोर्चों पर एकसाथ लड़ो। हो सकता है वो सत्तर मोर्चे छोटे-छोटे हों कि बीस मिनट अंटू ले गया, चालीस मिनट बंटू ले गया, एक घण्टा अंटू की सहेली ले गई, नहीं पता चलेगा। माया एक चोट नहीं मारती है वो दिनभर तुम्हें चूसती है और दुश्मन बनकर नहीं आती, प्राण-प्यारी बनकर आती है, समझ लो।
किसी दुश्मन के घर में यह सब शादी-ब्याह का बवाल चल रहा हो तो थोड़े ही तुम्हारा समय बर्बाद होगा या होगा? किसी दुश्मन के घर में या किसी अपरिचित के घर में ये सब काण्ड चल रहे हो तो तुम्हारा कोई नुक़सान होता है? ये सारा नुकसान अपने ही करते हैैं। वहीं सतर्क रहना है। पर ये सब जब होने लगता है तो हमारी कर्तव्य-भावना जागृत हो जाती है। हम अचानक बड़े ज़िम्मेदार आदमी हो जाते हैं। देखा हुआ है मैंने, यहाँ तक होता है कि जवान लोग हैं किसी परीक्षा वगैरह की तैयारी कर रहे हैं, प्रतियोगी परीक्षा नौकरी वगैरह के लिए, और उन्हीं दिनों घर में बहन की शादी का मुहूर्त निकाल दिया गया। माँ-बाप भी ज़बरदस्त होते हैं।
लड़के के मेन्स का एग्जाम (परीक्षा) है उससे वो एक महीना पहले बिटिया का मुहुर्त निकाल देते हैं। और फिर तो भाई में अदम्य भातृत्व जग उठा, उसने कहा, "अरे ये नौकरियों का क्या है ये आती-जाती रहती हैं। मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया। ये तो जीवन में एक बार की बात है।" वो स्कूटर लेकर के कभी शामियाने वाले के यहाँ दौड़ रहा है, कभी फूफे को मनाने दौड़ रहा है कि तुम भी आ जाना। कभी बारातियों की बस का इंतज़ाम कर रहा है। और ये सब करते हुए उसके भीतर बड़ी ठसक है। उसको लग रहा है, "मुझे देखो मैं कितना ज़िम्मेदार आदमी हूँ। और ज़िम्मेदार आदमी ही नहीं हूँ मैं बड़ा बलिदानी आदमी हूँ। मैंने कुर्बानी दे दी बहन की खातिर अपनी परीक्षा की, मेरे जैसा कोई होगा भी भाई!"
देवियाँ होती हैं, किसी तरह उनको कैरियर मिल गया होता है। दो साल, चार साल नौकरी में लगाकर के वो कैरियर में अपनी जड़ें जमा रही होती हैं। अपने आर्गेनाइज़ेशन में, अपनी संस्था में वो ज़िम्मेदार और सम्माननीय पदों पर पहुँच रही होती हैं। पतिदेव को खुजली मचती है, वो उन्हें गर्भ का तोहफा दे देते हैं। कहते हैं, "ये देखो बैबी मैं तुम्हारे लिए क्या लाया! *प्रेगोन्यूज*।" अब कैरियर गया भाड़ में! भीतर की पुरातन भारतीयता जागृत हो जाती है कि, "कैरियर वगैरह तो सब रुपए-पैसे की बात है, अब तो मैं माँ बनूँगी।" बन लो।
और मैं ये सब कह रहा हूँ, मुझे मालूम है आप लोग भी और जो लोग ऑनलाइन इत्यादि सुन रहे हैं, उनमें से कईयों को भी भावनात्मक तल पर ज़रा चोट लग रही होगी। लगती हो तो लगे। पर मेरे इस कथन से अगर दो-चार लोगों की भी ज़िंदगी बच सके तो मेरा कहना सार्थक हुआ।
मैं आमतौर पर अपने निजी जीवन से कुछ बातें खोलकर बताता नहीं। पर, बातचीत अभी जिस मुकाम पर पहुँची है उस पर याद आता है — मेरा आई.ए.एस. का इंटरव्यू (साक्षात्कार) था। मेरे ख्याल से दस मई को तय था। मेरे माता-पिता गए हुए थे मेरे ननिहाल की तरफ़, दूर है करीब आठ-सौ, हज़ार किलोमीटर। इंटरनेट का ज़माना नहीं था, ना एंड्रॉयड फ़ोन का। इंटरनेट के नाम पर ई-मेल चलती थी, याहू चैट चलता था बस इतना ही। सत्ताईस अप्रैल या तेईस अप्रैल को वो लोग निकले थे। और मेरे घर में ऐसी कोई प्रथा नहीं थी कि सदस्य सब एक-दूसरे से बहुत ज़्यादा बात करें, रोज़-रोज़ फ़ोन पर बतियाएँ। तो वो लोग चले गए।
दो हफ्ते बाद मेरा आई.ए.एस. का इंटरव्यू था। मैं इंटरव्यू देने ख़ुद ही गाड़ी उठाकर गया। शाहजहाँ रोड कमीशन की बिल्डिंग में पार्क करी, इंटरव्यू दिया वापस आ गया। जब वापस आता हूँ तो देखता हूँ मेरे माता-पिता खड़े हुए हैं ऊपर से लेकर नीचे तक पट्टियों से बंधा हुआ शरीर। माता जी का एक हाथ करीब-करीब पूरा निष्क्रिय हो चुका है, पिता जी के चेहरे पर इतनी चोट है कि चेहरा पहचाना नहीं जा रहा।
दो हफ्ते पहले ही उनका ज़बरदस्त रोड एक्सीडेंट (सड़क दुर्घटना) हुआ था जब वो घर से निकले थे। एक्सीडेंट (दुर्घटना) के बाद गाड़ी में आग भी लग गई थी। ड्राइवर की टाँग काटनी पड़ गई थी, इतनी बुरी तरह फँसा हुआ था वो गाड़ी में। दो हफ्ते तक ये लोग अस्पताल में पड़े रहे मुझे ख़बर नहीं होने दी। और ख़ासतौर पर पिताजी कुछ ज़्यादा घायल थे। बात कितनी भी दूर तक जा सकती थी। उन्होंने सूचना ही नहीं होने दी। बोले — जो होगा देखा जाएगा, उसका इंटरव्यू है उसको पता नहीं लगने देना है।
मुझे नहीं मालूम कि मुझे यहाँ तक पहुँचाने में मेरे माता-पिता का पॉज़ीटिव (सकारात्मक) योगदान कितना रहा है। लेकिन, इतना तो मेरे सभी समीपस्थ लोगों ने करा कि उन्होंने मेरे जीवन पर कभी किसी पचड़े की छाया नहीं पड़ने दी, बिलकुल अलग रखा इंसुलेटेड (पृथक)। जो कुछ भी चल रहा हो। कोर्ट केस चल रहा है, "कोई बात नहीं, तुम्हें क्या मतलब तुम पढ़ो, पूछ भी क्यों रहे हो? जाओ अपने कमरे में पढ़ो। रिश्तेदारी निभानी है हम जाएँगे हम निभा लेंगे तुम पूछ भी क्यों रहे हो? जाओ पढ़ो!"
बहुत आसान होता और बहुत सामान्य, बड़ी साधारण बात होती कि वो कम-से-कम ख़बर तो पहुँचा देते। पर खुद तो उन्होंने ख़बर नहीं ही पहुँचाई, जो लोग उनको उठाकर ले गए, अस्पताल में दाखिल किया, और जो सगे-सम्बन्धी फिर इकट्ठा हुए उन सबको भी उन्होंने सख़्त निर्देश दिए कि सूचना नहीं जाएगी और नहीं जाएगी तो नहीं जाएगी।
बच्चे को आगे बढ़ाने में आप कोई बड़ा योगदान दे पाएँ ना दे पाएँ; कोई बात नहीं। लेकिन, बच्चा हो कि पत्नी हो, कि पति हो, कि भाई-बहन हो कम-से-कम उनको घसीट-घसीट कर बेवकूफी की चीज़ों में तो ना शामिल किया करिए। "पापा की तबीयत ठीक नहीं रहती तू नौकरी छोड़ कर घर आ जा" — सब सुनी-सुनी बातें लग रही हैं न? आपके साथ हुआ हो तो हुआ हो, आप किसी के साथ ये सब मत करिएगा। "भाई की शादी है तू कम-से-कम दस दिन के लिए घर आ जा"; राम बचाए ऐसे परिवारजनों से।
जिनसे प्यार करते हैं उनको सही दिशा में आगे बढ़ाते हैं, उनकी जीवन ऊर्जा पी नहीं जाते हैं। ये नहीं कहते हैं कि "तेरा बहुत अच्छे कॉलेज में एडमिशन (प्रवेश) हुआ है बैंगलोर में, पर तू हमारी प्यारी नन्ही है, तू एक काम कर कस्बे के ही छज्जूलाल कॉलेज से इंजीनियरिंग कर ले। मेरी नन्ही मुझसे दूर रह कर पढ़ाई करे मुझसे बर्दाश्त ना होगा! घर में रहेगी, घर का खाएगी-पियेगी हल्दी उबटन होगा, हमारी नज़रों के सामने रहेगी, ज़माना बुरा है। और फिर छज्जूमल कॉलेज है, जानती नहीं छज्जूमल कौन थे? स्वतंत्रता सेनानी थे। तू बिटिया यहीं से पढ़ ले, बैंगलोर वगैरह छोड़।"
समझ रहे हैं बात को?
बिटिया खुद भी बोले कि, "नहीं पापा डर लगता है दूर जाकर पढ़ने में। मैं तो जीवन भर इस छोटे से कस्बे में ही रही हूँ", तो भी बिटिया की मत सुनिए। कान उमेठ कर धक्का दे कर घर से निकाल दीजिए। बोलिए, "जा तेरे लिए ज़िंदगी का नया सूरज उग रहा है, क्या करेगी यहाँ कस्बे के अंधेरे में बैठी रहकर? जा भाग यहाँ से, भाग!"
फिर कुछ याद आ गया — आठवीं में था तो जाने चिकनपॉक्स (चेचक) जाने मीज़ल (खसरा) क्या हुए थे। मेरी बहन जी कहीं से लेकर आईं थी छोटी, घर में सबको लगा दिया। पूरे शरीर पर और ऐनुअल इग्जाम वार्षिक-परीक्षा चल रही थीं। मेरी माँ ने मुझसे नहीं बोला कि, "छोड़ न क्वार्टरली (त्रैमासिक) भी टॉप किया था, हाफ ईयरली (अर्धवार्षिक) भी टॉप किया था, फाइनल (वार्षिक) नहीं भी देगा तो क्या हो जाएगा।" उसी शारीरिक हालत में जहाँ पूरे शरीर में कष्ट-ही-कष्ट है, जैसे सुईयाँ चुभ रही हों। मुझे तैयार करके स्कूल भेज दिया जाता था। फिर चेहरे पर बहुत दिखाई देने लगा, तो बहुत सारा टेलकम पाउडर ले कर मेरे चेहरे पर लगा देती थीं, कहती थीं, "जाओ। जाओ बस इतना करना किसी को छूना मत, एकदम अलग बैठना, खाना-पीना पानी कुछ मत करना, किसी को हाथ मत लगाना, चेहरे पर दाना हो तो उसे फोड़ना मत, उसको टेबल पर भी मत लगा देना। कुछ मत करना, बस जाओ लिख कर चुपचाप वापस आ जाओ।"
पता नहीं मेडिकल (चिकित्सा) दृष्टि से यह ठीक था कि नहीं था। हो सकता है किसी डॉक्टर को यह बात पता चले वो कहे — नहीं यह बिलकुल ठीक नहीं किया। खैर, पूरी परीक्षा दे डाली। अब ऐनुअल एग्जाम (वार्षिक परीक्षा) किन दिनों में होते हैं? तब अप्रैल में हुआ करते थे। आखिरी पेपर जिस दिन था उस दिन असेम्बली में खड़ा हुआ हूँ और अप्रैल, तो धूप बरसने लगी। तो पसीना-ही-पसीना, पसीना-ही-पसीना तो पाउडर सारा बहने लगा। जब पाउडर सारा बहने लगा तो सामने प्रिंसिपल (प्रधानाचार्य) खड़ीं थीं, उन्हें कुछ दिखने लगा। वो मुझे लेकर गईं अलग। बोलीं — ये क्या कर रहे हो, ये क्या कर डाला! मैं लगा रोने, मैंने कहा — सारे एग्जाम (परीक्षा) दे दिए, ये और दे लेने दीजिए। वो नहीं मानीं, घर वापस भेज दिया।
ये प्रेम कहलाता है — हम करेंगे क्या तुम्हारा शरीर बचाकर अगर तुम्हारे जीवन में रौशनी नहीं होगी, धार नहीं होगी। जिससे प्यार करते हैं उसकी जान की हिफाज़त बाद में की जाती है, उसके धर्म की हिफाज़त पहले की जाती है।
हम प्रेम के नाम पर कुछ और ही जानते हैं कि जिससे प्यार है उसको बिलकुल रज़ाई के नीचे घुसेड़ लो। और गुद्दू-दुद्दू मेरा चुन्नू, मेरा सुन्नू, नहीं नहीं नहीं तू तकलीफ़ ना कर सो जा, दुद्दु पियेगा — ये हमारा प्यार होता है। ना मैंने वैसा प्यार कभी पाया, ना माँगा, ना दे पाता हूँ। और अगर मुझे भी उसी तरह की परवरिश मिली होती तो आज आपके सामने मैं जिस मेडिकल (चिकित्सीय) हालत में हूँ, बैठकर के कोई बात नहीं कर पा रहा होता। मुझे बचपन से ही पता है कि शरीर की बहुत क़ीमत नहीं है; दर्द हो रहा हो, परेशानी हो रही हो, उठो और धर्म का पालन करो!
जीवन सुख पाने के लिए या रंगरेलियाँ मनाने के लिए, शादी-ब्याह उत्सव मनाने के लिए, बच्चे पैदा करके प्रसन्नता अर्जित करने के लिए नहीं है। इस धमा-चौकड़ी का नाम जीवन नहीं होता। ये सब काम तो पशु भी करते हैं। जीवन बिलकुल दूसरी चीज़ होता है।
उम्मीद करता हूँ कि तुमने अपने लिए कोई सार्थक व्यवसाय चुना है, अगर नहीं चुना तो चुनो और अपने-आपको उसमें आकंठ डुबो दो। और किसी चीज़ की सुध ही मत रखो। यही घर वालों के प्रति तुम्हारे प्रेम की भी अभिव्यक्ति होगी।
YouTube Link: https://youtu.be/oUM3OBcrasY