सारे शक़ और सवालों का समाधान || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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सारे शक़ और सवालों का समाधान || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: प्रश्न पूछना शुरू करने से पहले कुछ था जो मुझे रोक रहा था। पहला प्रश्न यह है कि वो क्या रोक रहा था मुझे बोलने से। मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि मैं खुश हूँ, सब ठीक चल रहा है, मैं सही तरीके से जी रहा हूँ, पर मैं जानना चाहता हूँ कि कैसा होता है एक आदर्श लड़का। क्या मैं विद्यालय में अलग, दोस्तों में अलग, घर में अलग तो नहीं हो जाता? मैं करना तो चाहता हूँ बहुत कुछ, पर क्या मैं उसके लायक हूँ? और जो भी हुआ है मेरे अतीत में, उसके कारण मैं क्यों डर रहा हूँ खुलने से, बोलने से, सबको सब कुछ बताने से? क्या मैं ही सब कुछ हूँ या मुझे किसी की ज़रुरत है?

वक्ता: सवाल यहाँ रुक नहीं गये। अभी और भी कहा जा सकता था। और समय मिलता तो अभी और लिख सकते थे। या नहीं? कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि ये सवाल किस बारे में हैं, किन शब्दों में व्यक्त किये जा रहे हैं, पढ़ाई के बारे में हैं, आदर्श बेटा होने के बारे में हैं, ‘कितना खुश हूँ?’, इस बारे में हैं, ‘आगे क्या करूँगा?’ इस बारे में हैं। फर्क नहीं पड़ता। इन सारे सवालों में एक चीज़ है जो लगातार बनी हुई है, उसको देखते हैं। हम जब कह भी रहे हैं कि खुश हूँ, हम जब कह भी रहे हैं कि संतुष्ट हूँ, तो भी कुछ पक्का नहीं है। बस इतना ही है कि कोई कारण नहीं पा रहे दुःख का, उदासी का, बोरियत का। कोई कारण नहीं दिख रहा, कोई वजह नहीं दिख रही। तो अपने आपको कहते हैं, “फिर ठीक है, शायद खुश ही होंगे”, पर पक्का कुछ नहीं है। एक शक बना हुआ और वही शक इतने सारे सवालों की शक्ल लेकर सामने आ रहा है। हमें कुछ भी पक्का नहीं है। हमें कुछ भी पक्का नहीं है। लगातार कुछ है जो मन में आवाज़ करता ही रहता है। एक संदेह बना रहता है।

जिन बातों के प्रति हम पूरी तरह आश्वस्त भी होते हैं, अगर कोई आकर पूरी कोशिश कर ले हमें हिलाने की, तो हम हिल जायेंगे। तुम्हें जिन धारणाओं पर पूरा-पूरा यकीन है, जो लक्षय तुमने पाने के लिये पूरी तरह निर्धारित कर लिए हैं, जिन बातों को हम जीवन का आधार ही कहते हैं, कोई आये और उन पर भी सवाल खड़ा करे, तो हम हिल जायेंगे। कुछ पक्का नहीं है। कुछ भी। हमसे कहा जाये कि एक-दो बातें तो बता दो जिसमें ज़रा भी संदेह न हो, हम नहीं बता पाएंगे। शक़ लगातार बना हुआ रहता है। तो इसलिए सवाल यहाँ रुक नहीं जाते क्योंकि जो कुछ भी बोलोगे वो शक़ के दायरे के भीतर ही है। तुम ऐसे कह लो कि हम जो भी कहेंगे, उसके आगे एक ‘शायद’ लगा सकते हैं।

‘मैं खुश हूँ, शायद। मैं यहाँ बैठा हुआ हूँ, शायद’। कोई आकर गहरे तर्क दे, तो मान भी जाओगे कि ‘मैं यहाँ हूँ ही नहीं’। ‘मुझे ऐसा-ऐसा करना है जीवन में, शायद। मुझे तुमसे प्यार है, शायद’। और बड़ी खौफनाक बात है ना? वहाँ भी ‘शायद’ बैठा हुआ है। गहरे से गहरे रिश्ते में भी शक़ बैठा हुआ है। ‘पता नहीं, पक्का नहीं है, कह नहीं सकता। लगता तो है, पर आश्वस्त नहीं हूँ’। वहीँ से ये सारी बातें निकल रही हैं। रुकेंगी नहीं। तुम जीवन में जिस भी चीज़ को छुओगे, पाओगे कि संदेह वहाँ पर पहले से ही बैठा हुआ है।

वो संदेह लगातार रहेगा। क्योंकि हम जिन माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं दुनिया को जानने के लिये, वो सारे माध्यम अपने आप में खुद ही पक्के नहीं हैं। जब माध्यम ही पक्का नहीं है, तो उस माध्यम से जो कुछ पता चल रहा है, जो जाना जा रहा है, वो पक्का कैसे हो सकता है? जो हमारे पास माध्यम हैं, उसके दो हिस्से हैं। ध्यान से समझना। दुनिया को जानने का या खुद को जानने का हमारे पास जो ज़रिया है, उसके दो हिस्से हैं।

पहला हिस्सा है, ये सब कुछ जो दिखाई पड़ता है, जो देख पाता है, जो सुन पाता है, जो छू पाता है। जिसको तुम कहते हो, ‘इन्द्रियां’। दूसरा हिस्सा है, मन। जो देखे को, सुने को, एक आकार देता है, उसको एक अर्थ देता है। जब ये ही पक्के नहीं हैं, तो संदेह का बने रहना बड़ी साधारण-सी बात है। कैसे नहीं पक्के हैं? जो भी तुम कहते हो कि ‘मैं देख रहा हूँ’, विज्ञान में ही अगर जाओ, तो वो सिर्फ कुछ तरंगें हैं जो आँखों पर गिर रही हैं। ठीक है ना? उनको ये अर्थ देना कि वो तरंगें कोई रूप लिये हुए हैं, और उस रूप का भी कोई महत्व है, ये सब अतीत का काम है। ये मन में बैठा हुआ है।

ऐसे समझो, अभी यहाँ पर एक जानवर मौजूद हो, जिसके मस्तिष्क का जो पूरा विन्यास है वो हमसे अलग है। तुम्हें क्या लगता है कि ये कमरा उसको वैसा ही दिखाई देगा जैसे तुम्हें दिखाई दे रहा है? उसे यहाँ कुछ और ही दिखेगा जो तुम्हें नहीं दिख रहा। मैं अभी बोल रहा हूँ, क्या उसे ये ऐसे ही सुनाई देगा जैसे तुम्हें सुनाई दे रहा है? नहीं। अगर कोई दूसरे ग्रह का जीव आ जाये यहाँ पर, तो ये भी सम्भव है के उसके लिये जो तुम कहते हो तीन आयामी स्थान, वो तीन आयामी हो ही ना। हो सकता है कि उसको ये दो आयामों में ही दिखाई दे, या उसके लिए कोई एक नया आयाम होता हो, जो तुम जानते ही नहीं।तुम जिसको दीवार कह रहे हो, उसके लिए वो दीवार होगी ही नहीं। वो इसके पार निकल जायेगा। वो उसे नहीं दिखेगी। उसे प्रतीत ही नहीं होगी, उसे छुएगी ही नहीं। तुम जिसको खाली जगह कह रहे हो, वो उसके लिए खाली जगह नहीं होगी।

बाहर की दुनिया तुम्हें जैसी दिखाई पड़ती है, इंद्रियों के माध्यम से, वो सिर्फ मस्तिष्क की एक ख़ास तरीके की कंडीशनिंग है। और ये बात गहरायी से तुमको कहीं न कहीं पता है। तुम जानते हो कि ये सच नहीं है। ये दिखाई तो पड़ता है, पर सिर्फ दिखाई पड़ता है, इसमें पूरी तरह से सच नहीं है। तो सबसे गहरे ताल पर जो एक संदेह बनता है, वो इस कारण बनता है। एक तरफ तो हम जानते हैं कि ये दुनिया है। दूसरी तरफ हमारे मन के भीतर कुछ ऐसा भी है जो जानता है कि जिसे हम दुनिया कह रहे हैं, वो सिर्फ आकर है, प्रतीति है। वो दिखती तो है, पर पूरी तरह है नहीं। हमने ये तो कहा कि अगर यहाँ कोई जानवर हो तो उसे सब अलग दिखाई देगा, हमने ये भी कहा कि कोई परग्रह जीव आये तो उसके लिए हो सकता है ये स्थान ही तीन आयामी न हो, इसी बात को ज़रा और अपने ऊपर लागू करो। तुम पाओगे कि तुम इस समय जो देख रहे हो, वो तुम्हारा पड़ोसी नहीं देख रहा। और तुम इस वक़्त जो सुन रहे हो, वो तुम्हारा पड़ोसी नहीं सुन रहा। तुम कहोगे कि ये कैसे हो सकता है। पर ठीक यही हो रहा है। जो तुम्हें दिखाई दे रहा है, वो तुम्हारे पड़ोसी को नहीं दिखाई दे सकता।

तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है, ये तुम्हारे मस्तिष्क पर निर्भर करता है। तुम्हें दिख भी अलग रहा है, तुम्हें सुन भी अलग रहा है। तो एक तरीके से ये समझ लो कि हम सब एक ही कक्ष में नहीं बैठे हैं। अगर यहाँ पर सौ लोग हैं, तो यहाँ पर सौ अलग-अलग कक्ष हैं। और तुम सब किसी एक व्यक्ति को नहीं सुन रहे हो। अगर यहाँ पर सौ लोग हैं, तो सौ अलग-अलग बातें सुनी जा रही हैं। तो फिर तुम्हें पक्का हो कैसे सकता है कि तुम जो सुन रहे हो वही सच है? जब हर कोई अलग-अलग सुन रहा है, तो तुम जो सुन रहे हो वही सच कैसे हो सकता है? तो एक शक़ तो बना रहना पक्का ही है, लाज़मी है। ये जो है, ये हमारी जैविक कंडीशनिंग है। ये तो मस्तिष्क का ऐसा आकार है, उसका विन्यास ही ऐसा है। ये उसे जन्म ने दिया है। वो जन्म से ही ऐसा है। जानवर जन्म से ही अलग है हमसे।

एक दूसरी चीज़ भी है जो सब देखे सुने को झूठा बनाती है। मैंने कहा कि एक दूसरी चीज़ है जो सब देखे सुने को झूठा बनाती है। अब जैसे ही मैंने कहा ‘चीज़’, तो यहाँ अगर सौ लोग हैं, तो सौ अलग-अलग मायने उनके मन में उभर आये। प्रयोग करना है तो अभी करके देख लो। ज़रा अपनी-अपनी किताब पर ‘चीज़’ बनाओ। मैंने कहा कि जो भी चीज़ है, उसके अलग अलग मायने हैं। अपनी-अपनी किताब पर वो चीज़ बनाओ। बना ली?अपने पड़ोसी से तुलना करो कि क्या बनाया है। क्या उसने वही बनाया जो तुमने बनाया?

सभी श्रोतागण(एक स्वर में): नहीं।

वक्ता: शब्द कितने कहे मैंने? एक। मैंने कहा ‘चीज़’, और अर्थ कितने हुए? कितने अर्थ हुए? जितने बैठे हो, उतने अर्थ। ये तो बड़ी गड़बड़ हो रही है। मैं तुमसे बात भी कैसे करूँ? मैं तुमसे कुछ कह रहा हूँ और देखो तुम उसके कितने अर्थ बना रहे हो अपने ही दिमाग में। ये बात बस मुझे ही नहीं, कहीं न कहीं तुम्हें भी पता है, और इसी कारण तुम्हारे मन में शक़ रहता है कि हमने जो सुना वो ठीक भी सुना क्या। मैं जो भी कह रहा हूँ, उसका अर्थ करने वाला कौन है? तुम। और तुम वही अर्थ करोगे जो तुम्हारे मन की सामग्री है। तुम कोई भी शब्द उठा लो। तुम क्या सोचते हो, तुम एक बात बोल रहे हो? नहीं, एक बात नहीं बोल रहे। अभी प्रयोग करके देख लो। तुम कोई शब्द उठा लो, तीन लोगों से कहो कि बताएँ क्या कहा। तीनों अलग-अलग बात बताएँगे। और तुम हैरान रह जाओगे। तुम कहोगे कि ये बड़ी गड़बड़ हो रही है। कहता हूँ बात एक, वो बन जाती है तीन। तीन नहीं, वो तीन हज़ार, तीन अरब बन जाती है। हम सब अपनी-अपनी दुनिया में रहते हैं क्योंकि हमारी दुनिया हमारा मन है। तो तुम्हें फ़िर पक्का कैसे हो कि मैं क्या कह रहा हूँ? तो शक बना हुआ है तो ठीक ही है, बनेगा ही।

तो पहली बात,तुम्हें जो दिख रहा है, वो है नहीं। दूसरी,जो तुम सुन रहे हो उसका तुम अपना एक विशिष्ट अर्थ करते हो। ऐसा अर्थ जो मैंने दिया नहीं। तो अब शक़ तो बना ही रहेगा न? मैं तुमसे कहूं कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। और मैं तुमसे पूछूँ कि इसका मतलब क्या है, फिर देखो कितने अलग-अलग मतलब निकलते हैं। फंस गए। अब तुम्हें कैसे पक्का हो कि कोई तुम्हें वास्तव में प्यार करता है या नहीं। तुमने तो समझ लिया कि वो मुझे प्यार करता है ,प्यार से उसका अर्थ ही कुछ और है। अब तुम फंस गए। और लोग ऐसे ही फंसे हुए हैं। इसने भी बोल दिया कि मैं प्रेम करता हूँ, दूसरे ने भी बोल दिया कि मैं प्रेम करती हूँ, इसको भी नहीं पता उसका अर्थ क्या था, और उसको भी नहीं पता कि उसका आशय क्या था। और दोनों सोचेंगे कि उसका अर्थ वही है जो हमने सोचा। और बाद में पता चलता है कि वो तो कुछ और ही कहना चाहता था। तब तक बड़ी देर हो जाती है। क्योंकि उसने कुछ और कहा था, जो तुम समझे ही नहीं। उसने कुछ और ही कहा था जो तुम जान ही नहीं पाये। अब शब्द चूँकि सीमित हैं, तो उन्हीं गिने-चुने शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पर बात फंस जाती है। मैं तुमसे कहूं, ‘खुश रहो, आगे बढ़ो’ और फिर देखो तुम कितने अर्थ निकालते हो आगे बढ़ने के और खुश रहने के। और ये सब जीवन के मूलभूत शब्द हैं- ख़ुशी, प्रेम, मौज, पैसा। और सबके अलग-अलग अर्थ हैं। तो तुम्हें कुछ भी पक्का होगा कैसे? अब तुम फंस गए।

जानने वालों ने इसलिए सब देखे सुने को मिथ्या कहा है। ये सब सुना होगा न? पुराने लोग बोलते हैं कि ये सब मोह-माया है, इस तरह कि बातें। और ये सब बातें सुनकर हमें बड़ी हंसी आती है। क्या ये फ़ालतू, मोह-माया बताते रहते हैं। उनका अर्थ यही है, कि जो तुम देखते हो, वो वास्तव में है नहीं, वो तुम्हारा प्रक्षेपण है। तुम्हारा अभी मस्तिष्क बदल जाये, तुम्हें जो दिख रहा है बदल जाएगा। तुम्हारी धारणाएं बदल दी जाएँ, तुम्हें जो सुनाई दे रहा है बदल जाएगा। बिल्कुल बदल जायेगा। तुम दुनिया को सहसा सिर्फ इसलिए देख पाते हो क्योंकि तुम्हारा एक मानव शरीर है, जिसमें एक मानव मस्तिष्क है। इसको पक्का समझो कि कीड़े-मकोड़े दुनिया को वैसा नहीं देखते जैसा कि तुम देखते हो।

तुमने कभी छोटे कीड़े देखे हैं, जो थोड़ी देर के लिये होते हैं, फिर मर जाते हैं? तुम्हें क्या लगता है, उन्हें भी यही लगता है कि उनका जीवन थोड़ी देर के लिये है? तुम उन्हें देखते हो कि ये तो कुछ घंटे जीता है फिर मर जाता है, उसके पैदा होने और मरने के बीच में बस कुछ घंटे का अंतराल है। तुम्हें लगेगा कि बस कितनी छोटी सी ज़िंदगी है इसकी। पर वो कीड़ा उस कुछ घंटो को कई शताब्दी बराबर मानता है। वो जो कीड़ा है, उसके लिये उसकी ज़िंदगी छोटी नहीं है। तुम्हारे लिए उसकी ज़िंदगी छोटी है, क्योंकि जिसे तुम समय बोलते हो, वो भी व्यक्ति-परक है। अलग-अलग प्राणियों के लिए समय अलग-अलग चलता है। तुम ये मत समझना कि एक घंटा बीता, तो तुम्हारे लिये और एक कुत्ते के लिये एक ही घंटा बीता। एक घंटा तुम्हारे लिये बीता। उसके लिये कहीं ज़्यादा बीत गया। उसकी तो कुल उम्र ही दस साल की होती है। उसके लिये एक घंटा, एक घंटा नहीं है, बहुत ज़्यादा है। उस कीड़े के लिए वो छः घंटे, छः घंटे नहीं थे, कहीं ज़्यादा थे। उसके लिये वो हज़ार बरस थे। उसमें वो पूरी ज़िंदगी जी लिया। उसकी जो पूरी मानसिक प्रक्रिया है, वो भी बहुत तेज़ है जितनी गतिविधियाँ तुम्हारे मन में एक सेकंड में होती हैं, उससे कई गुना उसके साथ हो रही हैं। तो वो कम ज़िंदगी नहीं जी रहा। अब तुम्हें पक्का कैसे हो कि वो कम जी रहा है, तुम ज़्यादा जी रहे हो? तुम्हें कुछ भी पक्का कैसे हो?

तुम जिसको दुनिया कहते हो, वो तुम्हारी रची हुई दुनिया है। तुम्हें ऐसा दिखाई देता है कि एक पत्थर मुर्दा है। कभी थोड़ा ध्यान करो कि पत्थर की दृष्टि में दुनिया कैसी है। तुम्हें लगता है न कि पत्थर मुर्दा है? क्या पत्थर को भी ऐसा लगता है कि वो मुर्दा है? और याद रखना,पत्थर वो है नहीं जो तुम्हें दिखता है। जो तुम्हें दिख रहा है, वो तुम्हारी आँखों से देखी हुई चीज़ है। ज़रा पत्थर से पूछो कि ज़िंदा कौन है। वो कहेगा कि मैं ज़िंदा हूँ और मैं अपने तरीके से ज़िंदा हूँ। एक ऐसे तरीके से ज़िंदा हूँ जिसको तुम समझ ही नहीं सकते। हाँ, तुम्हारी दुनिया में मैं पत्थर हूँ। पर मेरी दुनिया में तुम कोई और जीव हो। तो तुम्हें कुछ भी पक्का कैसे हो?

ये बात जो मैं तुमसे कह रहा हूँ, ये गहराई से तुम्हें भी पता है, तो इसलिए तुम हमेशा संदेह में रहते हो। तुम सारे कारण ढूँढ देते हो। तब भी एक संदेह कुलबुलाता रहता है। निन्यानवे प्रतिशत पक्का हो जाये, पर फिर भी कुछ बचा रह जाता है। वो यही है जो बचा रह जाता है। क्योंकि तुम जानते हो कि ये सब देखा-सुना, सब है तो झूठ ही। इसमें रखा क्या है? अब सवाल ये उठता है कि इसका मतलब क्या ये है कि हम ज़िंदगी भर ऐसे ही रहेंगे। फिर तो बहुत खौफनाक बात हो गयी, कि चल भी रहे हैं तो पता नहीं है कि चल भी रहे हैं या नहीं। ज़मीन पर पाँव रख रहे हैं तो पता नहीं कि ज़मीन है भी या नहीं। अपना भी पता नहीं कि हम हैं भी या नहीं।

यहाँ पर आकर पहेली सुलझना शुरू होती है। एक चीज़ है जिसका पक्का पता है, पक्का -पक्का पता है। वो है, ‘मैं हूँ’। उसके बारे में कोई शक़ होना नहीं चाहिये। या हो सकता है कि वहाँ भी शक़ है। देखो ये तो हो सकता है कि जैसे मुझे ये नहीं पक्का पता कि यहाँ पर कुर्सी है या नहीं, वैसे ही मुझे ये न पता हो कि हाथ हैं या नहीं, क्योंकि हाथ में और कुर्सी में कोई अंतर नहीं है मूलभूत रूप से। दोनों पदार्थ हैं जो आँखों को दिख रहे हैं। पर हाथ हो न हो, ‘मैं हूँ’। क्योंकि अगर ‘मैं’ न होता तो ये सवाल कौन पूछता? तो इस सवाल का पूछा जाना ही इस बात का प्रमाण है कि कुछ तो है। अगर मैं नहीं भी हूँ, तो ये भी कौन जान रहा है? तो कोई जानने वाला होना चाहिये कि ‘मैं नहीं हूँ’। तो ये पक्का हो गया कि कुछ तो है। उसको ‘मैं’ का नाम दे लो या कोई भी और नाम दे लो। नाम से क्या अंतर पड़ता है? पर ये पक्का है कि कुछ है। कुछ है, वो संदेह के घेरे से बाहर है। उस कुछ में, जितना ज़्यादा जाओगे, ज़िन्दगी उतनी ज़्यादा निश्चिन्त होती जायेगी। उतने पक्के होते जाओगे, उतने संदेह-मुक्त होते जाओगे। और जितना ज़्यादा उसमें रहे आओगे जो सिर्फ दिखाई पड़ता है, उतना शक़ में रहोगे, उतनी ज़्यादा चिंता में रहोगे।

दिमाग हमेशा लगा रहेगा कि कुछ गड़बड़ ज़रूर है। गड़बड़ क्या है ये नहीं समझ में आ रही। तुमने देखा नहीं है लोगों को? दाल में कुछ काला है। अब क्या काला है, ये पकड़ में नहीं आ रहा है, ज़िन्दगी भर पकड़ में नहीं आएगा। क्योंकि तुम जिस दाल को देख रहे हो, वो दाल है ही नहीं। तो काला कैसे पकड़ में आएगा? हमारी पूरी ज़िन्दगी, इसी शक़ को पूरा करने में बीत जाती है। लोग बोलते हैं, “मैं महान हूँ”, पर उन्हें पक्का नहीं होता कि वो महान हैं। उन्हें अभी भी ज़रुरत होती है सिद्ध करने की कि वो महान हैं। और रेस चलती रहती है। रेस सिर्फ इसलिए चलती रहती है क्योंकि शक़ बाकि है। जहाँ शक़ ख़त्म हो गया ,वहाँ दौड़ ख़त्म हो गयी। वहाँ तुम ठहर जाओगे। कहोगे, ‘समझ गया, पक्का है’।

लोगों को कभी, कुछ भी पक्का नहीं होता। तुमने किया होगा किसी से बड़ी गहराई से प्यार, पर लाख में कोई एक ही आदमी होगा जो माने। अगर उसको दस तरीके के सबूत लाकर दिखाए जाएँ कि जिससे तुम प्यार करते हो वो ऐसा है, वैसा है, उसके मन में तुम्हारे लिए कोई कद्र नहीं, तुम हज़ार दावे कर लो कि तुम प्रेम करते हो, पर शक़ बचा ही रहता है। और कोई बस मिलना चाहिए उस शक़ को हवा देने वाला, वो शक़ इतना बड़ा हो जाएगा, और तुम उस शक में हत्या भी कर लोगे। असल में ये जो दावेदार होते हैं, प्यार करने वाले, यही हत्याएं ज़्यादा करते हैं। तुम देखोगे कि तुम्हारी जिस बात की दावेदारी होती है कि मुझे ये बात पक्की है, उसी पर जब चोट लगती है तो तुम सबसे ज़्यादा तिलमिला जाते हो। तुम अगर कहते हो, ‘मैं बहुत होशियार हूँ’, अगर यही तुम्हारी पहचान है, और कोई तुमसे आकर बोले, ‘तू बड़ा नासमझ है’, मज़ाक में ही सही, तो वो जितनी बार भी बोलेगा, तुम तिलमिला उठोगे। क्योंकि तुमने अपने मन में अपनी छवि ही यही बनाई है कि तुम बहुत होशियार हो। अब सवाल ये उठता है कि अगर उसे पक्का पता होता कि वो होशियार है, तो क्या वो तिलमिला सकता था? क्या वो तिलमिला सकता था? क्या नाम है तुम्हारा?

श्रोता १: सागर गोस्वामी।

वक्ता: सागर। मैं सागर को बार-बार सरिता बोलूं, तो सागर तिलमिला सकता है क्या? मेरे ऊपर हंस ज़रूर देगा। कम से कम कुछ देर तक तो नहीं तिलमिलाएगा। हाँ ये ज़रूर है कि हम सब मिलकर इसे सरिता बोलना शुरू कर दें, और पूरी दुनिया ही सरिता बोले, तो थोड़ी देर में इसको भी शक़ हो जायेगा कि क्या पता पूरी दुनिया बोल रही है तो सच ही होगा। इतनी बड़ी भीड़ झूठ तो नहीं कह सकती। लेकिन अगर इसको पक्का है कि ये सागर है, तो मैं इसे सरिता बोलूंगा भी, तो ये मुझे बेवकूफ ही समझेगा, खुद नहीं तिलमिलाएगा। अगर सागर को सरिता बोलने पर सागर तिलमिला उठे, तो ये प्रमाण है इस बात का कि उसे अपने सागर होने में संदेह है। ठीक बात?

और हम तिलमिला उठते हैं। हम जो अपने बारे में दावा करते हैं, उसी में सबसे ज़्यादा तिलमिलाते हैं। ज़िन्दगी ऐसी ही बीत रही है। लगातार कुछ अनुपस्थित है। और वो तब तक रहेगा जब तक उसको नहीं पाते, जिसके बारे में कभी कोई संदेह हो ही नहीं सकता। जो लगातार है। जो संदेह से आगे की बात है।

जब तक उस तक नहीं पहुँचते जिसके आधार से ये सब दिखता है, पर जो खुद नहीं दिखता, जिसके कारण से ये सब दिखता है, जिसके होने से सबका वजूद है, पर जिसका वजूद नज़र नहीं आता अलग से, जब तक उसको नहीं पा लेते, तब तक भटकते ही रहोगे, तब तक तिलमिलाते ही रहोगे, तब तक दिमाग में भन-भन चलती ही रहेगी।

लोग इसी भन-भन के साथ जीते हैं और मर भी जाते हैं। और उन्हें समझ में नहीं आता कि ज़िन्दगी व्यर्थ गयी क्यों। कभी उन्हें पक्का नहीं होने पाता। पर बात होती बहुत छोटी सी है। उन्होंने उसको नहीं जाना होता है, जो वास्तविक है। वो लगातार उसी में जिये जा रहे होते हैं, जो भासता है, जो दिखता है, जो बाहर से आता हुआ प्रतीत होता है। शब्द, दृश्य, धारणाएं, परम्पराएं, रीति-रिवाज़, ढर्रे, कहानियाँ, जितना इसमें जियोगे उतना परेशान रहोगे।

मैं इस बात को तुम्हारे सामने एक चुनौती की तरह रख रहा हूँ। क्या उसको पा सकते हो, क्या उसको जान सकते हो जिसके बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता? वो जो स्रोत है, जहाँ से सब कुछ निकलता है, और जो निःसंदेह है, क्या उसके संपर्क में आ सकते हो? हमने कहा था कि इसके बारे में कोई शक़ नहीं हो सकता कि ‘मैं हूँ’। और वो जो ‘मैं’ है, वो याद रखना वो तुम्हारा हाथ,पांव, शरीर नहीं हो सकता। क्योंकि अगर ये सब है, तो फिर पक्का है कि वो कुर्सी भी है। इसमें और कुर्सी में क्या अंतर? दोनों ही पदार्थ हैं। ये किसी और ‘मैं’ की बात हो रही है। क्या उस ‘मैं’ को जान सकते हो?

जिसने उसको जाना, वो निश्चिन्त हो गया। निश्चिन्त समझते हो न? चिंता के पार। चिंतन के पार। उसे अब किसी की ज़रुरत ही नहीं, वो मौज में आ गया। उसने कहा कि बात समझ में आ गयी, अब क्या सोचना। कुछ सोचने को है ही नहीं। मामला साफ़। वो आदमी वास्तव में जीता है। उसके जीने का अंदाज़ ही निराला होता है। वो दबा सहमा नहीं होता, उसमें डर नहीं होता। वो बात-बात पर ठिठकता नहीं है। वो थोड़ा-सा नशे में लगता है। बड़ी मौज का नशा। वैसा वाला नशा नहीं कि बेहोश होकर लेट गए। ये एक दूसरा नशा होता है। और दुनिया उसको देखती है तो बड़ी परेशान हो जाती है कि ये आदमी इतना खुश किस बात पर है। किस बात पर उसको इतनी मौज आ रही है, वो ही जानता है। जैसे मुँह में छोटा-सा रसगुल्ला दबा हुआ है, और किसी को पता भी नहीं है। और धीरे-धीरे उसकी मौज हम ले रहे हैं। बात करते जा रहे हैं और चलते, फिरते, उठते, बैठते रसगुल्ला है। लगातार बना हुआ है। वैसे ही मन में एक बात है जो हमेशा पक्की है। ये सब कुछ जो अनिश्चित है, इसके बीच में कुछ है जो बिल्कुल निश्चित है। वहाँ लेश मात्र भी शक़ नहीं। और बड़ा मज़ा आ रहा है कि सब ठीक है।

जो एक चीज़ सच्ची हो सकती थी, उसको मैंने जान लिया। जान क्या लिया, पा ही लिया। पा क्या लिया, हो ही गया। अब हमें कौन डराएगा? हमें अब कौन परेशान करेगा? हमें अब क्या दौड़-धूप करनी है? हमें किस बात की फ़िक्र है? हम तो पूरे तरीके से बेपरवाह हो गए। और बड़ा प्यारा शब्द है, ‘बेपरवाह’। मैं लापरवाह नहीं कह रहा। बेपरवाह, लापरवाही नहीं है। मौज है। चेहरा भारी-भारी सा नहीं है कि सारी दुनिया का बोझ हम ही उठाते हैं। कंधे झुके-झुके नहीं हैं, कि पहाड़ लेकर चल रहे हैं पीठ पर, बड़ी जिम्मेदारियां हैं, बड़ा काम करना है, बड़ी दूरी तय करनी है, बड़े कर्त्तव्य निभाने हैं।एक आज़द पंछी। जैसा मैंने कहा था कि तुम्हारे सामने मैं इसको एक चुनौती की तरह रख रहा हूँ। जो भ्रम है, जो सही में है ही नहीं, क्या सिर्फ उसी में डूबते उतरते रहना है? क्या उसी से कुश्ती करते रहनी है? क्या उसी में उलझे रहना है, या आगे जाना है? ये एक चुनौती है।

सभी श्रोतागण( एक स्वर में): आगे जाना है।

वक्ता: आगे जाना है? और अगर मैं कहूं कि आगे जाने की ज़रुरत ही नहीं है? यहीं पर है। कोई ज़रुरत ही नहीं आगे जाने की। यहीं पर उपलब्ध है।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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