आचार्य प्रशांत: जब अन्धेरा नहीं रहता, जब बोध का प्रकाश जाग्रत हो जाता है, उद्बोध हो जाता है, तब न दिन रहता है, न रात रहती है, न सत्य रहता है, न असत्य रहता है, न सर्दी रहती है, न गरमी रहती है, न सुख रहता है, न दुख रहता है। माने क्या नहीं रहता है? अरे! ये संसार ही नहीं रहता। वो अहम् नहीं रहता है जो सब तरह के द्वैतों में पनाह खोजता था।
कभी वो कहता था, ‘रात! ठंड बहुत है, दिन हो जाए धूप निकलेगी, आहाहा! धूप सेकेंगे, बड़ा मज़ा आएगा। कभी क्या बोलता था? ये दिन ही बड़ा गड़बड़ है, कितनी ज़्यादा गरमी है, और दिन बहुत खराब जा रहा है। जल्दी से ये दिन बीत जाए, रात हो जाए सोने को मिलेगा।’ वो जहाँ होता है, उससे विपरीत में हमेशा आशा देखता है, उससे विपरीत में हमेशा भागना चाहता है। लेकिन जो बात को समझ गया, जिसने सच्चाई देख ली, अब उसे किसी विपरीत में जाने में क्या रूचि होगी?
तो ऐसा नहीं है कि रात होनी बन्द हो जाती है, दिन होना बन्द हो जाता है, सर्दी होनी या गरमी होनी बन्द हो जाती है, ये सब होते रहते हैं। ये होते रहते हैं, इनसे जुड़ी उम्मीद नहीं होती है। बात समझिएगा।
हम चीज़ों की बात नहीं कर रहे हैं हम चीज़ों से जुड़े जो अर्थ हम पकड़ते हैं हम उनकी बात कर रहे हैं। क्योंकि चीज़ें तो वैसे भी कुछ होती ही नहीं हैं। आप एक खम्भा नहीं देखते हो, आप खम्भे से जुड़ा जो आपने अर्थ है उसको देखते हो। लेकिन हम ये नहीं लगता, हमें लगता है हम खम्भा देख रहे हैं, आप खम्भा नहीं देख रहे हैं। आप खम्भे की अपनी परिभाषा को देख रहे हैं। आपने खम्भे के साथ जो अर्थ, जो छवियाँ, जो प्रतीक जोड़ रखे हैं आप उनको देखते हो।
तो एक बार आप अहम् से मुक्त हो गये उसके बाद जिन स्वार्थों के चलते, स्वार्थ में ही अर्थ निहित है न? अर्थ। जिन स्वार्थों के चलते आप खम्भे को देखते रहते थे वो स्वार्थ भी गये क्योंकि अहम् को ही स्वार्थ होता है और वो जो खम्भा है वो अर्थों के अतिरिक्त कुछ था ही नहीं तो अगर अर्थ सारे चले गये तो? तो? खम्भा भी चला गया न। वैसे ही दिन और रात क्या हैं? वो अपनेआप में घटने वाली कोई बाहरी घटनाएँ नहीं हैं।
ये वेदान्त का मूल सिद्धान्त है, इसको समझिएगा। वस्तुएँ होती ही नहीं हैं। कुछ भी ऑब्जेक्टिव (वस्तुगत) होता ही नहीं है। जो कुछ है वो पूरे तरीके से सब्जेक्टिव (विषयगत) है। विषय जो है वो विषेयता का ही प्रतिबिम्ब है, प्रतिध्वनि है। समझ में आ रही है बात?
एब्सोल्यूट सब्जेक्टिविटी , आप-ही-आप हो। और जो आप समझते हो कि आप नहीं हो, वो आपकी छाया है। तो वो भी आप ही हो। सिर्फ़ आप हो और जो आपको लगता है कि आपसे भिन्न है, वो वास्तव में आपसे भिन्न नहीं है, आपकी अनुगूँज है, आपकी छाया है। तो वो भी आप ही हो। तो ये जो दिन और रात हैं, ये बाहर घटने वाली कोई घटनाएँ नहीं हैं। क्योंकि घटनाओं से हमें वैसे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हमें तो फ़र्क पड़ता है उन अर्थों से जो घटनाओं में हम भर देते हैं। नहीं समझे?
‘रमेश नहीं रहा! रमेश नहीं रहा।’ कोई फ़र्क पड़ा? कोई फ़र्क पड़ा? उस घटना से कोई फ़र्क पड़ा क्या? फ़र्क पड़ा? फ़र्क पड़ा? फ़र्क पड़ा? रमेश तुम्हारा सबसे अच्छा दोस्त था। फ़र्क पड़ा? फ़र्क पड़ा। तो घटना अर्थ देती है? घटना से फ़र्क पड़ता है? या घटना से तुम्हारा जो रिश्ता होता है, घटना में तुमने जो अर्थ भरा है उससे फ़र्क पड़ता है बोलो? समझ रहे हो बात को?
घटना अपनेआप में अगर कोई, कोई, कोई अर्थ रखती तो उस घटना से सबको बराबर का फ़र्क पड़ना चाहिए था न? घटना अगर कोई अर्थ रखती अपनेआप में, तो उससे सबको बराबर का फ़र्क पड़ना चाहिए था न ? सुबह होने वाली है, एक आदमी बिलकुल उत्कंठा से इंतज़ार कर रहा है और बाकी दुनिया सोयी पड़ी है। क्या सबके लिए एक ही सुबह होने वाली है? नहीं, बिलकुल भी नहीं। तो कुछ के लिए वो सुबह बहुत ख़ास है और कुछ को कोई अन्तर ही नहीं पड़ेगा कि सुबह हुई, नहीं हुई। उनके लिए एक आम दिन है।
आपके लिए भी सारी सुबहें एक बराबर होती हैं क्या? रात आँखों में कभी नहीं काटी है? कुछ ख़ास सुबहें होती हैं न जिनका इन्तज़ार कर रहे थे? तो दिन दिन नहीं होता। दिन वास्तव में वो सम्बन्ध होता है जो आपने दिन के साथ बैठा लिया है। इस बात को भीतर उतरने दीजिए। कोई भी वस्तु, वस्तु नहीं होती। कोई भी वस्तु वो मूल्य होती है जो आपने उस वस्तु को दे दिया है, अन्यथा वो वस्तु है ही नहीं। ऐसा नहीं कि आप अगर मूल्य नहीं दोगे तो वो वस्तु मूल्यहीन है। अगर आप मूल्य नहीं दोगे तो वो वस्तु अस्तित्वहीन है। वो वस्तु है ही नहीं।
(एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) डेवियस! आपके पीछे कितने खम्भे हैं? पिलर्स? डोन्ट टर्न, हाउ मेनी ऑफ़ देम (पीछे मत मुड़िए, कितने हैं?) फ़ोर। ही डज़ंट बॉदर टू काउंट (चार। इन्होंने गिनने की तकलीफ़ भी नहीं उठायी)। अस्तित्वहीन हो गये न क्योंकि मूल्य नहीं दिया। जिस चीज़ को आप मूल्य नहीं दोगे वो अस्तित्वहीन हो जाती है।
उसको पता भी नहीं है कि पीछे कितने खम्भे हैं क्योंकि खम्भों को मूल्य नहीं दे रहा। यहाँ पर खम्भों की कीमत नहीं है। इस जगह पर आप खम्भे गिनने तो नहीं आये हो न? तो फिर यहाँ पर खम्भों का कोई मूल्य है? जब खम्भों का कोई मूल्य नहीं है तो फिर अस्तित्व भी नहीं रहा। उसको पता ही नहीं खम्भे कितने हैं। देखो अस्तित्व ही गायब हो गया। बात समझ में आ रही है?
अगर मूल्य नहीं है तो अस्तित्व नहीं है, अब इसको पलटो, अगर अस्तित्व है तो इसका मतलब? माने अस्तित्व कुछ नहीं होता, मूल्य ही सबकुछ है। तुमने मूल्य दे रखा है इसलिए अस्तित्व है, नहीं तो होता ही नहीं। और वो मूल्य क्या है जो हम किसी चीज़ को देते हैं?
तुम किसी चीज़ को कब मूल्य देते हो, बताओ अपनी ज़िन्दगी में देखकर के? जब उससे स्वार्थ होता है। तो माने स्वार्थ है इसलिए अस्तित्व है। पहले हमने कहा, ‘अस्तित्व है इसलिए मूल्य है’ फिर हमने पलटा, ‘मूल्य है तो अस्तित्व है’, फिर हमने कहा, ‘मूल्य देते ही उस चीज़ को हैं जिससे स्वार्थ है, माने स्वार्थ है तो अस्तित्व है।’ माने किसी चीज़ से स्वार्थ हट गया तुम्हारा तो उस चीज़ का अस्तित्व ही मिट जाएगा, तुम्हारे लिए।
अब यहाँ कहा जा रहा है, ‘रात और दिन ख़त्म हो जाते हैं’, इसका क्या मतलब है? रात और दिन से कोई स्वार्थ नहीं रहता। रात हो कि दिन हो, हमें फ़र्क क्या पड़ता है? कोई हमारा विशेष स्वार्थ न रात के साथ बचा है, न दिन के साथ बचा है, न अपने के साथ बचा है, न पराये के साथ बचा है, किसी के साथ नहीं बचा। तो कुछ हमारे लिए बचा ही नहीं है।
इस अर्थ में कहा जाता है फिर, वो है न कि —
“साईं की नगरी परम अति सुन्दर, जहाँ कोई आवे न जावे”
‘तो कोई आता नहीं, कोई जाता नहीं, माने?’ अरे बाबा! माने कि अब न आने से फ़र्क पड़ता है, न जाने से फ़र्क पड़ता है क्यों? न आने वालों से हमारा कोई स्वार्थ बचा है, न जाने वालों से कोई स्वार्थ बचा है। तो, अब वहाँ पर कभी कह देते हैं कि सतत् रोशनी रहती है, कभी कह देते हैं, न,
“अवधू अंधाधुंध अंधियारा।”
कभी कह देते हैं, न, वहाँ पर न चाँद है, न सूरज है, न तारे हैं। मतलब क्या है? मतलब ये है कि किसी चीज़ से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तारे हैं भी तो हमें क्या फ़र्क पड़ता है? हम कोई आशिक थोड़े ही हैं कि तारे गिन रहे हैं रात के, ‘आ रे! मेहबूबा क्या कर रही होगी?’ जो अभी आशिक हैं, उनके लिए तारे हैं। जो आशिकी वगैरह के पार निकल गये उनके लिए चाँद-तारों का कोई मतलब नहीं। विलुप्त ही हो गये, अस्तित्वहीन हो गये उनके लिए। समझ में आ रही है बात ये? इस अर्थ में कहा गया है।
समझ में आ रही है बात?
तो मुक्त व्यक्ति के लिए जगत विलुप्त हो जाता है। विलुप्त हो जाता है माने क्या? आँख खोलता है तो जगत नहीं दिखाई देता, क्या दिखाई देता है? अन्तरिक्ष दिखाई देता है, खाली, काला एक प्रसार, ऐसा होता है? नहीं। इसका मतलब अब उसे जगत से कोई स्वार्थ नहीं रहा। इस अर्थ में जगत उसके लिए विलुप्त हो गया। समझ रहे हो बात को?
“न दिन रहता है, न रात रहती है, न सत्य रहता है, न असत्य रहता है, बस कल्याणकारी शिव रहते हैं।” माने परमार्थ रहता है। स्वार्थ अब नहीं रहता। छोटे-मोटे स्वार्थ होते हैं तो छोटी-मोटी चीज़ दिखाई देती हैं। परमार्थ माने क्या होता है? जो सबसे बड़ी चीज़ है। स्वार्थ का मतलब होता है छोटी सी कामना पूरी कर ली। परमार्थ का क्या मतलब होता है? कि भीतर जो मुमुक्षा थी वो ही पूरी हो गयी। मतलब समझो। स्वार्थ का क्या मतलब है? अहम् की इच्छा की पूर्ति हो गयी। और परमार्थ का मतलब है अहम् वृत्ति की ही जो इच्छा थी उसकी पूर्ति हो गयी।
अहम् माने छोटा वाला अहंकार हमारा, ये जो रोज़ाना का होता है, दिन-प्रतिदिन का छोटा वाला अहंकार, जो क्या बोलता है? ‘गुड़ चाहिए, मिठाई चाहिए।’ और क्या चाहिए? ‘चप्पल चाहिए।’ और क्या चाहिए? ‘नया जूता चाहिए, चश्मा चाहिए, नए कपड़े चाहिए।’ ये क्या है? इसकी छोटी इच्छाएँ होती हैं क्योंकि चीज़ छोटी है। जो इनके पीछे भागता रहता है उसको बोलते हैं स्वार्थी। ‘स्व’ का अर्थ पूरा कर रहा है वो, ‘स्व’ माने छोटा वाला अहम्। वो उसकी इच्छाएँ पूरी कर रहा है, कौनसी? छोटे अहम् की छोटी इच्छाएँ पूरी कर रहा है, सो स्वार्थी हुआ।
और फिर तुम्हारी वो जो एक मूल केन्द्रीय इच्छा है, सब इच्छाओं की अम्मा है वो, मदर डिज़ायर है, एक होता है जो उसको पूरा करता है, अहम् वृत्ति, वो क्या माँगती है? वो जूता नहीं माँगती, वो गुड़ नहीं माँगती, वो कपड़े नहीं माँगती, वो क्या माँगती है? वो मुक्ति माँगती है। जब तुम वो वाली इच्छा पूरी करते हो तो उसको क्या बोलते हैं? परमार्थ।
तो स्वार्थ और परमार्थ में यही अन्तर है। छोटी इच्छा जो पूरी करने निकला, स्वार्थी। जो अन्तिम इच्छा पूरी करने निकल पड़ा वो, परमार्थी। समझ में आ रही है बात? तो न दिन रहता है, न रात रहती है, न सत् रहता है, न असत् रहता है, बस कल्याणकारी शिव रहता है क्योंकि जो तुम्हारी सबसे गहरी मूल इच्छा थी वो पूरी हो गयी, उसी को शिवत्व कहते हैं।
जो अन्तिम है, जो उच्चतम है, उसको शिव कहते हैं। छोटी-मोटी सब जो हैं वो एक तरफ हो गयीं, मात्र वो बचा जो अनन्त है, जो आखिरी है, उसी को शिव कहते हैं। वहाँ बस कल्याणकारी शिव रहता है। वह सर्वदा अनश्वर है, अनश्वर माने जो ख़त्म नहीं होता, जो मरता नहीं, नश्वर माने जो मिट जाएगा। वह सर्वदा अनश्वर है, मृत्यु से हो गयी मुक्ति।
समय तो चलता ही इसीलिए है कि अभी कुछ बाकी है। और समय अगर अभी चल रहा है तो आगे जाकर के मर जाओगे। भविष्य की बात रहती है फिर। समय चलना बन्द हो जाता है उसके लिए जिसको और अब कुछ चाहिए नहीं, जिसको कुछ चाहिए, मात्र उसी के लिए भविष्य प्रासंगिक रहता है।
कुछ चाहिए तो भविष्य चाहिए न? जो चाहिए वो भविष्य में ही तो मिलेगा, आगे चाहिए, फिर समय भी समय चाहिए। समय चाहिए तो फिर मौत चाहिए। जिसको अब कुछ नहीं चाहिए वो अमर हो गया क्योंकि उसको भविष्य नहीं चाहिए, मौत भविष्य में ही तो होती। जब भविष्य ही नहीं चाहिए तो फिर मौत भी नहीं मिलेगी। जिसे भविष्य चाहिए उसे मौत भी मिलेगी। समझ में आ रही है बात?
वो अब अनश्वर हो गया। अब नहीं, नाशवान नहीं रहा अब वो। नश, नाशवान नहीं रहा अब वो। अब उसको कह सकते हैं, अविनाशी या अनश्वर। अरे! उसकी पूजा तो वो सबसे बड़ा देवता भी करता है जिसको तुम जानते हो, सूर्यदेवता। वो भी उसकी पूजा करते हैं, माने जो तुम्हारी दृष्टि में बड़े-से-बड़ा भी हो सकता है वो उसके सामने छोटा है।
जो तुम्हारी दृष्टि में बड़े-से-बड़ा भी हो सकता है वो उसके सामने छोटा है, माने तुम्हारा बड़े-से-बड़ा स्वार्थ भी परमार्थ के सामने छोटा है। तुम्हारी बड़ी-से-बड़ी कामना भी मुक्ति के सामने छोटी है। ये सीख दी जा रही है, कि तुलना कभी भी ये मत करना कि मेरी कौनसी कामना छोटी है, कौनसी कामना बड़ी है, ये नहीं करना। ये पूछना, कौनसी कामना मुक्ति की है और कौनसी कामना बन्धनों के ही जाल के अन्दर की है। बन्धनों के अन्दर की कामना में तुमने निकाल लिया कौनसी छोटी है, कौनसी बड़ी है तो ये तो ऐसी सी बात हुई कि छोटी जेल में बन्द होना है कि बड़ी जेल में बन्द होना है। और बड़े खुश हो रहे हो कि अब बड़ी जेल में रहने को मिलेगा। कोई फ़र्क पड़ता है छोटी जेल हो, बड़ी जेल हो?
तो छोटी कामना और बड़ी कामना में तुलना नहीं करनी है। ये देखना है कि कामना में मुक्ति निहित है या नहीं। कामना होनी चाहिए, बेशक होनी चाहिए, लेकिन वो कामना आखिरी कामना होनी चाहिए। उसको अब क्या बोलते हैं? दोहराओ, मुमुक्षा बोलते हैं। मुक्ति चाहिए। कुछ चाहिए क्या? नहीं, ऐसा नहीं है कुछ नहीं चाहिए। सकाम जी रहे हैं अभी हम, कामना तो है ही, क्यों? क्योंकि बन्धन हैं, बन्धन हैं तो कामना है। पर छोटी कामना नहीं करेंगे।
बन्धनों में हैं और बोलें कि ब्रेड में जैम लगाकर ले आओ। शोभा नहीं देता। बन्धनों में हैं तो क्या माँगे? कुल्हाड़ी माँगेंगे। ब्रेड-जैम नहीं माँगेंगे, क्या माँगेंगे? कुल्हाड़ी माँगेंगे, आग माँगेंगे। शोभा दे रहा है? चारों तरफ़ बेड़ियाँ लगी हुई हैं और माँग क्या रहे हो? ‘स्ट्रॉबेरी जैम चाहिए।’ लानत है। तुम्हें क्या माँगना चाहिए? तुम्हें डाइनामाइट माँगो। ‘उड़ा देंगे सबकुछ, उसके साथ भले ही हम भी उड़ जाएँ पर उड़ाना ज़रूरी है।’ जैम की बोतलें इकट्ठा कर रहे हो!
समझ में आ रही है बात?
जो सबसे बड़ी चीज़ है वो माँगो। अतिशय महत्वाकांक्षी बनो। भीतर ये साहस रखो और अदम्य कामना रखो कि अधिकार है मेरा जो उच्चतम है उसको माँगने का। ये नहीं कहा जा रहा है कि अपनी कामनाओं का दमन कर दो। ये कहा जा रहा है कि जो सबसे ऊँची कामना है उसको माँगो।
लोग ऐसे सोचते हैं कि संसारी आदमी तो महत्वाकांक्षी होता है, उसको ये चाहिए, उसको वो चाहिए और जो आध्यात्मिक हो जाता है उसको तो कुछ नहीं चाहिए, वो साधुबाबा बन गया, वहाँ बैठा हुआ है। ‘बाबाजी, बाबाजी, बाबाजी। कुछ नहीं चाहिए। बाबाजी को दाल-रोटी दे दो। बाबाजी साईकिल पर चलेंगे।’ बेकार की बात है एकदम। आध्यात्मिक आदमी अतिशय महत्वाकांक्षी है, वो उस संसारियों पर लानत भेजता है। बोलता है, ‘इन्हें कुछ चाहिए ही नहीं। आध्यात्मिक आदमी की दृष्टि से देखो।’ वो बोलें, ‘इन बेचारों को सिखाओ, इनको माँगना सिखाओ, इन्हें चाहना सिखाओ, इन्हें कामना सिखाओ।’ संसारी आदमी कामना ही नहीं कर पाता।
उसको थोड़ा सा मिला हुआ है वो उतने में ही अपना खुश बैठा हुआ है। क्या है देखो, वो दो रोटी, अचार मिल गया, खुश है। चलो ठीक है वो फाइव स्टार होटल की रोटी है, लेकिन रोटी ही तो है। फाइव स्टार होटल की भी हुई तो क्या हो गया? रोटी ही तो है।
वहाँ वो जो बैठा हुआ है न, जिसको कभी तुम कभी साधु बोल देते हो, संन्यासी बोल देते हो, कुछ भी बोल देते हो, साधक कह देते हो। वो कह रहा है, ‘ऐसे काम नहीं चलेगा। ये रोटी-रोटी क्या चला रखा है? रोटी तो बोटी हो जानी है एक दिन। ये बात ही कैसी है? खोटी है, ये नहीं चलेगा।’
‘हमें कुछ ऊँचा चाहिए, कुछ बड़ा करते हैं भाई।’ एक साधु ने दूसरे साधु से क्या बोला? ‘भाई कुछ बड़ा करते हैं।’ सही मानो, और कोई बात वो करते ही नहीं आपस में। उन्हें कुछ बड़ा करना है। संसारी कौन है? वही छोटा, छोटा, छोटा, छोटा। बेकार की बात है। तो वही जिस तक तुम पहुँचना चाहते हो, एक काव्यात्मक तरीके से तुम्हें उस तक पहुँचने का रास्ता बताता है।
इसीलिए फिर कहा जाता है कि जो भी तुम तक ज्ञान उतर रहा है, अगर वो असली है तो वो किसी मनुष्य से नहीं आ रहा है, वो सीधे किसी ऐसे बिन्दु से आ रहा है जो आदमी के पार का है, जो संसार के पार का है। समझ रहे हो न? उसी से पुरातन प्रकृष्ट ज्ञान निस्सृत हुआ है, आदमी का नहीं ज्ञान है कि तुम बोल दो कि अरे! कृष्ण भी तो एक आदमी थे उन्होंने कोई बात बोली, हम काट देंगे। नहीं, नहीं, नहीं, अगर वो बात असली है तो किसी आदमी की नहीं हो सकती। इसीलिए फिर बोल देते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं। इसीलिए फिर जितने भी, जितनी भी दिव्य अभिव्यक्तियाँ हुई हैं उनके साथ चमत्कारिक घटनाएँ या तो जुड़ी हैं, या जोड़ी गयी हैं। इसीलिए जोड़ी गयी है, आपको ये बताने के लिए जोड़ी गयी हैं कि इनको साधारण अभिव्यक्तियाँ मत मान लेना।
समझ रहे हो बात को? ‘जपजी साहिब’ है। कहाँ से आया था? किन परिस्थितियों में उसका उद्घोष किया गया था। पता है न? कहते हैं कि नानक साहब नहाने गये थे वहाँ नदी में वो तीन दिन नदी में ही थे, फिर पानी में चलो उन्होंने सोचा बह गये, अब बचे नहीं, फिर प्रकट होते हैं और फिर वहाँ से वो जो बोलते हैं उसकी बात ही अलग है।
ये सब घटनाएँ तथ्यात्मक रूप से घटीं या नहीं घटीं वो बात ही छोटी है। प्रतीक बड़ा है, प्रतीक क्या समझाने के लिए है? प्रतीक ये समझाने के लिए है कि तुम्हें जो अभी बताया जा रहा है यहाँ पर, एक ओंकार सतनाम, वो ऐसा नहीं है किसी आदमी के दिमाग की कल्पना है और तुमको बता दी गयी, ‘क्योंकि फिर किसी, किसी आदमी के दिमाग की है तो फिर उसे दूसरा आदमी काट भी सकता है।’ नहीं काट सकते। आदमी से नहीं आ रही है। कहीं अलग जगह से आ रही है।
अब इसका ये मतलब भी नहीं है कि पानी के अन्दर आकर के, कोई देवदूत था, जो बता गया। इसका ये मतलब भी नहीं है कि उपनिषद् कोई आसमान से बरसे हैं। इसका मतलब ये है कि तुम जो हो न तुम, तुम्हारे अन्दर भी कुछ ऐसा है जो मनुष्यता के पार का है। मनुष्य मनुष्य ही नहीं है, मनुष्य के भीतर मनुष्य से आगे का भी कुछ है। और मनुष्य के आगे का जो है मनुष्य के भीतर ही कभी-कभी वो बोल पड़ता है। जब वो बोल पड़े तो एकदम कान खड़े कर देना और सिर झुका देना।
हमेशा ऐसा होता नहीं है, हमेशा ऐसा बिलकुल नहीं होता है कि इंसान के भीतर से वो बोल पड़े जो इंसान नहीं है लेकिन कभी-कभी वो बोलता है। उसी घटना को यहाँ पर इंगित किया गया है। उसी से पुरातन प्रकृष्ट ज्ञान निस्सृत हुआ है, उसी से आया है। इंसान से नहीं आया है, इंसान, इंसान की ज़बान चलती है, इंसान के होंठ चलते हैं। इंसान से शब्द उठते हैं। लेकिन शब्दों में जो प्राण हैं, शब्दों में वो जो बात है वो कहीं और से आ रही है, अगर वो शब्द असली हैं।
ऐसा नहीं है कि आम सब्ज़ी-भाजी कि बात हो रही है कि वहाँ भी तुम कह दो कि ये शब्द कहीं और से आ रहे हैं। ‘टिंडा कितने रूपये पाव दिया भैया?’ और बोलो, ‘ये बात मैंने थोड़े ही पूछी है। ये तो एक दिव्य प्रश्न है, आसमानों से उतरा है।’ वो आसमानों से नहीं उतरा है। लेकिन कुछ बातें ऐसी होती हैं जो इतनी अघट होती हैं, इतनी अकल्प्य होती हैं, इतनी अविश्वसनीय होती हैं कि तुमको ये कहना ही पड़ेगा कि वो अपौरुषेय हैं, इंसानी नहीं हैं। आयी इंसान से ही हैं पर फिर भी इंसानी नहीं हैं। मतलब ये कि इंसान के भीतर ही कुछ ऐसा है जो इंसानी नहीं है। जीवन का मकसद है उसी तक पहुँच जाना।
जीवन का मकसद है अपने सब छिलकों को, अपने परतों को उतारते जाना ताकि भीतर बस वो बचे जो तुम्हारा ही है लेकिन बिलकुल तुम्हारे जैसा नहीं है। तुम्हारा ही है, तुम्हारे जैसा नहीं है। अपने सब नकली छिलकों को उतार दो फिर जो भीतर बचता है वो तुम हो। बाकी बाहर क्या है? कुछ नहीं, ऐसे ही आवरण। स्पष्ट हो रहा है?
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