सांख्ययोग और कर्मयोग में क्या अंतर है?

Acharya Prashant

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सांख्ययोग और कर्मयोग में क्या अंतर है?

आचार्य प्रशांत: एक बात होती है घाव पर मलहम लगाना, एक बात होती हैं घाव को छुपाना, और एक तीसरी बात होती है घाव को व्यर्थ जान लेना। दूसरी और तीसरी बातें तो बहुत आगे की हैं। क्या हम सारे ज्ञान का उपयोग उसी लिए नहीं करते जिस लिए अर्जुन कर रहे हैं? कि मालिक आपने बताया कि ज्ञान बड़ी बात, आइए न, चलें उधर को अब, मिल तो गया ज्ञान।

रविवार को ग्यारह बजे सत्र में उपस्थिति दर्ज तो करा दी, हो गया। अब संग्राम में जूझने की क्या कीमत? बैठ तो आये, सुन तो आये, ज्ञान तो मिल गया, जीना थोड़े ही है अब, करना थोड़ी ही है।

होना थोड़े ही है, सुनना है। होना नहीं है, सुनना है।

सुन तो लिया, जान तो लिया (हाथ से कान की तरफ़ इशारा करते हुए)। अब जब जीवन जवाब माँगेगा तो उसे श्लोक सुना देंगे। अब जब पूछा जाएगा कि क्या करें, तो कह देंगे, ‘तुम कर्ता ही नहीं हो, तो तुम्हारे करने का क्या सवाल?'

अर्जुन होने की एक विवशता ये भी है कि वो जितना श्रीकृष्ण से आकर्षित होगा, करीब-करीब उतना ही श्रीकृष्ण से डरेगा भी, भागेगा भी, बचने की कोशिश भी करेगा। बड़ी मजबूरी है अर्जुन होना, बड़ी फटेहाली है। फट ही जाता है, चिर जाता है। एक तरफ़ तो उसे तमाम लौकिक धर्म खींचते हैं, ज़िम्मेदारियाँ, कर्त्तव्य। और जैसे कि वो काफ़ी न हो, फिर श्रीकृष्ण भी खींचते हैं। अब फटेहाली नहीं होगी तो कौनसी होगी?

क्या करेंगे आप कर्मयोग का, उसे भी आप ज्ञान ही बनाएँगे? कर्मयोग के आगे धीरे से, छोटे अक्षरों में लिख देंगे ‘ज्ञानयोग’। हमारे लिए तो सबकुछ ज्ञान मात्र है। सुन जाएँगे, गुज़र जाएँगे। क्या कहते हैं श्रीकृष्ण फिर?

श्रोता:

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३.३।।

श्री भगवान बोले, 'हे निष्पाप! इस श्लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है।

आचार्य प्रशांत: एक अब नया दरवाज़ा खोलना पड़ रहा है श्रीकृष्ण को, क्योंकि पुराने को तो अर्जुन ने बन्द ही कर दिया। कहते हैं, ‘अर्जुन, अरे! दो प्रकार के योगी होते हैं, तूने अभी एक ही सुना था, ठहर। जो एक तूने सुना उसको तो तू पी गया, वो तो तेरे ऊपर निष्फल गया, बेअसर हो गया। पर ठहर, एक और है, ‘कर्मयोगी’। योग का भी विभाजन करना पड़ रहा है — सांख्ययोग, कर्मयोग।

अरे! योग माने ही होता है , जो एक है, पर जब श्रीकृष्ण जैसा पहुँचा हुआ प्रश्नकर्ता हो, तो योग के भी खण्ड-खण्ड करने पड़ते हैं। अभी तो सांख्ययोग के बाद कर्मयोग ही आया है, अभी तो योगों की झड़ी लगेगी, एक के बाद एक, एक के बाद एक। योग के कोई दस-पच्चीस प्रकार होते हैं। योग-तो-योग है। पर चूँकि अर्जुन — जो सीधी-सरल विधि है उसको बेअसर किये दे रहा है, तो इसीलिए उसी बात को अब दूसरे शब्दों में कहा जाएगा।

कुछ ऐसा नहीं है श्रीमद्भगवद्गीता के किसी अध्याय में जो अन्य अध्यायों में न हो। गीताकार सत्यवादी है और सत्य अठारह तरह का नहीं हो सकता। हाँ, अठारह अलग-अलग मन की स्थितियाँ हो सकती हैं। उन स्थितियों के अनुकूल अठारह प्रकार के वक्तव्य हो सकते हैं, पर वो सारे वक्तव्य इशारा एक ही ओर को कर रहे होंगे, उनमें भेद देखना मूढ़ता है।

अब जो बात कहेंगे श्रीकृष्ण, वो कुछ और नहीं है, वो सांख्ययोग का ही विस्तार भर है। उसको आप समझिएगा कि सांख्ययोग ही दूसरे शब्दों में कहा जा रहा है। या पलट कर कह लीजिए कि अगर आप कर्मयोग समझ गये तो जान लीजिएगा कि सांख्ययोग भी वही है। आप कुछ भी समझ गये तो सबकुछ समझ गये। “एक साधे सब सधे।”

और जो ये प्रमाण पाता हो अपने जीवन में कि वो कहीं भी उलझा हुआ है, वो ये भी जान ले कि वो सर्वत्र ही उलझा हुआ होगा। क्योंकि सुलझाव जैसे सार्वभौमिक होता है, वैसे ही उलझाव भी। ये नहीं हो सकता कि कुछ-कुछ खास मौकों पर आपकी स्पष्टता सोने या आराम करने चली जाती हो। स्पष्टता है तो निरन्तर है, नहीं है तो नहीं है।

कुछ क्षणों में अगर आपको प्रतीत होता है कि आप अन्धेरे में हैं, तो ये जान लीजिए कि बस उन क्षणों में आपकी आँखें खुल रही हैं अन्धेरे को देख पाने के लिए। बाकी समय आप रोशनी का सपना ले रहे हैं, क्योंकि जो आँखें देख सकती हैं, वो कभी-कभी नहीं देखेंगी, वो रुक-रुककर, अवकाश ले-लेकर के नहीं देखेंगी। बोध जब प्रदीप्त होता है तो उसकी रोशनी चुनिन्दा जगहों पर ही नहीं पड़ती, वो दीया समय देखकर के नहीं जलता।

तो सांख्ययोग को बेअसर जाता देखकर के अर्जुन से तर्क नहीं करेंगे श्रीकृष्ण। ये नहीं कहेंगे कि अरे! तुझे मैंने समझाया था, उस ज्ञान में ही तुझे कर्म न दिखाई दिया? वो कहने को सांख्ययोग था, पर उसमें साफ़-साफ़ तो मैंने इंगित किया था कि अब कर्म कैसा होना चाहिए, तुझे वो समझ नहीं आया?

वो कहते हैं, ‘हाँ, हाँ, ठीक-ठीक, ठीक।’ जैसे कोई बाप हो और वो दायें हाथ से अपने बच्चे को मिठाई देता हो और बच्चा बोले कि नहीं चाहिए मिठाई, नहीं खानी (हाथ से इन्कार का संकेत करते हुए)। और मिठाई में मिली है दवाई, तो बाप हाथ यूँ पीछे ले जाए पीठ पर (दोनों हाथ पीछे करके) और वही मिठाई दवाई ले बायें हाथ में और बोले,‘ठीक है, वो मत लो, वो बेकार गया। देखो, एक दूसरे प्रकार की भी योगी दवाई होती है, उसे कर्मयोग बोलते हैं, तुम ये लो, तुम इसे खाओ।

और बच्चा कहे, ‘अब ठीक है, वो पुरानी वाली बहुत बेकार थी। ये जो नयी वाली है ये ज़्यादा ठीक है।' ये दूसरी है, क्यों? क्योंकि ये बायें हाथ से आ रही है। हाथ का नाम बदल गया है न, तो ये दूसरी है। कर्मयोग अब वैसा ही है, श्रीकृष्ण तैयार हो गये हैं। अर्जुन ने सवाल पूछकर के जता दिया है कि वो कहाँ पर खड़ा है। उन्होनें उसको डाँटा भी नहीं, उन्होंने उसे और समझाया भी नहीं।

सांख्ययोग श्रीमद्भगवद्गीता के सबसे लम्बे अध्यायों में से है। श्रीकृष्ण ने एक बार माथा पकड़कर ये भी न कहा कि अर्जुन, इतना बोलने के बाद तुझे यही समझ आया कि ज्ञान मिल गया है तो अब कर्म क्यों करें? ज़रा भी वो हतोत्साहित नहीं हुए। जो उत्साह की भाषा में बात करता हो वो श्रीकृष्ण है ही नहीं। तो उन्होनें कहा, ‘ठीक बेटा, आ गयी बात समझ में, तुम कहाँ पर खड़े हो। हमने जो बोला था, हम उसे निरस्त करते हैं, वापस खींचा, लो, तुम दूसरी चीज़ लो।

तो अब ये जो दूसरी चीज़ है ये अभी शुरू होती है। ठीक है? लेकिन आप तक तभी पहुँचेगी जब आप अर्जुन हैं।

ये बात अभी भी बोल रहा हूँ, ये बात मैं लगातार आगे भी बोलता रहूँगा — श्रीकृष्ण के वचनों का मोल पीछे है, आपके अर्जुन होने का मोल आगे है। आप जान लें कि आप अर्जुन हैं, उसके बाद गीता आपको भले शब्दरूप में उपलब्ध न हो, कहीं और से मिल जाएगी। और जब तक आपने अपने अर्जुन होने को जाना नहीं, तब तक गीता सौ नहीं दो- सौ बार बाचिये, आपके लिए है ही नहीं।

फिर पूछ रहा हूँ, ‘गीता किसके लिए है?’

श्रोता: अर्जुन के लिए।

आचार्य प्रशांत: अर्जुन के लिए। आप अर्जुन नहीं तो गीता आपके लिए नहीं, समय न नष्ट करें अपना। जो लोग यहाँ कुछ और होकर बैठे हों, उन्हें नहीं सुनायी पड़ेगा, ठीक वैसे जैसे कि एक फ्रीक्वेंसी (आवृति) पर कोई प्रबोधन आ रहा हो और आप उस फ्रीक्वेंसी पर हैं ही नहीं तो आपको सुनायी पड़ता है क्या? उत्तर दीजिए।

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: बात अर्जुन के लिए आ रही है, आप रामलाल होकर बैठे हैं। तो आपके पास पासवर्ड (गुप्त कुँजी) ही नहीं है, चीज़ आ गयी है खुलेगी ही नहीं। पासवर्ड क्या है?

श्रोता: अर्जुन।

* आचार्य प्रशांत: अ- र- जु- न, वो है ही नहीं आपके पास। आप क्या डाल रहे हो उसमें? रा- म- ला- ल, वो खुलेगा ही नहीं। अब लिखोगी उ- र- व- शी। डालती रहो, थोड़ी देर में ब्लॉक (रोकना) और कर दी जाओगी। हैं अर्जुन आप? सुनायी दे रही हैं नगाड़ों की आवाज़, शंख, भेरियाँ? हाथियों का चिंघाड़ना, घोड़ों की हिनहिनाहट, शस्त्रों की टंकार, सुनायी दे रही हैं?

दिल में आग लगी हुई है, गत वर्ष असफल से लगते हैं, अज्ञातवास से होकर गुज़रे हैं, अन्याय का सामना करा है? कहिए?

श्रोता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: रिश्तों में उलझे हैं?

श्रोता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: हुआ है? दादाजी से परेशानी मिली है? बीवी ज़िद्दी है?

श्रोता: ज़िद्दी है।

आचार्य प्रशांत: (मुस्कुराते हुए) ये सब है अगर तब तो ठीक है। और अगर आप अपने आपे में ही बैठे हुए हैं, तो फिर फ्रीक्वेंसी ही अलग है न। समझिए ध्यान से कि अर्जुन अभी संयत नहीं है। आपको भी अपने भीतर चल रहे तूफ़ान के रू-ब-रू होना होगा। आप अगर ऊपर-ऊपर शान्त होकर बैठ जाते हैं, आप अगर स्वीकार ही नहीं करते कि भीतर कितना शोर है, कितने नगाड़े बज रहे हैं, तो बात नहीं बनेगी, बिलकुल नहीं बनेगी।

फिर, फिर आप वही होगा कि ज्ञान लेकर चले गये। आप ऐसे सुन लेते हैं, सुन लेते हैं (हाथ से सुनने का इशारा करते हुए) आप सोचिए वहाँ दो-चार अगल-बगल सैनिक घूम रहे हों। भई, जहाँ कहीं भी भगवद्गीता कही गयी होगी, कही तो गयी है — माना हमने कि ऐसा नहीं हुआ है कि वेद व्यास ने एकान्त में लिख दी है। बातचीत तो हुई होगी?

और वो कहीं किसी ने ज़रा सुन ली तो उससे कोई उपलब्धि हो गयी? मानिए कि रणक्षेत्र में कही जा रही है, अब एक प्यादा घूम रहा है बगल में, खड़े तो रहे होंगे दो-चार न? अर्जुन धनुर्धर है, बड़ा योद्धा है, तो कुछ दो-चार तो खड़े रहे होंगे आस-पास?

श्रोता: बीच में चले गये थे।

आचार्य प्रशांत: अरे! बीच में भी चले गये, मान लिया कोई आ गया छोटा-मोटा, कीड़ा-मकौड़ा, कोई तो चीज़ रही होगी? अरे! घोड़े तो थे? और उन्होंने सुन लिया। तो उन्हें भी ज्ञान मिल गया? बोलिए?

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: या कुछ और हो गया, कोई और तरकीब लगा दी गयी, कोई रिकॉर्डर वगैरह रख दिया हो बगल में, डायरेक्ट रिले कर दिया, स्काइप (चलचित्र दूरभाष) कर लिया, कुछ हो गया।

श्रोता: संजय बाबू कर भी रहे थे।

आचार्य प्रशांत: कर ही रहे थे संजय बाबू, तो वहाँ बड़े महाराज, राजा जी भी तो बैठे हुए थे, वो भी तो सब सुन ही रहे थे, कौन?

श्रोता: धृतराष्ट्र।

आचार्य प्रशांत: तो उन्हें मिल गया ज्ञान? कि संजय को हो गया मोक्ष?

श्रोता: नहीं।

आचार्य प्रशांत: अब आप यहाँ पर धृतराष्ट्र होकर बैठेंगे, आँखें बन्द करे, तो आपको क्या मिल जाना है? गीता के वचन अर्जुन के अलावा जिसके भी कानों में पड़ेंगे, निष्फल जाएँगे। आप यहाँ क्या होकर बैठे हैं, सही-सही बताइए?

श्रोता: अर्जुन।

आचार्य प्रशांत: मैं आपको इतना परेशान कर रहा हूँ कि अगली बार से आप ऐसा न हो धनुष-बाण ही लेकर आ जाएँ, कहें, ‘ऐसे तो ये मानते ही नहीं कि हम कौन हैं? अब जब पूछेंगे कौन हो, तो दिखा देंगे, ये, यही हैं!’

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=RHcCWsLHN84

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